प्रकाशक अच्चोक प्रकाशन मन्दिर ४३, २, इस मदनी, वाराणसी वी० नि० सं० २४८६ प्रथम संस्करण ४५००७ मूल्य १) मुद्रक पं० शिवनारायण उपाध्याय नया संसार प्रेस, भदैनी, वाराणसी-१ अःत्म-निब्दन लगभग तीन वर्ष पर्व जबलपुर अधिवेशनके समय झ० भा० दि० जेन विद्वत्यरिपदने एक प्रस्ताव पारित सार निश्चय-ब्यवहार और निमित्त- ज्पादान श्रादि विपयोके सांगोपांग विशद बिवेचनकों लिए हुए एक निवन्‍्ध ज़िसे जानेकी आवश्यकता प्रतिपादित की थी । पहले तो मेरा इस ओर विशेष स्यान नहीं गया था किन्तु इसके कुछ ही दिन बाद जब कलकत्तानियासो प्रिययन्ध बंशोचरजी शास्त्रों, एम०ए० ने मेरा ध्यान इस ओझोर पुनः पुनः विशेषरुपसे आरुष्ट किया तब अवश्य हो मुझे इस विप्रपर विचार करना पट्टा । प्रस्तुत पुस्तक उस्ीका फल हैं । पुस्तक लिसे जानेके बाद अपना कर्तव्य समन्दकर सर्वप्रथम मेने इसको सूचना विद्वत्परियदकों दी । फलस्वरूप मेरे ही नगर बीना १५ |] इटाबरामें जब विद्यानोंकों सम्मति पूर्व विद्दगोप्ठीका जो प्रमिद्ध आयोजन हुश्या उसमें समाजके लगभग ४श विद्वानोंने श्र कतिपय प्रमुख त्यागो महानुभावोंने भाग लिया । उनमेंसे कुछ प्रमत्न त्यागी और बद्मानोंके नाम इस प्रकार हैं--१ कद्धेय पं घरजी न्यायालंकार, २ श्रोमान्‌ ब्र० हुकमचन्दजी सलाबा, ३ शक्रीमान्‌ प० जगन्मोहनलालजी शास्त्री कटनी, ४ श्रीमान्‌ पं० कैलाशचन्द्रणी शास्त्री बाराणसो, ५ श्रीमान्‌ पं० जीवन्चरजी न्यायतीर्थ इन्दीर ६ श्लीमान्‌ पं« दयाचन्द्जी शास्त्री सागर, ७ श्रीमान्‌ पं० पस्तालालजी साहित्याचार्य सागर, ८ प्लीमान्‌ प्रो० खुशहालचन्दजी एम० ए०, साहित्याचार्य वाराणसी, ९ क्षीमानू पं० नाथूलालजी संहितासूरि इन्दोर,१० श्रीमान्‌ पं०्लालबहादुर जी एम०ए०, साहित्याचार्य दिल्‍ली, ११ श्रीमान्‌ पं० बंशीधरजी व्याकरणाचार्य बीना, १२ शल्रीमान्‌ पं० बालचंदज्ञी शास्त्री सोलापुर, १३ श्रीमान पल, डा० राजकमारजी एम« ए०, साहित्याचार्य आगरा, और १४ श्रीमान्‌ पं० श्रभवचद्धजी शास्त्री आ्रावुर्वेदाचार्य विदिशा श्रादि । शा: विह्ददूगोप्ठीका कार्यक्रम प्रसिद्ध शुततिथि श्रुतपंच्रमीसे प्रारम्भ हेकर लगभग एक सप्ताहका रखा गया था। उसमे पस्तुत पुस्तकके बाचनके साथ विविध विपयोपर सांगोपांग चरचा होकर श्रन्तमें बिद्वत्वस्पिदकी कार्यकारिणीने इस सम्बन्धमे सर्वमम्मतिस एक प्रस्ताव पारित किया । प्रस्ताव १० दयाचन्दजी शास्त्री सागरवालोंने उपस्थित किया था। तथा उसका समर्थन और अनुमोदत श्रोमान्‌ प॑० जीवन्वरजों न्‍्यायतीर्थ ओर क्र० हुकमचंदजीने किया था। पूरा प्रस्ताव इन शब्दंमें है-- 'ारतवर्षीय दि० जैन विद्व त्यरिपद्के जबलपुर अधिवेशनके प्रस्ताव पंस्या २ से प्रेरणा पाकर दाननीय पं> फूलच न्द्रजी शास्त्री बाराणमीने निमित्त-उपादान ब्रादि विपयोपर शोधपुर्ण स्वतन्त्र पुस्तक लिखी है। शास्त्रीजीकी इच्छा थी कि इस पुस्तकपर भारतवर्पीय दि० जैन विद्वत्परिपद्‌ के द्वारा आयोजित बिद्वदुगोप्ठीमे विचार विनिमय हो । तदनुसार दि० जैन समाज वीना सागरने श्रुत॒पंचमीसे ज्येप्द शुकबला १२ ( ३० मरईसे ८ जून तक ) अपने यहाँ बिद्ग दगोप्ठीका उत्तम श्रायोजन किया । दि० जैन समाजके वर्तमान इतिहासमें बह पहला अवसर था जब इतने समय तक ४ घंटे प्रतिदिन सव विचारोंके बिद्दानोंने मतभेद होनेगर भी महत्वपूर्ण विषयोंपर गम्मीरता, ततपरता तथा सीहादपूर्वक्त विवेचन दिये और उस अवसरपर अनेक सुझावोंका आदान-प्रदान किया गया । यह कार्यकारिणी शास्त्रीजी द्वारा पुस्तक लेखनमें किये गये श्रथक परिश्रमको सराहना करती है । . च्तुत पुस्तकका नाम चहुत कुछ सोच विचारकर और शोमान ९ बलाशचच्धजों शास्त्री प्रभूति विद्वानोंसे सम्मति मिलाकर जैनतर्व- मीमांस। हों उठ ५० हवन ! रखा हैँ जो उसमें प्रतिपादित विपयके अनुरूप हैं। इसका ( ३) “प्रावकथत” समाजमान्य प्रसिद्ध विद्वान पं० जगम्मोहनलालजी शास्त्रों कटनीने लिखा हैं। मेरी समभसे अपने प्रायकथनमें उन्होंने बड़े ही व्यवस्थित ढंगसे नपे-तुले शब्दोंमें उन सभी विपयोंको चरचा कर दी है जिनका विस्तृत विवेचन प्रस्तुत पुस्तकमें किया गया है। प्रावक्रथनमें पशिइतजीने श्रौर भी असेक विपयोंकी प्रासंगिक चरचा की हैं । प्रसंगसे मेरे विषयमें भी दो शब्द लिखे हैं। में उनका किन शब्दोंमें श्राभार मानूँ यह समभके बाहर है [ परिड्तजीके प्रति अपनी कृतनजता व्यक्त करता हुआ इतना ही लिखना पर्याप्त हैं कि वस्तुतः मुझमें प्रशंसाके योग्य एक भी गुरा नहीं है । दूसरेको बढ़ावा देना इसे उनकी सहज प्रकृति ही कहनी चाहिए । उनकी श्रोरसे हमें प्राय; प्रत्येक कार्यमें प्रोत्साहन और सहयोग मिलता आ रह! है। उसका यह भी एक उदाहरण हूँ । यहाँ इतनी चात विशेषरूपसे उल्लेखनीय है कि अशोक प्रकाशन मन्दिर? इस नामसे प्रस्तुत पुस्तकके प्रकाशनका भार मैंने स्वयं बहन किया है । यदि अनुकूलता रहो श्लीर उचित सहयोग मिल सका तो कविवर बनारसीदासजी, कविवर दोलतरामजी, कविवर भूवरदासजी, कविवर भैया भगवतीदासजी, कविवर भागचंदजी आदि प्रौढ़ अनुभवी विद्ानोंने. अध्यात्मके रहस्यको प्रकाशमें लानेवाला जो भी साहित्य लिखा है उसे संकलित करके योग्य सम्पादन और टिप्पण श्रादिके साथ इस नामसे प्रकाशित करनेका मेरा विचार है ।-तथा इसी प्रकारका जो भी संस्कृत प्राकृत साहित्य होगा उसे भी इसो नामके श्रन्तर्गत यथावसर प्रकाशित किया जायगा । इतना अवश्य है कि यह स्वयं कोई संस्था नहीं है भौर न इसे संस्थाका रूप देनेका मेरा विचार हैं, अतएव जिन महानुभावोंके सहयोगसे यह साहित्य प्रकाशित होगा वह प्रकाशित होनेके बाद उनके स्वाधीन करता जाऊँगा। अध्यात्म जैनधर्मका प्राण है और ऐसे साहित्य . से उसके रहस्यके प्रकाशमें आनेमें सहायता मिलती है तथा साहित्यका यह प्रमुख अंग पूरा होना चाहिए मात्र इसी पुनीत श्रभिप्रायसे मेरी इसे ( ४) सम्पादन संशोचनके साथ प्रकाशित करनेक्नी भावना है, अन्य | हैं। तथा इसी भावनावश वह पुस्तक श्रति स्वत मूल्यम लिए सुलम रहे इसलिए मेने इसका मूल्य मात्र १) रुखा +54॥] इससे लागतमे जो भी कमी होगी उसकी भविष्यमे पति हो जानेकी «. इस प्रकार प्रस्धत पस्तकका प्रास्म्भसे लेकर उसके प्रकाशित होने कक्ता यह नंज्षिप्त इतिहास हैं । इसमें पृत्रमें उल्लिखित विह्यन, त्यागी तथा अन्य प्रगट और अ्रप्रग्ट लिन-जिन पुएय पुरुषोंका हाथ है उत सबका में ब्राभारी ही नहीं इतन भो हूँ । अच तो यह पुस्तक प्रकाशित होकर सबके समच दया ही रही है। हमें भरोसा हूँ कि मार्मप्रभावनाक्े लिए प्रवचन भक्तिमे प्रेरित होकर किये गये इस मंगल कार्यमें अवतक हमें सबका जो ८ उत्साह पूर्ण सहयोग मिला हैं, उनमें उत्तरोत्तर वद्धि हो होगी। से मिरुचि हैं यह उसीका फल निश्चयसे माचमामम जा मंरों अनन्य भ्निरुचि हैँ बह उसीका फल हठँ । निश्चयसे 4] | ठ्र श्घे द 4 छ$ | लि दि ब्् हित | अत्यक्कयन जैनधर्म 'जिन? का धर्म है । जिन वे हैं जिन्होंने अपने विकारों पर पुरुषार्थ द्वारा विजय प्राप्त कर निज स्वरूप प्राप्त कर लिया है। जैनधर्म का मुख्य नाम आत्मधर्म है।यह तो आगम, अनुभव श्रौर युक्तिसे ही सिद्ध है कि संसारमें जड़ और चेतन जितने भी पदार्थ हैं वे सब स्वतन्त्र हें । जो शरीर संसारी जीवके साथ वाद्य दष्टिसे एक्च्षेत्रावगाही हो रहा है वह भी पृथक है । वस्तुतः इस सनातन सत्यका बोध न होनेसे ही यह जीव अपने को भूला हुआ हैं । उसके दुखका निदान भी यही हैं । यद्यपि यह संसारी जीव दुखसे मुक्ति चाहता है, परन्तु जब तक श्रात्मा-अनात्माका पड होकर इसे ठीक तरहसे अपने झ्रात्मस्वरूपकी उपलब्धि - नहीं' होती तब तक इसका दुखसे निवुत्त होना श्सम्भव है। सबसे पहले इसे यह जानन जरूरी है कि मेरे ज्ञान-दर्शनस्वभाव आत्मासे भिच्च अन्य जितने जड़- चेतन पदार्थ हैं वे पर हैं। उनका परिणमन उनमें होता है और श्ात्माका पदार्थ हैं वे पर हैं । उनका परिणुमन उनमें होता है और श्रात्माका परिणमन आत्मामें होता है । एक द्रव्य दूसरे द्रव्यको बलातू नहीं परिणमा सकता । यद्यपि काकतालीय न्यायसे कभी ऐसा प्रसंग उपस्थित हो जाता है कि हम पदार्थका जैसा परिणमन चाहते हैं और उसके लिए प्रयत्न करते हैं, पदार्थका वैसा परिणमन होता हुआ देखा जाता है, इसलिए हम मान लेते हैँ कि इसे हमने परिरणमाया, अन्यथा इसका ऐसा परिणमन न होता | किन्तु यह मानना कोरा भ्रम है और यही भ्रम संसारकी जड़ है। भ्रतएव सबसे पहले इस संसारी जीवको अपने आत्मस्वरूपकी पहिचानके साथ इसी अ्रम को दूर करना है। इसके दूर होते हो इसके स्वावलम्बनका मार्ग प्रशस्त हो जाता है । स्व्रालम्बनका मार्ग कहो या मुक्तिका मार्ग कहो, दोनों कथनों 'का एक ही अशिप्राय है। अतीत कालपें जो तोर्थकर सन्त महापुरुष हो ( ४६) | गये हैं वे स्वयं इस मार्गपर चलकर मुकितिके पात्र तो हुए ही। दूसरे संसारी प्राणियोंको भी उन्होंते श्रपतों चर्या और उपदेश हारा इस सनन्‍्माग के दर्शन कराये । यह तो अतीत कालको बात हुई । वर्तमान युगकी दृष्टिसि यदि विचार करते हैं तो इस यूगमें भो ऐसे अ्यर्ित सन्त महामुनि हो गये हैं जो स्वयं तीर्थ करोंके मार्मपर चलकर अपने उपदेशद्वारा उसका दर्शन कराते थ्रा रहे हैं। उनमें परम पूज्य कुन्दकुन्द श्राचार्य प्रमुख्र हैं । उनके द्वारा प्रणीत समयसार, प्रवचनसार, पञचास्तिकाय श्रीर नियमसार श्रादि ग्रन्थ संसारकी चालू परियाटीसे भिन्न आत्मस्वरूपका दर्शन कराते हैं। उनके इन उपदेशोंसे लीकिक जन॑ विचकते हैं । उन्हें ऐसा मालूम पड़ता हैँ कि जिन आधारों पर हम अपना श्रस्तित्व मानते आरहें हैं वे खिसक रहे हैं । उनके खशिडत हो जाने पर हम निराधार हो जावेंगे और हमारे श्रस्तित्वका लोप हो जावेगा । पर उनका यह भय वृथा!है । वास्तविक खतरा तो परके आश्रयमें ही है । उसे तो अनादिकालसे उठाते आये । श्रव तो स्व! की भूमिका पर आनेकी बात है । आत्मामें स्वाधीन चुखका विकाश उसीसे होगा । यह हम मानते हैं कि इस जोवकी श्रवादिकालसे प्रावलम्बन॒की वासना बनी हुई है, इसलिए उसे छोड़नेमें दुल होता हैं । परन्तु स्वाधीन सुखको हुई है, इसलिए उसे छोड़नेमें दुख होता हैं । परन्त स्वाधीन सखको प्राप्त करनेके लिए प्राधीनताका त्याग करना ही होगा । स्वाधीन सुखको प्राप्त करतेका श्रत्य कोई मार्ग नहीं है । इस दृष्टिसि आचार्य महाराजने अपने ग्रल्थमें जो तात्विक विवेचन किया है वह जैनधर्मका प्राणभूत है। अन्य समस्त आचार्यों ने जैवधर्मके सिद्धान्तों, आचारों और विचारोंके विपयमें जो कुछ भी लिखा है उसकी भ्राधार शिला आचार्य कुन्दकुन्दकी तत्त्वप्र्षणा ही है। इस संसारी जोवकों शुद्ध आत्मतत्त्वकी उपलब्धि “उनके बताये हुए सार्गपर चलनेसे ही होगो, इसकी प्राप्तिका श्रन्य कोई उपाय नहीं है। इस दृष्टिसे यह आवश्यक प्रतीत हुआ कि इस विपयका ( ७) सरल सुबोध भापामें स्पष्टीकरण करनेके लिए तथा श्रन्‍्य अनुयोगोंके शास्त्रोंमें प्रतिपादित विपप्रोंका अ्रध्यात्मशास्त्र के साथ कैसे मेल बैठता हैं इस विपयको स्पष्ट करनेके लिए एक पुस्तक लिखी जाय । प्रसन्नताकी बात है कि भा० दि० जैन विद्वत्वरिषदुका इस ओर ध्यान झ्लाकपित हुआ्ना शझौर उसने अपने जबलपुरके अधिवेशनमें इस झ्ाशयका एक प्रस्ताव पारित कर विद्वानोंका इस पुनीत कार्यके लिए आ्वान किया । उबत आधारपर सिद्धास्तशास्त्रके ममज्ञ वेत्ता श्रीमान्‌ पणिडित फूलचन्द्रजी सि० शा० बाराणसीने इस ओर ध्यान देकर यह 'जैनतत्त्वमीमांसा? पस्तक को रचना की हैं | परिडतजो जैन सिद्धान्तके मननोय उच्चकोटिके विद्वानों में गएमनीय विद्वान हैं ! इन्होंने दिगम्वर जैनाचार्योद्यारा लिखिंत मूल सिद्धान्त ग्रन्थ पट्खएडागमका अनेक वर्षोतक अध्ययतत मनन किया है। तथा ग्रन्थराजका हिन्दी भाषामें भाषान्तर सम्पादन किया हैं। अलमभ्य दर्शनशास्त्र फे योग्य माने जानेवाले ग्रन्योंकी ओर उनको महान्‌ विस्तृत गम्भीर - संस्कृत-प्राकृत टीकाश्रोंको हिन्दी भाषामें सुगम सुबोच शैलीमें प्रतिपादन करना सरल कार्य नहीं हैं । इस समय भी इनके द्वारा कसाय- पाहुड ( जयधवला ) और मूलाचारके भाषान्तरका कार्य हो रहा है । ऐसे अनुभवी ज्ञानी विद्ानकी लेखनोसे लिखा जाकर प्रस्तुत ग्रन्थ जनताके सामने आ रहा है । प्रस्तुत ग्रन्थमें १९ श्रधिकार हैं । उनके नाम ये हैं--१ विपयप्र वेश, ,२ वस्तुस्वभावमीमांसा ३ निमित्तकी स्वीकृति, ४ उपादान-निभित्तकारण- मीमांसा, ५ कतृ कर्ममोमांसा, ६ पद्कारकमीमांसा, ७ क्रमनियमित- पर्यायमीमांसा, ८ सम्यक नियतिस्वरूपमीमांसा . ९ निश्चय-व्यवहारमीमांसा १० श्रनेकान्त-स्याह्ददमीमांसा, ११ सर्वज्ञस्यभावमीमांसा और १२ उपादान-निमित्तसंवाद | प्रत्येक श्रध्यायमें वर्णित विषय अपनेमें पूर्ण हैं। विपय प्रतिपादन (८) अनेक उच्चकोटिके आगम, दर्शन, न्याय आदि ग्रन्थोंके प्रमाण देकर किया गया है । अनेक महान्‌ ग्रन्थोंके जो प्रमाण प्रस्तुत किए गए हैं और उनके आधारसे जो ठत्त्त फलित किये गये हैं वे मेरी श्रद्धानुनार वर्तमानमें तत्वजिनासुओंके वहुनते उलके हुए विचारोंके सुलभानेमें मार्गदर्शन करते हैं। साथ ही अनेक घर्मग्रस्योंपें कहाँ किस दृष्टिकोणसे तत्त्का प्रतिपादत किया गया है इसे समभलेमें महायता करते हैं । इस दृष्टिसि इस प्रन्यकी रचना बहुत ही उपयोगी हुई हैं । इस वर्ष बीना इटावा (सागर) की जैन समाजके आमन्त्रण पर विद्र- लरिपदने श्रुतपल्चमीके पुण्य अवसर पर विद्वदगोप्ठी (ज्ञानगीप्ठो) क्रा आयोजन किया था। उसमें एक सप्ताह तक इस पुत्तकेका सांग्रोपांग वाचन हुआ जिसमें सब विपयोंके जानकार प्रौड़ विद्वानों व त्यानिय्रोने भाग लिया था। चरचा होते समय अनेक नगरोंके अन्य गश्यमान्य सज्जन भी उपस्थित रहते थे । प्रसन्नता हैं कि गोष्ठोके समय दर्शन और न्याय शेलीसे विविध दृष्टिकोण एक दूसरेके सामने झाये। उन्हें विद्वानोंने समोपसे समझा ओर उनका परस्परमें आदान-प्रदान क्रिया । परस्पर वात्सल्य की भज़नाकों बढ़ाते हुए बोवराग कथाके रूपमें जिम्न स्तेह भर श्रद्धापूर्णा वातावरणमें यह गोप्डी हुई उसका बहुत बड़ा मूल्य है। प्ररुपर तत्त्व- चरचाका बीतराग प्रतिपादित मार्ग ब्या हो सकता है यह उसका सम्बक उदाहरण हूँ । हमने अपने जीवनकालमें विद्वानोंकी इस प्रकारकी चर्चा कभी न देखी और न सुनी । में समभता हूँ कि सैकड़ों वर्ष पर्व भी कभी ऐसा संगठित घामिक चरचा सम्मेलन हुआ होगा यह हमारी जानकारीमें नहीं आया । सब विद्वानोंका योगदान इसका मस्य कारण रहा है यह तो हूँ ही साथ ही इस सस्वन्धमें दौना इटावा ( सागर ) की जैन समाजकों आन्तरिक सद्भावना और सहयोग भी सराहनोय है। उसने ग्रागत सं _ विद्वानोंकी सब प्रकारकी सुख सुविधा व सम्मानका ध्यान रखते हुए इस महत्वपूर्त सांस्कृतिक बशमिक कार्यम अपना बहुत बड़ा योगदान दिया (५. हैं। उक्त कायके सुन्दरता और प्रशस्त वातावरणमें सम्पन्न होनेका यह भी एक कारण है। पुस्तक वाचनके समय उपादान-निमित्तमीमांसाक्षे प्रसंगसे एक वातकी ओर पणिडतजीका ध्यान श्राकपित किया गया था। वह यह कि जिस कथन पद्धतिकी मुख्यतासे यह पुस्तक लिखी गई हैं उसे श्राप अवश्य ही स्पष्ट कर दें । इससे प्रस्तुत ग्रन्यको समभनेमें सरलता तो जायगी ही। साथ ही जिनागममें प्रतिपादित स्वातन्ब्यमार्ग (मोक्षमार्ग) का रहस्य क्या है यह समभनेमें भी सहायता मिलेगी । और यह आवश्यक भी था, क्योंकि जब पणिडतजी पुस्तकका वाचन करते थे तव चचित विपय पर व्वाद खड्ा होने पर उनसे विपय्रको स्पष्ट करनेके लिए पृच्छा करनी पड़ती थी झौर जब वे चचित विपयके गर्भमें कया रहस्य है यह वतलाते थे तब अनेक विवाद समाप्त हो जाते शे । प्रसन्नता है कि परिडतजीने उक्त सुभावक् मान देकर प॒स्तकके प्रारम्भमें एक नया प्रकरण जोड़ दिया है जिसका नाम “विपयप्रवेश? है । इस प्रकरणके जोड़ देनेसे आगममें कहाँ किस दृष्टिकोणस कथनपशद्धति स्वीकार की गई है यह स्पप्ट होनेमें पूरी सहायता मिलती हैँ। साथ ही प्रस्तुत ग्रन्थका विपय स्पष्ट हो जाता हैं । परिडतजीने डेढ़ दो वर्ष लगकर अ्नचरत परिश्रम और एकाग्रतापूर्वक तत््वका मननकर साहित्यसूजनका यह श्लाघनीय कार्य किया हैं । इस प्रसंग- से हम अ्रन्य विद्वानोंका ध्यान भी इस वातकी ओर विशेषरूपसे श्राकर्षित करना चाहते हैं कि विद्वान केवल त्माजके मुख नहीं हैं । वे आगमके रहस्योद्घाटनके जिम्मेदार हैँ | अतः उन्हें, हमारे श्रमुक वक्‍तव्यसे समाज में कंसी प्रतिक्रिया होती है, वह अनुकूल होती है या, प्रतिकूल, यह लक््यमें रखना जरूरी नहीं हैं । यदि उन्हें किसी प्रकारका भय हो भी तो सवसे बड़ा भय आगमका होना चाहिए । विद्वानोंका प्रमुख कार्य जिनागमकी सेवा हैं श्लौर यह तभी सम्भव हैं जब वे समाजके मयसे मुक्त होकर सिद्धान्तके ( १० ) रहस्थको उसके सामने रख सके। कार्य बड़ा हैं। इस कलिमें इसका उनके ऊपर उत्तरदायित्व है, इसलिए उन्हें यह कार्य स्व प्रकारकी मोह- ममताको छोड़कर करना ही चाहिए ॥ समाजका संधारणश करना उनका मुख्य कार्य नहीं है। यदि वे दोनों प्रकारके कार्योका यथास्थान निर्वाह कर सके तो उत्तम है। पर समाजके संधारणके लिए आगमको गौ करना उत्तम नहों हूँ । हमें भरोसा है कि विद्वान्‌ मेरे इस निवेदलको अपने हृदयमें स्थान देंगे और ऐसा मार्ग स्वीकार करेंगे जिससे उनके सद्प्रयत्तस्वरूप आगमका रहस्य और विशदताक साथ प्रकाशमें आवे । संसारी प्राणोके सामने मुख्य प्रश्न दो हैं--प्रथम तो यह कि वह बर्तमानमें प्रतन्त्र क्यों हो रहा हैं ! क्या वह अपनी कमजीरीके कारर परतन्त्र हो रहा है या कर्मोकी वलवसाके कारण परतन्व हो रहाहईँ गी रहा है। 'दन्‍वरमंंकम७»न०-मकनबनमनीनीयााण डे ५ कैसे अप कक नाक विलय ये प्रश्न है कि वह इस परतन्त्रतासे छटकारा पाकर कैसे होगा। अन्य विभिस कारण उसे स्वतस्त्र करेंगे या वह निर्भितोंकी उपेक्ता कर स्वयं अपने पुरुपार्थ द्वारा स्व॒तस्त्र होगा । ये दो प्रश्न हैँ जिनका जैन- दर्शनके सन्दर्भमें उस्ते उत्तर प्राप्त करना है । यह तो प्रत्येक विचारक जानता हैं कि जैनदशनमें जितने भी जड़- चेतन द्रव्य स्वीकार किये गये हैँ वे सव अपने-अपने स्वतन्त्र व्यक्तित्वको लिए हुए प्रतिष्ठित हैं । एक द्रव्य दूसरे द्रव्यकों अपना कुछ भी अंश प्रदाव करता हो या जिस द्रव्यका जो व्यवितित्व अनादिकालसे प्रतिष्ठित हैं उसमें कुछ भी न्यूनाबिकता करता हो ऐसा नहीं हैं। ये दो जैनदर्शनके अकाट्य नियम हैं । अ्रतः इनके सन्दर्भमें प्रत्येक द्रव्यके उत्पाद-व्ययेरूप कार्यके सस्वन्धमें विचार करने पर विदित होता है कि जिस द्रव्पमें जो भी स्वभाव या विभावरूप कार्य होता है वह अपने परिणमन स्वभावके कारण उपादानशवि्तिके बलसे ही होता हैं। अन्य कोई द्रव्य उसमें उसे - फन्‍न करता हो और तव उसका वह स्वभाव-विभावरूप कार्य होता हो है ६. 88) ऐसा नहीं हैं, क्योंकि अन्य द्रव्यसत्ते उसकी उत्पत्ति मानने पर न तो द्रव्यके परिणमन स्वभावकी ही सिद्धि होतो है श्रीर न ही 'एक द्रव्प दूसरे द्वव्यकों अपना कुछ भी अ्रंश प्रदान नहीं करता" इस तथ्यका ही समर्थन किया जा सकता हैं। अ्तएवं जहाँ तक प्रत्येक द्रव्यके परिशमन स्वभावका प्रश्न है श्लौर जहाँ तक उसके स्व॒तन्ध व्यक्तित्वका प्रश्न है वह तक तो यही मानना उचित है कि भ्र॒त्येक द्रव्यमें प्रश्न है वहाँ तक तो यही मानना उचित हैं कि प्रत्येक द्रव्धमें जो उत्पाद व्ययरूप कार्थ होता है उसमें वह स्वाधीच हैं उत्पाद-व्ययरूप कार्थ होता हैं उसमें वह स्वाधीन है । ऐसा मानना पर- मार्थ सत्य श्ौर वस्तुस्व॒भावके अनुरूप है । इसमें किसी भी प्रकारकी “ननु, न च करना प्रत्येक द्रव्यके परिणामस्वभाव और उसके स्वततन्त्र व्यक्तित्वकी अ्वहेलना करना होगा जो उचित नहीं है, क्योंकि इन तथ्योंकी श्रवहेलना करनेपर छह द्रव्यों और उनके भेदोंकी पूरी व्यवस्था गड़बड़ा जायगी । फिर भी जैनदर्शनमें प्रत्येक कार्यकी उत्पत्तिमें निरमित्तोंकी स्वीकार किया गया हैं सो उसका काररा अन्य हैं । बात यह है कि प्रत्येक द्रव्यके श्रपने अपने समर्थ उपादानके छू! प्रत्येक समयमें कार्य होते समय श्रन्य द्रव्यको पर्याय उसके बलाधानमें स्वयं निमित्त होती है । बलका आधान कर कार्यको ( अपने परिणमन स्वभाव और स्वतन्त्र व्यक्तित्वके कारण ) स्वयं उपादान उत्पन्न करता हैँ । कार्य निमित्तका नहीं हैं । किन्तु कार्यको उत्पन्त करनेके लिए उपादान जो वलका आधान करता हैं उसमें अ्रन्य द्वव्यको पर्याय स्वयं निमित्त हो जाती है यह वस्तुस्थिति हैं । इसके रहते हुए भी लोकमें निमित्तकी मुख्यतासे कुछ इस प्रकारके तर्क उपस्थित किये जाते हैं-- 2. उपादान हो श्रौर निमित्त न हो तो कार्य नहीं होगा । २. समर्थ उपादान हो झौर बाधक सामग्री आ जाय तो कार्य नहीं होगा । | ३. समर्थ उपादान हो, निमित्त हो पर बाधक कारण झा जाय तो कार्य नहीं होगा । 5 2) मे तोन तर्क हैं । इन पर विचार करनेसे विदित होता है कि प्रथम दोनों तर्क तीमरे तर्कम ही समाहित हो जतते है, अतः तोसरे तके पर समुचित विचार करनेसे शेप दो तकंकि उत्तर हो ही जायगा, श्रत; तीसरे तर्वके आधारसे भ्रागे विचार करते है-- सर्वश्रथम विचार इस बातका करता है कि जब समर्थ उपादान ओर लोकमें निमित्तके रहते हुए भी कार्यकी लोकमें कही जानेवाली वाबक सामग्री श्रा जातो है तव विवज्षित द्रव्य उसके कारण वया अपने परिसशामन स्वमावकों छोड़ देता है ? यदि कहो कि दृव्यमें परिणमन तो तथ नी होता रहता है । वह तो उसका स्वभाव है। उसे बह कैसे छोड़ सकता हैं तो हम पूछते हैं कि जिसे भाप वाबक सामग्रो कहते हो वह झिस कार्यकी वाधक मानकर कहते हो । झ्ाप कहोगे कि जो कार्य हम उम्तसे उत्पन्न करता चाहते थे वह कार्य नहीं हुमा, इसलिए हम शेसा कहते हैं । तो विचार कीजिए कि वह सामग्री चिवज्षित द्रव्यके आगे होनेवाले कार्यकी बाधक ठहरो कि आपके संकल्प की ? विचार करने पर विदित होता हैं कि वस्तुतः वह विव्ित द्रब्यके कार्यक्री वाधक तो विकालमें नहीं है हाँ श्राप झ्रागे उस द्वव्यक्रा जेता १रिणमन चाहते थे चैसा नहीं हुमा, इसलिए श्राप उसे कार्यकी बायक कहते हो सो भाई ! यही तो श्रम है। इसी भ्रमको दूर करना है। वस्तुत; उस समब द्रव्यका परिणमन हो आपके संकल्पानुप्तार न हाकर अपने उवादानके अ्रनुसार होनेबाला था, इसलिए जिसे आप अपने मनसे वावक सामग्री कहते हो वह उस समय उस प्रकारके परिणमनप्रें निमित्त हो गई। अतः इन तकीके समावानस्वरूप यही समझना चाहिए कि प्रत्येक समयमें कार्य तो अपने उपादानके अनुसार ही होता हैं और उस समय जो वाह्य सामग्री उपस्थित होती है वही उसमें निमित्त हो जाती है। निमित्त स्त्रयं अन्य हबपके किसी कार्यक्रों करता हो ऐसा नहीं है। उदाहरणा्थ दोपकके अकाशर्मे एक मनुष्य पढ़ रहा हैं। भव विचार कोजिए कि वह मनुष्य की, स्वयं पढ़ रहा हैं या दोपक पढ़ा रहा है? दोपक पढ़ा रहा है यह तो कहा नहीं जा सकता, क्योंकि ऐसा मानने पर दोपकके रहने तक उसका पढ़ना नहीं रकना चाहिए । किन्तु हम देखते हैं कि दीपकके सड्भावमें भी कभी वह पढ़ता है और कभी अच्य कार्य भी करने लगता हैं। इससे मालूम पड़ता हैं कि दीपक तो निमित्तमात्र है, वस्तुतः वह स्वयं पढ़ता है, दोपक वलात उसे पढ़ाता नहीं । इस प्रकार जो नियम दीपकके लिए है वही नियम सव निमित्तोंके लिए जान लेना चाहिए। निमित्त चाहें क्रियावान्‌ द्रव्य हो और चाहे निष्क्रिय द्रव्य हो, कार्य होगा अपने उपादानके अनुसार ही । श्रतः निमित्तका विकल्प छोड़कर प्रत्येक संसारी जीवको अण्गे उपादानकी ही सम्हाल करनी चाहिए । जो संसारी जीव अपने उपादानकी सम्हाल करता है वह अपने मोच्चरूप इष्ट प्रयोजनकी सिद्धिमें सफल होता हैं और जो संसारी जीव उपादानकी उपेक्षा कर अपने श्रज्ञानके कारण निमित्तोंके मिलानेके विकल्प करता रहता है वह अज्ञानी हुआ्ना * संसारका पात्र बना रहता है । कार्योत्त्तिमें निमित्तोंका स्थान हैं इसका निषेध नहीं और इसलिए वाह्म दृष्टिसि विवेचन करते समय शास्त्रोंमें निमित्तोंके अनुसार कार्य होता है यंह भी कहा गया है। परलच्तु यह सव कथन उपचरित ही जानना चाहिए । व्यवहारनय पराश्चित होनेसे ऐसे ही कथनको स्वीकार करता हैं, इसलिए मोक्षमार्गमें उसे गौर कर स्व्राधीन सुखके कारणभूत निश्चय- नयका आश्रय लेनेका उपदेश दिया गया हैं। संसार अ्रवस्थामें निश्चयके साथ जहाँ जो व्यवहार होता है, होशो । पर इस जीवकी यदि ऐसी श्रद्धा हो जाय कि जहाँ जो व्यवहार होता हैं वह पराश्रित होनेसे हेय है और निश्चय स्वाश्रित होनेसे उपादेय है तो ऐसे व्यवहारसे उसका बिगाड़ नहीं । विगाड़ तो व्यवहारकों उपादेय मानकर उससे मोक्षकार्यकी सिद्धि माननेमें है। अतः मोक्षेच्छुक प्रत्येक प्राणीको यही श्रद्धा करनी चाहिए कि मोक्षकार्यकी सिद्धि मात्र निश्चयका आराश्नय लेनेसे ही होगी, ( ९४) व्यवहारका आश्रय लेनेसे थ्रिकालमें नहीं होगी । संसारी जीवक स्वाधान - होनेका यही प्रशस्त मार्ग है । यह तो उपादान-निमित्तके श्रधारवर व्यक्तिस्वातन्त्अकों बाप करनेका क्या मार्ग है इसकी चरचा हुई। इसी प्रकार झ्लोद भी बहुतसे विचार हैं जिनके सम्बन्धमे परमार्यत्तत्य क्या हैं इसे जावकर ही उसे ग्रहण करना चाहिए । उदाहरणार्थ शास्त्रों यत्रास्वान विश्चयनय और व्यवहारतयके श्राश्षयसे कयने किया गया हूँ। उसमें निश्चयनयकी अ्रपेज्ञा जो कथन किया गया है बह यथार्थ है. क्योंकि निश्चयनय जैसा वस्तुका स्वरूप है उसका उसी झूपमें निदपण करता हूँ परन्तु व्यवहारनयकी श्रपेज्षा जो कथन किया गया है. वह यथार्थ नहीं है, क्योंकि जैसा वस्तु का स्त्ररूप हैं उसका यह नय भ्रन्यथा निरपण करता है । जैसे शास्त्रोंम कहीं पर प्रत्येक द्रव्य श्रपने परिणमत लक्षण कार्यका कर्ता हैं ऐसा लिखा है और कहीं पर अन्य द्वव्यके कार्यका कर्ता है ऐसा लिखा हैं। सो इन उदाहरणोंमे जहाँ पर प्रत्येक द्रव्यकों अपने परिशमन लक्षण कार्यका कर्ता बतलाया है वहाँ उस कथनको यवार्थ जानना चाहिए | श्रौर जहाँ पर अन्य द्रव्य अन्य द्रव्यके कार्यड्ा कर्ता वतलाया है. उसे 3पचरित कथन जानना चाहिए क्योंकि अन्य द्रव्यके कार्यको श्रन्‍्य द्रव्य करता नहीं । कारण कि एक द्रव्यमें दुसरे द्रब्यके कार्यके करनेका कतू स्व वर्म नहीं पाया जाता। फिर भी अन्य द्रव्य निमित्त होता है, इसलिए उस द्रव्यकी निर्मित्तता दिखलानेके लिए उपचारसे उसे कर्ता कह दिया जाता है । इसलिए कहाँ यथार्थ कथन हैं और कहाँ उपचरित कश्नन है इसे समभवार ही वस्तुको स्वीकार करना चाहिए । इसी प्रकार शास्त्रोंमे कहीं तो उपादानको प्रधानतासे सब क्रार्य अयसे श्पन कालमें होते हैं ऐसा लिखा हैँ और कहों निमित्तकी प्रधानतासे कार्योका अनियम बतलाया है सो यहाँ भी ऐसा समभना चाहिए कि ( १४ ) प्रत्येक कार्यक[ उपादान श्रनन्तर पूर्व पर्याय विशिष्ट द्रव्य होता है ग्रतएव - अगले समयमें कार्य भी उसीके श्रनुरूप होगा। कार्यकी उत्पत्तिके समप्र निमित्त उसे अन्यथा नहीं परिणमा सकेगा, इसलिए जो उपादानकी श्रपेत्ञा कथन है वह यथार्थ है और जो निमित्त की अपेज्ञा कथन है वह यथार्थ तो नहीं है परन्तु वहाँ पर निमित्त क्‍या है यह दिखलानेके लिए बैसा कथन किया गया है । ग्रतएव ऐसे स्थलोंपर भी जहाँ जिस अपेक्षासे कथन हो उसे समभकर वस्तुको स्वीकार करना चाहिए। | इसी प्रकार और भी वहुतसे विषय हैं जिनमें वस्तुका निर्णय करते समय और उनका व्याख्यान करते समय विचारकी आवश्यकता हैं। हमें प्रसन्‍तता है कि 'जैनतत्त्वभीमांसा' ग्रन्थमें परिडतजीने उन सब विषयोंका समावेश कर, लिया है जिनमें तत्त्वजिज्ञासश्रोंकी दृष्टि स्पष्ट होनेकी झ्रावश्य- कता है । इस दृष्टिसे यह पुस्तक बहुत ही उपयोगी बन गई है । इसकी लेखनशै ली सरल, सुस्पष्ट और सुवोध है । परिडतजी के इस्त समयोपयोगी सांस्कृतिक साहित्यिक सेवाकी जितनी प्रशंसा की जाय थोड़ी है। हमें विश्वास है कि समाज इससे लाभ उठाकर अपनी ज्ञानवृद्धि करेगी । जैन शिक्षा संस्था | जगन्मोहनलाल शास्त्री कटनी बविंघय-सूर्ची क्र० से०. आबिण नाम पु० सं० 9, विपय-प्रवश १ ०२, बस्तुस्वभावमीसांसा 4 3, निमितर्की स्व्रीकृति 29 ४. उपादान-निर्मित्तमामांसा श्र ५, कवतृकर्ममीसांसा €६ 5. पटकारकर्मामांसा ५३८ ७ क्रमनियमितपयावसीसांसा ५9८ ८. सस्थक नियनिम्बरूपर्मामांसा ५5८ ८. निश्चय-व्यवदाग्मीमांसा श्प्८ ५०, अनेकात्त-स्याद्रदर्मीमांसा म्ध्ट ५१, केवलन्नानस्वभावमीमांसा न्प्द्‌ ४०. उपादान-निर्मिनसंबाद न्ह्८ +++4 ७ ३--- सूचना प्र ४ पंक्ति २० सें परिणमनान्निमित्तीभ्ूते के स्थासमें परि- णमनात्रिमित्तीमृत सुधार लें । तथा पृष्ठ १९ पंक्ति ९७ में व्यवहार इसके स्थानमें व्याख्यास! यह पाठ सुधार लें । इसी प्रकार छोटी-माटी जो अन्य अशुद्धि हो उन्हें सुधार कर पढ़ें | लत्वसीसाया छः ८ जैनवत्बमीमांसा विघय-ग्रबेंश करि प्रणाम जिनदेवको मोक्षमा्ग अनुरूप । विविध अथ गर्मित महा कहिए तत्त्वस्वरूप ॥ है निमित्त उपचारविधि निश्चय है परमार्थ | तजि'* व्यवहार निश्चय गहि साधो सदा निजार्थ ॥ इस लोकमें ऐसा एक भी प्राणी नहीं है जो दुखनिशब्वत्ति ओर सुखप्राप्तिका इच्छुक न हो। यही कारण हे कि घर्मतीथके प्रवतंक तीथंकर अनादिकालसे सुखप्राप्तिके प्रधान साधनमूत मोक्षमार्गका उपदेश देते आ रहे हैं। मोक्षमार्ग कहो, सुख ग्राप्तिका मार्ग कहो या ढुखसे निवृत्त होनेका माग्रे कहो इन सबका एक ही अथ है। जिस मार्गका अनुसरण कर यह जीव चतुगंतिके सागगंका अनसरण कर यह जीव चतुगगंति दुखसे निवृत्त होता है वह मोक्षमाग है यह उक्त कथनका तात्पय है। मोक्षमार्ग यह अन्तगर्भ निषेध परक वचन है। किन्तु जब किसी धर्मका निषेध किया जाता है तब उसकी ग्रति- पक्तमूत विधि अपने आप फलित हो जाती है, अतएव जो १, गोरा करके । 5 2 जैननन्वमीमांसा रथ न्‍े दुखनिद्ृत्तिका मार्ग है वही सुख्प्राप्रिका भी सागे हू एसा यहाँ सममना चाहिए | इस प्रसंगसे प्रकृलसे विचार यह करता हे कि तीथकरोंका जा उपदर् चारों अनयागोमें संकलित है. उस चचनबव्यतहास्कां हृष्रिल कितने भागोंमें बिसक्त किया जा सकता विविध प्रमाणोंकि प्रकाशमें विचार करतेपर बिदित होता है कि उसे हम मुख्यरूपसे दो भागोंमे विभक्त कर सकते हें--उपचरित कथन और अनुपचरित कथन। जिस कथनका प्रनिषाद्य अर्थ तो अमत्याथ है. (जा कहा गया है पद्मार्थ बेसा नहीं हे ) | परन्तु उनसे परमाथभूत अथका ज्ञान हा जाता है उस दपचरित कथन रि कहते है ओर जिस कंथनसे जो पदार्थ जैसा है उसका उसी रूपमें त्सा है उसका उसी रूपन स्पष्ट करत हुए अपनी सुबाध भापामं पण्चितप्रवर टाडग्मल्लजी माज्नमार्गप्रकाशकर्मं लिखने हैं. ल्‍ तहाँ जिन आगम बिय निश्चय-व्यवहाग्तप वर्णन है। तिन बिपे बधार्थक्षा नाम निश्चय है, उपचारका नाम व्यवद्धार दे ।_ था नाम निश्चय है, न्‍ [ आधिकार 3 प्र० २८७ ] व्यवहार अनूतार्थ हे। सत्य स्वरूपको न निरूपे है। किसो अपेक्षा उपचार करि अन्यथा निरूपे है। बहूुरि शुद्धनव जो निश्चय है सो सो थ् म्थ० * कर, कक न सृताथ हूं जसा बलुका स्वरूप हे तेंसा निरूये ४ । हि; मेक पति ली लनआ 444 006 260: 20 अल अर, [ अधिकार ७ प्रृ० ३६ ] एक हा द्त्यक भावका तिस स्वरूप हो निरूपण करना सो निश्चय- ४८-४7 -६-------..--. नये हूं। उपचारकरि तिस द्रव्यक्े भावकों अन्य दब्यके भावत्वरूप निरुषणु करा सो व्यवहार द। 7८ सो व्यवहार है । व कक 3 तिलक कप [ आधिकार ] घर 5 ह६5 ६ ] विपय प्रवेश न्प्ऐ यह' परणिडितप्रवर टोडरमलजीका वक्तव्य है। इससे स्पष्ट है कि लिन आगमसें वचनव्यवहारकी दृष्टिसे दो प्रकारका कथन उपलब्ध होता है। उसमें. सबेप्रथम उपचरित कथनके प्रकृतमें उपयोगी कतिपय उदाहरण उपस्थित कर थे उपचरित क्यों हैं इसकी सीमांसा करते हैं । उपचरित कथनके कतिपय उदाहरण-- १. एक द्रव्य अपनी विवज्षित पर्याय द्वारा दूसरे द्रव्यका कती है ओर दूसरे द्रव्यकी वह प्योय उसका कमे है। २, अन्य द्रव्य अन्य द्रब्यकों परिशुसाता है या उसमें अतिशय उत्पन्न करता है । ३. अन्य द्रव्यकी विवज्षित पर्याय अन्य द्रव्यकी विवक्तित पर्यायके होनेमें हेतु है । उसके बिना वह कार्य नहीं होता । ४ शरीर मेरा हैँ तथा देंश, धन और ख्ी-पुत्रादि मेरे हैं आदि । ये उपचरित कथनके कुछ उदाहरण हैं। इनके आश्रयसे केबल दर्शन और न्यायके ग्रन्धोंमं ही नहीं, किन्तु अन्य अनयोगों के अन्धोंमें भी चहलतासे कथन किया गया हैं| तथा जो प्रमखतासे अध्यात्मका प्रतिपादन करनेवाले ग्रन्थ हैं उनमें सी जहाँ प्रयोजन विशेषयश उपचार कथनकी मुख्यतास प्रतिपादत करना इछ्ट रहा है बहाँ सी यह पद्धति स्वीकार की गई है | इसलिए इस प्रकारके कथनको चारों अनयोगोंके शाल्रोंसें स्थान नहीं मिला है यह तो कहा नहीं जा सकता । फिर सी यह कथन असत्यार्थ क्‍यों हे इसकी यहाँ मीमांसा करनी है । यह द्रव्यगत स्वभाव है कि किसी कार्यकी उत्पत्तिसें उपादान क्र जैनतत्त्वमीमांसा मुख्य ( अनपचरित ) हेतु होता हैं ओर अन्य द्रव्य व्यवहार ( उपचरित ) हेतु” होता है। तदनुसार जिसने अपनी वृद्धिमें यह निरणय किया है कि जो उपादान है वह कता हैं आग जा कार्य हे वह उसका कम है उसका वेसा निशय करना परमसार्थरूप है, क्‍योंकि जीवादि प्रत्येक द्रव्यमें सदाकाल छठ कारकरूप शक्तियों तादात्स्यभावस विद्यमान रहती हैं जिनके आधारसे उस उस द्रव्यमें कद त्व आदि धर्मकी अपने ही आश्रयसे सिद्धि होती है । फिर भी अन्य द्रव्यकी विवज्तित पयोय अन्य द्रव्यकी विवक्षित पर्यायके होनेमें व्यवहार हेत हें. खकर अनादि रूढ लोकव्यवहारखश प्रथक सत्ताक दो द्रव्योंमें कता- कर्म आदिरूप व्यवहार किया जाता है | इसी तथ्यका स्पष्ट करते हुए आचाये कुन्दकुन्द समयप्राभ्रत्तमें कहते ह-- ्े जोवम्द हेदुभूदे वधस्स ढु पस्सिदृण परिणाम । जीवेश कद कम्म॑ भस्णदि उदबयारमत्तेण ॥१०४॥ जीवके निमित्त होनेपर वन्धके परिणामकों देखकर जीवने आप ८-८ य डे. कर्म किया यह उपचारसात्रसे कहा जाता हैं ॥१०४॥ इसा अथका स्पष्ट करते हुए उक्त गाथाका टांकार्म आचाये अमृत्तचन्द्र कहते ६--- इंह खलु पोद्गलिककर्मणः स्वभावादनिमित्तभृते5प्यात्मन्यनादे- रतानात्तन्रिमित्तमूतेनाज्ञानभावेन परणमनान्निमित्तीभूते सतति सम्प्म- मानत्वातोद्गलिक॑ कर्मात्मना कृतमिति विकत्पपराणां परेपामस्ति विकल्पः । परमार्थः ॥ १०५ ॥ निर्विकल्पविज्ञनघनभ्रष्टानां स तूपचार एच न तु १, पञ्चा3 गा० ८९ और ९६ की टीका । विपय-प्रवेश ५ . « इस लोकमें आत्मा निश्चयतः स्वभावसे पुद्लल कर्मका निमित्तमृत नहीं है तो भी अनादिकालीन अज्ञानवश उसके निमित्तमृत अज्ञान भावरूप परिणमन करनेसे प॒द्नलकसंका निमित्तरूप होनेपर पृद्बलकर्मकी उत्पत्ति होती हे, इसलिए आत्माने कमको किया ऐसा विकल्प उन जीवबोंके होता है जो निर्विकल्प विज्ञानवनसे अठ होकर विकल्पपरायण हो रहे हैं। परन्तु आत्माने कमको किया यह उपचार ही है परमार्थ नहीं ॥१०४॥ आचार्य कुन्दकुन्द ओर आचाये अम्ृतचन्द्रका कथन है। किन्तु उन्होंने इसें उपचरित क्‍यों कहा, इसका कोई हेतु तो होना ही चाहिए, अतः इसीका यहांपर साह्जपाज्न नयहृष्टिसे विचार करते है: शाब्रोंमें लोकिक व्यवहारकों स्त्रीकार करनेवाले ज्ञाननयकी अपेक्षा ( श्रद्धामूलक ज्ञाननयको अपेक्षा नहीं ) असदूभूत व्यव- हारतयका लक्षण करते हुए लिखा है कि जो अन्य द्रव्यके गुणोंको अन्य द्रव्यके कहता है वह असद्भूत व्यवहयरतय है | नयचक्रमें कहा भा ह अण्णेसि अण्णगुणों भण॒इ असब्भूद.... ॥२२३१॥ भ इसके मुख्य भेद दो हँ---उपचरित असद्भूत व्यवहारनय आओर अनुपचरित असद्भूत व्यवह्रनय । बृहद्॒व्यसंग्रहमें 'पुग्गल- कम्मादीणं कत्ताः इस गाथाकरे व्याख्यानके प्रसंगसे उदाहरण पृ्वक इन नयोंका खुलासा करते हुए लिखा है-- मनोवचनकायब्यापारक्रियारहितनिजशुद्धात्मतवभावना शून्य; सन्तुप- चरितासद्भृतव्यवहारेण ज्ञानावरणादिद्॒व्यकर्मणां आदि! शब्देनोदारिक- वेक्रियिकाह्रकशरी रत्रयाहारादिपटपर्या त्ियोग्यपुद्य लपिएडरूपनोकमणणां तथैबोपचरितासद्मतव्यवहारेण बहिर्विषयघट-पठादीनां च कर्ता भवति | जैनतत्वमीमांना ली [का मन. वचन और कायके व्यापार्से होनेबाली क्रियाले गहिंत ऐसा जो निञ्ञ शुद्धात्मतत्व उसकी भावनास रहित हुआ यह जीव अनपचरित असदमभत व्यवद्ास्की अयेज्ञा ज्ञानावस्णादि द्रब्यकमोका, आदि शच्से ओंदारिक, वेक्रियिक ओर आद्यार्क- रूप तीन शरगर ओर आहार आदि छट् पयाप्रियोंक्र बाग्य पुदगल पिण्डरूप नोकमेका तथा उपचरित असदभन व्यवह्ाग्नवर्का अपेक्षा बाह्य विषय घट-पट आदिका कना हाता हे उक्त कथनका तात्पर्य है कि परमार्थल कमे. नोकम ओर घट- पट आदिका जीव करती हा ओर वें उसके कर्म हों एसा नहीं है । परन्त जैसा कि नयचक्रमें वतलाया है उसके अनुसार एक द्रव्यके गुणोंका दूसरे द्रव्यका कहनेचाला जो उपचरित या अनुपचरित असदभूत व्यवहारनय है उस अपक्तास चहांपर जीबकों पद्चलकर्मा, नाकर्मा ओर घट-पट आदिका कर्ता कहां गया हैँ तथा पुठ्ुलकर्म, नाकर्म ओर घट-पट आदि उसके कर्म कहे गय ह€ ; ४. >> इससे स्पष्ट हैं कि जहाँ शाब्तरोंमें मिन्न कठ -कर्म आदिका व्यवहार किया गया है बहाँ उस उपचरित ( अयधाथ ) ही ठूत्व और कमत्व /]४ +॥ बन ५५ जानना चाहिए, क्यांक क्रसा एक द्रव्यक् आदि छह कारकरूप धर्मोका दुसरे दव्यमें अत्यन्त अभाव है और चह ठाक भा ह., क्याक जहां एक द्रव्यका विवक्षित प्राय अन्य कथन भा व्यवदहार- वहां भिन्न कठ -क्म आद रूप व्यवद्यरफा ऋच्यकी बिवज्षित पयोयमें निरमित्त है नयका [वेषय हू १, ८ वहारन जल्ी> ६... ह्दा हारे रा गादनर रनवस्दापितों उदासीनों पच्चा० गा० ८९ होका | व्यव- पत्यवनाहुनरूपरा । पच्चा० या दोका विषय-प्रवेश ७ वास्तविक केसे साना जा सकता होे। तात्पय यह हे कि जहाँ दो द्रव्योंकी विविक्षित पयोयोंमें कतो-कर्म आदि रूप व्यवहार करते हैं वहाँ जिसमें कठृत्व आदि घर्मोका उपचार किया गया है वह स्वतन्त्र द्रव्य है ओर जिसमें कर्मत्व आदि धर्मोका उपचार किया गया है वह स्वतन्त्र द्रव्य हे, उन दोनों द्रव्योंका परस्पर तादात्म्य सस्वन्ध न होनेसे व्याप्य-व्यापकसाव भी नहीं है तथा उसमें एक-दसरेके कठतृ त्व ओर कमंत्व आदि रूप धर्म भी नहीं उपलब्ध होते। फिर श्री लोकानरोधवश उनमें यह इसका कतों है ओर यह इसका कर्म है इत्यादि रूप व्यवहार होता हुआ देखा जाता है । इससे विदित होता है कि शाब्ोंमें ऐसे उयवहारको जो असद्भूत व्यवह्मरनयका विषय कहा है वह ठीक ही कह है। स्पष्ट है कि यह व्यवहार उपचरित ही है परमाथभूत नह इसी तथ्यको दूसरे शब्दोंमें स्पष्ट करते हुए श्री आ० देवसेन भी अपने श्र्‌तभवनदीपक नयचक्रमें बबहारोउभूयत्थोः इत्यादि गाथाओं के व्याख्यानके प्रसंगसे कया कहते हैं यह उन्हींके शब्दोंमें पढ़िए-- उपनयोपजनितो व्यवहार: प्रमाण-नय-निन्लेपात्मा । भेदोपचाराभ्यां वस्ठ व्यवहरतीति व्यवहारः | कथमुपनयस्तस्थ जनक इति चेत्‌ ? सद्भूतो भेदोत्पादकत्वात्‌ असद्भृतस्तु उपचारोत्यादकत्वात्‌ू उपचरितासदूयूतस्तु उपचारादपि उपचारोत्यादकत्वातू । योउसों भेदोपचारलक्षणोऊ5र्थ: इप्रमाथ) ।.... अतएव व्यवह्ारोऊपरमाथ प्रतिपादकत्वादपरमार्थः । प्रसाणु, नय आर निक्षेपात्मक जितना भी व्यवहार हार है है वह सब उपनयसे उपजानत हूं। भंद टहारा आर उपचार द्वारा वस्तु व्यवह्रपदवीको प्राप्त होती है, इसलिए इसकी व्यवहार संज्ञा है | ८ जैनतत्त्वमीमांसा शंका--इस व्यवहारका उपनय जनक है यह केसे १ समाधान--भेदका उत्पादक सदभृत व्यवहार है, उपचारका पु उत्पादक असदमभत व्यवहार है ओर उपचारस भी उपचारका उत्पादक उपचरित असदमृत व्यवहार है। और जा यह भेद- लक्षण॒बाला तथा उपचार लक्षणवाला अथ है चह अपरमार्थे अत; व्यवहार अपरसा्थका प्रतिपादक हानसे अपरमाथरूप हैं | यह आ० देवसेनका कथन है। इस द्वारा इन्होंने जब कि एक अग्वण्ड द्रव्यमें गुण-गुणी आदिके आश्रयस हानेबाले सदभृत व्यव॒हारका ही अपरसाथभृत वततल्ताया है ऐसी अवबस्थासें दो द्रव्योंक आश्रयस कता-कर्म आदि रूप जा उपचरित ओर अन- पचरित असदभत व्यवहार हाता हे उसे परमाथभत केस माना जा सकता है ? अथान नहीं साना जा सकता यह स्पष्ट ही है । यहाँपर काई प्रश्न करता है कि यदि मिन्न कतू -कर्म आदि रूप व्यवहार उपचरित ही हें ता शामब्नोमें उसका निर्देश क्यों किया गया है ? समाधान यह हैं कि एक तो निमित्त ( उ्यवहार- हेतु ) का ज्ञान कराना इसका मुख्य प्रयोजन हू, इसलिए यह कथन फिया गया है । आलापपद्धतिमें कहा भी हें सति निमित्ते प्रयोजने च उपचारः प्रवतते । निमित्त और प्रयोजनके होनेपर उपचार प्रवृत्त होता है । दूसरे उपचरित अथक प्रतिपादन द्वारा अनपचरित अर्थका बांध हां जाता हैँ, इसलिए इसका कथन किया गया हैं। नयचक्रमें क््द्दा भा (८ ह उववारो जाण॒ह साहणहेऊ अशुबयारे ॥२८प्णा उसी प्रकार अनुपचारकी सिद्धिका हेतु उपचारको जानो । विषय-प्रवेश ९ यहाँ पर ऐसा समझना चाहिए कि जो वचन स्वयं असत्याथे होकर भी इश्टाथका ज्ञान करानेमें हेतु हे वह लोकव्यवहारसें असत्य नहीं माना जाता । उदाहरणस्वरूप “चन्द्रमुखीः शब्दकों लीजिए । यह शब्द ऐसी नारीके लिए प्रयक्त होता हे जिसका मुख मनोज्ञ ओर आमभायक्त होता है। यह इष्टाथ है | 'चन्द्रमखीः 'शब्दसे इस अर्थका ज्ञान हो जाता है, इसलिए लोक-व्यवहारमें ऐसा वचनप्रयोग होता है तथा इसी अभिप्रायसे शाम्रोंमें भी इसे स्थान दिया गया है। परन्तु इसके स्थानमें यदि कोई इस शब्दके अभिषेयाथथकों ग्रहण कर यह मानने लगे कि अम॒क ख्रीका सुख चन्द्रमा ही है तो वह असत्य ही माना जायगा, क्योंकि किसी भी ख्रीका मुख न तो कमी चन्द्रमा हुआ है ओर न हो सकता है । . यह एक उदाहरण है। प्रकृतमें इस विषयकों ओर भी स्पष्ट- रूपसे समझनेके लिए हम भारतीय साहित्यमें विशेषतः अलंकार शास्त्रमें लोकानरोधवश विविध वचनमप्रयोंगोंका ध्यानमें रखकर निदिष्ट की गई तीन वृत्तियोंकी ओर विचारकोंका ध्यान आकर्षित करना चाहेंगे। वे तीन वृत्तियाँ हैं--अभिधा, लक्षणा और व्यज्लना। माना कि शाख्रोंमं ऐसे वचनप्रयोग उपलब्ध होते हैं जहाँ मात्र अभिधेयार्थकी मुख्यता होती है । जैसे जो चेतनालक्षण भावप्माणसे जीता है वह जीव” इस वचन द्वारा जो कहा गया, जीवनामक पदार्थ ठीक वैसा ही है, अन्यथा नहीं - है, इसलिए यह बचन मात्र अभमिधेयाथंका कथन करनेवाला होनेसे यथाथ हैं। परन्तु इसके साथ शाख्रोंमें ऐसे वचन भी वहुलतासे' उपलब्ध होते हैं जिनमें अभिधेयार्थकी मुख्यता न होकर लक्ष्याथ : ओर व्यंग्याथंकी ही मुख्यता रहती है । इसे ठीक तरहसे समभने के लिए उदाहरणस्वरूप 'गल्जलायां घोषः, मश्जाः क्रोशन्ति, धनुर्धावतिः ये बचनप्रयोग लिए जा सकते हैं। गद्गायां घोष? इसका अभि- विषय-प्रवेश १९ ह--ऐसे कथन द्वारा निश्चयाथका ज्ञान कराना यह मुख्य इष्टाथ है, क्‍योंकि यह वास्तविक है ओर इस द्वारा निमित्त (व्यवहार हेतु) का ज्ञान कराना यह उपचरित इष्टाथ है, क्‍योंकि इस कथन द्वारा कहाँ कान निमित्त हे इसका ज्ञान हो जाता है। यदि इन दो अमिप्रायोंका ध्यानमें रखकर उक्त प्रकारका वचन प्रयोग किया जाता है ता उसका अभिधेया् असत्य होनेपर भी ध्यवहारसें ( लक्ष्या्थंकी इष्टिसे ) वह असत्य नहीं माना जाता। आचाय कुन्दकुन्द प्रभ्ृति आचायनि ऐसे शब्द प्रयोगोंकी असत्य शब्द द्वारा ध्यवह्नत न कर जो उपचरित कहा है वह इसी अमभिप्रायसे कहा है । साथ ही आचाय कुन्दकुन्दने समयप्राभ्र॒तमें जो 'जह ण॒ बि सक्कमणजो? इत्यादि गाथा निवद्ध की हैँ ओर पशि्डितप्रवर आशाधरजीने अनगारघमोम्ृतर्में जो "“कर्त्राद्या बस्तुनो भिन्ना? ( १-१०२ ) इत्यादि श्लोक निवद्ध किया है वह इस गर्मित अथे- को सूचित करनेके लिए ही निवद्ध किया हे। पण्डितग्रवर टोडर- मल्लजी इस तथ्यका उद्घाटन करते हुए मोक्षमसागंप्रकाशक ( आए ७. छए० २७८ ) सरकहते जिनमार्गविप कहीं तो निश्चयनयकी सुख्यता लिए व्यवहार है। ताकों तो सत्वार्थ ऐसें ही है” ऐसा जानना.। बहुरि कहीं व्यवह्दरनबकी मुख्यता लिए व्याख्यान है ताकों ऐसें है नाहीं, निमित्तादि अपेक्षा उपचार किया है? ऐसा जानना । इस प्रकार एक द्र॒व्यकी विवक्षित पर्याय दूसरे द्र॒ध्यकी विवक्तित पर्योयका करता आदि हैं और वह पर्योय उसका कम आदि है यह कथन परसार्थमूत अथेका प्रतिपादक न हाकर उपचरित ( अयथार्थ ) क्‍यों है इसकी संक्षेपमें मीमांसा की। इसी न्यायसे एक द्रव्य दूसरे द्रव्यको परिणमाता है या उसमें विषय-प्रवेश १३ उसे भी पूर्वोक्त उपचरित कथनके समान असत्य ही जानना चाहिए। इस प्रकार शरीर मेरा, धन मेरा, देश मेरा इत्यादि रूपसे जितना भी कथन उपलब्ध होता है वह भी उपचरित क्‍यों है इसकी संक्षेपमें मीमांसा की । अब प्रसंगसे उपचरित कथनपर विस्तृत प्रकाश डालनेके लिए नेगमादि कतिपय नयोंका विपय किस प्रकार उपचरित है इसकी संक्षेपमें मीमांसा करते हें-- यह तो सबिद्दित हैं कि आगममें नेगमादि नयोंकी परिगणुर्ता सम्यक्त नयोंमें की गई हे इसलिए प्रश्न होता है कि जो इनका विपय हैं वह परमार्थभूत है, इसलिए इनकी परिगणना सम्यक नयोंमें की गई हैं या इसका कोई अन्य कारण है | समाधान यह हैं. कि जो इनका चिपय है उसे ऋृ्टिमें रखकर ये सम्यक् नय नहीं कहे गये हैं किन्तु फलितार्थ (लक्ष्यार्थ) की दृप्टिसे ही ये सम्यक्‌ नय कहे गये हैं । .._ उदाहरणस्वरूप पर संग्रहनयके विषय महासत्ताकी इृश्टिसे विचार कीजिए। यह तो प्रत्येक आगमाभ्यासी जानता है कि जैनदर्शनमें स्वरूप सत्ताके सिवा ऐसी कोई सत्ता नहीं है जो सब द्रव्योंमें तात््वकी एकता स्थापित करती हो। फिर भी अभिप्राय विशेपसे साहश्य सामान्यरूप महासत्ताको जेनदशेनमें स्थान मिला हुआ है | इस द्वारा यह वतलाया गया हे कि यदि ' कोई कल्पित यक्तियों दारा जड़-चेतन सब पदार्थमें एकत्व स्थापित करना चाहता है ता वह उपचरित महासत्ताकों स्वीकार करके उसके द्वारा ही ऐसा कर सकता है, परमार्थभूत स्वरूपा- स्तिल्वके द्वारा नहीं । इस प्रकार आगमसें इस नयकों स्वीकार करनेसे विदित होता है कि जो इस नयका विपय हे वह भले ही परसार्थभूत न हो पर उससे फलितार्थरूपमें स्व॒रूपास्तित्वका बोध पे ५/०.०१७ चल २७ जैनतत्त्वमोमांसा हो जाता है । इसी प्रकार नेगम, व्यवह्यार ओर स्थल ऋजुसत्र सयका विपय क्‍यों उपचरित है इसका व्याख्यान कर लेना चाहिए । तथा इसी प्रकार अन्य नयोंके विपयमें भा जान लना चाहिए | ॥॒ यह उपचरिन कथनकी स्वाग मीमांसा हैं। अब इस इष्टिसे एक ही प्रश्न यहाँपर विचारक लिए ओर शप रहता है । वह यह कि शाख्तरोंमें अखण्डस्वरूप एक बस्तुर्मे भद व्यवहार करनेकों भी उपचार कहा गया है | नयचक्रमें कहा भी हैं जो चिय जीवसहावों णिच्छुयटो दोइ सव्बजीयाणां | सो चिय भेदवेयारगा जाण फुड हाइ वन्रहारोां ॥२३६॥ जो निश्चयसे सब जीवोंका स्वभाव है उसमें भंदरूप उपचार करना व्यवहार है ऐसा स्पष्ट जानो ॥२३६॥ यहाँ अखण्ड एक वस्तुमें भेद करनेको उपचार या व्यवहार कहा हैं। इसलिए प्रश्न हाता है कि क्‍या ग्रत्यक द्रव्यमें जो गुण-पयायभेद परिंलक्षित होता है वह वास्तविक नहीं है' और यदि वह वास्तविक नहीं है तो प्रत्यक द्रव्यकों भेदामेदस्वभाव क्यों माना गया हे । ओर यदि वास्तविक हैं तो उसे उपचरित नहीं कहना चाहिए | एक ओर तो भेद करनेको वास्तविक कहा ओर दूसरी ओर उसे उपचरित भी मानो ये दोनों बातें नहीं वन सकती । समाधान यह है कि प्रत्येक द्रव्यकी उभ्रयरूपसे प्रतीति होती है, इसलिए बह उभयरूप ही है इसमें सन्देह नहीं। यदि इस इष्टिसे देखते हूँ तो जिस प्रकार वस्तु अखण्ड एक है यह थ्रन वास्तविक ठहरता है उती प्रकार बह गुण-चयोयकरे भेदसे भेदरूय है यह कथन भा वास्तावेक हा ठहरता है । फिर भी यहाँ पर जे भेद करनेको उपचरित कहा गया हू सा वह अख़ण्ड एक विपय-प्रवेश श्ध्‌ वस्तको प्रतीतिमें लानेके अभिप्रायसे ही कहा गया है| आशय यह है कि यह जीव अनादि कालसे भेदकों सुख्य सानकर प्रवृत्ति करता आ रहा हे जिससे वह संसारका पात्र वना हुआ हैं। किन्तु यह संसार दुखढायी हैं ऐसा समझकर उससे निवृत्त नेके लिए उसे भेदकों गोंण करनेके साथ अभेदस्वरूप अखण्ड एक आत्मापर अपनी हृष्टि स्थिर करनी हू । तसी वह संसार वन्धनसे मृक्त हो सकेगा। वतंसानमें इस जीवका यह मसख्य प्रयोजन है ओर यही कारण हँ कि इस प्रयाजनकों ध्यानमें रख- कर प्रकृतमें भेदकथनको उपचरित या व्यवहार कथन कहकर इससे मोक्षेच्छुक जीवकी दृष्टिको परावृत्त कराया गया है। स्पष्ट कि यहांपर हाँपर ( सेंद कथन ) उपचाररूप व्यवहार भिन्न अयोजनसे किया गया हे, इसलिए इसकी भिन्न कठ -कर्म आदि रूप उपचार व्यवहारसे तुलना नहीं की जा सकती । एक अखर्ड चस्तुमें भेद व्यवहार जहाँ वास्तविक ( परमाथमूत ) है वहाँ मिन्न कठू -कर्म आदि रूप व्यवहार वास्तविक (परमाथमूत ) हीं हे। वह वास्तविक क्‍यों नहीं हं इसका स्पष्टीकरण हम पहले कर ही आये है, इसलिए दोनों स्थल्ञोपर उपचार शब्दका व्यवहार किया गया हे सात्र इस शब्द साम्यकों देखकर उनकी परिगणना एक कोटिमें नहीं करनी चाहिए । मोक्षमार्गमें भेदव्यवहार गौंश होनेसे त्यजनीय है ओर भिन्न कतू-कर्म आदि रूप व्यवहार अवास्तविक होनेसे त्यजनीय है यह उक्त कथनका तात्पय है । इसप्रकार आगमसें उपचरित कथन किंतने प्रकारसे किया गया है ओर वह कहाँ किस आशयसे किया गया हे इसका विचारकरं अब अनुपचरित कथनकी संक्षेपसें मीमांसा करते हैं--- यह तो स्पष्ट वात है कि प्रत्येक द्रव्य परिणमनस्वभाव है, विषय-प्रवेश १७ ४. प्रत्येक द्रव्य स्व॒तन्त्र है। इसमें उसके गुण और पयोय भी उसी प्रकार स्व॒तन्त्र हें यह कथन आ ही जाता है। इसलिए विवक्षित किसी एक द्रव्यका या उसके गुणों और पर्योयोंका अन्य द्रव्य या उसके गुणों ओर पयोयोंके साथ किसी प्रकारका भी सम्बन्ध नहीं है | यह परमाथ्थ सत्य है । इसंलिए एक द्रव्यका दूसरे द्रव्यके साथ जो संयोगसम्बन्ध या आधार-आधेयभाव आदि कल्पित किया जाता है उसे अपरमसाथमूत ही जानना चाहिए। इस विपयको स्पष्ट करनेके लिए कटोरीमें रखा हुआ घी लीजिए। हस पूछते हैं कि उस घीका परमार्थभूत आधार क्या हे--कटोरी है या थी ? आप कहोगे कि घीके समान कटोरी भी है तो हम पूछते हैं कि कटोरीकों ओंधा करनेपर वह गिर क्यों जाता है ? 'जो जिसका वास्तविक आधार होता है उसका वह कभी भी त्याग नहीं करता? इस सिद्धान्तके अनुसार यदि कटोरी भी घीका वास्तविक आधार है तो उसे कटोरीको कभी भी नहीं छोड़ना चाहिए। परन्तु कटोरीके ओंथा करनेपर बह कटोरीको छोड़ ही देता है। इससे सालूम पड़ता है कि कटोरी घीका वास्तविक आधार नहीं है। उसका वास्तविक आधार तो थी ही है, क्‍योंकि वह उसे कभी भी नहीं छोड़ता । वह चाहे कटोरीमें रहे, चाहे भूमिपर रहे या चाहे उड़कर हवामें . विलीन हो जाबे, वह रहेगा सदा घी ही। यहाँपर यह दृष्टान्त घीरूप पयोयकों द्रव्य मानकर दिया है, इसलिए घीरूप पर्योयके बदलनेपर वह बदल जाता हे यह कथन प्रकृतमें लागू नहीं होता। यह एक उदाहरण है इसीप्रकार ऋल्पित किये गये जितने भी सम्बन्ध हैं उन सबके विपयमें इसी दृष्टिकोणसे विचार कर लेना चाहिए। स्पष्ट हे कि माने गये सम्वन्धोंमें एकमात्र तादात्म्य सम्बन्ध परसार्थ भूत है। इसके सिवा निमित्तादिकी दृष्टिसे अन्य ह्| है. श्ट जैनतत्वमीमांसा जितने भी सम्बन्ध कल्पित किये गये है. उसें उपचरित अत अपरमाथ भूत ही जानना चाहिए। बरहुतस सनीपी यह मानकर कि इससे व्यवहाग्का लाप हा ज्ञायगा एस कल्पित सम्बन्बाका परमाथभत साननकी चष्टा करते है। परन्तु बहा उनका संबंस बढ़ी भल है, क्योंकि इस भलके सथरमेस यदि उनके व्यवहारका लोप हाकर परमाभर्की प्राप्रि हाती है ता अच्छा ही है। एल व्यवहार का लाप भला किसे इष्ट नहीं हाना । इस संसारी जोचका स्वयं निश्चयस्थरूप बननेके लिए अपनेमें अनादिकालसे चले आ रहे इस अन्लानमूलक व्यवह्माग्का दी वो लोप करना है. । उसे ओर करना ही क्या है। बास्तवमें देग्या जाय ता यही उसका परम ( सम्यक ) पुरुषार्थ है, इसलिए व्यवह्यग्का लाप हो जाबगा इस श्रान्तिवश परमार्थसे दर रहकर व्यवहारका ही पस्मार्थरूप समभलेकी चेट्टा करना उचित नहीं ४, जीवकी संसार ओर मक्त अवस्था है ओर बह वास्तविक है इसमें सनन्‍्देंह नहीं। पर इस आधारस कर्म ओर आत्माय संश्लेप सस्बन्धका वास्तविक सानता उचित नहीं हे । जीवका संसार उसकी पयायमें ही है ओर मक्ति भी उसीकी पर्यागमें ये वास्तविक हैं ओर कम तथा आत्माका संपलेपसम्पन्ध उपचरित हैं.। स्वर्ग संश्तेप सम्बन्ध यह शब्द ही जीव ओर कमके प्रथक्‌ प्रथक हानका ख्यापत्त करता है। इसीलिए चथार्थ अथका ख्यापन करते हुए शात्रकारोंन चह्‌ बचन कहा है जिस समय आत्सा शुभ सावहपस परिणत दाता इस समय बह स्वर्य शुभ है, जिस समय अशुभ भावरूपसे परिणन होता हैं उस समय चह स्वयं अशुभ है आंर जिस समय शब्दघ सावस्ू्पस पारणत होता है उस समय वह स्‍स्य शुद्ध है। यह कथन एक है हव्यक आश्रयसे किय्रा गया है दा द्रव्योके आश्रयसे नहीं, अथ- हक विपय-प्रवेश | ९ इसलिए परमसाथमूत हे ओर कर्मोके कारण जीव शुभ या अशुभ होता हे और कर्मोंका अभाव होनेपर शुद्ध होता है यह कथन उपचरित होनेसे अपरसाथ्थंमृत है, क्‍योंकि जब ये दोनों , द्रव्य स्व॒तन्त्र हैं ओर एक द्वव्यके गुण धर्मका दूसरे द्रव्यमें संक्रमण होता नहीं तब एक द्॒ब्यमें दूसरे द्रव्यका कारणरूप गुण ओर दूसरे द्रब्यमें उसका कमेरूप गुण केसे रह सकता है, अर्थात्‌ | रह सकता। यह कथन थोड़ा सूक्ष्म तो है। परन्तु बस्तु- स्थिति यही है । इस विपयको स्पष्ट करनेके. लिए हम तत्त्वाथथे- सूत्रका एक वचन उद्धृत करना चाहेंगे। तत्त्वाथ्सृत्रके १० वें अध्यायके प्रारम्भमें केवलज्ञानकी उत्पत्ति केसे होती हे इसका निर्देश करते हुए कहा है-- मोहत्ष॒ुय्राज्ञानदश नावरणान्तरायक्षयाच्व केवलम्‌ ॥१०-१|॥ साहनाथ कसक क्षेयस तथा ज्ानावरण, दशनावरण आर अन्तराय कसके क्षयर्स कंवलज्ञान हांता हू ॥|१०-१९॥। पर केवलज्ञानकी उत्पत्तिका हेतु क्या हे इसका निर्देश करते हुए बतलाया हे कि वह सोहनीय कमके क्षयके बाद ज्ञानावरणादि तीन कर्मोक्ते क्षयसे होता है | यहाँपर क्षयका अथ प्रध्यंसाभाव है, अत्यन्ताभाव नहीं, क्‍योंकि किसी सी द्रव्यका परयोयरूपसे ही नाश होता है, द्रव्यरूपसे नहीं। अब विचार कीजिए कि ज्ञानावरणादिरूप जो कर्मपर्याय है उसके नाशसे उसकी अकर्मरूप उत्तर पर्योय प्रकट होगी कि जीवकी 'केवल- ज्ञान पर्याय प्रगट होगी | एक वात ओर है वह यह कि जिस समय केवलज्ञान पयोय प्रगट होती हैं उस समय तो ज्ञाना- वरणादि कर्मोक्रा अभाव ही हे ओर अभावकों कार्योत्पत्तिसें ्य कारण माना नहा जा सकता। यांद अभावका भा कायात्पात्तिस विपय-प्रवेश .. २१ लोकिक व्यवहारकी मख्यतासे कथन किया गया है और कहीं अन्य प्रकारसे कथन किया गया है। पर ऐसे कथनका प्रयोजन क्या है इसे तो ससमभे नहीं ओर उसे ही यथाथ. कथन मानकर श्रद्धान करने लगें तो उसकी इसे श्रद्धाकों यथार्थ कहना कहाँ तक उचित होगा इसका विचक्षणु परुप स्वयं विचार करें। वास्तवमें निमित्त यह उपचरित हेतु है, मुख्य हेतु नहीं। मुख्य हेत तो सबत्र अपत्ता उपादान ही हॉता हे, क्योंकि कार्यकी उत्पत्ति उसीसे हती है । फिर भी वह वाह्म हेतु ( उपचरित हेत ) होनेसे उस द्वारा सुगमतासे इट्टा थका ज्ञान हो जाता हे, इसलिए आगमसें आर दशनशाख्रमें वहुलतासे उसकी मुख्यतासे कथन किया गया. । इसलिए जहाँ जिस दृष्टिकोणसे कथन किया गया हो उसे सममभकर ही तत्वका निशय करना चाहिए | ये उपचरित ओर अतवुपचरित कथनके कुछ उदाहरण हैं जो गौणु-मख्यभावसे यथा प्रयोजन शाद्योंमें स्वीकार किये गये हैं। डदाहरणार्थ जो दर्शनशासत्रक्के अन्थ हैं उनकी रचनाका प्रयोजन ही भिन्न है, इसलिए वहाँ पर मोक्षमागकी इृष्टिसे मात्र स्वससयके तिपादनकी सख्यता न होकर स्वससयके साथ पर ससयकी भी समान भावसे मीसांसा की गई हे। फलस्वरूप उनमें कहीं तो उपचरित अथकी सुख्यतासे कथन किया गया हे, कहीं अनुप- चरित अथकी म॒ख्यतासे कथन किया गया हे आर कहीं उपचरित ओर अलुपचरित दोनों अर्थाकी सुख्यतासे कथन किया गया है। किन्तु साज्ञात्‌ मोक्षमागंकी इष्टिसे सससयका विवेचन करनेवाले जा अध्यात्मशाखके अन्थ है उनका स्थिति इनसे सिन्न है! । यादि ' १, सर्वस्थागभस्थ स्वसमय-परसमयानाञज्च सारभूतं समयसाराख्य- मधिकारम्‌........ । मूलाचार समयसार अधिकारकी प्रारम्भकी उत्थानिका । जैनतत्वमोमांसा ल्‍्प हज विचार कर देखा जाय तो इनकी रचनाका प्रयाजन ही जद्दा है। इन द्वारा प्रत्यूक जीवका अपनी उस शक्तिका ज्ञान कगया गया हू जो उसकी संसार ओर मक्त अवस्थाका मख्य हेस है, क्योंकि जवतक इस जीवका अपनी उपादान द्वक्तिका ठीक तरहसे ज्ञान नहीं दाता और बह निम्मित्तोंक्री जाइ-लाड़में लगा रहता है तध्तक उसका संसार वन्धनस मुक्त हाना ता दर रहा बढ़ साज्षमार्गका भी पात्र नहीं हा सकवा। अतः इन शाल्रोंमें हेयोपादेवका क्षान करानक लिए उपचरित कथनकी ओर भद्हूप व्यवह्ारका गोग करके अनुपचरित ( निश्चय ) कथनका मुख्यता दी गई है और उस द्वारा निश्चय स्वहूप आत्माका ज्ञान कगने हुए एकमात्र उसाका आश्रय लनेका उपदेश दिया गया है । यह ता सुनिश्चत बात है कि जितना भी व्यवहार है बह परशाश्रत हानेस हय है, क्योंकि यह जीव अनादिकालले अपसे आ्यादानका सम्हाल किय बिना परका आश्रय लिए हुए हैं, तनण्य पतारका पात्र चना हुआ है । अब इसे जिसमें पराश्यपनक्ा जता भा नहा ह एस अपने स्वाश्नयपनेकों अपनी श्रद्धा, ज्ञान ओर चयाक हारा अपनमें ही प्रगट करना है तभी वे अध्यान्मगृतत हाकर माक्षका पात्र चन सक्ेगा। यह तो हैं कि प्रारम्भिक अवस्थाम एस जीवका अपनी पयोगमेंस पराश्रयपन्रा सबधा जाता हा एसा नहीं हू, क्णेंक्रि उसमेंसे पराश्रयपनेकी अन्तिम परससाध्ति विकल्पक्षानके निम्त्त हानेपर ही हाती है। फिर भी विश्वथम यह जीव अपनी श्रद्धा द्वारा पराश्षयपनंका त्याग करता हूं। उसके चाद वह चर्याक्रा रूप लकर विकल्प ज्ञानस निमत्त : हाता हुआ क्रमशः निब्चिकल्प समाधिदेशाम परिणत हा जाता है | जावका यह्‌ स्वाश्रय वृत्ति अपनी अद्धा, ज्ञान आर चर्चामें किस विषय-प्रवेश २३ प्रकार उद्ति होती है इसका निर्देश करते हुए छहढालामें कहा भी हू--- जिन परम पैनी सुत्रधि छेंनी डार अन्तर भेदिया | वरणादि अरु रागादि ते निज भावको न्यारा किया | निजमांहि निजके हेत निजकरि आपको आपे गद्मों । गुण गुणी ज्ञाता ज्ञान श्ेय मझांर कछु भेद न रहो | इस छन्दमें सर्वप्रथम उत्तम बुद्धिरूपी छेनीके द्वारा अन्तरको भेदकर बणोदिक ओर रागादिकसे निज भाव ( ज्ञायक स्वभाव आत्मा ) को जुदा करनेका जो उपदेश दिया गया है और उसके बाद जो निज भाव हैं उसको अपनेमें ही अपने द्वारा अपने लिए अहणुकर यह शुरु ह्‌, यह गुणा | यह ज्ञाता धर यह ज्ञान हे ओर यह ज्ञेय है इत्यादि विकल्पोंसे निबवृत्त होनेका जो उपदेश दिया गया है सो इस कथन द्वारा भी उसी स्वाश्रयपनेका निर्देश किया गया है जिसका हम पूर्वमें उल्लेख कर आये हैं । इस द्वारा बतलाया गया हैं कि सर्वप्रथम इस जीवको यह जान लेना आवश्यक है कि वर्णादिकका आश्रयभूत पदल द्रव्य भिन्न है और ज्ञायक स्वभाव आत्मा भिन्न हैं। किन्तु उसका इतना जानना तभी परिपूर्ण समझा जायगा जब उसकी परकों निमित्त कर होनेवाले रागादि भावोंसें भी पर वुद्धि हो जाय, इसलिए इस जीवको ये रागादिक भाव ज्ञायक स्वभाव आत्मासे भिन्न हैं यह जान लेना भी आवश्यक है । अब समझो कि किसी जीवने यह जान भी लिया कि मेरा ज्ञायक स्वभाव आत्मा इन वरणोदिकसे ओर रागादिक भावोंसे भिन्न हे तो भी डसका इतना जानना पयोप्त नहीं माना जा सकता, क्‍योंकि जवतक इस जीबकी यह वुद्धि बनी रहती हे कि प्रत्येक कार्यकी उत्पत्ति निमित्तसे होती हे तब- २४ जैनतत्वमीमांसा तक उसके जीवनमें निर्मिचका अथाीत परके आश्रयका हो बल बना रहनेसे उसने पराश्रयव्त्तिकों त्याग दिया वह नहां कहा जा सकता । अतण्व॒ प्रकृतमें यही समझना चाहिए कि जा बणादिक ओर रशागादिकरसे अपने ज्ञायकस्वभाव आत्माको मिन्न जानता बह यह भी जानता है कि प्रत्येक द्रव्यकी प्रति समयकों पयाय निमित्तस उत्पन्न न हाकर अपने उपादानसे ही उत्पन्न दांती हैं । अद्यपि यहाँपर यह :श्न होता हैं क्लि जब कि पत्येक द्रव्यकी प्रति समयकी परयोथ निमित्तस उत्पन्न न हाकर अपने उपादानसे ही उत्पन्न होती है त्तव गगादि भाव परके आश्रयसे उत्पन्न होते हैं चह क्‍यों कहा जाता हैं? समाधान यह है कि रागादि भावोंकी उत्पत्ति हर्ती तो अपने उपादानसे ही हैँ, निर्मित्तांसे त्िकालमें नहीं दाती, क्योंकि अन्य द्रव्यमें तद्धिन्न अन्य द्रब्यक कार्य करनेको शक्ति हीं पाइ जाती। किर भी रागादिभाव परके आतन्रयसे उत्पन्न होते है यह परकी ओर ऋ्रुक्रावरूप दोप जतानेके लिए ही कहा . जाता है । वे परसे उत्पन्न होते इसलिए वहां । स्व-परकी एकत्व बुद्धिरुप सिथ्या सान्यताके कारण ही यह जोव संसारी हो रहा है। जाब आर इहस एकत्व चुद्धका मुख्य कारए भा बहा हू । श्स जाबका सबगप्रधम इस सिथ्या मान्यताका हा त्याग करना है । इसके त्याग हाते हा बह सिनेश्वस्का लघुनन्दन वन जाता जिसके फलस्वध्प उसकी आगेको स्वातन्त्य सागका प्रॉक्रया सुगम है जाती है| अत्तउब लैनदशन या व्यवह्ा रनयकी म॒ुख्यतासे कथन करनेवाले शाब्वाकां कवनशंत्रस अध्यात्मशातंकी कथन शल्ाम ज[ दरण्ट भर है दस समझकर हु प्रत्येक समज्ञुका उनका व्याख्यान करता चाहिए। लाकर्म ज़तने प्रकारके उपदेश पाये जात ह उनकी स्वमतके अनुसार किस प्रकार संगति चिठलाइ जा सकता हैं यह दिखलाना जेंसदशतका मख्य प्रयोजन है, इसलिए वस्तुस्वभावमीमांसा २५ उसमें कान उपचरित कथन है ओर कोन अनपचरित कथन है छऐसा भेद किये बिना नय-प्रमाणहष्टिसे दोनोंकों स्वीकार किया गया है । किन्तु अध्यात्मशाखके कथनका मुख्य प्रयोजन जीवकों स्व-परका विवेक कराते हुए संसार वन्धनसे छुड़ानेका साक्षात्‌ उपाय वतलाना है, इसलिए इससें उपचरित कथनकों गोण करके अनपचरित कथनको ही सख्यता दी गई हे । इसप्रकार तीरथेकरोंका समग्र वाछ्याय उपचरित कथन ओर अनुपचरित कथन इन दो मभागोंमं केसे विभाजित हे इसकी विपय-अवेशकी दृष्टिसे संक्षेपमें सीमांसा की | बस्तरूव भावमी माँसा उपले विनशे थिर रहे एक काल तच्रयरूप । ०-०५ वाधननपेधसे वस्तु यों वरते सहज स्वरूप ॥॥ जीवन संशोधनमें तत्त्वनिष्ठाका जितना महत्त्व है, कार्यकारण भावकी मीमांसाका उससे कम महत्त्व नहीं है। आचाय कुन्दकुन्दने भूताथरूपसे अवस्थित जीव, अजीब, पण्य, पाप, आखब, संवर पनिजेरा, वन्‍्ध ओर मोक्षके श्रद्धानकों सम्यग्दशंन कहकर जीवा- जीवाविकारके वाद कतू कर्मअधिकार लिखा है । उसका कारण यही हैं। तथा आचाये पृज्यपादने स्वो्थसिड्धिमें 'सदसतोः < इत्यादि सूत्रकी व्याख्या करते हुए मिथ्याहृष्टिके स्वरूपविपयांस ओर सेदाभेदविषयोसके समान कारणुविपयास होता हे यह उल्लेख इसी अभिप्रायसे किया है । वस्तुस्व भावमीमांसा २७ रूपसे परिणमन करता ह। इन दोनों पक्षोंमें कोन-सा पक्त जेनध्समें 'तत्त्वह्पसे ग्राह्म विपयकी आचार्य कुन्दकुन्दने समयप्राश्चतमें स्वयं मीमांसा की है। उनका कहना है कि जीव द्रव्य यदि स्वयं . कर्मसे नहीं वंधा हे ओर स्वयं क्रोधादिरूपसे परिणमन नहीं करता है तो बह अपरिणामी ठहरता हे और इस प्रकार उसके अपरिणामी हो जानेपर एक तो संसारक्का अभाव प्राप्त होता है दूसरे सांख्यमतका प्रसंग आता है। यह कहना कि जीव स्वयं तो अपरिणासी है परन्तु उसे क्रोधादि भावरूपसे क्रोधादि कमे परिणमा देते है उचित प्रतीत नहीं होता, क्‍योंकि जीवको स्वयं परिणमन स्वभाववाला नहीं माननेपर कऋ्रोधादि कर्म उसे क्रोधादि भावछूपसे केसे परिणसा सकते है. ? यदि इस दोपका परिहार करनेके लिए जीवकों स्वयं परिणमनशील माना जाता हे तो क्रोधादि कर्म जीवको क्रोधादि भावरूपसे परिणमाते हैं यह कहना - तो सिथ्या ठहरता ही है। साथ ही इस परसे यही फलित होता है कि जब यह जीव स्वयं क्रोधरूपसे परिणमन करता है तव वह “स्वयं क्रोध हैं, जब स्वयं मानरूपसे परिणमन करता है तब वह स्वयं मान है, जब स्वयं मायारूपसे परिणमन करता है तव वह स्वयं माया है ओर जब स्वयं लोभरूपसे परिणमन करता हैं तब स्वयं लोभ है।' आचार्य कुन्दकुन्दने यह मीसांसा केवल जीवके आश्रयसे ही नहीं की है| कर्मवर्गणाएँ ज्ञानावरणादि कर्म- रूपसे केसे परिणमन करती हैं इसकी मीमांसा करते हुए भी उन्होंने इसका मुख्य कारण परिणामस्वभावकों ही वतलाया है।' एक द्रव्य अन्य द्रव्यको क्‍यों नहीं परिशणमा सकता इसके १. समयप्राभृत गाथा १२१ से १२९४ तक | २. समयप्राभत गाथा १२० से ११४ तक । २८ जैनतत्त्वमीमांसा कारणका निर्देश करते हुए वे इसी समयप्राभ्नतमें कहते हैं: जो जम्हि गुण दब्वे सो अण्णम्दि दु ण्‌॒ संक्रमदि दब्बें । सो अण्णमसंकंतो कद त॑ परिणामए दव्बं ॥१०३॥ जो जिस द्रव्य या गुणमें रह रहा हैं उसे छोड़ कर वह अन्य * द्रव्य या गुणसें कभी भी संक्रमित नहीं होता | बह जब अन्य द्ब्य या गुणमें संक्रमित नहीं होता तो वह डसे केसे परिणमा सकता हूं, अथान नहों परिणमा सकता ॥९०श॥ तात्पय यह हैं कि लोकमें जितने भी कार्य होते हैं वे सच अपने उपादानके अनुसार हो होते हैं | यह नहीं हो सकता कि उपादान ता घटका हा ओर उससे पटकी निष्पति हो जावे । यदि बटक उपादानसे पटको उत्पत्ति हाने लगे तो ल्ोकमें न तो पदाथाको ही व्यवस्था वन सकेगी ओर न उनसे जायमान कार्योंकी हा। गशेशं प्रकुवाणो रचवामास वानरम' जेसी स्थिति उत्पन्न हा जावेगी । जिसे जैनदशनमें उपादान कारण कहते हैं उसे नैयायिक- देशनस समवायाकारण कहा गया हैं। यद्यपि नेयायिकदर्शनके 3 उतार जड़-चंतन गत्येक कार्यका कतो इच्छावान्‌, प्रचत्नवान्‌ आए ज्ञानवान्‌ स्तन पदार्थ ही हो सकता हैं, समवायीकारण नहा। उससे भो यह सचेतन पदार्थ ऐसा होना चाहिए जिसे सैत्यक समयम् जायमान सब कारयोके अच्छादि कारकसाकल्यका टेप ज्ञान हों । इसीलिए उस दशोनसें सब कार्योके कतोरूपसे इच्दायान, प्रयल्ववान ओर ज्ञानवान्‌ इश्वरकी स्वतन्त्र रूपसे स्थापना का गई हैं। इस अकार हस देखते हैं कि जिस दर्शनमें शेनमें लग कार्याक कत्ताहपसे इश्वरपर इतनां वल दिया गया है वह दशन ही जब कार्योत्पत्तिमें समवायी कारणोंके सद्भावको स्वीकार वस्तुस्वभावमीमांसा . २९ . करता है | अर्थात्‌ अपने अपने समवायीकारणोंसे समवबेत होकर ही जब वह घटादि कार्याक्री उत्पत्ति मानता है ऐसी अवस्थामें अन्य कार्यके उपादानसे अन्य कायकी उत्पत्ति होजाय यह मान्यता तो ज़िकालमें भी सम्भव नहीं हे। यही कारण है कि आचार्य कुन्दकुन्दने जहाँ भी किसी कार्यका कारणकी हृष्टिसे विचार किया उन्होंने उसके कारणरूपसे उपादान कारणको ही प्रमुखता दी हे। वह कार्य चाहे संसारी आत्माका शुद्धि सम्बन्धी हो ओर चाहे घट-पटादिरूप अन्य काय हो, होगा वह अपने उपादानके अनुसार ही यह उनके कथनका आशय हैं। जैनदशनमें प्रत्येक द्रव्यकों परिणामस्वभावी माननेकी साथेकता भी इसीमें हैं । प्रश्न यह है कि जब प्रत्येक द्रव्य परिणमनशील हे तो वह प्रत्येक समयमें वद्लकर अन्य-अन्य क्यों नहीं हो जाता, क्योंकि प्रथम समयमें जो द्रव्य है वह जब दूसरे समयमें बदल गया तो उसे प्रथम समयवाला मानना कैसे संगत हो सकता है ? इसलिए या तो यह कहना चाहिए कि कोई भी द्रव्य परिणमनशील नहीं हैं या यह मानना चाहिए कि जो प्रथम समयमें द्रव्य है वह दूसरे समयमें नहीं रहता। उस समयमें अन्य द्र्य उत्पन्न हो जाता है। इसी प्रकार दूसरे समयमें जो द्रव्य है वह तीसरे समयमें नहीं रहता, क्‍योंकि उस समयमें अन्य नवीन द्रव्य उत्पन्न हो * जाता है। यह क्रम इसी प्रकार अनादिकालसे चला आ रहा है ओर अनन्तकाल तक चलता रहेगा। प्रश्न मामिक है। जेन दर्शन इसकी महत्ताको स्वीकार करता है । तथापि इसकी महत्ता तभी तक है जबतक जैनदशनमें स्वीकार किये गये 'सत्‌” के स्वरूप निर्देशपर ध्यान नहीं दिया जाता | ब़हाँ यदि 'सतः कों केवल परिणामस्वभावी माना गया होता तो यह आपत्ति 2० जैनतत्त्वमीमांसा अनिवाय होती । किन्तु वहाँ 'सन' को केबल परिणशामस्व्रभावी न मानकर यह स्पष्ट कहा गया हू कि प्रत्येक द्रव्य अपने अन्बय रूप धमक कारण शथ्वस्वथभाव दे तथा उत्पाद-ब्ययरूप धर्मके कारण परिणामस्वभावी है । इसलिए संत को केवल परिणाम- स्वभातरी सानकर जा आपत्ति ईद जाती हे बह प्रक्ृतसें लाग नहों हाती। हम संत के इस स्वरूपपर तत्वाथसत्रके अनसार पहल प्रकाश डाल हा आय है. । इसी विपयको स्पष्ट करने हुए आचाये कुल्दकुल्द प्रवचनसारक क्ष याधिकारसें क्या कहते है यह उन्होंके शब्दोंमं पढ़िए:-- समदद खलु दब्यब संभकद्रिदित्गासससिणदट हिं। खबकारह चत्र समए नम्दा दच्ब॑ खू तक्तिदयं ॥१०॥ व्यू एक है समय उत्पत्ति, स्थिति और व्यय संज्ावाली पयायास समवंत हे अथान तादात्म्यक्ता लिए हुए है, इसलिए द्रव्य नियमसे उन तीनमय है ॥३०॥| इसी विपयका बिशप खुलासा करते हुए व पुनं। कहत (० 4 पराडुव्भवाद ये अस्णो पत्जाओं पज्नओ। बयदि अरटणो । टब्वस्स त॑ पि दब्यं॑ गोेव परणुट् शा उप्पयण्णं ॥१२१॥ त्ल्यकी अन्य पद्मात उत्पन्न होती है और अन्य पर्याश बका आम होता हैं। तो भी द्रव्य स्वयं न तो नष्ट ही हुआ है आर न उत्पन्न ही हुआ है ॥११॥ अयत्र यह कथन थोड़ा विलच्नण प्रतीत होता है कि दृब्य स्वयं उत्पन्न और विनट्ट न होकर भी अन्य पर्यायरुपस केसे 23 दाता हैं आर तद्मिन्न अन्ब पर्यायरूपसे कैसे व्ययको प्राप्त पता है। किन्तु इसमें बिलक्षणताकी कोई बात नहीं है. । स्वामी वस्तुस्वभावमीमांसा ३१ समन्तभद्रने इसके महत्त्वको अनभव किया था। वे आप्रमीमांसामें इसका स्पष्टीकरण करते हुए कहते हेः-- न सामान्यात्मनोदेति न व्येति व्यक्तमन्वयात्‌ | ब् है 5 ७५ पलक पे हैकत्रो £ 5 व्येत्युदेति विशेषात्ते सहैकत्रोदयादि सत्‌ ॥५ ॥ हे भगवन्‌ ! आपके सतसें सन्‌ अपने सामान्य स्वभावकी अपेक्षा न तो उत्पन्न होता है ओर न अन्वय धर्मकी अपेक्षा व्ययको ही प्राप्त होता है। फिर भी उसका उत्पाद और व्यय होता है सो यह परयोयकी अपेक्षा ही जानना चाहिए, इसलिए सत्‌ एक ही बस्तुमें उत्पादादि तीनरूप हे यह सिद्ध होता है ॥ ५७॥ आगे उसी आप्तमीमांसासें उन्होंने दो उदाहरण देकर विपयका स्पष्टीकरण भी किया है। प्रथम उदाहरण द्वारा वे कहते हैं :-- घट-मोलि-सुवर्शा्थी नाशोत्यादस्थितिप्वयम्‌ । शोक-प्रमोद-माध्यस्थ्य॑ जनो याति सहेतुकम |॥॥५६॥ घंटका इच्छुक एक समुष्य सुवणकी घट पयोयका नाश होने ' पर दुखी होता है, मुकुटका इच्छुक दूसरा मनुष्य सुवर्णकी मुकुट पर्यायकी उत्पत्ति होने पर हर्पित होता है ओर सात्र स॒वर्णा- का इच्छुक तीसरा महुंष्य घट पर्योयका नाश और मुकुट पर्यायकी उत्पत्ति होने पर न तो ढुखी होता है ओर न हर्पित ही होता है किन्तु माध्यस्थ्य रहता हे। इन तीन मनुष्योंका एक स॒वर्णके आश्रयसे होनेवाला यह काय अहेतुक नहीं हो सकता | इससे सिद्ध हे कि स॒ुवर्णक्की घट पयोयका नाश और स॒कुट पर्योयकी उत्पत्ति होने पर भी सुवर्शका न तो नाश होता है और ३२ जैनतत्वमीमांसा न उत्पाद ही । सुबर्ण अपनी घट, मुकुट आदि प्रत्येक अवस्था सुबर्ण ही बना रहता है ॥५९॥ हि दूसरे उदाहरण द्वारा इसी विपयकी स्पष्ट करते हुए वे पुनः कहते हैं :-- पयोतव्रतों न दध््यत्ति न पयोदत्ति दधिन्रतः । अगोरसब्रतो नोभे तस्मात्तत्व॑ त्रवात्मकम ६०) जिसने दूध पीनेका त्रत लिया है वह दही नहीं खाता, जिसने दही खानेका त्रत लिया है. वह दूध नहीं पीता ओर जिसने गोरसके सेवन नहीं करनेका त्रत लिया है बह दूध और दही दोनोंका उपयोग नहीं करता । इससे सिद्ध हे कि तत्त्व उत्पाद, व्यय और प्रोग्य इन त्तीनरूप है ॥।६०॥। सर्वार्थसिद्धिमें इस विपयका ओर भी विशदताके साथ स्पष्टी- करश किया गया है । उसमें आचाये पृज्यपाद कहते हैं :-- चेतनस्थाचेतनस्थ वा द्रव्यस्थ स्वां जातिमजहत उमयनिमित्तवशाद भावन्तरावाप्तिरुत्पादनमुत्ादः मृत्पिएडस्य घटपर्यायबत्‌ ) तथा पूर्वभाव- विगमन व्यय: । यथा घटोलत्ती पिएडाकृतेः। अनादिपारिणामिक- स्वभावेन व्ययोदयाभावाद्‌ श्रुवति स्थिरीभवतीति श्र वः । अ्रू वस्य भाव+ कर्म वा धोव्यम्‌ | यथा मृत्यिए्डघटाद्रवस्थासु मृदाद्यत्वयः । तैरुत्पाद- च्ययश्रीव्येयु क्त॑ उत्पाद-व्यव-ओव्ययुक्तं सत्‌ । [ तल्वार्थसू० आ० ४ सृ० ३० ] १. यहाँ पर नि्ित्त शब्द कारणवाचो है| तदनुसार उभय निमित्तसे उपादान और लिमित्त दोनोंका ग्रहए किया है | तात्पर्य यह है कि अपने अपने उपादानके अनुसार कार्यकी उत्पत्तिके समय निमित्त बलावानमें हेतु होता है, इसलिए टोकामें उभ्यनिमित्तके वशसे उत्पन्न होना.उत््पाद : है ऐसा कहा है । वस्तुस्वभावमोमांसा ३३ अपनी अपनी जातिको न छोड़ते हुए चेतन और.अचेतन द्रव्यका उसय निमित्तके वशसे अन्य पयायका प्राप्त करना उत्पाद है। जैसे मिदट्टीके पिए्डका घटपयोयरूपसे उत्पन्न होना उत्पाद है | पूव पर्योयका नाश होना व्यय है। जैसे घटकी उत्पत्ति होने पर पिण्डरूप आकृतिका नाश होना व्यय हे। तथा अनादि कालसे चले आ रहे अपने पारिशणामिक स्वभावरूपसे न व्यय होता है ओर न॒ उत्पाद होता हैं । किन्तु वह स्थिर रहता है। इसीका नाम प्र व है। तथा धर वका भाव था कम पश्रोव्य है । तात्पर्य यह है कि जिस प्रकार पिए्ड और घटादि अवस्थाओं में मिट्टीका अन्च॒य वना रहता है, इसलिए एक मिट्टी उत्पाद, व्यय ओर ध्ोग्यस्वभाव है उसी प्रकार इन उत्पाद, व्यय ओर ध्रोव्यसे युक्त अथोत्‌ तादात्म्यकों लिए हुए सत्‌ है । इस प्रकार इतने निबेचनसे स्पष्ट हो जाता है कि चेतन ओर अचेतन द्रव्यका प्रत्येक समयमें जो पर्योयरूपसे परिणमन होता है वह अन्य किसीका कार्य न होकर' उसकी अपनी विशेपता है। तथा पर्यायरूपसे परिशणमन करते हुए भी जो वह अपने अनादिकालीन पारिणामिक स्वभावरूपसे स्थिर रहता है। उप्तका वह परम पारिणमिक भाव न उत्पन्न होता है ओर न व्ययको ही प्राप्त होता है यह भी उसकी अपनी विशेपता हे। इन दोनों विशेषताओंक्रा समुच्चयरूप (मिलित स्वभावरूप ) द्रव्य या सत्‌ है यह उक्त कथनका तात्पये है । १, एक द्रव्य दूसरे द्रव्यकों नहीं परिणमाता है, अन्यथा प्रत्येक द्रव्यका परिशणमन करना स्वभाव हैँ यह सिद्ध नहीं होता | यही कारण है कि प्रकृतमें प्रत्येक द्रव्यका परिणमन करना तद्िन्न अन्य द्रव्यका कार्य नहीं है यह कहा गया है। विशेष खुलासा पहले कर ही आये हैं । ३ निमितकारखकी' सवीकर्टदें उपादान निज गुण जहाँ तहँ निमित्त पर होय । भेदज्ञान परवान विधि बिरला बूमे कोब ॥ [ परिडतप्रवर बनारसीदासजी | पिछले प्रकरणमें हम युक्ति ओर आगमसे यह सिद्ध कर आये हैं कि चेतन और अचेतन प्रत्येक द्वव्यका पर्यीयरूपसे उत्पन्न होना और नाशको प्राप्त होना तथा परम पारिणामिक स्व॒भावमय अन्वयरूपसे उत्पन्न और विनष्ट हुए विना स्थिर रहना उसका अपना स्वभाव हे, वह अन्य किसीका काये नहीं हैं । आगममें छह द्रव्य ओर उनके कार्यरूप लोककों अकृत्रिम ओर अनादिनिधन कहनेका तथा उसके कतोरूपसे इश्वर्के निषेधका तात्पर्य भी थही है। इसलिए यह प्रश्न होता है कि क्‍या यह एकान्त है कि जिस प्रकार प्रत्येक द्रव्य अपने अन्वयरूप स्वभाव से अवस्थित है, वह अन्य किसीका कार्य नहीं है उसी प्रकार परिणमन करना उसका स्वभाव होनेसे मात्र वह अपने इस स्वभावक्के कारण ही परिणमन करता है या उसे अपने . इस परिणमनहूप कार्येमें उससे भिन्न दूसरे कारण भी अपेक्षित रहते हैं। जहाँ तक आगमका सम्बन्ध है उसमें द्रव्यके उक्त स्वभावकों स्वीकार करनेके बाद सी प्रत्येक कार्यकी उत्पत्तिमें निमित्त कारणों- का अस्तित्व स्वीकार किया गया है। तत्त्वाथसूत्रमें एक द्रव्य अपनेसे मिन्न दूसरे द्रृव्यका क्या उपकार करता है इसका निर्देश करते हुए कहा गया है कि जीवों ओर पुद्नलोंकी गतिसें निमित्त होना. निमित्तकारणकी स्वीकृति ३५ घस द्रव्यका उपकार है । जीवों ओर प॒द्लोंकी स्थितिमें निमित्त होना अधर्म द्रव्यका उपकार है। सब द्रव्योंको अवकाश देनेमें 'निमित्त होना आकाश द्रव्यका उपकार है। शरीर, वचन, समन '.. ओर श्वासोच्छूबासकी रचना करके उस द्वारा संसारी जीवोंके लिए निमित्त होना पृद॒लोंका उपकार है| सुख, दुख, जीवन ओर मरणमें जीवोंके लिए निमित्त होना यह भी प॒द्टलोंका उपकार है। जीवोंके सुख, दुख, जीवन और मरणुके साथ अन्य कार्योमें निमित्त होना जीवॉका उपकार है| तथा सब द्र॒व्योंके यथासस्मव व्तेना परिणास, क्रिया, परत्व ओर अपरत्वसें निमित्त होना कालद्रव्यका उपकार है'। यहां पर परत्व ओर अपरत्वसे कालनिमित्तक परत्व ओर अपरत्व लिये गये हैं । यहाँ इतना विशेष समझना चाहिए कि कोई विवज्तित द्रव्य अपनेसे भिन्न दूसरे द्रव्यका भला करता हैं इस अथसें यहाँ उपकार शब्द नहीं आया है । किन्तु प्रत्येक द्रव्यका विबक्षित कार्य होते समय किस कार्यमें कौन द्रव्य किस रूपमें निमित्त होता स अर्थमें यह उपकार शब्द आया है। यहीं कारण है कि प्रकृतमें हमने उपकार शब्दका अर्थ निमित्त किया हे । एक द्रव्य दूसरे द्रव्यके कार्यमें निमित्त ही हो सकता हैं, वास्तवमें भला बुरा तो एक द्रव्य दूसरे द्वव्यका कर ही नहीं सकता ऐसा नियम है । एक द्रव्य दसरे द्रव्यके कार्यमें निमित्त ही होता है इस तथ्यको आचार्य कुन्दकुन्दने समयप्राश्वतमें स्पष्टरूपसे स्वीकार किया है । वे कहते हैं :--- १, तत्वर्थयूत्र अ० ५, सू० १७ से २२ तक। ३, देखो मोक्षमार्ग- अकाशक अधिकार ३ | जैनतत्वमी मांसा न्च्ता न्शी जीवपरिणामहेदुं कम्मत्त पुग्गला परिणमंति | पुग्गलकम्मणिमित्त तहेव जीवों वि परिणमइ ॥८०॥ जीवके राग-होप आदि परिणामोंकों निमित्त करके पुद्टल बर्गणाएँ कर्मरूपसे परिणमन करती हैं. ओर पुठ्ललकर्मकों निमित्त करके जीव भी उसी प्रकार राग-हें प आदिरूपसे परिणमन करता हैं. ॥। ८० ॥ कार्यका उत्पाद सहेतुक होता हैं इस तथ्यकों 'कार्योल्रादः ऋषयो- हेतो/ इन शब्दों द्वारा आप्तमीमांसामें स्वामी समन्तभद्र॒ने भी स्वीकार किया है | दृव्यकी पूर्व पर्यायका क्षय ओर उत्तर पर्योचका उत्पाद एक हेतुक है यह इसका तात्पर्य है। यहाँ “गक्क हँतुक इसका अर्थ उपादानहँतुक हैं यह भी हो सकता है. ओर निमित्त-- हेतुक है. यह्‌ भी हो सकता है। इसकी व्याख्या करते हुए स्वामी विद्यानन्द अप्रसहस्री ( प्रू० २१० ) में कहते हैं. :--- ततो नेदमनुमान वाधकम्‌ , कपालोत्यादस्थ बर्टावनाशस्थ चेकदेलुत्व- नियमग्रतीतेः । एकस्मादेव मदाद्र पादानात्तदूभावस्वसिद्धेरेकस्माच मुद्गरादिसहकारेकलापात्तस्सप्रत्ययात्‌ । इसालण यह अनुमान बाधक नहों है, क्‍योंकि कपालाोकाद आर घटावनाशसें एक हेतुपनेका नियस दंखा जाता है। एक हो मटद्ठा आंदरूप उपादानस घटविनाश ओर कपालांत्पादरूप कायका सिद्धि होती है तथा एक ही मद्ररादिरूप सहकारी कलापसे घटविनाश और कपालोत्पादरूप कायका ज्ञान होता है ! विद्यानन्द स्वामीक्े इस कथनसेः स्पष्ट हे कि प्रकृतमें एक हठु! पदसे उपादानके साथ निमित्तका भी ग्रहण इएण्ट रहा है । आगे कायकी सिद्धि न केवल देवनिमित्तक होती है और न निर्मिक्षका रणकी स्वीकृति ३७ केवल पोरुपनिमित्तक ही होतो हे इस तथ्यका निर्देश करते हुए 'उसी आप्तमीमांसामें स्वासी समस्तभद्र पुनः कहते है : अबुद्धिपृव पिक्षायामिशनिएं स्वदैवतः । बुद्धिपवंब्यपेन्नायामिष्टानिं स्वपीरुपात्‌ ॥६१॥ यद्यपि संसारी जीवोंके प्रत्येक कार्यमें देव ओर पोरुप दोनों निमित्त हैं, परन्तु जो इट् ओर अनिष्ट काय अवुद्धिपूवक होते है उनमें देवकी मख्यता होनेसे वे देवनिमित्तक कहे जाते हैं तथा जो इए ओर अनिष्ठट काय बुद्धिप्वक हांते है उनमें पॉरुपकी मुख्यता होनेसे वे पॉरुपनिसित्तक कहे जाते हैं । यहाँ पर यद्यपि देवका अर्थ योग्यता और पोरुपका अर्थ अपना वल बीय करके उक्त श्लोकका अथ उपादान परक . भी हो सकता है पर इस प्रकरणका प्रयोजन आगममें निमित्तकों स्वीकार किया हैं यह दिखलानामात्र है, इसलिए ग्रकृतमें हमने उसका अथ निमित्तपरक किया है ! इस सम्बन्धमें भरद्टाकलंकदेवका अभिप्राय भी यही है। उन्होंने इसपर जो टीका लिखी है वह इस प्रकार है।-- ततोउतर्कितोपस्थितमनुकूलं प्रतिकूल वा देवकृतम्‌ | तदूबिपरोत॑ 'पौरुषापादितम्‌ , अपेक्षाकृतत्वात्तद्व्यवस्थायाः । पटखंडागम जीवस्थान चूलिकामें प्रत्येक गतिमें सम्यकत्वकी उत्पत्तिके वाह्य साथनोंका निर्देश करते हुए स्पष्ट लिखा हे कि सारकियोंसें सम्यकत्वकी उत्पत्तिके जोतिस्मरण, धर्मश्रवण और वेदनामिभव ये तीन वाह्य साधन होते हैं | यह व्यवस्था तीसरे नरक तक' ही हे। आगेके नरकोंमें धर्मश्रवण साधन नहीं है । तिय॑श्नोंमें सम्यक्‍स्वकी उत्पत्तिके जातिस्मरण धरंश्रवण और जिन्‌विम्बदर्शन ३८ जैनतत्त्वमीमांसा ये तीन साधन होते हैं। सम्यक्त्वकी उत्पत्तिके ये ही त्तीन साथन - मनष्योंमें भी होते हैं। देवोमें सम्यक्त्वकी उत्पत्तिके जातिस्मस्गु धर्मश्षवण , जिनमहिमादशंन ओर देवधिदश्शन ये चार साथन होते हैं। थ चार साधन भवनवासियोंसे लेकर सहमस्लारकत्प तकके इबोंमें हाते है। आगेके चार कल्पोंमं दवधिदशनकों छोड़कर तीन साधन हाते हैं। तथा नो ग्र॑ वेयकके देबोंमें जातिस्मरण और धर्म श्रवण य दा ही साधन हाते है ।' यहाँ प्रथमोपशम सम्यक्त्वकी उत्पत्तिके थ बाह्य साधन चतलाये हैं। इसी प्रकार उसी चूलिकामें क्षायिकसम्यक्त्वकी उत्पत्तिका वाह्य साधन केवली या श्रुत- केवलीका सानिध्य वतलाया है । जीवस्थान चूलिकाफ़े इस कथनसे भी ज्ञात होता हे कि एक दब्य दूसरे द्रब्यके कार्य निर्मित होता है। सम्यक्त्वक्री उत्पत्तिक उक्त साधनोंका निदेश सवाथसिद्धि' आदि शाम्य्रोंमं भी किया गया है । उससे भी उक्त अभिप्रायकी पष्टि हाती है । सवाथसिद्धिमें सम्यग्दशनकी उत्पत्तिका अन्तरंग देतु क्‍या हैं इसका निर्देश करतें हुए उस दर्शनमाहनीयका उपशम, क्षय ओर . ज्योपशसरूप ही बतलाया गया हैं। यह हेतु निसर्गज और अधिगमज़ दानों प्रकारके सस्बग्दशंनोंकी उत्पत्तिमें समान है | सात्र इन दानों प्रकारके सम्यग्दर्शनोंमें यदि काई भेद है तो बह वाह्य उपदेशके निमित्तसे होने ओर न होनेकी अपेक्षासे ही है | तात्पय यह है कि अन्तरंग हेतुके सद्भावमें जो चाह्य डपदेशकों नि्मित्त किये विना होता हे बह निसर्गजञ सम्यग्दशन है और जो वाह्य उपदेशको निमित्त करके होता हैं बह अधिगमज़ सम्वग्दर्शन जीवस्थान चूलिका ९, चूत्र ६ से ४१ तक । २ तत्वार्थयूत्र अ० १, सूत्र ७ की टोका । निमित्तकारणकी स्वीकृति श्े६्‌ है | सम्यग्दर्शनकी उत्पत्तिके अन्तरंग और वहिरंग जिन हेतुओंका नद॒श सवाथासा!डद्धम किया हे उन्हाका नद॒श तत्त्वाथवातिकम भी किया है। सामान्य नियम यह है कि जो द्रव्य जिस समय जिस रूप परिणुसन करता हैं वृह उस समय तन्सय होता है। जेसे धर्मरूप परिणत आत्मा धममं होता है, शुभरूप परिणत आत्मा शुभ होता है ओर अशुभरूप परिणत आत्मा अशुभ होता है।' अन्यथा प्रत्येक द्रव्यका अपनी वतंसान पयोयके साथ तादात्म्य नहीं बन सकता है। आत्माके संसारी ओर म॒क्त ये दो भेद इसी कारण से होते हैं। तथा संसारी आत्माके नारकी, तियंश्व, मनुष्य, देव, क्रीधी, मानी, मायावी, लोभी, उपशमसस्यग्दृष्टि, क्षायोपशमिक सम्यग्हप्टि, ज्ञाथिक सस्यग्दृष्टि, मतिज्ञानी, श्रुतज्ञानी, अवधि- ज्ञानी, मनःपर्यज्ञानी, चह्तुदशिनी, अचज्षुदशिनी, अवधि- दर्शनी, मिथ्यादहृष्ट ओर 'सासादनसस्यम्दप्रि आदि भेद | इसी कारणशसे होते हैं । ये सव भेद आत्माके हैँ। इन्हें नोआगसभावरूप कहनेका कारण यही है । इसलिए इनमेंसे जिस समय आत्मा जिस भावरूपसे परिशत होता है उस समय वह तनन्‍्मय होता हे। इस स्थितिके सद्भावमें इन सब नारक आदि भावोंकों परभाव क्‍यों कहा जाता है ? इसका कारण यह नहीं है कि वे पर्योयदट्रिसे भी अमूताथ हैं या बस्तुतः पोद्लिक है। किन्तु इसका कारण मात्र इनका नमित्तिकपना , ही है। इससे भी यही सूचित होता है कि जीवके इन भावोंकी उत्पत्तिमें अन्य पद्टलकर्म ओर दूसरे द्वव्यादि पदाथ निमित्त 22 472 ॥>32 जे ७, 2 हेन १, तत्वार्थसूत्र अ० ?, सूत्र ३ की सर्वार्थसिद्धि व तत्वार्थवार्तिक टीका । २. प्रवचनसार गाथा ७ । ८० जैनतत्वमी मांसा होते है, इसलिए ये नामित्तिक हानेस साक्षमागस परभाव कहे गयय है । कर्म आत्माके रागादि भावोंका निरमिच् करके आत्मासे बंचते हैं और इस वन्धदशामें उनकी वन्च, उदय, उद्ीरणा, स्तन, उपशस, क्षयापशम, क्षय, संक्रमण, उत्कपण, अपकपगण, निवत्ति ओर निकाचित आदिरूप विविध अबस्थाएँ होती हें । साना कि कर्ममें इल सब अवस्थाओंरुप परिशुत होनेफी योग्यता होती हैं, इसलिए वे उन अवम्धाओंरूप परिशन होते हैं। फिर भी य सब कार्य होते हैं जीवके गगादि भावरूप निमित्तोके सदभावमें ही, इसलिए इससे भी एक द्रव्यके कार्यमें अन्य द्ब्य निित्त हाता है. यह सिद्ध दाता है । लोकमें भी घट-पटादि कार्येकी उत्पि निमित्तोंके सदभावमें खी जाती है। जिससे मर्चत्र यह व्याप्रि चनाई जा सकती है कि लोकमें सुक्म ओर म्थुल जितन भी कारय होते है उनकी त्तिमं निमित्त हाते हैं । यदि हम थोड़ा आंर विचार करते हे तो हमें यह भी ज्ञात हाता है. कि जो शुद्ध अचस्था विशिष्ट दव्यका कार्य है। जेसे सिद्ध आत्माका लोकान्त तक ऊरश्चंगमन या प॒द्ठल परमाणुकी सीमित क्षेत्र तक गति था लाकान्तप्रापिणी गतितों उसमें भी धर्म द्रव्य निमित्त है। वद्यपि इन द्रव्योकी यह गतिक्रिया अपने अपने उपादानके अनुसार होती है फिर भी इनकी गति- क्रियाके सप्तम अन्य द्रव्य निरमिच्त होता है ऐसा सन्नकारोंका कथन है। >भः ज) १8 आवकतर स्थज्ञाम जावका ऊश्वंगसन स्वभाववाला कहा है । कक की: स्वभाववाला नहा कहा। इसलिए यह प्रश्न हाता हैं कि जब जीव ऊध्यंगसत स्वभाववाला हैं तो वह लोकके निमित्तकारणकी स्थीकृति ७१ अन्तसें ही क्‍यों स्थित हो जाता है। अपने ऊध्वंगमन स्वभावके कारण वह लोाकान्तको उल्लंघन कर आगे क्‍यों नहीं चला जाता ? यह एक प्रश्न है जिसका उत्तर नियमसार गाथा १८३ में उपादान की मुख्यतासें दिया गया है। वहाँ बतलाया गया है कि कर्मोंसे मुक्त हुआ आत्मा लोकान्त तक ही जाता है । यद्यपि मूल गाथामें ऋरणका निर्देश नहीं किया है। पर समथ उपादानकी दृष्टिसे विचार करने पर यही प्रतीत होता है कि उसकी योग्यता ही उतनी है, इसलिए बह लोकान्त तक ही गसन करता है। उससे आगे नहीं जाता। जिस प्रकार सवाथसिह्धिक्रे ढेबोंमें सातवें नरक तक . जानेकी शक्ति मानी गई है परन्तु उनके समर्थ उपादानकी व्यक्ति अपने नियमित क्षेत्र तक ही होती है इसी प्रकार प्रत्येक जीवको ऊध्वंगमन स्वभाववाला माना गया है. परन्तु जिस कालमें जिस जीवकी जितने क्षेत्र तक गमन करनेकी योग्यता होती है उस कालमें उस जीवका वहीं तक गमन होता हैं' । उस क्षेत्रको उल्लंघन कर उसका गमन नहीं होता। यह वस्तुस्थिति है। इसके रहते हुए भी इस प्रश्नका निम्मित्तकी मुख्यतासे व्यवहारनयसे तत्त्वार्थ सूत्रमें यहः समाधान किया गया हैं. कि लोकके आगे धर्मंद्रव्य नहीं है, इसलिये मुक्त जीवका डससे ऊपर गमन नहीं होता' । १. स्वभाव और समर्थ उपादानमें फरक है | स्वभाव सार्वकालिक होता है इसीका दूसरा नाम नित्य उपादान है और समर्थ उपादान जिस कार्यका वह उपादान होता हैं उस कार्यके एक समय पूर्व होता है १ कार्य समर्थ उपादानके श्रनुसार होता है। मात्र स्वभाव या नित्य उपादान उसमें अनुस्यूत रहता है इतना अ्रवश्य हैं। समर्थ उपादान प्रत्येक समयका अन्य-अ्रन्य होता है इसलिए इसे च्ञरणिक उपादान भी कहते हैं । २. तत्त्वार्थमूत्र अ० १०, सू० ८। न अनतस्व सोमागा पं आचार्य कुन्दकुल्दन मी निममसारमे वही समावान फ़िया हे । के... ४ जीवाग पदगलागं से गण जाणशाह आय पन्याः ग भम्पस्थिकाशमभात्र नी परदी गे गरखझाते ॥ श८ट ॥ जहां तक धर्मस्तिकाय है वहां तक जीचों ओर पूठ्लोंका गमन ज्ञाना। धर्माग्तिकायद्ध अमावमें उससे आगे वे गसनस नहीं करने ॥ *८०॥ इस प्रकार तत्वाथम॒त्र ओर नियमसारके उन्क यही मिद्ध होता है कि प्रस्थक कार्यकी उन्रस्िमं निमिस अन्य होता है । यह तो एक जेत्रस दुसरे जेत्रमें प्राधिकी इेसुनूस सनिके निमित्तकी वात हुई। यदि प्रति समय प्रयोयरुपसे द्वव्यका परिणशमत होता है, फिर चाहे बह द्रब्यका शुद्ध परिणमन दो ओर चाह द्रव्यका अशुद्ध परिणशमन हा, उसके दस परिशामनमे काल द्रव्य निमित्त है इस भी आगम स्वीकार करना है । यद्यपि नियमसारमें आचार्य कुन्द्रकुल्दन स्वपरसावेज् ओर परनिस्पेज्ञ इन दा प्रफारकी पत्रायोंका निर्देश किया हद" । पर बहां उनके उक्त कथनका यह अमिप्राव नहीं है कि ऋब्योकी शुद्ध पयायोमें काल द्रव्य निमितस नहीं है। फिनत बहां उसके उक्त थनका यह अभिप्राय है कि जीवों ओर पद्ल द्रव्योकी अशुद्ध अबवस्थासें पत्येक परयोयथके निमित्त-नमित्तिकभावसे प्राप्त हार जो अलग अलग निमित्त होते हूँ ऐसे निमित्त द्रब्योकी शुद्ध पयोग्रोमि नहा पाये जाते । इसलिए द्रव्याकों शुद्ध पयाय परनिग्पन्न हानी हें । बात यह हे कि संसारी जीवोकी परयायाम अशुद्धता निामत्तास मा इन्लमखसे भी शा १. नियमसार गा १४। निमित्तका रणको स्वीकृति रे नहीं आती है । किन्तु निमित्त-मेमित्तिकसस्वन्धवश एक क्षेत्राव- गाही हुए परस्पर श्लेपरूप वन्धके सद्भावमें अपने उपादानमेंसे आती है । न तो मुक्त जीव ही अशुद्ध हैं ओर न॒पुद्ढल परमार ही | धरममादिक द्रव्य तो अशुद्ध हैं ही नहीं। अतण्ब इनकी पयौयें परनिरपेक्ष ही होती हे। इनके सिवा संसारी जीवोंकों यदि हम देखते हैं तो यही विदित होता हैँ कि उनकी अशुद्धताका मूल कारण 'निमित्त-मेमित्तिकमाववश एक क्षेत्रावगाही हुए परस्पर संश्लेषरूप वन्धके सडद्भावमें अपना उपादान ही है। वन्धदशामें जब तक उनकी परिणुति परसाक्षेप होती रहती है तव तक उनकी पयोयें भी स्वपरसापेक्ष होती रहती हैं। और जब वे स्वभाव सन्‍्मुख होकर परसापेक्ष परिशतिका त्याग कर देते हैं तव उनका वन्ध टूट कर पर्यायहप अशुद्धता भी पल्मायमान हो ज़ाती है। पृद्ललस्कन्धोंके सम्वन्धमें भी यथासम्भव यही नियम जान लेना चाहिए । | इस प्रकार इतने विवेचनसे यह निश्चित होता है कि जिस प्रकार अपनी जातिकों न छोड़कर प्रत्येक द्रव्यका समय-समयमें परिणमन करना सुनिश्चित है उसी अ्कार काल द्रव्यके सिवा प्रत्येक द्ृव्यके परिणमनसें अन्य द्रव्य यथायोग्य निमित्त होते हैं भी सुनिश्चत है | यहां पर “अन्य द्रव्य निमित्त होते हैं? ऐसा कहनेसे हमारा मतलव विवक्षित पयोयविशिष्ट द्रब्यसे हे, द्रव्य सामान्यसे नहीं | काल द्वव्यके परिणमनसें वह स्वयं निमित्त है ओर वही स्वयं उपादान हैं यह देखकर यहां पर 'काल द्रव्यके सिवा? ऐसा कहा है इतना यहां विशेष समझना चाहिए। 5 उ्पादा्न आर ना भ ध्प +5जर० 5] रत्न कप उपादान विधि बसे जु जंग पिछले प्रकरणमें बद्यपि हम निमित्त कारण विवयमें लिग्न । आये है.। परन्तु उसका स्वरूप क्या है. उसके भेद किसने है इन वताका वहां विचार नहीं किया और न इस बातकी ही गयंदणशा का कि प्रत्यक क्रायका उत्पत्तिमें निमित्तका क्या स्थान है। परन्त इन सब बाताका बिचार उवादास कार्गका स्वरूप और उसका कायका उत्पत्तिमें क्‍या स्थान है इस बातका विचार क्विए बिना नहा हा सकता, इसलिए निमित्तका सांगापांग विचार ऋग्नेके साथ उपादानका भी विचार करना हासा। प्रकृतमें इस विप्यका स्पष्ट करनेके लिए हम सर्च प्रथम घटका उद्दाहरण लेते है। घट मिट्टाका पयाय है, क्योंकि घटमें सद्दीका अन्चय हेग्या जाता इसालए घटका उ्पादान मिट्टी कही जाती है । परन्त यदि केरल मिट्ठास ह। घट बनने लगे ता मिद्ठीक बाद घटकी ही उत्पत्ति 'हनि चाहिए। मिट्टी आर घटके वीचम जापण्ड, स्थास, छकांश बी] और कुशल आदि रूप विविध सृक्षम और स्थल पर्याय होती? ते नहीं होनी चाहिए। माना कि थे सब पर्याय मिट्रीमय हैं। परन्ठु जा मिट्टी खानसे लाई जाती है वह पर्वाक्त अन्य पर्यायोंको शीत हुए बिना घट पय्यायहूपसे परिंणत नहीं हो सकती । इससे सालूस पड़ता है कि केवल मिद्टीको घटका उपादान कारण कहना उपादान और निमित्तमीमांसा डेप द्रव्याथिक नयका कथन है। वस्तुतः घटकी उत्पत्ति अमुक पर्याय विशिष्ट मिट्टीसे होती है, जिस अवस्थामें मिट्टी खानसे आती. . है उस अवस्था विशिष्ट मिट्टीसे नहीं। अतएव इस अपेच्षासे घटका उपादान कारण विवज्षित अवस्था विशिष्ट मिट्टी ही होती है, अन्य अवस्था विशिष्ट मिट्टी नहीं' । इस विपयको स्पष्ट करनेके लिए दूसरा उदाहरण हम जीवका ले सकते है । मृक्त अवस्था जीवकी पयोय है, क्योंकि म॒क्त अवस्थामें जीवका अन्बय देखा जाता है। इसलिए द्रव्याथिक नयसे मृक्त अवस्थाका उपादान कारण जीव कहा जाता है | परन्तु यदि केवल जीवसे मुक्त अवस्था उत्पन्न होने लगे तो निगोदिया जीवकों भी उस पयोयके वाद मुक्त अवस्था उत्पन्न हो जानी चाहिए । निगोद जीव और मुक्त अवस्थाके वीचमें जो दूसरी अनेक पर्यायें हृष्टि- गांचर होती हैं. वे नहीं होनी चाहिए। माना कि इन दोनों अबस्थाओंके बीच कम या अधिक जो दूसरी पयायें होती हैं वे सब जीवमय हैं । परन्तु जो जीव निगोदसे निकलता है वह पूर्वोक्त अन्य पयोयोंको ग्राप्त हुए विना मुक्त अवस्थाको नहीं प्राप्त होता । इससे मालूम पड़ता हैं कि केवल जीवको मुक्त अवस्थाका उपादान कारण कहना द्रव्याथिकनयका वक्तव्य है । वस्तुतः मुक्त अवस्थाकी उत्पत्ति अन्तिम क्षणवर्ता अयोगिकेवली अवस्था विशिष्ट जीवसे ही होती है। इसके पूरे ऋ्रमसे सयोगिकेवली,. - १, इसके लिए देखो अ्रष्टटहसत्री श्लोक १० की टीका। यहाँ पर ध्यवहारनयसे ( द्रव्याथिक नय ) से मिट्टीको घटका उपादान कहा हैं, ऋजुसू त्रनयसे पूर्व पर्यायकों घटका उपादान कहा हैं तथा श्रमारासे पूर्व पर्याथ विशिष्ट मिट्टीको घटका उपादान कहा है । रद जनतत्त्वमीमांसा काणकपाय, सृक््मसाम्पराय अआनिवत्तिकरण, अपृ्वकरण आर अग्रमत्तसयत अबस्थागस प्रचुर अवस्थाए नियमसे होती है | अग्रमत्तसंयत अवस्थाके पूत्र कोच कोन अवस्थाए हा इनका नाना जावाकां अपेक्षा एक नियम नहीं हैं) अपने अपने उपा- दानक अनुसार दूसरा दूसरों अवस्थारं यथासस्मव॒ होती हू जस अकार सब पुद्ल घट नहा वनत उसी मकार यह भी नियम है कि सब जाव इन अचस्थाआका प्राप्त नहीं होते | जो भव्य हट हा अपने अपन उपादानके अनसार यथासमय इन्‌ अवस्थाओा का आतकर मुक्त हते हूं । इतना स्पष्ट है कि मक्त होनेके अनन्तर एव अयागा अवस्था नियमसे हाती है । अत्तगव उपादान कारण ओर कार्यक ये लक्षण हृष्टिगाचर हात हैं :---. नियतपरवक्षणवर्तित्व॑कारणलक्षणम्‌ । नियतोत्तरक्षणवर्तित्व॑ फायलन्षणम' । नियत पूर्वसमयमें रहना कारणका लक्षण हे ओर नियत उत्तर क्षणमें रहना कायका लक्षण है | यद्ाप इसमे जा नियत पूर्व समयसे स्थित उस कारण आर जा नियत उत्तर समयमसें स्थित है उसे कार्य कहा गया है' पर. इससे उपादान कारण ओर ज्सके कार्यका सम्यक बाँध नहीं हैता, क्योकि नियत पूषे समयमें द्रब्य और पयाय दानों अवस्थित . *हूते हैं, इसलिए इतने लक्षणसे कोम किसका उपादान कारण है और किस उपादानका कौन कार्थ वाध नहीं होता । फिर भा उक्त कथनसे उपादान कारण और कायसें एक समय पर्व आर वादसें हानेका, नम हैं वाध ता हां ही जाता ह्‌। मी लि अमर लक ३ १. अष्टमहसख्री ट्प्पिणा प्ृ०२१११ उपादान और तिमित्तमीमांसा है उपादान कारणका अव्यसिचारी लक्षण क्‍या हे इसका स्पष्ट उल्लेख अप्टसहस्ती ( पू० २१० ) में एक श्लोक उद्धृत करके किया है। वह श्लोक इस प्रकार है. चक्तालक्तात्मरूपं यत्पूरापर्वेंण वर्तते । कालत्रयेडपि तद्‌ द्रव्यमुपादानमिति स्मृतम्‌ ॥ जो द्रव्य तीनों कालोंमें अपने रूपको छोड़ता हुआ और नहीं छोड़ता हुआ पूर्वरूपसे ओर अपूृबरूपसे व॒ते रहा है वह उपादान कारण है ऐसा जानना चाहिए। यहाँ पर द्रव्यकों उपादान कहा गया हैं| उसके विशेषणों पर ध्यान देनेसे विदित होता हे कि द्वव्यका न तो. केवल सामान्य अंश उपादान होता है ओर न केवल विशेष अंश उपादान होता हैं। किन्तु सामान्य-विशेषपात्मक द्रव्य ही उपादान होता है। द्रव्यके केवल सामान्य अंशकों ओर केबल विशेष अंशको ' उपादान माननेमें जो आपत्तियाँ आती हैं उनका निर्देश स्वयं आचार्य विद्यानन्दने एक दूसरा क्ोक उद्थ्रत करके कर दिया है। बह श्लोक इस प्रकार यत्‌ स्वरूप त्यजत्येव यन्‍न त्यजति सर्वथा | तन्‍्नोपादानमर्थस्य क्षुणिक्र शाश्वत यथा || जो अपने स्वरूपको छोड़ता ही है वह ( पर्याय ) और जो अपने स्वरूपकों सर्वथा नहीं छोड़ता वह (सामान्य ) अथ ( काय ) का उपादान नहां हाता। जैसे क्षाशुक आद शायख्रत ॥ यद्यपि सबंधा क्षणिक ओर सबथा शाश्रत कोई पदाथ नहीं । परन्तु जो लोग पदा्थकों सबथा क्षणिक मानते है उनके यहाँ जैसे सर्वथा क्षणिक पदार्थ कायका उपादान नहीं हो सकता जनतत्तमामासा जो लोग पदार्थका सर्वथा शाश्वत मानते हैं. उनके यहाँ जैसे तर शाखत पदाथ कायका उपादान नहीं हा सकता उसी र द्रव्यका कल सामान्य अंश कायका ज्यादान नहीं हाता न केंचल विशेव अंश कार्यक्रा उपादान होता है यह उक्त का तात्पय है । इसा विपयका स्पष्ट करत हुये स्व्रामी कातिक्रेय भी स्वरचित गानुग्न क्ञा्में कहत हैं; जे वत्थु अगयत ते चिय कर्ज करेद गियमर । बहुधम्मजुद अत्य कज्कर दीसए लोए ॥२२०॥| ता वस्तु अनकान्तस्रूप है वही नियमसे का्रकार्सी होती गकि बहत बअमास यृक्त खथ है| लाकम क्रायकारा इस्त्रा |२२५॥| एयंत पुन दत्य॑ कज्ज॑ गण करेदि लेसमित्त मि । जं पुण ण कोर्याद कर्ज ते दुद्यदि केरिस दब्बं ॥२२६॥ कन्‍्ठु एकान्तरूप द्रव्य लेशमात्र भी कार्य करनेमें समय ईतिी आर जब वह काय नहीं कर सकता नो उसे #च्य केस जा सकता है, अथात्‌ नहीं कहा जा सकता ॥ बन्द गीगे एकान्तस्वरूप द्रव्य कायकारी केस नहीं हाता पैक समथन करत हुए वे कहते हैं ;.... पारणगामण विही णा उप्यज्ञदि य सका च दत्त विशुस्सद साय | सदा एवं कर्ज कहें कणहई ॥२२<॥ पजयामच॑ तच्चं खण खगण थि अण्णरण्गु | अर्ण॒इव्च्वविद्द्णग ण य कज्जं किप साइदि ॥ सर प्ने परिणामस हीन नित्य द्रज्य सर्वदा न तो विनाशकों उपादान और निमित्तमीमांसा छ९ ही प्राप्त होता हे ओर न उत्पन्न ही होता है, इसलिए वह कार्यको कैसे कर सकता है तथा पर्यायमात्र तत्त्व क्षण क्षणमें अन्य अन्य होता रहता है, इसलिए अन्बयी द्रव्यसे रहित वह किसी भी कार्यकों नहीं साथ सकता ॥२४७-रर२८।॥ इसलिए स्वामी कार्तिकेय ने फलिताथ्थरूपमें उपादान कारण आर कार्यका जो लक्षण किया है वह इस प्रकार है : पुव्वपरिणामजुत्त कारणभावेण वहदे दब्बं। उत्तरपरिणामज़ुर्द तं चिय कज्जं हवे शियमा ॥२३१०॥ अनन्तर पूर्व परिणामसे युक्त द्रव्य कारणरूपसे प्रवरतित होता है ओर अनन्तर उत्तर परिणामसे युक्त वहीं द्रव्य नियमसे काये होता है || २३० ॥ स्वामी विद्याननल्दने भी उपादानकारण और कार्यका क्‍या स्वरूप है इसका “वहुत ही संक्षेपसें समाधान कर दिया है। वे श्लोक ५४८ की अष्टसहस्री टीकामें कहते हैं ; उपादानस्य पूर्वाकारेण ज्ञयः कार्योत्यूद एव, हेतोर्नियमात्‌ | उपादानका पूवोकारसे क्षय कार्यका उत्पाद ही है, क्योंकि ये : दोनों एक हेतुसे होते हैं. ऐसा नियम हे | इस प्रकार इतने विवेचनसे यह स्पष्ट हो जाता है कि जो अन्तर पूर्व पर्योयविशिष्ट द्रव्य है उसकी उपादान संज्ञा है ओर ' जो अनन्तर उत्तर पर्यायविशिष्ट द्रव्य है उसकी काये संज्ञा है 4 उपादान-उपादेयका यह व्यवहार अनादि कालसे इसी प्रकार _ चला आ रहा है और अनन्त काल तक चलता रहेगा । इस विपयको स्पष्ट करनेके लिए हम पहले एक उदाहरण घट कार्यका दे आये हैं। उससे स्पष्ट है कि खानसे भ्राप्त हुई -छ हु जैनतत्त्वमीमांसा मिट्टीसे यदि घट बनेगा तो उसे ऋमसे उन पर्बायर्मेंस जाना होगा जिनका निर्देश हम पूर्वमें कर आये हैं । कितना हा चतुर मिमित्तकारणरूपसे उपस्थित झुम्हार क्यों नहा बह खानका मिट्टीसे घट पर्याय तककी निष्पत्तिका जी क्रम है उसमें पस्वितन रूपसे निष्पन्न होती जाती हैँ. तदनुकूल कुम्हारक 'हस्त-पराद्रादका क्रिया व्यापार भी बदलता जाता है ओर उसी क्रमसे उपयागरनें भी परिवतंन होता जाता है। अन्तमें मिट्टीमंसे घट परयावकों निष्पत्ति इसी ऋ्मस होती है ओर जब मिद्ठीमेंस घट परयायकी निष्पत्ति हो जाती हैं तो कुम्हारका योग-उपयोगहछूप क्रिया व्यापार भी रुक जाता है। उपादान-उपादयसम्बन्धके साथ निमित्त- सेमित्तिकसस्वन्धकी यह व्यवस्था है जी अनादि कालसे इसी ऋमसे एक साथ चली आ रही है. आर अनन्त काल तक क्रमसे मिलकर चलती रहेगी । यहां इतना विशेष समझना चाहिए कि निमित्त-ममित्तिक व्यवहार सर्वेत्र एक ओरसे नहीं होता, किन्तु कहाँ-कहीं दोनों ओरसे भी होता हैं । उदाहरण स्वहप जब घट कार्यकी मख्यता होती है तव विवज्ञित योग ओर उपय्रोगसे यक्त कुम्हार उसका निमित्त कहा जाता है और घट कार्य नेमित्तिक कहा जाता है । किन्तु जब कुम्हारका विवक्षित योग ओर उपयोगरूप क्रिया व्यापार किस बाह्य निमित्तसे हुआ इसका विचार किया जाता है वाज़ा सि्ठे घट पयायरूपसे परिणत हो रही है वह उसका नि्ित्त कहा जायगा और विवज्षित योग-डपयोगब्रिशिष्ट क्रम्हार उसका नप्रेत्तिक कहा जायगा। अनभवमें तो यह बात आती दी है; आगमसे भी इसका समर्थन होता है | ऐसा नियम उवांदान और निर्मितमोमासा - ५१ जिस उपशम सम्यग्हप्टिके उपशस सम्यक्त्वके कालसें कमसे कम एक ससय और अधिकसे अधिक छह आवलि काल शेष रहता है उसके अनन्तानुवन्धीचतुष्कमेंसे किसी एक प्रकृतिकी उदीरणा होने पर सासादन गुणस्थानकी प्राप्ति होती हे। अब एक ऐसा डपशमसम्यग्दश्टि जीव लीजिए जिसने अनन्तानवन्धीचतुष्ककी विसंयोजना की है । ऐसे जीवको ह्वितीय गुणस्थानकी प्राप्ति तब हो सकती है. जब अनन्तानवन्धीचतुष्कका सत्त्व होकर उसमेंसे . किसी एक प्रक्ृतिकी उदीरणा हो ओर अनन्तानवन्धीचतुष्कका सत््व ओर उसमेंसे किसी एक पग्रकृतिकी उदीरणा तब हो सकती है जब उसे सासादन गुणकी प्राप्ति हो। स्पष्ट है कि यहाँ पर सासादन गुणकी प्राप्तिका निमित्त अनन्तानुवन्धीकी उदीरणा है ओर उसके सत्त्वके साथ उदीरणाका निमित्त अन्य 'परिणासमोंके साथ सासादन गुण भी है । फिर भी ऐसे जीवको सासादन गुणकी प्राप्ति किस निमित्तसे होती हे इतना दिखलाना अयोजन रहनेसे यह कहा जाता हैं. कि अनन्तानुवन्धीचतुष्कमेंसे किसी एक प्रकृतिकी उदीरणाके निमित्तसे होती है । इस विपयकों अर भी स्पष्टरूपसे समभनेके लिए हृथगणुकका उदाहरण पयोप्त है, क्योंकि इचरुकके दोनों परमाणु अपनी अपनी वन्धपयोयकी उत्पत्तिके प्रति उपादान होकर भी परस्पर दोनोंमें निमित्त-नेमित्तिक भांव भी है। यह निंमित्त-नेमित्तिकव्यवहारकी व्यवस्था है। इसके रहते हुंए भी कितने ही निमित्तके अनुसार कायकी उत्पत्ति माननेवाले मंहानभाव उपादान कारणके वास्तविक रहस्यकों न स्वीकार कर ऐसी शंका करते हैं कि खानसे लाई गई मिदट्टीसे यदि घटकी उत्पत्ति होगी तो इसी ऋरमसे होगी इससें सन्देह नहीं। परन्तु घ२ जैनतत्त्वमीमांसा खानसे लाई गई अमुक मिट्टी घटका उपादान होगा और अमुकः मिट्टी सकोराका उपादान होगा यह मिट्टा पर विभेर न हाकर कम्हार पर निर्भर है। कुम्हार जिस मिट्टीस घट बनाना चाहता है उससे घट वनता है ओर जिससे सकोरा बनाना चाहता उससे सकोरा वनता हैं, इसलिए यह सानना पड़ता हैं कि कार्यकी उत्पत्ति अपने उपादानसे होकर भी निंमित्तके अनुसार ही होती है। इतना ही नहाीं यदि कोई विशिष्ट घट वनवाना होता हैं ता उसके लिए विशिष्ट कुम्हारक्की शरण लेनी पड़ती है। यदि ऐसा हो कि केवल अमुक प्रकारकी मिट्टीसे दी विशिष्ट: घट वन जाय, उसमें कुम्हारकी विशेषताकों ध्यानमें रखनेकी: आवश्यकता न॒पड़े ता फिर मात्र योग्य मिदट्टीका ही संग्रह किया: लाना चाहिए, विशिष्ट कारीगिरकी ओर ध्यान देनेकी क्या आवश्यकता ? यतः लोकमें याग्य उपादान सामग्रीके समान: योग्य कारीगिरका भी विचार किया जाता हैं ओर ऐसा, योग मिल जाने पर कार्य भी विशिष्ट होता हैं। इससे मालूम पड़ता हैं कि कार्यकी उत्पत्ति अपने डपादानसे होकर भी वह निमित्तके अनुसार ही होती हैं। ततात्पय यह हैं कि किस समय किस द्रव्यकी क्‍या पर्याय हो यह उपादान पर निर्भर न हाकर' निमित्तके आर्थीन है) बास्तवसें निमित्तकी साथकता इसीमें हे... अन्यथा कार्यमात्रसें निमिच्तको स्वीकार करना कोई सायसे: नहीं रखता । हर ॥४ ६. है द हद 2 जि चह्‌ एक म्श्त है जो निमित्त-नसित्तिकसस्वन्ध और उपादान- उपादेयसम्बन्धक् वास्तविक रहस्थकों न स्वीकार कर निमित्त- वादा सहाशय उपस्थित किया करते हैं। यद्यपि इस प्रश्नका समाधान पहिले हम जो उपादान कारणुका स्वरूप दे आये हैं उपादाव और निमित्तमीमांसा ५३ डससे हो जाता है, क्‍योंकि उससे यह स्पष्ट ज्ञात होता है कि अनन्तर पूर्व समयसें जैसा उपादान होगा, अनन्तर उत्तर क्षणमें 'उसी प्रकारका काय होगा। निमित्त उसे अन्यथा नहीं परिणमा सकता | फिर भी निमित्तकी दष्टिसे समाधान करनेके लिए हमें सब 5कारके निमित्तोंका विचार करना होगा। यह तो स्पष्ट है कि लोकमें जितने प्रकारके निमित्त स्वीकार किये गये हैं उनका गीकरण इन तीन प्रकारोंमें हो जाता है। यथा ३-- १, बे निमित्त जो स्वयं निष्क्रिय होते हैं। जेसे धर्म, अधम, आकाश ओर कालद्गव्य | २. वे निमित्त जो सक्रिय होकर भी इच्छा, प्रयत्न और कारकसाकल्यके ज्ञानसे रहित होते हैं। जैसे मेघ, विजली, चाय, कर्म ओर नोकर् आदि । ३. वे निमित्त जो इच्छा, प्रयत्न ओर कारकसाकल्यके ज्ञानसे यक्त होते हैं | जैसे मनुष्य आदि | धऋब ये तीनों प्रकारके निमित्त किस रूपमें कार्योत्पत्तिके :समय निमित्त होते हैं इस वात पर क्रमसे विचार कीजिए । १, जो निष्क्रिय पदार्थ हैं वे सब ग्रकारके कार्यों निमित्त नहीं होते | किन्तु उनमें जिस प्रकारके कार्योमें निमित्त होनेकी अपने गुणानुसार योग्यता होती है उन्हीं कार्योंमें निमित्त होते हैं। यथा धम द्रव्यमें गतिहेतुत्व गुण है, इसलिए वह गति- 'परिणत जीवों और पद्लोंकी गतिसें निमित्त होता है। अधमे द्रध्यमें स्थितिहेतुत्व गुण है, इसलिए बह स्थित होते हुए जीवों ओर पुद्ठलोंके ठहरनेमें निमित्त होता है। कालद्रव्यमें बतेना गुण है, इसलिए वह परिशसन करते हुए जीवादि द्रव्योंके पड जैनतत्त्वमीमांसा | उत्पाद-व्ययमें मिमित्त हाता है ओर आकाश द्र॒व्यमें अवगाहनत्व नामका गुण है, इसलिए वह अवगाहल करते हुण जीवादि ब्योंके अवगाहनमें निमित्त होता है। इस प्रकार ये द्रव्य निर्मित्त होकर भी इनके अनुसार काय हाता है. एसा नहीं ह्‌।ः किन्तु जब यथायोग्य जीवादि द्रव्योंकी गति आदि क्रिया हाती है तब थे निमित्त होते हैं। इनकी निमित्तताके विषय सवाथंसिद्धिमें लिखा हैं: थ् कक 4३ 5) ननु यदि निष्कियारिं धर्मादीनि, जीव-पुद्धगलानां गत्यादिहेतुत्य॑ नोपपश्चतें। जलादीनि हि क्रितावन्ति मत्स्यादीनां गत्मादिनिमित्तानिं इृष्टानीति ? नेप दोपः, वलाधाननिमित्तत्वाअन्षुबंतू | यथा रूपोपलब्धों चर्तुनिमित्तमपि न व्याक्षितमनस्कत्यापि भबति | शंका :--थदि धमोदिक द्रव्य निष्क्रिय हैं. तो वे जीवों ओर | पुद्लाका गाते आदिम दँतु नहा हा सकते, क्‍योंकि जल 0 आदि पदाथे क्रियावान हाकर ही मछली आदिकी गति आदियें निमित्त देखे जाते है १ समाधान काइ दोप नहीं है, क्योंकि चन्चु इन्द्रियके समान ये वलाधानमें निमित्तमात्र हैं। जैसे रूपकी उपलब्धिमें चज्नु निर्मित्त हैं, ता भी जिसका सन व्यात्तिप्त है उसके चज्ञु इन्द्रियके रहते हुए भी रुपका ग्रहण नहों होता उसी प्रकार प्रकृतें जानना चाहिए। यहाँ ऐसा समझना चाहिए कि कारयास्पात्तक समय बल॒का आधान स्वयं उपादान करता है. किन्तु उसस निर्मेत्त अन्य द्रव्य होता है । इस शंका-समाधानसे स्पष्ट हें कि निष्क्रिय धमोदि द्रव्योंके 85 है के रः क्र हा का का कि अनुसार गति आदि काये नहीं होते। किन्तु जब जीचों और उपादान, और निमित्तमीमांसा प्र पंद्लोंके गति आदि काय होते है. तव ये धर्मादिक द्रव्य निमित्त होते है । २ अब दूसरे प्रकारके जो निमित्त वबतला आये हैं उनके सम्वन्धमें विचार कीजिये। माना कि वे इच्छा, प्रयत्व और कारकसाकल्यके ज्ञानसे रहित होकर भी क्रियावान्‌ होते हैं परन्तु इतने मात्रसे उनकी क्रियाके अनुसार अन्य द्र॒ब्योंका परिणमन होता है ऐसा नहीं कहा जा सकता। जल स्वयं क्रियावान हे आर वह मत्स्यके गसनमें निमित्त हे। परन्तु इसका यह अथ्थे नहीं है कि जिस दिशामें जलका प्रवाह है उसी दिशामें मत्स्यका गमन होगा और न इसका यह ही अर्थ है कि जल मत्स्यके गमनसें निमित्त है, इसलिए जलमसें सद्ाकाल सत्स्यका गमन होता ही रहेंगा | किन्तु इसका इतना ही तांत्पय है कि जब मत्स्य गमन करेगा तव जल उसकी गमन क्रियासें निमित्त हो जायगा। सत्स्य कव गसन करे और कव गसन न करे यह जल पर अवलम्बित न होकर मत्स्य पर अवलस्वित है | जलके समान दूसरा उदाहरण छायाका लिया जा. सकता है । छाया क्रियाचान्‌ पदार्थ है ओर वह पथिकको ठहरनेमें निमित्त है | पर इसका अथथ यह नहीं है कि छायाके मिलने पर पथिककों ठहरना ही पड़ेगा । किन्तु इसका इतना ही अभिश्नराय है कि यदि थका मादा कोई पथिक विश्रामकी इच्छासे ठहरता है तो उसमें छाया निमित्त हो जाती है। . इंसलिए यही.मानना उचित है कि कायकी उत्पत्ति होती तो है अपने उपादानके अनुसार ही पर उसमें जो क्रियावान्‌ पदाथ निमित्त होते हैं उनकी वह निमित्तता धर्मादि द्र॒व्योंके समान ही जाननी चाहिए। सक्रिय पदार्थ निष्क्रिय धमादि द्रव्योंके समान पद जैनतत्त्वमोमांसा ही निमित्त होते हैं यह तथ्य पूर्वोक्त दो उदाहरणोॉस ता स्पष्ट दे ही । निष्क्रिय पदार्थाक्री निभित्तता किस प्रकारकां हातों है इसका स्पष्टीकरण करते समय जो सवाथसिद्धिका उद्धरण दे आय हू उससे भी स्‍्पष्ट हैं। उक्त उल्लेखमें जहां धमोदि द्रव्याका निमित्तताकों क्रियावान चच्चुइन्द्रियकी निमित्तताके समान बतलाया गया है यहां उससे यह भी सिद्ध हो जाता है कि क्रियावान्‌ पडार्थोक्ी निमित्तता भी धमोदि इव्योंकी निमित्तताके समान हांतों है। आचार्य पृज्यपादने जिस प्रकार गतिमें धर्म द्रव्य निमित्त है उसी प्रकार अन्य सब्र निमित्त होते हैं इस तथ्यका स्वीकार करते हुए इप्टोपदेशमें कहा भी पट नाज्ञो विज्ञत्वमायाति विज्ञों नाश्नत्वमृच्छुति | निमित्तमात्रमन्यस्तु॒ गते्रर्मास्तिकायवत्‌ ॥३०॥ अज्ञ विज्ञताकों नहीं ग्राप् हो सकता ओर विज्ञ अज्ञताकों नहीं प्राप्त ही सकत्ता, परन्त इतना अचश्य है कि जिस प्रकार शतिक्रियाका निमित्त धम्मास्तिकाय होता हैँ उसी प्रकार अन्य सब्र पदाथ निमित्तमात्र होते हैं ॥३५॥ इसका आशय यह है कि जिस प्रकार जीच और पद्टल द्रव्य जब स्वयं गति आदि परिणामसे परिणत होते हैं तब घर्मादि द्रव्य स्वयं उस गति आदि परिणाममें निमित्त होते है. उसी प्रकार व्य जब स्वयं क्रिया आदिरूप परिणामसे परिशत होते हैं तव तद्धिन्न अन्य द्रव्य स्वयं उसमें निमित्त होते हैं। आचार्य पृज्यपादके उक्त अभिप्रायका समर्थन करते हुए स्वामी कातकेय सी छादशानुप्रेक्षामें कहते हैं शिवनशणेवपरेणामाणं शिय-शियदब्धं पि कारणुं होदि । अण्ण बाहिरद्व्ब॑ णिमित्तमत्त वियाणेह॥ २१७ ॥ उपादान और निमित्तमीमांसा ५७ सच द्रव्य अपने-अपने पेरिणमनके उपादान (मुख्य) कारण * होत हैं | अन्य बाह्य द्रव्यको निमित्तमात्र जानो || २१७ || इस पर यह प्रश्न होता है कि यदि सभी सक्रिय पदार्थ निष्क्रिय धमोदि द्रव्योंके समान ही निमित्त होते हैं, अथोत्‌ उनकी निमित्ततामें धर्मोदि द्रव्योंकी निमित्ततासे अन्य कोई विशेषता नहीं पाई जाती है तो निमित्तकारणके ग्रे रक निमित्तकारण ओर उद्यासीन निमित्तकारण ये भेद क्‍यों किये गये हैं? क्योंकि सर्वार्थसिद्धि आदि अन्थोंमें ऐसे वचन उपलब्ध होते हैं. जिनसे इन भेदोंकी पुष्टि होती है। इसकी पुष्टिसें सब प्रथम स्वोर्थलिद्धि- 'को ही लेते है ;-- १. प्रकरण धर्मद्रव्य ओर अधमंद्रव्य क्या उपकार करते हैं. दिखलानेका है । इस प्रसंगसे जब यह प्रश्न हुआ कि धर्मेद्रव्य ओर अधरंद्रव्य तल्यवल है. ओर इन दोनोंका कार्य परस्परमें विरुद्ध है, अतः इनके कायरूप गतिका स्थितिसे ओर स्थितिका ' शतिसे प्रतिबन्ध होना चाहिए तब इस प्रश्नका समाधान दोनों द्रव्योंकी अग्रे रक बतलाकर किया गया है । इससे विदित होता है कि लोकमें धर्मांदि द्रव्योंसे विल्नक्षण प्रेरक निमित्त कारण भी होते हैं | संवोर्थसिद्धिका वह उल्लेख इस प्रकार है ; ठुल्वबलत्वात्तयोगति-स्थितिप्रतिबन्ध इति चेत्‌ १ न, अग्रेरकत्वात्‌ । [ त० सू०, आ० ५, सू० १७ | ९, द्रव्यवचन पोद्लिक क्यों हैं इसका समाधान करते हुए जि [आप ए्‌ ८ चतलाया गया है कि 'भाववचनरूप सामथ्यसे य॒क्त क्रियावान्‌ आत्माकरे द्वारा प्रेयमाण पुद्कटल द्रव्यवचनरूपसे परिणमन करते हैं, इसलिए द्रव्यवचन पोहलिग हैं ।” इस उल्लेखमें स्पष्टहपसे उपादान्‌ और निमित्तमो मांसा प्‌ संचार होने पर वह अन्य पदार्थोके उड़नेमें प्रेरक निमित्त होता है उसी प्रकार सब प्रेरक निमित्तोंकी जानना चाहिए | इस परसे वे यह निष्कर्ष निकालते हैं. कि लोकमें जितने भी क्ियावान्‌ पदाथ हैं उन्हें हम उदासीन निमित्त ओर प्रेरक निमित्त इस प्रकार दो भागोंमें विभक्त कर सकते हैं। इसलिए जहाँ पर निष्क्रिय पदार्थंके समान सक्रिय पदार्थ उदासीन निमित्त होते हैं वहाँ तो काये अपने उपादानके अनुसार ही होता है और जहाँ पर सक्रिय पदाथ प्रेरक निमित्त होते हैं वहाँ पर कार्य उपादानसे होकर भी निमित्तके अनुसार होता है। निमित्तके अनुसार होता है इसका यह तात्पर्य नहीं कि उपादान कारण अपने स्वभावकों छोड़कर निमित्तरूप परिणम जाता है। किन्तु इसका यह तात्पर्य है कि उस समय प्रेरक निमित्तमें जिस प्रकारके कार्यमें निमित्त होनेकी योग्यता होती है कारण उसी प्रकारका होता है। अकाल- मरण या इसी प्रकारके जो दूसरे कार्य कहे गये हैं उनकी सार्थकता प्रेरक निमित्तोंका उक्त प्रकारका काय माननेमें ही है। आगममसें अकालसरण, संक्रमण, उदीरणा, उत्कर्णण ओर अपकर्षण जैसे . कार्योको इसी कारणसे स्थान दिया गया है । यह प्रेरक निमित्तोंको साननेवालोंका कथन है । इस प्रकरणके. प्रास्स्भमें भी उनकी ओरसे ऐसी ही शंका उपस्थित कर आये हैं। किन्तु उनका यह कथन इसलिए ठीक नहीं प्रतीत होतां,. क्योंकि ऐसा मानने पर प्रत्येक कार्यके प्रति उसके उपादानकीः कोई नियामकता नहीं रह जाती । हम पहिले उपादान कारणका लक्षण करते समय यह बतला आये हैं. कि अनन्तर पूर्व पयोय विशिष्ट द्रव्य उपादान कारण होता हैे। अब देखना यह है किः उससे नियत कार्यकों ही जन्म मिलता है या वह अनियतः कार्योका उपादान कारण होता है ? ब्छ जखतस्दमानास का $ कक + हक जिस ऋायका हपादान जम यदि कहा जाय कि इससे निबत (जिस कायका बह उपाद के रे अर सनम चर अमसमसना- ज्ञा कऋषधटा ज्ञाता क-+>मक 25 है ) उस कायका हा अन्म निलता ज्ञायदह ऋदा जाता ह्‌ कि 4 उपादानके अनसार काअ हे मं कहीं निमित्तके कि कही इपादासक अनुसार काझ दाता £€ आर कहाँ नामसचक चल ञ कि ०६५ पी, नहीं अनसार काय हाता हे इस कथनमे काइ स्वारन्य प्रतात नह 2 ८ हाना के £- सा इंदासीन हो धहाता : तत्र यहा लिज्चिस हाता ह छनामसलच चाह उठासानच हा > > > >> ८: करी उत्पत्तिमें या प्रर्क, काब उवादालक अनुसार हा हागा। ऋकाच्रकहा उसात्तस कक कि है ३ लक इनने सान्रसे निमिसके कसासल हाता हे इसने सनन्‍्द्ह् सही पर इतसनस सीनस सचानदक . /- ++ थे. अनमार काय होना हे एस्ा मानना अंचत लहां &। स्थार्मोी | |] ५ + हे रा क ससल्सभ्द्रन कायक प्रात उपादान कारणमका ब्यचस्था ऋरते डुए आमध्रसासासार्स कटा है -- अबद्यनन सवेथा आप सब्मा हॉान चअपदध्यत । 5-2 यम 0020 2४८२5 ५: *5% नह मे उदानानदाना दूत्मारबासाः ऋआयमलन्सान ते धन | र्फ़े न ।्ध | ६ | 42 रय्य 4 पा | ता! टो। ८ श्र ४ ! | | 7| 28 | 2] ०१ || |25$| 3 छठे जज 6३ || | | कि प्ध | जी कक) २) ्् ४ ह ््त्ड ] जद »४ | 23 दे । __्ज; 5 ॥॥ हल । 8] हे दि! जज 4] 4] 0 :2[« जन 43॥ न्छ £2| ५ । श्र हि क्र मै ज्ञ झ$ पट लि न | » 40 यँ। जे | ब्लड ३५ ्ज््ह ९) ड़ है भसैयायिक्रर्शत ध्य क०8 चादडब्शन स्ब्था कार्यक्री "का ह्त्यत्ति -६ की 3लसय आार चाउदरान सत्ता असन कायका उत्वति । अद्वनल उन्हाका लज्च कर यह वचन कहा गया है अर सर सिद्धान्नरू प्में चतलाया >> रु न कर सिद्धान्सकूपर्स यह चतलाया गया है कि कार्य कारणमें नहीं है। तभी इस उपादानसे ५ + ठब्यक्पस हू ओर परवोचरूपस न अह काय हागा यम लिये किया जा सकता ् ओर 2 का | पंच कया जा सकता है आर उसस ऋकार्ये- का ध्यांसम प्रा अमही ४5 किया जा 2000 हे से विश्वास सा किया जा सकना हे ! जज बढ ब्खका चब्याजख्या कन हम सद्गाकृलंकदेचन अह बचस नि 5 हल 25. भटद्गाकल्षकद अं चचदत लग्दा है $--- अडलूतः कार्यज्नन , उग्दानत्थ उचरामदनान्‌ ! उपादान और निमित्तमोमांसा ६९ आशय यह है कि जो कथंचित्‌ सत्‌ है उसीमें कार्यपना बनता है, क्योंकि उपादानकी उत्तरकालीन पयोय ही कार्य है । इस प्रकार इस पूरे प्रकरण पर दृष्टिपात करनेसे यह स्पष्ट हो जाता है कि प्रत्येक कार्यका नियामक उसका उपादान ही होता: है. निमित्त नहीं, अतः जो यह मानते है. कि कहीं पर कार्य निमित्तके अनुसार भी होता है. उनकी वह्‌ मान्यता उचित नहीं. कही जा सकती | - अब थोड़ा इस विपय पर प्रागभावकी इष्टिसे भी विचार कीजिए । कार्यके आत्मलाभ होनेके पहले नहीं होनेकों प्रागभाव कहते हैं'। जैनदर्शनमें इसे सर्वथा अभाव रूप न मानकर भावान्तर स्वभाव माना गया है.। कार्यकालके अनन्त पू् - समयमें भावान्तर स्वभाव अभाव कार्यका उपादान होता है जिसका विचार नयविवज्षामें दो दृष्टियोंसे किया गया है--ऋजु- सूत्रनयकी अपेक्षा और दृब्यार्थिकनयकी अपेक्षा | ऋजुसूत- नयकी अपेक्षा विचार करते हुए इसे अनन्तर पूर्व पयोयहूप _बतलाया गया है'। तथा द्र॒व्याथिकनयसे विचार करते हुए इसे मिट्टी आदि द्वव्यरूप वतलाया गया है! | प्रमाणइष्टिसे दोनों नयद्ृष्टियोंकी मिलाकर देखनेपर इस कथनस बह फलिव होता है कि अनन्तर पूर्व पयोय विशिष्ट जो द्रव्य १८ कार्यास्यात्मलाभात्‌ प्रागभवन प्रामभाव: । स च तस्थ प्रागनन्तर- : परिणाम एवं। अ्टसहस्ली गाथा १० टीका। २. ऋजुसूत्रनयार्पशाद्धि प्राभभावस्तावत्‌ कोर्यस्योपादानपरिसाम एवं पूर्वोतिन्तरात्मा । श्रष्ट स० भाथा १० ठीका । ३, व्यवहारनयार्पणात्तु मुदादिद्वव्यं प्रागभाव;। अष्ट स० गाथा १० दीका । दर जैनतत्वमीमांसा कार्यका उपादान होता हैं. वही उसका प्रागभाव भी छाता है । सज्पि सन्तानकी पेत्ता विचार कर्म पर प्रायधावक्कता मागभात्र इस प्रकार पर्व पर्ध पयोयका भ्रहण कर उस अनादि माना गया है। परन्त बस्तुत: वह अनन्तर पूर्ण पर्यायविशिष्ट द्रव्यरूप हो है एसा यहाँ समझना चाहिए । यह तो स्पष्ट ही हैं कि प्रत्येक कार्यका प्रागसाव ( उपादान ) परथकू पथक दाता हे। ऐसा ता है नहीं कि जो एक कार्यका प्रागभाव है वही दसरे कायका भी प्रामभाव हा. जाय। शाब्यकारोंन एसा माना भी नहीं है । अतण्ब इस कथनसे भी यही फलित होता है कि जो जिस काय- का उपादान अथवा दूसरे शब्दों प्रागभाव होता हैं उससे छसी कार्यकी उत्पत्ति हाती हैं। भद्राकलंकदेचने कांग्रेके प्रति उपाठानस्थ उन्तरीमवनात' थह बचन कहा है सा इसका सार्थकता त्मी है. जब प्रत्यक कार्यकी प्त्पत्ति उपादानके अनुसार मानी जाती है। फलस्थहूप यह नहीं हा सकता कि उपादान यथा प्रामभभाव किसी अन्य कारयका रहे ओर निर्मित्तके बलसे उसमें किसी दूसरे कार्यकी उत्पत्ति हा जावे । अतएब इस कथनसे भी यही निप्कर्प निकलता है कि कार्यकी उत्पत्तिमं अन्य द्रव्य निर्मित है इतने सात्रसे उसकी उत्पत्ति निभित्तके अनुसार होती हैं यह सानना उचित नहीं है । समयप्राश्नत शास्त्र अबद्ध अस्प्रप्ट ओर असंयुक्त आत्माका . स््ररूप वाध करानेकी मुख्यतासे लिखा गया है, इसलिए उसमें सर्वयनयका कथनीका मुख्यता है । फिर भी उसमें 'जीवपरिणाम- १. इस प्रकरणके लिए आझ्राप्तमीमांसा श्लोक १२ की अप्ट्सहखी टोका देखो । २, इस प्रकरणक्े लिए आप्तमोमांसा श्लोक १० को अष्टसहसी टोका देखो । उपादान और निमित्तमीमांसा ६३ हे ॥3 2 2 ४. ४ हे पे दैदूं! ओर पुग्गलकम्मणिमित्त' इत्यादि बचनों द्वारा कार्यकी उत्पत्ति 90 सें निमित्तकी स्वीकृति दी गई है । निमित्तका किसीने कहीं निपेध गा 45 किया हो ऐसा हमारे देखनेसें नहीं आया। कहीं पर निमित्तको गोण कर दिया गया है ओर कहीं पर उपादानकों यह अन्य बात है। पर इतने मात्रसे न तो निमित्तका ही निषेध जानना चाहिये ओर न उपादानका ही। यह व्याख्यानकी शेली है, इसलिये जहाँ पर असिप्राय विशेपसे किसी एकका प्रतिपादन किया गया हो वहाँ पर दूसरेका कथन समझ ही लेना चाहिये | इतना अवश्य है कि उपादान कारण स्वयं कार्यरूप परिणमता है ओर सहकारी सामग्री उसके वलाधानमें निमित्त होती हे। तात्पय यह है कि कार्यकी उत्पत्ति उपादानसे ही होती है, निमित्तसे त्रिकालमें नहीं होती | फिर भी कार्योत्पत्तिमें निमित्त अवश्य होता है। ५ यह वस्तुस्थिति हे जिसके होते हुए भी कुछ लोग ऐसा मानते हैं कि उपादान कारण किस कार्यको जन्म देगा यह नियत नहीं है। उसमें अमनेक प्रकारकी योग्यताएँ होती है, इसलिए जिस योग्यताके अनुसार काये होनेके लिए निमित्त मिलता है उस प्रकारका कार्य होता है । इस प्रकार वे लोग प्रत्येक उपादानमें अनेक प्रकारकी योग्यताओंका समर्थत कर उपादानकी अपेक्षा कार्यका अनियसम वतलाकर उसकी व्यवस्था निमित्तके आधारसे करते हैं। विचार कर देखा जाय तो वे निमित्तके प्रेरक निमित्त ओर उदासीन निमित्त ऐसे दो भेद करके प्रेरक निमित्तोंकी सार्थकता इसीमें देखते हैं, इसलिए ऐसा कथन करते हैं। किन्तु उनकी थह सान्यता यद्यपि शाख्रानकूल तो नहों हे फिर सी उसे विचारकी दृष्टिसे स्वीकार कर लेनेपर यह देखना होगा कि जिस ऋर्यकी उत्पत्तिमें प्रेरक्त निमित्त नहीं होगा उसकी उत्पत्ति केसे द्व्ड जैनतत्त्वमीमांसा बनेगी, क्योंकि जो उपादान कारण हैं वह ता अनेक यांग्यताआ- को लिए हुए है। उनमेंसे कौन योग्यता कायरूपमें परिणित हो यह कार्य न तो उदासीन निमित्तका हो सकता है ओर न उपादान कारणका ही | उदासीन निममित्तका तो इसलिए नहीं हो सकता, क्योंकि उस कार्यकों उदासीन निमित्तका मानने पर उसे उदासीन निमित्त कहना ही असंगत होगा। वह (अनेक योग्यताओंमेंसे कौन योग्यता कार्यरूप परिणत हो वह ) कार्य डपादान कारणका सी नहीं हो सकता, क्योंकि विवक्षित उदापानमें जितनी भी योग्यताएँ हैं वे सब कार्यरूपसें होनेकी अवस्थामें हैं। अतण्व कान योग्यता कायरूप परिणत हो यह कार्य स्वयं उपादान केसे कर सकता है, अथातू नहीं कर सकता। परिणाम स्वरूप उपादानको कोन योग्यता कायरूप प्रिणित हो यह काय ग्ररक निर्मित्तका ही सानला पड़ेंगा। परल्तु प्रेरक निमित्त प्रत्येक कार्यके होते ही हैं. ऐसा कोई नियम नहीं है । अतण््व जिस कार्यके समय प्रेक्क निमित्त न होगा उस समय उसकी उत्पत्ति कैसे होगी यह विचारणीय हो जाता है । यह तो हा नहीं सकता कि जिस कालमें विवज्षित उपादानका ग्रेरक् निमित्त न हो उस कालमें उससे कारयकी उत्पत्ति ही न हो, क्योंकि ऐसा माननेपर द्रव्यके प्रत्येक समयमें होनेवाल उत्पाद-व्ययस्वसावके व्याघातका असंग आता . है। साथ हो जितने शुद्ध द्रव्य है. उनमें भी प्रत्येक समयमें हान- चाले परिणाम लक्षण कायका व्याघात न हो जाय इसलिए .चहां पर भी प्रेरक निमित्तोंकी ऋल्पता करनी पड़ती है। ग्रतः ये दोनों' . है। दाप्‌ इष्ट नहा है, अतः डपादान कारण विवज्षित योग्यता वाला हाकर तज्नछ कायका ही जन्म देता यह सान लेना ही उचित प्रतीत हांता हैं। स्वामी समन्दभद्रने श्रत्यक उपादानमें जो शक्तिरूपस कायका सत्त्व्‌ स्वाकार किया हू उसे स्वीकार करनेका उपादान और निम्मित्तमी मांसा द५्‌ उनका प्रयोजन भी यही है कि प्रत्येक उपादान उसमें जो शक्ति होती है उसीको जन्म देता है अन्यकों नहीं। उनका डपादान अपने कार्यका नियामक होता है? यह कथन भी तभी बन सकता है, अन्यथा नहीं । इतना ही नहीं उपादानको उपादान संज्ञा भी तमी प्राप्त हो सकती है, अन्यथा नहीं । साधारण नियम यह है कि प्रत्येक कार्यकी उत्पत्तिमें ये पांच कारण नियमसे होते हैं । स्वभाव, पुरुपाथ, काल, नियति ओर कम ( पर पदाथकों अवस्था )। यहां पर स्वभावसे द्रव्यकों स्वशक्ति या नित्य उपादान लिया गया है। पुरुषार्थस्े उसका बल-वीर्य लिया गया है, कालसे स्वकालका ग्रहण किया है, नियतिसे समर्थ उपादान था निश्चयकी मुख्यता दिखलाई गई है ओर कर्मसे निर्मित्तका ग्रहण किया है । इन्हीं पांच कारणोंको सूचित करते हुए पंडितप्रवर बनारसीदासजी नाटकसमयसार सर्वशुद्धज्ञानाधिकारमें कहते है-- पद सुभाव पूरत्र उदे निहचे उद्यम काल । पच्छुपात मिथ्यात पथ सरवंगी शिवचाल ॥४१॥ : गोम्मटसार कर्मकाण्डमें पाँच प्रकारके एकान्तवादियोंका क्रथन आता है।* उसका आशय इतना ही है कि जो इनमेंसे किसी एकसे कार्यकी उत्पत्ति मानता है वह मिथ्याहृष्टि है और जो कार्यकी उत्पत्तिमें इन पाँचोंके समवायकों स्वीकार करता है वह सम्यम्दष्टि है। परिडितप्रवर वनारसीदासजीने उक्त पद हारा इसी तथ्यकी पुष्टि की है। अष्टसहस्री प्र० २४७ में भद्टाकलंकदेव- १, देखों गाथा ८७९ से ८८३ तक । ह्‌ उपादान ग्रीर निमित्तमीमांसा ६७ £4 ञ सूचित होता है, क्‍योंकि स्वकाल उपादानकी विशेषता होनेसे भवितव्यतामें गर्भित है ही भवितव्यका समर्थन करते हुए परिट्ठतप्रवर टोडरमलजी सीक्षमार्गप्रकाशक ( अधिकार ३, प्रष्ट ८१ ) में लिखते हैं: सो इनकी सिद्धि होय तो कपाय उपशमनेतें दुःख दूरि होइ जाइ सुखी होइ । परन्तु इनकी सिद्धि इनके किए. उपायनिके आधीन नाहीं, भवितव्यक्रे आ्रधीन है | जातें अनेक उपाय करते देखिये है अर सिद्धि न हो है| बहुरि उपाय बनना भी अपने आधीन नाहीं, भवितव्यके आधीन है। जातें अनेक उपाय करना विचारे ओर एक भी उपाय न होता देखिए है । बहुरि काकतालीय न्यावकरि भवितव्ब ऐसी ही होइ जैसा आपका प्रयोजन होइ तैसा ही उपाय होइ अर तातें कार्यकी सिद्धि भी होइ जाइ तो तिस कायसंत्रंधी कोई कपायका उपशम होइ | यह पर्डितप्रवर टोडरमल्लजीका कथन है। मालूस पड़ता है कि उन्होंने 'ताइशी जायते बुद्धि” इस श्लोकमें प्रतिपादत सथ्यकों ध्यानमें रखकर ही यह कथन किया हैं। इसलिए इसे उक्त अर्थके समर्थनमें ही जानना चाहिए। इस प्रकार कार्योत्पत्तिके परे कारणों पर हृष्टिपात करनेसे भी 'थह्दी फलित होता है कि जहाँ पर कार्योत्पत्तेके अनुकूल द्रव्यका स्ववीयं ओर उपादान शक्ति होती है वहाँ अन्य साधनसामग्री स्वयमेव मिल जाती है, उसे मिलाना नहीं पड़ता । वाध्तवमें देखा जाय ता यह कथन जेनदर्शनका हार्द प्रतीत होता है। जैनदशनमें कार्यकी उत्पत्तिके प्रति जो उपादन-निमित्त सामग्री स्वीकार की गयी है उसमें द्रव्यके स्ववीयंके साथ उपादान का प्रमुख स्थान है । उसके अभावसें निमित्तोंकी कथा करना ही व्यर्थ है। स्वासी समन्तभद्रने आप्रमीसांसामें जब यह री] उपादान और निमित्तमीमांसा ६९ जीव हैं उनके इस शक्तिकी व्यक्ति अनादि-अनन्त है और जो भव्य जीव है उनके इस शक्तिकी व्यक्ति अनादि होकर भी सानन्‍्त - है। किन्तु जब इस जीवके शुद्धि शक्तिकोी व्यक्तिका स्वकाल आता है तव यह जीव अपने स्वभाव सन्मुख होकर पुरुपार्थ द्वारा उसकी व्यक्ति करता है, इसलिए शुद्धि शक्तिकी व्यक्ति ' सादि है| यहाँ पर जो अशुद्धि शक्तिकी व्यक्तिकों अनादि कहा गया है सो वह कथन द्रव्याथिकनयकी अपेक्षासे ही जानना चाहिए, प्योयाधिकलयकी अपेक्षा तो उसकी व्यक्ति प्रति समय होतीं रहती है। जिससे प्रत्येक संसारी जीवकी प्रति समयसम्वन्धी भावसंसाररूप पर्योयक्री ख्ष्टि होती है'। यहां पर यह कहला उचित प्रतीत नहीं होता कि थे दोनों शक्तियां जीबकी हैं तो इनमेंसे एककी व्यक्ति अनादि हो ओर एककी व्यक्ति सादि हो इसका क्या कारण है ? समाधान यह है कि वस्तुका स्वभाव ही ऐसा है जो तकका विपय नहीं है। इसो विपयको स्पष्ट करनेके लिये आचाय सहायजने पाक्यशक्ति ओर अपाक्यशक्तिका १. यहाँपर जोबोंके सम्यग्दर्शनादिछप परिणामका नाम शुद्धिशक्ति है और मिथ्यादर्शनादिछूप परिणामका नाम अ्रशुद्धिशक्ति है. इस अभिप्रायको 'डयानमें रखकर यह व्याख्यात किया है। वंसे शुद्धिशवितिका श्रर्थ भव्यत्व ' और अशद्धि शवितका अर्थ अ्रभव्यत्व करके भी व्याख्यान किया जा सकता है । भट्ट श्रकलड्ूुदेवने अष्टशतोमें और आचार्य विद्यानन्दने अ्टसहस्त्री में सर्वश्रथम इसी अर्थकों ध्यानमें रखकर व्याख्यान किया है। इसी श्र्थको व्यानमें रखकर ग्राचार्य अमृतचन्धने पञझुचास्तिकाय गाथा १२० की टीकामें यह वचन लिखा है--संसारिणों दिप्रकाराः भव्या अभव्याश्च । ते शुद्धस्वहूपोपलम्मशक्तिसद्सावासदभावाभ्यां पाच्यापाच्यमुद्गवदभिधीयन्त ड्ति। ७० जैनतत्त्वमोमांसा उदाहरण॒रूपसें उपस्थित किया हे | आशय यह है कि जिस प्रकार चहा उड़द आग्नसयागका निम्ित्त कर पकता है जो पाक्यशंक्तिसे युक्त हांता हैं। जिससें अपाक्यशक्ति पाई जाती है वह स्नि- सयागका निर्मित्त कर त्रिकालसें नहीं पकता ऐसी चस्तमयोदा है उसी प्रकार प्रकृतमें जानना चाहिये। यहां पर पाक्यशक्ति युक्त उड़द आर अपाक्यशक्ति युक्त उड़द ऐसा भेद किया गया है. जा सब जावापर पूर्य तरहसे लागू नहीं होता, क्योंकि भव्य जावाम शुद्धशाक्ते ओर अशुद्धिशक्तिका सदभाव समानरूपसे उपलब्ध हांता हूँ सा प्रकृतमें ऋष्टान्तककों एकदेशरूपसे आाह्य ॥ सानकर मुख्याथेकोा फलित कर लेना चाहिये । दइष्टरान्तमें . दाट्टान्तिक सब गुण उपलब्ध होते ही हैं ऐसा सा नहा। बह ता मुख्याथकां सूचनसात्र करता है। इस इणशप्टान्तकों उपस्थित कर आचाये महाराज यही दिखलाना चाहते हैं कि अत्यक द्रव्यस आन्तरिक योग्यताका सद्भाव स्वीकार किये वित्ता कोई भी काय नहीं हो सकता | उप्तमें भी जिस याग्यताका जो स्वकाल ( समथ उपादानक्षण ) है उसके प्राप्त हाने पर हो बह काय हांता है, अन्यथा नहीं होता। इससे थदि कोई अपने पुरुपाथकां हानि समझे सो भी चात नहीं 6, क्याकि किसी भा यग्यताका कायका आकार पुरुपाथ द्वारा ही. प्राप्त हांता हें। जायका धत्यक कायकी उत्पत्तिमें पुरुषणाथे अनिवार्य हैं। उसकी उत्परत्तिम एक कारण हा ओर अन्य कारण न हो ऐसा नहीं हें जब काय उत्पन्न होता है. तब निमित्त भी हांत है, क्योंकि जहाँ निश्चय (उपादान कारण) है. वहाँ व्यवहार (निम्मित्त कारण) होता । इतना अवश्य है कि सिथ्यादष्टि जीव निश्चयका लच्यम | शता और सात्र व्यवहार पर जोर देता रहता है, इसलिये * >यवहाराभासी होकर अनन्त संसारका पात्र बना रहता हैं । हि. उपादान और निमित्तमीभांसा ७१ ऐसे व्यवह्ाराभासीके लिए परिडितप्रवर दोलतरामजी छहढालामें ' क्या कहते है यह उन्हींके शब्दोंमें पढ़िये :--- कोटि जनम तप तप ज्ञान बिन कर्म भरें जे । जआनीके छिनमें भिग्ुप्तित सहज दरें ते॥ मुनित्रत धार अनन्त बार औवक उपजायो। पै निज आतम ज्ञान बिना सुख लेश न पायो | जैसा कि हम पहले लिख आये हैं. भवितव्यता उपादानकी यांग्यताका ही दूसरा नाम है। अत्येक द्वव्यमें कार्यक्षम भवितव्यता होती है. इसका ससर्थन करते हुए स्वामी समनन्‍्तभद्र अपने स्वयस्भूस्तोत्रमें कहते हैं :--- अलंप्यशक्तिभंवितव्यतेय॑. हेतुद्याविष्कृतकार्यलिगा । अनीश्वरो जन्तुरहंक्रियात्त: संहत्य कार्यप्विति साध्ववादीः ॥३३॥ आपने ( जिनदेवने ) यह ठीक ही कहा है कि हेतुययसे उत्पन्न होनेवाला कार्य ही जिसका ज्ञापक है ऐसी यह भवितव्यता अलंध्यशक्ति है, क्योंकि संसारी प्राणी में इस कार्यकों कर सकता हूं? इस प्रकारके अहंकारसे पीड़ित है बह उस ( भवितव्यता ) के बिना अनेक सहकारी कारणोंको मिलाकर भी कार्यके सम्पन्न करनेमें समर्थ नहीं होता ॥३३॥ सब द्रव्योमें कार्योत्पादनक्षम उपादानगत योग्यता होती है इसका समर्थन भद्टाकलंकदेवने अपनी अप्टशती टीकामें भी किया है। प्रकरण संसारी जीवोंके देव--पुरुपाथवादका है। वहाँ वे देव व पुरुपार्थका स्पष्टीकरण करते हुए कहते है--- योग्यता कर्म पूर्व वा दैवमुभयमदृष्टम्‌, पौरुष पुनरिहचेष्टितं दृष्टम्‌ । # छ्र्‌ ऊनछन्दमानासा नीम 3 ८ जलकर जम पीर उना ०० फज्तसय मा वाम्बानर्थतिद्धि', वदन्वतरामायेउबबनात्‌ | परॉद्मातरडबाइशनात्‌ | पु 7 ४. "7४-८7: सपाास बेदमात्रे वा समाहनधक्यप्रसयात । । बे दानों अहप्द है। तथा इहचेप्टितका पीरुम कहते हूं जो इप्ट हं। इस दॉनास |, ९ ७०८७ अर्थसिद्धि होती हे, क््योंकि इनमेंस किसी एकके असावर्म अर्थ सिद्धि नहीं है सकती । कंबल पोरपस अशासाद्ध सानन पर अर्थका दर्शन नहीं हाता ओर केवल देंबसे माननेपर समीहाकी निष्फत्नताका प्रसगे आता हू । /24% १॥| 8 | 3] 4 | | 3 पट ५४ बिक उपाह्मनका याग्यताठसार ऋकांय दाता त्तत्त्याः € ८४ गटर लो लम ४-०. इन शच्दामे प्र साले २ नम ] तत््याथवातिक ( आ० ९, सूत्र २० ) में इव शब्दों करते हे $--- ल 2. के 2. पीडपय- बबा म्रदः ल्बमन्तवबदसवनप्रिणामासिरुस्य दंडल्चक्र-्पिपिय- मम 8। बब्म्>- “0 ्न्द्जन स्त्त्रपि 7 टादि ८००3 अदला झाकरादि: >> पवानादि नानचनात्र चबाने, अतः सत्खार ब्च्ादनानच शकराद- प्रदच्चेतोीं यत्विए्डः स्ट्जझ्भ+ऊ:२- ४ ननिच्सकलान घर्ट छऋछिता आातलरडइाः सखबनसब्ध्नवनवास्मानसानब्ककतसान्र घटद्टानवातें, 8 20 कन्क ० ल न न आकर अर बाह्य '>्ड दश्डादिनिा ०८] निम्मित्तसापतन्न ् आ+ ्यन्त््मस्ण्गाम: का अदा यझूातल्लएंद एज दाह्मयस्य्दादणनामत्तठापन्न आऑम्यन्तेसारओानस- सा पलदल सतत और जे +-» दसशडादया+ डा5 ४८७ अधततभात्र उन दिवित्नमांत्र सर्च उानब्वाद बद्य सदन ने देसरडादया इाते इश्डादाना नानचमात्रिल बे सवाते । 325 2 भीतरस घटमवन ८ हे जेस [मट्टाक स्थ सातरस ६ रूप पासरणामक्र आंभजुस हानंपर इणड, चक्र निमित्तसात्र हि तसपर दरड, चक्र आर पुरुषक्ूद अयत्यत आंद पवमित्तसात्र हातठ॑ है. क्योंकि वस्झादि है, क्ष्याक्र दण्ड निमित्तोक्क रहनेपर भी वालुकाबहुल मिट्टीका पिरड स्वयं भीतरसे घटसवनरूप परिणास ( पर्योच ) से मिरुल्यक्र च् होनक कारण चबद नहा हाता, अतः चांह्यमम दइशव्डञाद पविमित्तसाज्ञषप के लनिद्वका प्रदद्ठ है। भीत्तर धटमसवतरूप परिशामका सानिध्य हानस घव हांता है, दण्डादि घद् नहीं हाते, इसलिए दग्डादि तमत्तमात्र है | इस प्रकार इन उद्धरणोंसे क्षय हे क्वि ज्पाद्ननगत योग्यताके उपादान और निमित्तमीमांसा छ३ [यंभवनरूप व्यापारके सन्मुख होनेपर ही वह कार्य होता है, अन्यथा नहीं होता । यहापर यॉग्यतासे प्रत्येक द्रव्यकी अपनी उपादानशक्ति ली गई है ओर कार्यमवनरूप व्यापारसे बल-वबीर्य सहित उसका क्रिया व्यापार लिया गया है। ऐसा बल-बीये अत्येक द्रव्यसें होता है। जीवोंके इसी वल-बीयको निश्चयसे पुरुपार्थ कहते है । * यदि तत्त्वार्थवातिकके उक्त उल्लेखपर वारीकीसे ध्यान दिया जाता है तो उससे यह भी विदित हो जाता है कि घट निष्पत्तिक्रे अनुकूल कुम्हारका जो प्रयत्न प्रेरकनिमित्त कहा जाता हे वह निमित्तमात्र हे,वास्तवमें प्रेरक निमित्त नहीं | उनके 'निमित्तमात्र है! ऐसा कहनेका यही तात्पय है । हस पहले प्रत्येक कायको उत्पत्ति स्वकाल' ( समर्थ उपादान- के व्यापारक्षण ) के प्राप्त होनेपर होती है यह लिख आये हैं, इसलिये यहाँपर संक्षेपमें उसका भी विचार कर लेना आवश्यक 'अतीत होता है । यह तो सुनिश्चित हे कि प्रत्येक कार्यका स्वकाल ता हे। न तो उसके पहिले ही वह काय हो सकता है ओर - न उसके वाद ही । जो जिस कार्यका स्वकाल होता है उसके ग्राप्त होने पर अपने पुरुपार्थ ( वल-बीय ) द्वारा वह कार्य होता है. ओर अन्य द्रव्य, जिनमें उस कार्यके निंमित्त होनेकों योग्यता होती है, निमित्त होते हैं। प्रत्येक भव्य जीवका मुक्तिलाभ भी एक कार्य है, अतः उसका भी स्वकाल है। उक्त नियम द्वारा १. स्वकाल शब्द प्रत्येक द्रव्यकी अपनी पययिके लिए भी आता है । प्रकृतमें उसका अर्थ समर्थ उपांदानका अन्तर्भवनरूप व्यापारक्षण लिया गया है।. श्रागे जहाँ जहाँ स्वकाल शब्द आया है वहाँ सर्वत्र यही अर्थ लेना चाहिए । छंए जैनतत्त्वमीमांसा डसीकी स्वीकृति दी गई है । केचल यह बात हम तकके चलसे कह रहे हों ऐसा नहीं है, क्योंकि कह प्रमुख आचायाक इस सम्बन्धमें जा उल्लेख मिलते हैं. उनसे इस कथनकी पुष्टि दाती है । आचाये विद्यानन्दन आप्तमोमांसा और अष्टशतीके आधारसे जब यह सिद्ध कर दिया कि जो शुद्धिशक्तिकी अभिव्यक्ति दास शुद्धिका प्राप्त कर लेते हैं थे मुक्तिके पात्र हो जाते हैं. ओर जो अशुद्धि शक्तिकी अभिव्यक्ति द्वारा अशुद्धिका उपभोग करते रहते हैं उनके संसारका प्रवाह चालू रहता है। तब उनके सामने यह प्रश्न उपस्थित हुआ कि सब संसारी जीव जिस प्रकार अनादि कालसे अशुद्धिका उपमाग करते आ रहे हैं उस प्रकार थे सदा काल शुद्धिका उपभोग करते हुए भुक्तिके पात्र क्‍यों नहीं होते ? इसी प्रश्नका उत्तर देते हुए थे कहते हैं. ; केपांचित्‌ प्रतिमृक्तितः स्काललब्धी स्थादिति प्रतियत्तव्यम । केन्हीं जीवींका प्रतिमुक्ति स्वकालके प्राप्त होने पर होती हैँ ऐसा जानना चाहिए। आचाये विद्यानन्दने इस कथन द्वारा यह बतलाया हर कि ८ ८ हक. के हक शाद्धनामक शक्त हांता तां सबके है | परन्तु जिन जीवोंके उसके परयोगरूपसे व्यक्त हानका स्वक्ाल आजाता हू उन्हाकक अपने -परुषाथ द्वारा उसकी व्यक्ति होती है आर व्‌ हा माक्षक पात्र हाते है | यह कथन केवल आचार्य समन्तभद्र और विद्यानन्दने ही किया हा यह बात नहों हैं। भद्नकलंकदेवने भी तस्वार्थर्तिक ( अ० १, सूत्र० ३ ) में इस तथ्यकों स्वीकार किया है। बह अकरण लिंस्गेज ओर अधिगमज सम्यग्द्शनका है इसी भसेसका लेकर उन्हाने सबप्रथम यह शंका उपस्थित की है :--- उपादान और निमित्तमीमांसा छू भव्यस्य कालेन निःश्रेयसोपत्त: अधिगमसम्यक्त्वाभावः | ७ | यदि अवधुतमोक्षकालात्‌ प्रागधिगमसम्बक्त्वबलात्‌ मोक्षुः स्थात्‌ स्थादधि- गमसम्बग्द्शनस्थ साफल्‍्यम्‌ । न चादोऊस्ति । अतः कालेन योउस्यः मोक्षोउसो निसर्गजसम्यक्त्वादेव सिद्ध इति | इस वार्तिक ओर उसकी टीकामें कहा गया है कि यदि नियत माक्षकालके पूव अधिगमसस्यक्त्वके वलसे मोक्ष होवे तो अधि- गमसम्यकत्व सफल होवे। परन्तु ऐसा नहीं है, इसलिये स्वकालके आश्रयसे जो इस भव्य जीबको मोक्षप्राप्ति है बह निसमगंज: सम्यक्त्वसे ही सिद्ध है । इस प्रकार हम देखते हैं कि उक्त कथन द्वारा भद्टाकलंकदेवने भी इस तथ्यकों स्वीकार किया है कि प्रत्येक भव्य जीवको उसकी मोक्ष ग्राप्तिका स्वकाल आनेपर मुक्तिलाभ अवश्य होता है। इससे सिद्ध हे कि लोकमें जितने भी कार्य होते हैं वे अपने कालके प्राप्त होनेपर ही होते हैं, आगे पीछे नहीं होते । यहाँ पर यह शंका की जा सकती है कि जब वचहीं पर भद्टाकलंकदेवने कालनियमका निपेध कर दिया है तब उनके पूर्व वचनको कालनियमक्के समर्थनमें क्‍यों उपस्थित किया जाता है। कालनियमका निपेघपरक उनका वह वचन इस प्रकार है :-- कालानियमाच्च निर्जरायाः |६] यतो न भव्यानां कृत्नकर्म- निर्जरापबकमोन्षकालस्थ नियमोउस्ति । केचिद्‌ मव्याः संख्येन कालेन सेत्स्यन्ति, केचिदसंख्येन, कचिदनन्तेन, अपरे अनन्तानन्तेनापि न सेल्व्बन्तीति, ततश्च न युक्त भव्यस्य कालेन निःश्रेयसोपपत्ते ? इति । लक 25 मम / इस वातिक ओर उसकी टीकाका आशय यह है कि यत+ भव्याक्त समस्त कर्सोका ।नजरापूवक साक्षुकालका नियस नहां ह,. क्याके कितने हीं भव्य रूख्यात्त कांत द्वारा मचुलाभ करगे। छद्‌ जनतत्वमामाना कितने ही असंम्यात कालद्रारा ओर कितने ही अनन्त कालद्वारा सोक्ष लाभ करेंगें। दूसरे जोब अनन्तानन्त कालद्राग भी माज्न- लाभ नहीं करेंगे। इसलिए “भव्य जीव काल द्राग मोत्ललाम करेंगे! यह बचन ठीक नहीं है । कुछ विचारक इसे पढ़कर उस परसे ऐसा अर्थ फलित करते है कि भद्ठाकलंकदेवन प्रस्यक भव्य जीवके मात्र जानके काल- नियमका पहले शंक्रारूपमें जा विधान किया था उसका इस कथन द्वारा स्बधा निषेध कर दिया है। परन्त बस्नस्थिति ऐसी नहां है। यह सच है कि उन्होंने पिछले कथनका इस कथनद्वारा निषेध किया ह | परन्त उ यह निषेध नयविशपक्का आश्रय लेकर ही किया है, सर्वथा नहीं। बह नथत्रिशप यह हे कि पर्वाक्त कथन एक जोवक आश्रयसे क्रिया गया है ओर यह कथन नाना जावाक आश्रयस किया गया हे। सब भव्य जीवॉकी अपक्ता दखा जाय ता सबक साक्ष जानका एक कालनियम नहीं पनता, क्याके दूर भव्योंका छोड़कर प्रत्यक्त भव्य जीबझ मात जानका कालनियम अलग अलग है, इसलिए सचका एक काल- नियम केसे वन सकता है? परन्तु इसका यदि कोई यह अर्थ लगाव के प्रत्यकत भव्य जीवका भी साक्ष जानका कालनियम नहे। हू ता इसका उक्त कथन द्वारा यह अर्थ फलित करना उक्त ऊयनक आभग्रायकों ही ने समझता कहा जाबगा। आअतः मतेम यह सममना चाहिए कि भद्गाकलंकदेव भी प्रत्येक भव्य जीवक साक्ष जानेका काल नियम मानते रहे हैं । प्रत्येक द्रव्यकी प्योग्र उसके स्वकालके प्राप्त होनेपर ही हाती पका समथन पंचास्तिकाय गाथा १८ के इस टीका वचनसे भा हांता है | बह वचन इस प्रकार है :--. च्ेः छठ उपादान और निशित्तमीमांसा ७७- देव-मनुप्यादिपर्यायास्तु क्रमवर्तित्वादुपस्थितातिवाहितस्वसमया उत्तग्न्ते विनश्यन्ति चेति | ' देव ओर मनुष्य आदि पयोयें तो ऋ्रमव॒र्ती है, परिणासस्व॒रूप उनका स्वसमय उपस्थित होता है ओर बीत जाता हे, इसलिए वे उत्पन्न होती है आर नाशको प्राप्त होती हैं । तात्पय यह है देव ओर मनुष्य आदि पयायें अपने-अपने स्वकालके प्राप्त हाने पर उत्पन्न होती है ओर स्वकालक अतीत हानेके साथ नष्ट हो जाती हैं । इसी वातका समथेन करते हुए पंचास्तिकाय गाथा ११ की: टीकामें भी कहा हे।-- कल यदा ठु द्र॒व्यगुणत्वेन पर्यायमुख्यत्वेन विवच्यते तदा * प्रादु्भबति विनश्यति । सत्यर्यायजातमतिवाहितस्वकालमुच्छिनत्ति,. असदुपस्थितस्वकालमुत्यादयति चेति | '' ओर जब यह जीच द्रव्यकी गौणता और पर्योयकी मुख्यतासे विवज्षित होता है तब बह उपजता है और विनाशको प्राप्त होता है । जिसका स्वकाल बीत गया है ऐसे सत्‌ (विद्यमान) पयोयसमूहकों नष्ट करता है ओर जिसका स्वकाल उपस्थित है ऐसे असत्‌ ( अविद्यमान ) पयोयसमूहको उत्पन्न करता है यह उक्त कथनका तात्पय है। इस प्रकार इस कथनसे भी यही विदित होता है कि प्रत्येक कार्य अपने अपने स्वकालके प्राप्त होने पर ही होता है। पर इसका यह अर्थ नहीं कि स्वकालके प्राप्त होने पर वह अपने आप हो जाता है | होता तो है वह स्वभाव आदि पांचके समवाय से ही | पर जिस कार्यका जो स्वकाल है उसके प्राप्त होने पर ही उपादान और निमित्तमीमांसा ७९ जीवराशिमेंसे युक्तानन्त प्रमाण जीवराशिकों छोड़कर शेप जीवराशि भव्य है सो इस कथनसे भी उक्त तथ्य ही फलित होता है । इस प्रकार इतने विवेचनसे यह स्पष्ट हो जानेपर भी, कि प्रत्येक काय अपने अपने स्वकालमें अपनी अपनी योग्यतानुसार ही होता है, ओर जब जो कार्य होता है तव निमित्त भी तदलु- 'कूल मिल जाते है, यहाँ यह विचारणीय हो जाता है. कि प्रत्येक समयमसें वह कार्य होता कैसे है ? क्‍या वह अपने आप हो जाता है या अन्य कोई कारण है जिसके द्वारा वह कार्य होता है ? विचार करनेपर विदित होता है कि वह इस साथन सामग्रीके 'मिलनंपर भी अपने अपने वल-बीय या पुरुपाथके द्वारा ही होता है, अपने आप नहीं होता है। इसलिए जीबके प्रत्येक कार्यमें पुरुपार्थकी मुख्यता है। यही कारण है कि जिन पाँच कारणोंका पूर्वेमें उल्लेख कर आये हैं. उनमें एक पुरुषाथ भी परिगणित किया “गया है। हम कार्योत्पत्तिका मुख्य साधन जो पुरुपार्थ है उसपर . तो दृष्टिपात करें नहीं ओर जब जो कार्य होना होगा, होगा ही यह मान कर प्रमादी वन जाँय यह उचित नहीं है । सर्वत्र विचार इस वातका करना चाहिए कि यहाँ ऐसे सिद्धान्तका प्रतिपादन किस असिप्रायसे किया गया है। वास्तवमें चारों अनुयोगोंका सार वीतरागता ही है, वैसे विषयोस करनेके लिए सर्वत्र स्थान है। * उदाहरण स्वरूप प्रथमानुयोगको ही लीजिए | उसमें महापुरुषोंकी अतीत जीवन घटनाओंके समान भविष्य सम्बन्धी जीवन घटनाएँ भी अंकित की गई हैं। अब यदि कोई व्यक्ति उनकी भविष्य सस्वन्धी जीवन घटनाओंको पढ़कर ऐसा निर्णय करने लगे कि जैसे इन महापुरुषोंकी भविष्य जीवन घटनाएँ सुनिश्चित उपादान और निमित्तमीमांसा ८१ की हानि होती है ऐसी खोटी श्रद्धाकों छोड़कर इसके स्वीकार द्वारा मात्र ज्ञाता-हृष्टा बने रहनेके लिए सम्यक्‌ पुरुषार्थको जाग्रत करना चाहिए। तीर्थंकरों और ज्ञानी सन्तोंका यही उपदेश है जो हितकारी जानकर स्वीकार करने थोग्य है | श्रीमद्‌ राजचन्द्रजी कहते हैं--- जो इच्छी पुरुषाथ तो करो सत्य पुरुपार्थ । भवस्थिति आदि नाम लई छेदो नहीं आत्मार्थ .। जो भवस्थिति (काललब्धि) का नाम लेकर सम्यक्‌ पुरुपाथ- से विरत है उसे ध्यानमें रखकर यह दोहा कहा गया है। इसमें वतलाया है कि यदि तू. पुरुषाथकी इच्छा करता है तो सम्यक्‌ पुरुषार्थ कर। केवल काललच्धिका नाम लेकर आंत्माका घात मत कर। प्रत्येक कार्यकी काललब्धि होती है इसपें सन्देह नहीं। पर वह किसीको सम्यक पुरुपाथ करनेसे रोकती हा ऐसा नहां हैं। काजललब्धि और योग्यता ये दोनों उपादानगत विशेषताक हां दूसरे नाम हैं। उससे अलग वे कोई स्वतन्त्र पढाथ नहां है, इसलिए जिस समय जिस कायका सम्यक्‌ पुरुपाथ हुआ वही उसकी काललब्धि है, इसके सिवा अन्य कोई कालल हो ऐसा नहीं है | इसी अमिप्रायकों ध्यानर्स रखकर पारडतप्रवर टोडरमल्लजी मोक्षमार्गम्रकाशक ( 7० ४६२ ) में कहते हँ-- | प्रश्न- जो मोज्ञका उपाय काललब्धि आएं भवितव्यतानुसाएरे बने है कि मोहादिकका उपशमादि भएं बने हैं अथवा अपने पुरुपाथर्ते उद्यम किए बने सो कहो । जो पहिले दोय कारण मिले बने है तो हमको उपदेश काहेकौं दीजिए है । अर पुरुषार्थतें बनें है तो उपदेश सर्व सुनि तिन विषे कोई उपाय कर सके, कोई न कर सके सो कारण कहा ? घर टर्‌ जैनतत्त्वमीमांसा ताका समाधान--एक कार्य होने विपें अनेक कारण मिलें हैँ सो मोन्॒का उपाय बने है । तहां तो पृवोक्त तीनों ही कारण मिले ही है| अर न बने है तहां तीनों ही कारण न मिले हैं | पर्वोक्त तीन कारण कहे तिन विष काललब्धि वा होनहार तो किछ वस्तु नाहीं। जिस काल वि काय बने साई काललब्धि ओर जो कार्य भया सोई होनहार | बहुरि कर्मका उपशमादि है सो पुद्गलकी शक्ति है। ताका आत्मा कता हर्ता नाहीं । बहुरि पुरुषाथ तें उद्यम करिए है सो यह आत्माका कार्य है । तातें ग्रात्माका पुरुपाथ करि उद्यम करनेका उपदेश दीजिए है । तहां यहु आत्मा जिस कारण तें कार्यसिदझ्धि अवश्य होये तिस कारणुरूप उद्यम करे तहाँ तो अन्य कारण मिलें ही मिलें अर कार्यकी भी सिद्धि होय ही होय | वे आगे ( प्ृ० ४६५ ) में पुनः कहते हैं--- अर तत्त्व निणंय करने विपे कोई कमका दोप है नाहीं। अर तू आप तो महंत रही चाहे अर अपना दोप कर्मादिककें लगायें सो जिन आज्ञा मान तो ऐसी अनीति संभव नाहीं। तोकौ विपय-कपाय- रूप ही रहना है ताते भूठ बोले है। मोक्षकी सांची अमिलापा होय तो ऐसी युक्ति काहे को बनावै। संसारके कार्यनि वियें अपना परुपार्थतों . सिद्धि न होतीं जानें तो भी पुरुपार्थक्रि उद्यम किया करे । यहां परुषार्थ खोई बेटे । सो जानिए है, मोक्ञकों देखादेखी उत्कृष्ट कहै है। याका स्वरूप पहिचानि ताको 'हितरूप न जाने है | हित जानि जाका उद्यम बने सो न करे वह असंभव है | /तम यह बात विशेष ध्यान देने योग्य हे कि शाखरोंमें जहाँ है कालादिलव्धिका उल्लेख किया है वहाँ उसका आशय आत्माभिमुख होनेके लिए अन्य कुछ आशय नहीं है । इसे स्पष्ट करते हुए आचाये जयसेन पग्चास्तिक गाध् -९ का टांकाम कहते य.गाधा. ९४०-१४१ उपादान और निमित्तमीभांसा ८३ यदाय॑ जीवः आगमभाषपया कालादिलव्धपिरुपमध्यात्म भाषया शुद्धात्माभिमुखपरिणामरूप॑ स्व॒संवेदनशान लभते । जब यह जीव आगसभापाके अनुसार कालादिलव्धिरूप आर अध्यात्ममापाके अनसार शुद्धात्मासिमुख परिणामरूप स्वसंवेदनज्ञानको प्राप्त होता है । इस प्रकार यहाँ तक जो हमने उपाद्मनकारणक्े स्वरूपादिकी मीसांसाक्े साथ प्रसंगसे उपादानकी योग्यता और स्वकालका विचार किया उससे यह स्पष्ट हो जाता है कि जो क्रियावान' निमित्त प्रेरक कहे जाते हैं थे भी उद्ासीन निमित्तोंके समान “कार्योत्पत्तिके समय मात्र सहायक होते हैं, इसलिये जो लोग इस मान्यतापर वल देते हैं कि जहाँ जैसे निमित्त मिलते है वहाँ : उनके अनुसार ही कार्य होता है, उनकी बह मान्यता समीचीन "जहींहै। किन्तु इसके स्थानमें यही सान्यता समीचीन और “ तथ्यकों लिये हुए है कि प्रत्येक कार्य चाहे वह शुद्ध द्रव्यसम्बन्धी 'हो:ओर चाहे. अशुद्ध द्ृव्यसम्बन्धी हो, अपने अपने उपादानके “अनुसार .ही होता है। उपादानके अनुसार ही हाता हैं इसका >्यह अथ नहीं है कि वहाँ निम्मित्त नहीं होता। निमित्त तो 'चवहाँपर भी होता हैं । पर निमित्तके रहते हुए भी क्राय उपादानके “अनुसार ही होता है यह एकान्त सत्य हैं। इसमें सन्देहके लिये स्थान नहीं है। यही कारण हैं कि मोक्षके इच्छुक पुरुषोंको “अअनादि रूढ लोकव्यवहारसे मुक्त होकर अपने द्रब्यस्त्रभावकों :ज्षक्ष्यमें लेना चाहिये ऐसा उपदेश दिया जाता है । : यहाँ यह शंका की जाती है कि यदि कार्योकी उत्पत्ति प्रेरक “मिमित्त कारणोंके अनुसार नहीं होती है तो उन्हें प्रेरक्त कारण क्यों कहा जाता है? समाधान यह है कि ये कार्योकों अपने ८ड जैनतत्त्वमीमांसा अनुसार उत्पन्न करते हैं, इसलिय उन्हें प्रेरक कारण नहीं कह गया है। किल्तु उनका इसण ( गति) क्रियाका गप्रकृष्ठता अन्य द्रब्योंक क्रियाव्यापारक समय उनके चलाधानमें निमित्त हांती है इस बातका ध्यानमें रखकर हां उन्हें प्ररक कहा गया हैं यहाँ पर हमने प्ररक्रकारणका जो अर्थ किया हे वह अपने मनसे नहीं किया है, किन्तु पंचाम्तिकाय गाथा ८८ की टीकामें _ आचाय अमृतचन्द्रने जिन्हें लोकमें उद्यसीन निमित्तकारण और प्ररक निमित्तकारण कहते हैं. उनका जा स्पष्टीकरण किया हैं वह उक्त अथंक समथनके लिए पयाप है । व कहते हैं : यथा हि गतिपरणतः प्रभजनो जैजन्तीनां गतिपरिणामस्य हेतुकताद वलोक्यते ने तथा शर्म। से खलु निपष्कियत्वान्न कदाचिद्पि गतिपस्णिममबापबते, कुतो:स्थ सदकारित्वेन परेपां गतिपरिणामस्य हवुकतू वम । ।कल्तु सलिलमिव मत्तवानां जीवपुद्गलानामाश्रव- कारगुत्वनोदासीन एवासो गतेः प्रसरो भवति । डं जिस प्रकार गतिपरिणत परत ध्यजञाओंके गतिपरिणासका हेतुकता। दिखाई देता हैं उस प्रकार धर्मद्रव्य नहीं है । वह ( धरम ) वास्तवर्म निष्किय हानेस कभी भी गतिपरिणासको ही प्राप्त नहीं हता ता फिर उसमें सहकारीरूपसे दूसरोंके गतिपरिणामका हंतुकतापन कैंसे वन सकता हैं? किन्‍त जिस प्रकार पानी मछलियोंके आश्रय कारणरूपसे गतिका प्रसर ( निसित्त ) है उसी अकार घमंद्रठ्य भा जाबा ओर पुद्नलोंके आश्रयकारणहूपस हा गांतका प्रसर हैं । इस इस 3ल्लेखसे यह स्पष्ट हो जाता है कि जहाँ अन्य द्रव्य विवाक्षित परिस्पन्दरूप क्रिया द्वारा किसी अन्य द्रव्यक्रे कार्यमें निमित्त न हांकर अन्य “कारसे निमित्त हांता है वहाँ चह्‌ पा उपादान और निमित्तमीमांसा ८5 आश्रयकारण कहलाता है । उदासीन कारण इसीका नामान्तर है। तात्पये यह हैं कि धरमादि द्रप्य तो स्वर्य निष्क्रिय हैं ही । किन्तु क्रियाबान्‌ द्रव्यकी क्रिया भी यदि अन्य द्रव्यके कार्यमें 'निमित्त न हॉकर बह अन्य प्रकारसे निमित्त होता हैं । तो वह भी आश्षयकारण ही है। किन्तु जहां सक्रिय अन्य दब्यकी क्रिया किसी अन्य द्रव्यक्के का्यमें निमित्त होती हैं वहाँ उभयत; क्रियापरिणामकों लक्ष्यममें रखकर निमित्त सहकारी कारण या हेत॒कता कहा गया है। जिसे ल्ोकमें प्रेरककारण कहते हैं यह उसीका नामान्तर है। इसके सिद्रा उदासीनकारण ओर प्रेरककारणमें अन्य कोई विशेषता हों ऐसा नहीं है। अथात प्रेरककारण उपादान कारणके अभाव वबलात्‌ कार्यकों उत्पन्न करता हो ऐसा नहीं है । किन्तु जब उपादानकारण अपने कार्यकों उत्पन्त करता है तव जो आश्रय कारण होता है वह उदासीन कारण कहलाता हे ओर जो अपनी इरण ( गति ) क्रियाकी प्रकृप्टताके द्वारा दसरेके गतिपरिणामर्म हेतु होता है बह प्रेरक्कारण कहलाता है | धर्मादिक द्रव्य स्वयं निष्क्रिय हैं, इसलिए उनमें तो गतिक्रिया सम्भव ही नहीं है । जिनमें गतिक्रिया होती भी है उनमें भी यदि वे अपनी गतिक्रियाके द्वारा किसी कार्यमें निमित्त नहीं होते तो वे भी उस समय उदासीन कारण ही कहलाते हैं ओर यदि अपनी गतिक्रियाके द्वारा वे अन्यके गति परिणाममें निमित्त होते हैं. तो उस समय उनमें एक्र साथ होनेवाले गतिपरिणामकों देखकर प्रेरक कारण शब्दका व्यवहार किया जाता हैं। जेनदर्शनमें इसके सिवा प्ररकक्रणका अन्य कोई अर्थ नहों है | यहाँ पर प्रश्न होता है. कि यदि प्रेरककारणका उक्त अथ लिया जाता है तो आचार्य कुन्दकुन्दने समयप्राश्रतके वन्‍्धाधिकारसें ८६ जैनतत्वमीमांसा आत्माकों रागादिख्पसे परिणमन करानेवाला अन्य द्रव्य हैं ऐसा: क्यों कहा ? वे कद्दते हैं $-- जह फलिहमणी सुद्धो ण्‌ सय॑ परिणमदि रागमाईहिं । रंगिजदि अण्णहिंदु सो रचदीहि दब्वेदि॥ रेष्ण॥ एवं णाणी सुद्धो णु सब परिणमइ गंय्रमाई्िं । राइजदि अ्रग्णृदिं दु सो रागादोदि दो्ेद ॥ २७६ ॥| जैसे शुद्ध स्फटिकमणि रागादिख्प ( ललाई आदिरूप ) से स्वयं नहीं परिणमता है किन्तु वह अन्य रक्तादि द्रव्योंसे रक्त किया ज्ञाता है. बैसे ही शुद्ध ज्ञानी जीव रागादिखपसे स्त्रयं नहीं परिमणता है. किन्तु अन्य रागाद़ि दोपषोंसे बहू रागी किया जाता है || २७८-२७६ ॥ आचार्य अम्ृतचन्द्रने अपनी टीकामें इसका समर्थन करते हुए अन्तमें उसे वस्तुस्वभाव बतलाया हैं। वे एक कलश हारा उक्त अथका समर्थन करते हुए कहते + ४७ 6 6 न जात रागादिनिमित्तभावमात्मात्मनों याति यथाककान्तः। तस्मिन्नामत्त परतज्ञ एवं बस्तुत्थभावोउयमुदेति तावत्‌ ॥१०४॥ जिस प्रकार सूर्यकान्तमणि स्त्रयं अग्निरूप परिणामको नहीं प्राप्त होता उसी प्रकार आत्मा कभी भी स्त्रयं रागादिके निमित्त- भावषको नहीं प्राप्त होता। किन्तु जिस प्रकार सूर्यकान्तमणिके अग्निरूपसे परिणमन करनेमें सूर्यकिरणोंका सम्पर्क निमित्त उसी प्रकार आत्माक्के रागादिख्पसे परिणमन करनेमें पर द्रत्यका संग ही निमित्त हे। यदि कहा जाय कि ऐसा क्‍यों होता हैं तो उसका समाधान यह है कि वस्तका स्वभाव ही ऐसा है जो संदा प्रकाशसान हे ॥१७५९॥ उपादान और निर्मि्तमोमांसा ८७ यह केवल आचार्य अमृतचन्द्रका ही कथन हो सो बात नहीं है। किन्तु जैनदर्शनकों सर्वप्रथम मूतंरूप देनेवाले आचार्य समनन्‍्तभद्र भी इस बस्तुत्वभावकों स्वीकार करते हुए स्वरचित स्वमस्भूस्तोत्रमें कहते हैं :--- चाह्मेतरोपाधिसमग्रतेय॑ कार्येपु ते द्वव्यगतः स्वभावः | नैवान्यथा मोक्षविधिश्र पुसां तेनामिवन्यस्वमपियवधानाम्‌]६०॥ कार्यमं जो यह बाह्य और आपमख्यन्तर उपाधिकी समग्रता है बह आपके मतसें द्रव्यगत स्वभाव है, अन्यथा अथोत्‌ ऐसा नहीं मानने पर जीवोंकी मोक्षविधि ही नहीं बनती । इसीसे ऋषि अवस्थाको प्राप्त हुए आप चुधजनोंके अभिवन्ध हैं ।॥६०॥ इस प्रकार विविध आचार्येकि इस कथन पर दृष्टिपात करनेसे प्रतीत होता है कि विवज्षित द्रव्यके क्रियाव्यापारमें तदूभिन्न द्वव्यका सहक्रिय होना प्रेरककारणका अथे नहीं है, किन्तु विवज्षित द्रव्यकों बलात.परिणमा देना यह प्रेरक कारणका अर्थ है। यदि ऐसा न होता तो आचाये कुन्दकुन्द ओर आचार्य अमृतचन्द्र न तो निममित्तकारणके लिए परिणमाता है” जैसे शब्दका प्रयोग करते ओर न ही इसे वस्तुस्वभाव वतलाते । अतः प्रकृतमें ५९ककारणका . यही अर्थ करना चाहिए कि जो तदूमिन्न अन्य द्वव्यकों वलातू परिणमा देता है उसकी प्रेरककारण संज्ञा है । यह एक प्रश्न है। उसका समाधान यह है कि प्रकृतमें आचार्य कुन्दकुन्ठने यद्यपि रागादि द्रव्यकर्मरूप निमित्तोंके लिए 'परिणमाता है? जैसे शब्दका प्रयोग किया है यह सच है परन्तु प्रयोजन विशेपसे किया गया यह उपचार कथन ही है। फिर भी इसे पस्मार्थभूत सानकर इसका अर्थ यदि कोई बलातू परिणमाना करता है. तो उसकी यह महान भूल है,क्योंकि उक्त उल्लेखका यह्‌ प्य्द जैनतत्वमोमांसा अर्थ करनेपर न तो संसारी जीत्रक कभी भी गगादि द्रब्यकर्मोका अभाव बनेगा और न बह ( सदा दब्यकर्मका सद्भाव रहुनस ) मुक्तिका पात्र हो सकेगा । यदि कहा गा कि यदि एसी बात ह तो प्रकृतमें आचार्य कुन्दकुन्दन द्रब्यकमंझप निर्मित्तीका परिगुसान- चाला क्‍यों कहा तो उसका ममाधान यह है कि काई भा जात अकेला विभाव पर्यायहपस परिणमन नहीं कर्ता किन्तु इसका पर्याय उसमें निमितत हानवाल ऐसे अन्य द्रब्यके सद्भावम ही होती हैं जिसको उक्त अवस्थाके हानमे पहल जावका विभाव परिणाम निर्मित्त हुआ है. । स्पष्ट है कि जावका विभाव परयोथ ओर पुद्नलकर्म इन दोनोंकि मध्य इस विशेषताओं दिखलानेके लिए ही इघन्होंन प्रकृतमें उक्त प्रकारका वचन व्यवहार किया है। आचाय समन्तभद्र ओर आचाय॑ अमृतचन्द्रने जा इसे द्रव्यगत स्वभाव कहा है से| उसका ततात्पय भी वहीं हैं। वे इसे द्रव्यगत स्वभाव कहकर यह बनला रहे; हैँ. कि जीबद्रव्यकी अनादिकालसे प्रति समय बन्ध पर्बाबरूप जो विभाव पर्योय होती है. ओर पुद्वलोंकी ऋथित कदायित था अनादि कालसे प्रति समय जो वन्ध पयोथ होती है बह अपने अपने छउपादानसे चनन्‍्ध परय्ोयक्रे उपयुक्त विशप अबम्धायुक्त निमित्तोंके सद्भावर्म हो हातों है । यह द्र्यगत स्वभाव हैं! कि जब एक द्र॒ब्य बन्धपर्यायरूपस परिणत हाता है. सब्र उसके बेंसा होते समय अन्य दृब्य स्मथमेव निर्मित्त होते ही है। आचाय समन्तभद्रने परराक्ति ऋग्रेकमें इस द्रब्यगत स्वभावका कथन करनेके वाद जो यह कहा है. कवि थ्रदि ऐसा नहीं साना जाता हु ता जावाका साक्षाब[व नहां बन सकगी सो उनका यह कथन भी उक्त अथेका ही चरिताथ करता है। उनके . कहनेका आशय यह है कि वन्‍्धपर्यायरूपसे परिणत हाना स्वयं उपादान और निमित्तमीमांसा ब्यर्‌ >उपादानका काय होकर भी वह निमित्तके सद्भावमें ही होता है । “अन्यथा अथोत्‌ केवल उपादान और केवल निमित्तसे वन्धपरयाय के भाननेपर इस जीवको कभी भी मुक्तिकी प्राप्ति नहों वन “सकेगी । यतः यह जीव अनादिकालसे बद्ध है और काललब्धि “आदिके मिलनेपर वह मुक्त होता है. अतः जहाँ तक बन्धपर्याय “है-वहाँ तक उसका अन्य द्रव्य स्वयं निमित्त हे। यह द्रव्यगत “स्वभाव है ओर जब यह जीव मुक्त होता है अथोत्‌ अपनी स्वभाव “पंयायका प्रकट करता है तव बन्धययायके निमित्तोंका अभाव “स्वयं-हो जाता है ओर अपने उपादानके वलसे उसकी प्राप्ति होती है। संसार और मुक्तिकी व्यवस्था इसी प्रकार बस सकती है,अन्य प्रकारसे नहीं यह आचारय समन्तभद्गके उक्त कथनका “संमुञ्नयाथ है । ८ >४ यदि कहा जाय कि वन्धपयायके समान जीवको मुक्ति :भी एके कार्य है अतः मुक्तिकार्यमें निमित्तोका अभाव क्‍यों “स्वीकोर: क्रिया जाता है। यह कहना तो ठीक है कि जिन “अनिमित्तोंके' सदूभावसें वन्धपयोय होती है, मुक्तिपयोय उनके :अभावमें ही होगी पर मुक्तिपयोयके होनेमें अन्य द्रव्य “निमित्त' ही नहीं होता यह कहना कैसे वन सकता है ? समाधान है।कि आमगममें प्रत्येक द्वव्यकी स्वभाव (शुद्ध ) पयोयकों पंरनिरपेज्ञ ही वतलाया है। यहाँ पर परनिपरेज्षका अर्थ यह नहीं है. कि उक्त पर्यायके होनेमें काल द्रव्य भी निर्मित नहीं होता, 'किन्तु उसका तात्पय इतना ही है कि जिस प्रकार प्रत्येक समयकी बन्धपंयोयके अन्य अन्य कमेनिपेक निमित्त होते हैं उस प्रकार स्वभावंपंयायके प्रवाहमें कालातिरिक्त कर्मोकी निमित्तता नहीं पाईं ' जाती, अन्यत्र जंहाँ कहीं मनुष्यगति, वजबृपभनाराचसंघनन आदिकों निमित्त कहा भी हे सो वह आश्रयभूत निमित्तोंको ६० जैनतत्त्वमीमांसा विवज्षामें ही कह्य है । बाह्य] करणमूत निमित्तोंकी अपेक्षासे नहीं! । प्रत्यक द्रव्यकी वह स्वभाव पर्याय प्रथमादि किसी भी समयकी क्यों न हो पर होगी बह सात्र अपने डपादानसे ही। उसके प्रगट होनेमें अन्य द्रव्य वाह्य करण निमित्त नहीं हागा यह वात धव है। यही कारण है कि आचाय छुम्दकुन्दने संसारी जीवको मुक्तिकायंकी सिद्धिके लिए. निमित्तसे लक्ष्य हटाकर स्रभाव सन्म्रुख होनेका उपदेश दिया हँ। इस प्रकार इतने विचेचनसे भी यही फलित होता है कि लोकमें जिनकी प्रेरक कारण संज्ञा" ध्यचह्गत की जाती है. वे अन्य द्रव्योंके क्रियाव्यापारको अपने अनुसार उत्पन्न करते हैं. इसलिए उन्हें प्रेरक कारण नहीं कहा गया है। किन्तु उनकी ईरुण (गति ) क्रियाक्की प्रकृष्टता अन्य द्रब्योंके क्रिया व्यापारके समय बलाधानमें निमित्त होती है इस: वातको ध्यानमें रखकर ही उन्हें प्रेरक कारण कहा गया है और पं कारण है. कि आगमसें निमित्तोंके आश्रयसे उदासीन और प्रेरक यह संज्ञाएँ रूढ न होकर विश्रस्ता और प्रायोगिक ये संज्षाएँ: व्यवह्गत की गयी हैं.। वहाँ हाँ विश्वसा कार्यामें पुरुष प्रयत्न निरपेक्ष कार्योकों स्वीकार किया है ओर प्रायोगिक कार्यो्मिं पुरुष प्रयत्न सावेक्ष काय स्वीकार किये गये हैं.। इसलिए ग्रदि इस आधारसे निमित्त कारणोंके सेद किए भी जायगें तो वे.विश्वसा निमित्त कारण आर भायागक 'िमित्त कारण ऐसे दो भेद होंगे। परिडत- प्रवर वनारसीदासजीने स्व॒राचित समयसार नाटकके सर्वविशुद्धि ज्ञानांधकारस जा ग्रेरक कारणोंका निपेध किया है वह इसी अभिप्नायसे किया है। वे कहते है :-.- बल मद 82० 278 १. यह पर सिद्ध जीवकी गतिमें घर्मद्रव्य, स्थितिमें अधर्म द्व्य और अवेगाहनम आकाशद्वव्य निमित्त है पर उसके कथनकी विवक्तां नहों को है । 'डहि विधि जो विपरीत पत्र कहे सहहै कोइ .र राग विरोधसों बहु भिन्न न होइ ॥३१५॥ ...... उधर कह जगमें २ है पुदूगल संध सदीब 7. सहज शुद्ध परिणमनिको औसर लहै न जीव ॥६५॥ मल ५५ ।व्ति थ्‌ः चेतन -: - पते चिद्धावनि विपे पमरथ-चेतन राउ “, राग विरोध मिथ्यातमें समकितमें' सिब भाउ ॥१६॥ उपादान और निमित्तमीमांसा हरे -* ३. अब रहे इच्छा, प्रयत्त और कारकसाकल्यके ज्ञानसे युक्त चीसरे प्रकारके निमित्त सो श्रथम तो क्रियावान्‌ निमित्तोंको 'लक्य कर हम जो कुछ भी लिख आये हैं वह प्रकृतमें भी पूरी तरंहसे लागू होता हे। यदि कहा जाय कि अन्य द्रव्योंके :कायोकि प्रति इनका प्रयत्न इच्छा पूर्वक होता है तो यहां यह देखना होगा कि ये अपनी इच्छापूर्वेक प्रयत्न द्वारा किस 'प्रकारके कार्यके उत्पन्न होनेमें प्रेरक्त कारण हैं । क्‍या जो 'द्रध्यं विवक्षित कार्यरूपसे परिणम रहा है उसके कार्यरूपसे 'परिणमन करनेमें प्रेरक कारण हैं या जो द्रव्य विवज्षित 'कांयरूपसे नहीं परिशम रहा है उसे विवक्तित कायरूपसे पंरिणमानेमें प्रेरक कारण हैं ? प्रथम पक्षके स्त्रीकार करने पर तो “इनकी रंचसात्र भी प्रेकतता सिद्ध नहीं होती, क्योंकि जो द्रव्य :स्यं विवज्तित कार्यरूपसे परिणमन कर रहा है उसमें उन्होंने क्या किया, अथात कुछ भी नहीं किया। दूसरे पक्षकें स्वीकार "करंने पर देखना होगा कि जो * द्रव्य स्वयं विवज्षित कार्यरूपसे “संहीं परिणस रहा है उसे क्या ये विवक्षित कायरूपसे परिणमा :सकते हैं ? उदाहरणार्थ हम यव वीजको लें। हमारी इच्छा है “कि इसंसे गेंहेका पीधा उग आवबे। तो क्या हमारे चाहनेसात्रसे या इच्छानुसार प्रयत्न करनेसे ऐसा हो जायगा ? प्रेरक निमित्त बादी कंहेगा कि ऐसा कैसे हो सकता है ? तो हम पूछते हैं कि जब थंव-वीजसे गेंहँंका पौधा नहीं उप सकता ऐसी अवस्थामें आप ऐसा क्यों मानते हैं कि जैसा हम चाहते हैं वैसा अन्य द्रव्यको पेरिणमा लेते हें। 4 ५ |: 0 ॥् ए ॥ | प्र ' कि धूम 0 व, 2 0५% 0 पा ले चंट तए पड तन ड़ ही हि गए 7 कक न 570 8 तप पििा ४ हि पा न पक हि पी ० (हि ०७ ए) दर ः १ ९ ४ 5 जा ग्ः 7 छा कपः थे (० हुः गम | आय 47 कफ (0 ए0ग7 5 £: ऐ ९ 0 एड /आ र्पहि गि शः ि प्र प्र है मद & 7 मि आए दा हि ्ि मिड हित के पं: है. ७ तर के शत ति े ५ | पं ५ ए ० ए हिन्पि प्ि एः छि. एि 7 ि फ हन्ह 7 2 #£ ड़ तण ४ ८० (० तंझ हर भी९ सकए ५.५ प्‌ ६ है आह 4 व ६४ हु पड़ [0 तै> है | (| ्ध आल छिड> ि ग 9 8 ॥र्‌ छः | ६ हा बज ) गए! ८ (४ | प:९ 7३ "ए! । #ई न ॥९* "प्र | ४० (॥९' है कक 5 हि आह आज हि न मा आए 7 हक _ 0 82 हि गए तर पर हि [ट स्छि » ४ । फि ही निन ४7 फिर हि पर पथ लि ५ पक 2 चर १5 १ (| रात ' नह 0 ४ | » ि जा जा हीरे नि कि कल 0 ता ५ 7 कि दि मल मत ५०0 9 पी का 5 अमित हि मिल हि कि कि, हि 5 नि ति,ि ॥ दि हि छह! ४ 7 पए 5 (2 न्शिः है ॥0*' ५ (7 १४ ७०५ छ& 2 ता ३0 द.. प़ प्ि,त रह हि हि जि पते मिट 002 पं [ए (५ के हि हि कि आए या रपट 6 ॥॥*£ + ० # | ७ जि वा शशि 5 पे 5 ४ प्र डे जुए ई ० 0७ ॥ए | ६४ ्िः | 7 34 प्र हद कटी कि एऐं क ५ हि के ७ कि कि कि एड ५४ (१, पु धो एप ७.७"५४ हट ध (एक % हट हि ्ि ५ । ए | छि मी (0 प्रिहः हम ह 5 कि | ६ ७ 7 आम 5 2 पिन एक -वतऊ पिएं (5.68 हि हा छा वि 2 [ छू श ग्ध वर हि ॥ए 50 फ् पा 4.2] पा हज, शै (7 बे बल + 5, ए 5 [ं के की का वैता बीए ७ की फि के दि ७४ ०॥७' (ढ़ #ीएं हि हि पर जा कि किए हि 5 के कि 0 है हाफ क्‍्र्फि » 50४ ,,६ पं 5 | (,7, है का पं एप पे! लि 7 पे कक 5 7 कि हि के ही गण की हि (छत पक दि 5 25 87 0 ६ ० हि हु. नि हम ० पटपफ प्र १६ (६ ॥ 6७ 9 गीए 7९ 0] | तह ४ 9 । पयावका प् न पयाय ण्क्त चड्प्य -ट | ज्ाफः चेन चसकतणा | श्र अपने नला लय क्ष नाम न्न मन है पह उपादान और निमित्तमीमांसा ६५ है किन्तु उसके वाद आनेवाली अनन्त पर्यायोंका प्रश्न है, क्योंकि किसी एक विवक्षित पर्यायके स्वकालमें न होनेसे सभी जीवों ओर पुद्लोंकी प्योयोंके स्वकालका नियम नहीं रहता। इतना ही नहीं किन्तु अकालपाक आदिके आश्रयसे जिन परयोयोंका हम बीचसें नहीं होना मान लेते हैं. उनका असाव हो जानेसे सब द्रव्योंकी पयोयें काल द्रव्यकी पयायोंके समान हैं यह व्यवस्था विघटित हो जाती है जो कि युक्त नहीं है । जब कि यह सिद्ध किया जा चुका है कि पस्येक कार्यका उत्पाद अपने अपने उपादान के अनुसार ही होता है ऐसी अवस्थासें इन निमित्तोंके अनुसार भी आगे पीछे कार्योका परिणमन मानना नितान्त असंगत है । इसी तथ्यकों ध्यानसें रखकर आचार्य कुन्दकुन्दने समयप्राश्वतमें कहा है :--- -. अशण्णदविएश अण्णदव्वस्स ण॒कीरए गुणुसाओ । तम्हा उ सब्वदव्वा उप्पज्जंते सहावेश ॥३१७२॥ अन्य द्वब्यके ढठारा अन्य द्र॒व्यके गुण ( विशेषता ) का जत्पाद नहीं किया जा सकता, इसलिये सभी द्रव्य अपने-अपने स्वभावसे उत्पन्न होते हैं ॥॥३७१॥ : इस प्रकार उपादानकारण और निमित्तकारणका स्वरूप क्या है और उनका पत्येक क्रार्यकी उत्पत्तिमें क्या स्थान है इसका (विचार किया | 27 कर्तृकर्मनीमांसा कता परिणामी द्रव्य क्रमरृंष परिणाम । होता है निजमें सदा परका नद्िं कुछ काम ॥| बस्तुस्वरूपके विचारके साथ निमित्त-उपादानका भी विचार किया अच कर्त-कर्मकी सीसांसा करनी हैं। उसमें थह बात ता स्पष्ट है कि जो भी कार्य होता है बह स्वयं कम संज्षाका ग्राप्त हाता है इसमें किसीको विवाद नहीं हैं। जा भी विवाद हैं. बह कतोके सम्बन्धमें ही हैं, अतएव मख्यरूपस इसीका विचार करना है। जो स्व॒तन्त्रहपसे कार्य करे वह कता, कताोका सामान्य रूपस यह अथे स्पप्ट हाने पर भी उसके विशेष अथर्मे मतभद है, अतण् इसीका निर्णय यहां पर करना हे । इसकी मीमांसाकां आगे बढ़ानेके जिय सर्वप्रथम हम नेबाय्रिक दर्शनका लेते हैं सेयायिक दशनमें कारण द्रव्य परमाणु आदिसे कार्यद्रव्य इन्यणुक आदिका सबंथा सद सानकर परसाणुरूप कारण द्रब्यको सबंधा नित्य" और कायद्रब्यको स्वथा अनित्य माना गया है, इसलिय उसके सत्तमें यह प्रश्न ही नहीं उठता कि दो परमारणा स्वयं अपनी अपनी उपादानगत याग्यतासे परिणमनकर इयणुऋ बन जायेंगे, क्योंकि जब ये सर्वेथा नित्य हैं. और उनमें शक्तिकपसे भी कार्य १. कपालइयसे समवेत घटकी उत्पत्तिमें घट कंपालद्यका परिणाम हीं है, इसलिए वे कार्यरुपसे अनित्य होने पर भी कार्यके प्रति अपरिणामी ही है । यहो बात अन्य समवायी कारणोंके विपयमें भो जान लेनो चाहिए । करत कर्ममीमांसा ६७ -सर्वथा असत्‌ है तव वे इथरणुकरूप कैसे परिणमन कर सकते हैं । :उनसे समवेत होकर ह'यरुक कार्यकी उत्पत्ति कश्नेवाला कोई :दूसंरा कारण होना चाहिये जो उसकी उत्पत्ति करता है। वह अअज्ञानी तो हो नहीं सकता, क्योंकि. जब तक उसे कारण 'साकल्यका ज्ञान न होगा तब तक वह हचरणुक कायके ससवायी, अससवायी ओर निमित्त कारणोंका संयोजन कैसे -करेगा। उसे प्राणियोंके अदृष्टका भी विचार करना होगा | वह /चिकीषो ( करनेकी इच्छा ) से रहित भी नहीं हो सकता, क्योंकि “कारंकसाकल्यका ज्ञान होने पर भी जब तक उसे हृथणुक “ बनानेकी इच्छा नहीं होगी तब तक वह उस कारकों कैसे कर “संकेगा।.. वह ग्रयत्नसे रहित भी नहीं हो .सकता, क्योंकि उसे “कारकसाकल्यका ज्ञान ओर बनानेकी इच्छा होने पर भी जब तक वह हयरुक बनानेके उपक्रममें नहीं लगेगा तवतक इच्यणुक “कार्यकी उत्पत्ति केसे हो सकेगी। इसलिए इस मतकी मान्यता “है कि, जो .कारकसाकल्यका ज्ञान रखता है, जो कार्य करनेकी : इंच्छासे युक्त है ओर जो कार्य करनेके प्रयत्नमें लगा हुआ है ऐसा व्यक्ति ही उस कार्यका कता हो सकता है | समवायी कारण “स्वयं: अपरिणामी हैं, इसलिए इस दर्शनमें उक्त विशेषताओंसे . :युक्त “व्यक्ति कतो साना गया है यह उक्त कथनका तात्पये है। *यद्यपिं सचेतन अन्य मनुष्यादिसें भी ये तीन विशेषताएँ देखी “जाती हैं, परन्तु उन्हें अदृष्ट ओर परमाणु आंदिका पूरा ज्ञान न “होनेसे. वे कतो” नहीं हो सकते। अतः इस दशनमें कतारूपसे *अंलगंसे एक अनादि ईश्वरकी सृष्टि की गई है। एक बात ओर : है जो यहाँ.विशेषरूपसे ध्यान देने योग्य है। यद्यपि इस बातका “निर्देश हम प्रारम्भमें ही कर आये हैं, परन्तु प्रयोजन विशेषके “कारण यहाँ पर हम उसका पुनः उल्लेख कर रहे हैं । वह यह छ ८ जैनतत्वमीमांसा कि परमाणु आदि कारण सामग्री स्तरयं अपरिणामी हाती हैँ अतः उसके स्वयं कायरूपसे परिणत न हानेके कारण वह अपनी प्रेरणा- वश उनसे समव्रेत कार्यक्ी उत्पत्ति करता है, इस लिए बह सच. कार्योका प्रेरक निमित्त कारण होता है। अन्य जितने दिशा, काल और आकाश आदि अचेतन और सनुप्यादि स्चेतन पढाथ होते हैं वे सब निमित्त हाकर भी प्रेरक निमित्त नहीं होते । इस प्रकार इस दर्शनमें तीन प्रकारके कारण साने गये है--समर- वायीकारण, अससवायीकारण और निमित्तकारण। निमित्त- कारणोंक दा भेद हें--प्रेरनिमित्तकारण और इतरनिसित्तकारण । प्रस्कनिमित्तकारण ईश्वर हैं ओर शेप इतरनिमित्तकारण यद्यपि कुम्हार आदि घटादि कारयके सजनमें प्रेरक निमित्तहपसे प्रतीत हाते है ऐसा कहा जाता है परन्तु यह सब कथनसात्र है, क्योंकि इश्वरकी इच्छासे प्रेरित होकर ही वे घटादि कार्योके हानेमें निमित्त होते हैं, स्वयं स्वतस्त्रस्पसे ये घटादि कार्योकों नहीं कर सकते, इसलिए बस्तुतः इस दशेनमें प्रेरक निमित्त- कारण एकसात्र इखर ही साना गया है, क्योंकि वही प्राणियोंके अहृट आदिका विचार कर स्वतन्त्ररूपसे कार्योकी स्रष्ठि करता हैँ । जैसा कि उनके यहाँ वचन हे अज्ञी जन्तुरनीशोठयमात्मनः सुख-दुःखवोः । ईश्वरप्रेरितो गच्छेत्‌ स्वर्ग वा श्रश्नममेव वा ॥ जन्तु अज्न हैं ऑर अपने सुख दुखका अनीश हैं, इसकिए इससे भरित होकर स्ग॑. जाता है या नरक जाता है । इसासए नंया|यिक दशनसे कतोका जो सखत्तरा किया गया ह्े चह इस प्रकार हे. ज्ञानचिकीपापवत्नाधारता हि क्तत्वय । करत कर्ममोमांसा ९५९ जो ज्ञान, चिक्लीपां ओर प्रयत्तक्ा आधार है वह कर्ता है । अद्मपि यहाँ पर यह प्रश्न किया जा सकता है. कि जब इखर सब कार्योका प्रेरक कता है तव बह सब प्राशियोंकों सृष्टि, सुख- दुख ओर भोग एक प्रकारके क्यों नहीं बनाता, परन्तु इस प्रश्न के उत्तरमें उस दर्शनका यह वक्तव्य है कि इश्वर सुख-दुख ओर भोगसामग्नरी जो भो बनाता है वह सब प्राशणियोंके अचष्टके अनुसार ही वनाता है। लोकमें इयणुकसे लेकर ऐसा एक भी कार्य नहीं है जो प्राणियोंके अच्ट्रक्ी सहायताके बिना बनाया जाता हो आर अद्चष्ट स्रयं अचेतन है, इसलिए वह कता नहीं हों सकता। वह चेतनाधिप्ठित हकर ही कार्य करनेमें प्रवृत्त होता है ओर अपने आत्माकों उसका अधिछाता मानना ठीक नहीं है, क्योंकि उसे अद्ट्ठ ओर परमाणु आदिका ज्ञान नहीं होता, इसलिए इस दर्शनके अनुसार निखिल जगनका करों एक बर ही हो सकता है, क्योंकि कतांका पूरा लक्षण उसीमें घटित होता है । हे यह नैयायिकदर्शनका हा है । ओर भी जितने इश्वरवादी दशन हैं उनका भी लगभग यही मत है। प्रकृतमें विशेष प्रयोजनीय न होनेसे हम अन्य दशनोंकों यहाँ मीमांसा नहीं करेंगे। अब इसके प्रकाशमें जैनदशनके सन्तव्यों पर विचार कीजिए. | यह तो हम पहले हां वतला आये हैं कि इस दर्शनके अनुसार सब द्रव्य स्वभावसे परिणामा नित्य है। अत्येक समयमें इब्यकी एक परयायका व्यय होता ओर नर्वोनि पर्योयका उत्पाद होना यह्‌ उसका परिणामस्व॒भाव हैं। तथा अपनी सच पयायास से जाते हुए अन्बयछपसे उसका स्थित रहना यह उसका नित्य स्वभाव है। जेनदशंनके अनुसार कांई द्रव्य न ता सवधा नित्य १०० जैनतत्त्वमीमांसा है ओर न सर्वथा अनित्य ही है। किन्त सामान्यकी अपेक्षा नित्य है ओर पर्योयकी अपेक्षा अनित्य है, इसलिए बह प्रत्येक समयमें नित्यानित्यस्वभावका लिए हुए हैं। ऐसा नियम हैं कि प्रत्येक द्वव्यमें पड़स्थानपतित हानि और पडस्थानपतित वृद्धिरूपसे प्रवतमान अनन्त अगुरुलघु गुण (अविभागग्रतिच्छेद ) होते हैं जिनके कारण छहों द्रध्योका स्वभावसे उत्पाद आर व्यय होता रहता हूँ। जो वर्तमानमें अशुद्ध द्रव्य हैं उनसें भी यह्‌ उत्पाद-ब्यय होता है. और जो शुद्ध द्रक्ष्य हैं उतमें भी यह उत्पाद-ध्यय होता है| इतना अवश्य है कि अशुद्ध द्॒ब्योंके प्रत्यके समयमें हानेवाले उत्पादझययके अन्य अन्य निमित्त हाते हैं। उदाहरणा्थ विबक्षित समयमें जीवका जा क्राध परिणासका उत्पाद हुआ है उसमें क्रोध संक्षावाले जो फेमनिपेक निमित्त होते हैं. व कर्मनिषेक दसरे समयमें होनेवाले जीवके क्रोधपरिणाममें निमित्त नहीं होते। उस समयके जीवके ऋंधपरिणाममें निमित्त हानेवाले क्रोध्सज्ञावाले कर्मनिषेक दसरे है | यह निमित्त-नंमित्तिकक्रमपरम्पपा जिस प्रकार संसारी जावाक प्रत्येक समयके जीवनग्रवाहमें चरितार्थ है बसी प्रकार हल स्कन्धाम भा घटित कर लेनी चाहिए, क्योंकि पुद्ठलस्कन्धोंमें भी पति समय नये पुदुगलोंका संयोजन और पुराने पुदगलोंका वियाजन होता रहता हैं जो परस्पर द्रव्य ओर अथरूप नई परयोगके होनेमें निमि होते रहते हैं । अशथात्‌ पुराने परमाणुओं- की निजराकों निमित्त कर उस स्कन्धमें अपने उपादानके अनुसार ये स्पर्श पयायका उदय होता हैं और उस स्पर्श - पयोयकों | निमिते कर नये परमाणुओंका वन्ध होता है यह उक्त कथनका तालय है। परन्तु इतनेमात्रसे इन द्रब्योका श्रत्येक समयमें जो _ताद व्यय हांता हैं उसके करता ये निमित्त हैं ऐसा नहीं माना कर्तृ कर्ममीमांसा १०१ जा सकता। उत्पाद-व्यय तो तब भी होता है जब ये निमित्त “होते हैं ओर शुद्धवशार्मं जब ये निमित्त नहीं होते तव भी वह - होता रहता है। पयोयरूपसे प्रत्येक द्वव्यका उत्पन्न होना और सष्ट होना यह उसका अपना स्वभाव हैं। जिसमें पडस्थानपतित ' हानि आर पडस्थानपतित वृद्धिरूपसे प्रवतंमान अनन्त अगुरु- लघु गुण प्रयोजक हैं। हम इतना जानकर कि अशद्ध द्रव्योंमें .निमित्त बदलनेके साथ पयोय बदलती है दूसरे द्रव्यकी उस ' 'परयोयको निमित्तका काय माननेकी चेष्टा करते हैं परन्तु इस बातका “विचार नहीं करते कि क्या वह द्रव्य उस समय अनन्त अगुरु- “लघु गुणोंके आलम्बनसे होनेवाले अपने परिणाम स्वभावकों छोड़ देता है ? यदि नहीं छोड़ता है तो विचार कीजिए कि उस “समंय होनेवाली वह पर्योय निमित्तका कार्य केसे कहा जा सकता ' हैं? साथ ही निमित्तको नेमित्तिक पयोयोंका कत्तो माननेसे जो यह आपत्ति आती हैँ कि इस प्रकार तो निमित्त एक साथ दो “>द्रव्योंकी दो पयोयोंका कत्तो हो जायगा उसका वारण कैसे किया : जा सकेगा। आचाये कुन्दकुन्दने समयप्राम्रतमें ऐसे मनुष्यको “जो निमित्तको नमित्तिकपयायका कत्तो मानता है द्विक्रियावादी “मिथ्याहंष्टि कहा है सो ठीक हो कहा है । वे कहते हैं--- * जदि पुग्गलकम्ममिणं कुब्बदि तं चेव वेदयदि आदा । ... द्वोकिरियावदिस्ति पसजदि सम्म॑ जिशावम्द ॥८७॥ यदि आत्मा इस पुद्लल कर्मको करे ओर जउसीको भोगे तो बह. आत्मा दो क्रियाओंसे अभिन्न ठहरता है जो जिनदेवके : संम्यक्‌ मतसे बाहर है ॥८५॥ *:<. - बह जिनदेवके सम्यक्‌ मतसे बाहर कैसे है इसका समाधान -ऋरते हुए वे कहते हैं-- १०२ जैनतत्त्वमीमांता मा द अत्तभाव॑ पग्गलभाव॑ च दो वि कुच्च॑ति। मिच्छाइटाी दोकिरियावादियो द्वांति ॥८६॥ छू तेण दु जिस कारण टिक्रियावादियोंके मतमे आत्मा आत्मभातर ओर पुठ्लभाव दोनोंको करता है इसी कारण थे ह्विक्रियावादी मिथ्याद्रष्टि हाते हैं ॥८६॥ यहाँपर कोई प्रश्न करता है. कि उस समय उस द्वृव्यकी बह पर्याय होती ता हैं अपने परिणामस्वभावफे कारण ही परन्तु उस समय उस पयोयका उस प्रकारकी विशपताकों लिए हुए हांना यह निमित्तका काय है। यद्वि जिन निमित्तोंने उस प्रकारकी पयायका जन्म दिया हैं. वे न हात ता उस द्रब्यका उस प्रकारकी पयाथ जिकालमें भी नहीं हो सकती थी। अर्थात द्रव्यका उत्पाद-व्यय- रूप परिणाम पेंदा करना यह निमित्तका कार्य न होकर अतिशय सम्पन्न विवज्षित पयोयकों करना यह निमित्तका कार्य है । निमित्त जिस प्रकार अपने उत्पाद-व्ययरूप परिणासकों करता हैं उसी प्रकार यदि वह दूसरे द्रव्यके उत्पाद-ध्यवरूप परिणामकों करे तो उसे दो क्रियाओंके कर्ता बननेका प्रसंग आबे। परन्तु एसा नहां हैं। किन्तु वह अपने क्रियाव्यापार-द्रारा द्रव्यकां प्रयायमें आतंशय उत्पन्न कर देता है इत्तना अब | याद यह्‌ न साना जाय तो योग्य निमित्तोंके संयोजनकी प्रक्रिया ही समाप्त हो जाय | यतः लोकमें योग्य निमित्त मिलानेका विकल्प उठता है ओर निभित्तोंके मिलने पर उनका फल भी दिखलाई दंता है इसलिए इनना काय निर्मित्तोंका मानना ही पड़ेगा | यह प्रश्न है । इसके समाधानस्वरूप कहना यह है कि प्रत्येक पयोगमें जो अतिशय उत्पन्न होता है वह किसका हैं ? निर्मित्तका ता हो नहां सकता, क्‍योंकि वह विवज्षित पर्यायसे मिन्न सत्ताक द्रव्य है ओर कंत्‌ कर्ममीमांसा १०३ : यह सम्भव नहीं कि स्वतन्त्र सत्तावाले द्रव्यका अतिशय किसी दूसरे द्रव्यकी पयोयमें तादात्म्यसे रहे । यदि उसे निमित्तका न . सानकर पर्यायका ही माना जाता है तो प्रश्न होता है कि उस 'परयोयसें बह अतिशय कहाँसे आया ? जो विशेषता उपादानमें ने ' हो बह पर्योयमें उत्पन्न हो जाय यह तो हो नहीं सकता । अन्यथा “गोधूसके बीजसे शालि उत्पन्न होने लगेगी। परन्तु ऐसा होता :हुआ प्रतीत नहीं होता, अतः एक पयोयसे दूसरी पयोयमें जो :विशेषता उत्पन्न होती है वह अपने उपादानमेंसे ही आती है “यह निणय होता है। साथ ही यदि विचारकर देखा जाय तो “उस विशेपताकों छोड़कर पयोय अन्य कुछ भी नहीं है। “विशेषताका नाम ही तो पर्याय है, इसलिए निमित्तकारण अन्य “पक्ष .प्रकृतमें सम्यक्‌ न होनेसे प्राह्म नहीं हैं। इसी अभिप्रायको : ध्यानमें रखकर आचार्य कुन्दकुन्द कहते हैं--- :." क्म्मस्स य परिणाम णोकम्मस्स य तहेव परिणाम | ' ; श करेइ एयमादा जो जाण॒दि सो हवदि णाणी ॥७४॥ : ० जो:आत्मा कमंके परिणामकों ओर उसी श्रकार नोकमंके ' परिणामको नहीं करता है किन्तु जानता है वह ज्ञानी है ॥७५॥ ::>थह हम पहले चतला आये हैं. कि नेयायिक दशन सबंधा 'भेदवादी है। उससें एक तो समवायी कारणसे काय सवथा “भिन्न. माना गया है | दूसरे समवायी कारणकों सबंधा “अपरिणामी साना गया है । तीसरे वह कारणमें कायका “सत्त्व- नहीं स्वीकार करता, इसलिए उस दर्शनमें कतोकों “कायसे सर्वथा भिन्न स्वीकार करना पड़ा है। किन्तु यह स्थिति “जैनदर्शनकी नहीं है। इसमें उपादान कारण और कार्य दोनोंको १०४ जैनतत्त्वमीमांसा कथित अभिन्न भाना गया हैं। साथ हा दप्टिसे कारणमें कार्यका कथश्विन्‌ सत््व स्वीकार करता हैं, इसलिए दर्शनमें का्यकूप परिणत हुआ द्रव्य ही उसका कता हा सकता है अन्य द्रव्य नहीं। यही कारण हैं कि इस दशंनम कताका लक्षण सेबायिक दर्सनके समान न करके जा परिणमन करता हू वह कता है! किया गया हे। समयप्राभुतके कलंशाम इस विपयका स्पप्ट करते हुए बतलाया हे पे नि । यः परिशमति स कर्ता यः परिणामों भवेत्त तत्कम । था परिशणुतिः क्रिया सा चवमपि भिन्‍नें न वल्तुतवबा ॥५१॥ एकः परिणमति सदा परिणामों जावबते संदंकत्व | एकत्य परिणतिः स्थादनेकमप्येकमेव यतः ॥५२॥ नोभी परिणमतः खल्ु परिणामों नोभवोः प्रजायेत । उभवयोन परिणतिः स्वाचदनेकमनेकमेव सदा ॥५३॥ नेकस्य हि कतारो द्वो स्तो दे कर्मणी न चेंकस्य | नेंकल्व च क्रिये हे एकमने्क बतो न स्थान ॥४५॥ यु लो परिणमता है वह कर्ता हैं, जो परिणास हांता है वह कर्म है और जो परिशति हाती क्रिया हैं| थे तीनों ही वास्तवमें भिन्न नहा हैं ॥१९॥ सदा एक दब्य पारिणमता है. सदा एकका पारणशाम हाता हू आर सदा एकका पाररखात हाता क्याक्र कृता, कम आर क्रियाक संद्स वह अनेक हांकर भा एक हां हैं ॥४२॥। नियससे दो पदार्थ मिलकर परिणमन नहीं करते, दोका मिलकर एक पारंणाम नहा हाता आर दाका मिल्नकर एक . परिण॒ति नहीं होती, क््योक्ति अनेक सद्य अनेक ही है ॥५३॥ नियमसे एक कमके दो कर्ता नहीं होते, एक कर्ताके दो कम नहीं कत कर्म मीमांसा १०५ /ो .. | मी मी... हाते और परिणमन करते हुए एक द्रव्यकी दो क्रियायें नहीं होतीं क्याकि एक अनेक नहों होता ॥४७॥ परिडतप्रवर वनारसीदासजी इसी विपयको स्पष्ट करते हुए कहते हैं--.. है थे कर्ता परिणामी द्रव्य कर्महूप परिणाम | क्रिया पर्यायकी फेरनी वस्तु एक त्रय नाम ॥ ७ ॥ कर्ता कर्म क्रिया करे क्रिया कर्म कर्तार । , नाम भेद बहुविधि भयो वस्ठु एक निर्धार ॥ ८ ॥ एक कम कतंव्यता करे न कर्ता दोय | दुधा द्रव्य सत्ता सु तो एक भाव क्यों होय ॥ ६ |) / ८७ ५... आग, ् दो इसी विपयको ओर स्पष्ट करते हुए वे पुनः कहते ह-- एक परिणामके न करता दरब् दोब, दोय परिणाम एक द्रव्य न धरत है | एक करतूति दोय द्रव्य कबहूँ न करे, दोव करतूति एक द्रव्य न करत है ॥ 'जीब पुद्लल एक खेत अवगादि दोऊ,अपने अपने रूप कोऊ न थरत है। जड़ परिणामनिको करता है पुद्रल, चिदानन्द चेतन स्वभाव आचरत है हाँ पर कोई प्रश्न करता है कि जब एक द्रव्य दूसरे द्रव्यरूप नहीं परिणमता है. यह वस्तु मयोदा है तब परसमय ( मिथ्यादृष्टि ) को पुह्लल कर्मप्रदेशोंमें स्थित क्यों कहा गया है ९ यह एक प्रश्न है। समाधान यह है कि चाहे मिथ्याहृष्टि जीब ही ओर चाहे सम्यग्ट्रष्टि जीव हो वे सदाकाल अपने-अपने स्वरूप चतुष्टयमें ही अवस्थित रहते हैं! उसे छोड़कर वे अन्य द्वव्यक्े स्वरूपचतष्टयरूप त्रिकालमें नहीं होते। फिर भी जो यह कहा जाता है कि मिथ्यादृष्टि जीव पुह्लकमअ्रदेशोंमें अवस्थित रहते हैं सो यह कथन मिथ्याद्ृष्टिकी मान्यताकों दिखलानेके लिए ध्ब्5 ऊँनत्तत्त्वमीमांसा ही किया गया है। अपने अज्ञानक्रे कारण मिश्याहृप्टि जीवकी स्वपरका भदविज्ञान न होनेके कारण सदाकाल एऐंसी मान्यता बनी रहती है जिससे वह स्वर क्या ओर पर क्या इसक्ली पहचान करनमें स्ववा असमथे रहता हे आर इसालिए उसे पुट्ठल कमंग्रदशोंमें अवस्थित कह्य गया ह। चस्तुतः विचारकर दग्ब्ा जाय ता दो द्रव्य मिलकर न ता क्रम्ी एक होते हैं, ओर न कभी उनका मिलकर एक परिणास हाता है आर न कमा व एछक्त दूसरके परिणामका उत्पन्न ही कर सकते है। इन्हीं सत्र वातोंका ऊहापाहकर आचाय छेन्दकुलत्द सवविशुद्ध ज्ञानाधिकारस 2 हे > 22 जह कडवादीहिं दु पंजएडिं कणय अन्ुण्णुनिद ॥३०८।॥। | हू. 5: 8, जस प्रकार लाकम केक आाद पयायरूपसं घउत्वयन्न हाता हुआ सुवर्ण उनसे अमिन्न है उसी प्रकार जो द्रव्य अपने जिन गुणों (विशेषताओं ) को लेकर उत्पन्न होता है उसे उनसे अभिल्‍क्न जाना। सत्रमें जीव ओर अजीवके जो परिणाम कहे गये उनस उस जीव ओर अजीवका अमिन्न जानो । बतः बह आत्मा अन्य किसीसे भी उत्पन्न नहीं हुआ है, इसलिए बह अन्य किसीका कार्य नहीं हे ओर वह अन्य क्विसीका उत्पन्न नहीं | हे कत्‌ कर्ममीमांसा १०७ करता है, इसलिए वह अन्य किसीका कारण भी नहीं है, क्‍योंकि ' 4. [क पा जे च् ह् न्बर + नियससे कर्सकी अपेक्षा कतों होता हे ओर करताकी अपेक्षा के उत्पन्न होते है ऐसा नियम है। अन्य प्रकारसे कतो-कर्मकी सिद्धि नहों देखी जाती ॥ ३०८-३११॥ >> अं € ८ बे चर इस प्रकार जैनदशनके अनुसार कर्ता किसे कहते है ओर ९ + 9 अ 7 ० हे कम किसे कहते हैं तथा उन दोनोंका परस्पर क्‍या सम्बन्ध है इसका स्पष्ट बोध हो जानेपर भी जो महानुभाव इस तथ्यकों हृदयंगम न करके उपादानके समान निमित्तको भी कतो मानते हैं. उन्हें यहाँ सब प्रथम कुछ शास्त्रीय उदाहरण देकर शास्त्रोंमें निमित्तोंका प्रयोग कितने अर्थोर्में किया गया है इसकी जानकारी करा देना उचित प्रतीत होता है । थथा--- कहींपर उसका कथन निमित्त शब्द द्वारा हो किया गया है । यथा--- आयुर्नामकर्मोंद्यनिमिच आत्मनः पर्यायो भवः । आयु नामकर्मका उदय हे निमित्त जिसमें ऐसी आत्माकी पर्याय भव कहलाती है। [ त० सू०, अ१? १, सूत्न २१ सर्वाथसिद्धि ] कहींपर उसका कथन आलस्बन परक किया गया है। यथा- वीर्यान्तरायमनःपर्ययज्ञानावरणक्ष॒ुयोपशमाज्चोपाद्नामाला मादष्थ्म्भा- दात्मनः परकीयमनःसम्बन्धेन लब्धबूत्तिर्षयोगो मनःपर्ययः । वीयोन्तराय और मनःपययज्ञानावरणके क्षयापशम और आड्गपाज़ नामक्मके लामके आलस्बनसे आत्माके परकीय मनके सम्वन्धसे लब्धबृत्ति उपयोगकों मनःपय्यज्ञान कहते हैं-- [ त० सू०, आ० १, यूत्र २३, सर्वार्थसिद्धि | २०८ को उसका ल्िलओ, थ््न कु कहापर उसका कश्व॒न्त ८ 2 >िटिय स्ीडाउऊिलज ता >प 5।०१४५॥९+*७४०4₹ है है। बधा-- ऋम्मर्च पग्गला परिणुमंति । जाबक पःर्णाभमाका हृत कक पुट्ढल करते हैं । ले कमनूपस पारणमन तिपरिग्यामिनां ऋषापर उसका कथन आश्रयपरक्े क्रिया गया गतिपरिशणानिनां घअधा[--- हक | ्स जी. ऊाव-पंदगलाना गह्युपप्रह् कतस्य साधास्याश्रयों >> साधारणाश्रया जलवन्मसस्थवगमन । घर्मालिकाबः जिस प्रकार मछलीके गमनमें ऊल सावाग्ण आश्रय हे उसी अकार गमन करनेवाले जीव आर पुद्नलोंका गमनरूप उपग्रह ऋतंब्य हासपर धर्मास्तिकाय साधारण आत्नय हे | हा ०० हु +#नयी दया का, 5 के सवार्थर दे | व० खृ०, आ० ४, सू० १७ सवाधासाद् [क गया चाट ऋह्ायपर उसका कथन प्र रणापरक्त किया सब | चथा--- तत्मामश्वोतेतेन क्रियादतात्मना प्रेबमाणया: पदगला प्न तत्सामध्यापतन क्रयादतात्मना प्रदनाना: परदगला वाक्ेन कताचद्नस सडि | 5 ले पावगलिकी अनन्त इते द्व्यवागांध पादगालका । चञ्स सामथ्यसे यक्त क्वियावान आत्माके द्वारा प्र चमाण पद्ठल बचनरूपस परिणमन करते हैं इसलिए द्रच्यबचन भी को पीडलिक ्डो ड्रालक है । [ त० खू०, आ० ४, सू० ६६ सदाथनिद्धि ऋर्दीपर र उसका ८ श्रकरणपरक ४. गया मु कहापर इसका कथन आधकरणुपरकाकया गया हू । चधां--- अनुप्राइकसम्बन्धविच्छेदे दे धक्लच्यानशप बविशियः शाक का । अनुश्ाहकक सन्वन्धका विच्छेद हान पर बेक्‍लव्यरूप पारणानाॉविशपका सास शांक है | कत्‌ कर्ममीमांसा १०९. कहीं पर उसका कथन साधन परक किया गया है यथा-- साधन द्विविधम- आम्वन्तरं वाह्य॑ च। आम्यन्तर दशशनमोहर - स्वोपशमः छुवः ज्षयोपशमों वा | वारह््म नारकाणां प्राक्‌ चत॒र्ध्याः सम्बद्शंनत्य साधन केपाओित्‌ जातिस्मस्णम *** | साधन दो प्रकारका हे---आशभ्यन्तर ओर वाह्य | दर्शनमोनीय का उपशस, क्षय ओर ज्योपशम आमशभ्यन्तर साधन हैं। साराकयाका चाथा प्रथिवीसे पहल चाह्य साथन फकिनन्‍्दाका जांतस्परण ६" “7 "***** | [ त० सू०, आ० १, सत्र ७ सर्वा्थसिद्धि ] .. कहीं पर उसका कथन उत्पादक और कर्तापरक किया गया हैं। बधा-- जीवो ण करेदि घर्ड सेव पर्ड सेव सेसगे दब्वे | जोगुबवशया उप्पादगा व तेसि हवदि कत्ता ॥१००॥ जीव घटको नहीं करता, पटको नहीं करता ओर शेप द्रव्यॉ- का सी नहा ह्ं करता। यांग और डउपयांग उनक उत्पादक हूं तथा यांग आर उपयोगका कता आत्मा ६ ॥१००॥ [ समयग्राम्त गाथा १०० | ओर भी-- सामण्णपत्चया खलु चडरो मण्णंति बंधकत्तारों | चार सामान्य प्रत्यय वन्यके कतो कहे गये है । [ समयप्राझत गाथा १०९ |] कहीं पर उसका कथन देतुकतीपरक किया गया हैं| यथा-- ञ्> ११० जैनतत्त्वमीमांसा यद्येव कालस्य क्रियावच््यं प्राप्माति । बथा शिप्वो5धीते उपाध्यायो5- ध्यापयतीति ? नेब दोपः, निमित्तमात्रे उ5पि हेतुकतु व्यपदेशों दृष्ट: । वथा कारीपो उग्निरथ्यापयति । एवं कालस्य हेतुकतृ ता। शंका--यदि ऐसा है ता काल क्रियावान द्रव्य प्राप्त होता है | जैसे शिष्य पढ़ता है ओर उपाध्याय पढ़ाता है. ? समाधान--यह काई दाप नहीं है, क्योंकि निर्मित्तमान्न्स भी हेतुकता व्यपदेश देखा जाता है। जैसे कण्डर्की अग्नि पढ़ाती है । 5 सी प्रकार कालद्रव्य हतुकता ह | [ त* सू०, अ० ५, सूत्र २२ सर्वार्थसिद्धि ] ओर भी यथा हि गतिपरिणतः प्रभज्ञनो वैजयन्तीनां गतिपरिणामस्य देतुकर्ता3- वलीक्यत ने तथा धमः । जिस प्रकार गतिपरिणत पवन ध्वजाओंके गतिपरिणासका कता दिखाई देता है उस प्रकार घमद्रव्य नहीं। [ पंचास्तिकाय गाथा ८८ टीका ] कहीं पर उसका कथन निमित्तकतापरक किया गया है। यथा-- अनित्यो योगोपयोगावेव तत्र निर्मिसलन कर्ततारी...। _अनित्य योग और उपयोग ही वहाँ पर निमित्तरूपसे कता हैं. । [ समयप्रा० गा० १०० आत्मख्याति टी० ] इस अकार हम देखते हैं कि शाल्रोंम निमित्तकारणका निमत्त, आलस्वन, साथन, हेतु, पत्यय, कारण, प्रेरक, कत्‌ कर्ममीमांसा 5११ उत्पादक, कता, हेतुकता ओर निमित्तकर्ता इत्यादि विविधरूपसे कथन किया गया हैं। तथा अधिकरण ओर आश्रय अर्थ॑र्से भी इसका प्रयोग हुआ हैं । जिन्हें उदासीन निमित्त कहा जाता हैं उनके अथमें भी इन शब्दोंका प्रयोग हुआ है और उन्हें प्रेक कारण कहा जाता हैँ उनके अर्थ भी इन शब्दोंका प्रयोग हुआ हैं। इन शब्दोंके प्रयाग करनेमें एकादि स्थत्रका छोड़कर किसी प्रकारकी सीमा इृष्टिगाचर नहीं होती । इतना ही नहीं हैं डदासीन निमित्त का्यंकी उत्पत्तिमें किस प्रकारसे हेतु होते हैं यह सममभानेके लिए जहाँपर भी उदाहरणोंके साथ कथन किया गया है वहाँ पर वे उदाहरण क्रियावान द्रब्योंके ही दिये गये हैं । इस परसे प्वोचाय क्रियावान द्रव्योंकी निमित्ततासें निष्क्रिय द्रव्योंकी निमित्ततासें कुछ भी अन्तर मानते रहे हैं यह . बात तो समभमें आती नहीं । हम पहले तत्त्वाथंबातिकका एक 'डल्लेख उपस्थित कर आये हैं, उसमें स्पप्ट कहा गया है कि अन्तर्वटसवनरूप क्रियासे परिणत मिद्रीके होने पर चक्र, चीवर ओर कुम्हार निमित्तमात्र होते हैं । इस उल्लेखसे भी स्प है कि निमित्तत्यकी अप्रेज्ञा निमित्तकरणोंकी दो जातियाँ नहीं हैं. । लोफमें निष्क्रिय, सक्रिय ओर योग उपयोगवान जितने भी पदार्थ अन्य द्रव्योंके कायकि होनेमें निमित्त हाते हैं वे एक ही प्रकारसे निमित्त होते हैं। हम उन पदार्थॉाकी निमित्तरूपसे निप्कियता ओर सक्रियता आदिको देखकर तदनुसार निमित्तोंके भी भेद कर लें यह्‌ अन्य चात है, पर इतनेमात्रसे उनकी निमित्ततासें कोई अन्तर आता हो यह वात नहीं है । इसलिए शास्त्रकारोंने स्थलविशेषमें लोक व्यवहार- बश निमित्तकारणके लिए करता, उत्पादक निमित्तकतो या हेतुकतो जैसे शब्दोंका प्रयोग किया भी है तो इतनेमात्रसे उसे कार्यका उत्पादक नहीं मानना चाहिए) बस्तुतः कायका उत्पादक तो ११२ जैंनतत्तमीमांता उपादान कारण ही होता हैं, क्योंकि विना किसीकी प्रेरणाके वह कार्यकों स्रय॑ उत्पन्न करता है ओर जब उपादान कारण कार्यको स्वयं उत्पन्न करता है तव विना किसीकी प्रेरणाके अन्य द्रव्य उस कार्यमें स्वयं निमित्त होता है । उपादानकों कायके उत्पन्न करनेमें उसकी अपनी स्वतन्त्रता हें आर उस कायमें अन्य द्रव्यके निमित्त होनेमें उसकी अपनी स्वतन्त्रता है। नतो उपाद्ानकारण निमित्त- कारणकी स्वतन्त्रतामें वयाघात कर सकता है ओर न निमित्तकारण उपादानकारणकी स्व॒तन्त्रतामें व्याधात कर सकता हैं । यह क्रम अनादिकालसे इसीप्रकारसे चला आ रहा हैं ओर अनन्तकाल तक चलता रहगा। स्व आचाय कछुन्दकुन्दर इन दानाका: स्वतन्त्रताका स्वाकार करत हुए कहते ह. ज॑ कुशइ भावमादा कत्ता सो हादि तस्स भावत्स । कम्मच॑ परिणामदे तम्हि सय॑ पुग्गलं दब्ब॑॥६४१॥ आत्मा जिस भावको करता है स भावका कर्ता होता है। उसके सद्भावमें पुद्लल द्रव्य अपने आप कर्मरूप ( ज्ञाना- बरणादे कमंपयोयरूप ) परिणमता है ॥६श॥। तात्पय यह ह कि आत्मा स्वृतन्त्रस्पससे अपने भावका कर्ता है ओर पुद्टल द्रव्य स्व॒तन्त्ररूपसे अपनी कर्मपर्यायका कता हैं । फिर भा इनमे परस्पर निर्मित्त-नंसित्तिक भाव हैं। इसी वातकों स्पट्ट करते हुए पारंडतप्रवर टोडरमल्लजी मोक्षमार्गप्रकाशक ' पष्ठ ३७ मे कहते इहाँ कोउ प्रश्न करे कि कर्म्म ती जड़ हैं किछ बलवान नाही विनिकरे जीवके स्वभावका घात होना वा बाह्य सामत्रीका मिलना कैसे संभव है। ताका समाघान--जो कर्म्मे आय कर्त्ता होंग उचद्यमकरि जीवके स्वभावकों घाते त्राह्म सामग्राकाी मिलावे तत्र तो कंम्मके चेतन्यपनों भी कत्‌ कर्ममीमांसा ११३ चाहिए. अर बलवानपनों भी चाहिए सो तो है नाहीं, सहज ही निर्मित्त- नैमित्तिक सम्बन्ध है। जब उन कम्मनिका उदयकाल होय तिस कालविषै आप ही आत्मा स्वभावरूप न परिणमे विभावरूप परिणमे वा अन्य द्रव्य हैं ते तैसें ही संबंधरूप होय परिणमैं । जैसें काहू पुरुषके सिरपरि मोहनधूलि परी है तिसकरि सो पुरुष बावला भया। तहाँ उस मोहनधूलिके ज्ञान भी न था अर बावलापना भी न था अर वावलापना तिस मोहनधूलि ही करि भया देखिए है | मोहनधूलिका तो निमित्त हे अर पुरुष आप ही वावला हुवा परिणमें है । ऐसा ही निमित्त- नैमित्तिक बनि रह्मा है। बहुरि जैसे सूर्यका उदयका कालविषै चकवा चकवीनिका संयोग होय तहां रात्रिविपे किसीनें दोपबुद्धितें जोराबरि करि ' जुदे किए, नाहीं । दिवस विपे काहूने करुणाबुद्धि करि मिलाए नाहीं । : सूर्य उदयका निमित्त पाय आप ही मिलें है अर सूर्यास्तका निर्मित्त पाय आप ही बिलुरै हैं ऐसा ही निमित्त-नैमित्तिक बन रहा हे तैसें ही कम्मंका भी निमित्त-नैमित्तिक माव जानना | : प्रत्येक कार्यकी निष्पत्ति में कतो स्वतन्त्र है इस तथ्यकों भद्गा- कलंकदेवने भी अपने तत्त्वाथंवार्तिक (प्ृू० ११२ ) सें स्वीकार किया है। वे कहते हैं--- कतृ त्वमपि साधारणम्‌ , क्रियानिष्पत्तों सवेपां स्वातन्न्यात्‌ | कतेत्व भी साधारण पारिणामिक भाव है, क्योंकि क्रिया- निष्पत्तिसें सब द्रव्य स्व॒तन्त्र हैं । प्रकरण पारिणामिक भावोंके प्रतिपादनका है। उसी प्रसंगसे जो पारिणामिक भाव अन्य द्रव्योंमें भी उपलब्ध होते हैं उनकी यहाँ पर व्याख्या करते हुए उक्त वचन कहा गया है। यहीं यह शंका भी उठाई गई हैं कि क्रियापरिणामसे युक्त जीवों ओर पुद्लोंमें कठेत्व पारिणामिक भावका होना तो युक्त दे ११४ जनतत्वमीमांसा परन्त धरममोदिक द्रव्योंमें चह कैसे बन सकता है: ? इसका समाधान करते हुए कहा गया हैं कि अस्ति! आदि क्रियात्रिपयक कृत उनमें भी पाया जाता है । इस उल्लेखसे स्पष्ट है कि संसारी जीव ओर स्कंघरूप पुद्नलद्र॒ब्य भी अपने-अपने कार्यके स्वतन्त्ररूपसे कता हैँ) इन योंकी कार्योत्पत्तिमें अन्य द्रव्य निर्मित्त हात हैं. इसका यह तात्पय नहीं कि वे इनके कायोके उत्पादक हात है| किन्तु इसका यही मतलब है कि थे द्रव्य स्वयं स्वतन्तररपस अपने-अपने कार्योकां उत्पन्न करते हैं. ओर कार्यत्पत्तिके समय अन्य द्रव्य रवतन्त्र रुपसे उनमें निमित्त होते हैं। उदाहरणार्थ- जो जीव ग्यारहवें गुशस्थानसे दसवें गुणस्थानमें आता है, मरणकोा छोड़कर उसका ग्यारह शुणस्थानमें रहनंका कालनियम है। उसके समाप्त होते ही वह जिस समय दसवें गुणस्थानमें आता है उसके लोभकपायकी उदीरणा भी उसी समय होती है और दसवें गुणस्थानके अनुरूप सृद्म लॉभभाव भी उसी समय हाता है। यहाँ पर लोभकपायकी उद्दीरणाका ओर सक्षम लॉभभावके होनेका एक काल है ऐसी अवस्थामें लोभकपायकी उदीरणा सच्तम लोभभावकी उत्पादक कैसे हो सकती हे। अथात नहीं हों सकती | फिर भी निमित्तकी मुख्यतासे यह कहा जाता है कि लोभकपायको उदीरणा होनेसे ग्यारहवें शुणस्थानका अन्त होकर दसवों गुणस्थान उत्पन्न हुआ है । जब कि बस्तुस्थिति यह हैं कि ग्यारहव गुणस्थानका अन्त हानेपर अपनसे उपादान द्वारा स्वयं दसवें गुणस्थानकी उत्पत्ति हुई हे और लोभपायकी उदीरणा उसमें स्वयं निमित्त पड़ी है, अन्यथा उपादान कारण और कार्य इस दानाका जिस प्रकार एक समय आगे पीछे होनेका मियम कंतु कर्ममी मांसा श्श्प्‌ है उस प्रकार मिमित्तकारण और कार्य इनके भी एक समय आगे-पीछे होनेका प्रसद्धा आता है जो युक्तियुक्त नहीं है। कर्मसाहित्यसे भी उसका समर्थन नहीं होता, अतः यही मानना उचित है कि उपादानकारण स्वयं कार्यरूप परिंणमता हैं और अन्य द्रव्य उसमें स्वयं निमित्त होता है। इस विपयमें किसी प्रकारकी शंका न रह जाय इसलिए इसे स्पष्ट करनेके लिए कर्मसाहित्यक्रे अनुसार दो उदाहरण यहाँ उपस्थित किये जाते हैं--- १ ऐसा नियम है कि कर्मवन्‍्ध होने पर आवाधाकालको छोड़कर स्थितिके अनुसार जो निपेक रचना होती है उसमें प्रत्येक निपेकके प्रति एक एक चयकी हानि देखी जाती है। उससें सी एक एक हिगुणहानिके समाप्त होने पर प्रत्येक निपेकके प्रति द्वानिकों प्राप्त होनेवालें चयका प्रमाण आधा आधा होता जाता है। यद्यपि यह स्थितिवन्ध आत्माके किसी एक विवक्षित परिणामको निमित्त करके होता है फिर उस समय स्थितिवन्धको प्राप्त होनेबाली निपेकरचलामें यह अन्तर क्यों पड़ता है १ क्‍यों तो प्रथम निपेकर्में सबसे अधिक परमाणु ओर द्वितीयादि निपेकोंसें. एक एक चय कस होकर परमाणु प्राप्त होते है और ' क्यों प्रथम निपेककी सबसे कम ओर द्विततीयादि निषेकोंकी ऋ्रमसे एक एक समय अधिक स्थिति होती है १ निमित्त तो - सबका एक ही है फिर प्रत्येक निपेककी स्थिति ओर निपेक रचनामें यह फरक क्‍यों पड़ता है ? यदि विचक्षित आत्सपरिणास कर्मस्थिति और उसके अनुसार नियेकरचनाका उत्पादक है तो सच निपेकोंकी एक ही. स्थिति होनी चाहिए। साथ ही कमवन्ध होने पर जो निपेक्तेद दिखलाई देता है वह इृशष्टिगोचर नहीं होना चाहिए, क्योंकि इनका निमित्त कारण एक है। यतः कमे- जैनतत्त्वमीमांसा लत £्‌ नि बन्ध होने पर उसमें निपकमेद ओर स्थितिभेद दता हैं। इससे विद्वित होता हैं कि इसका मूल कारण उपादान भेद हो हे, नामित मेंदर नहीं। इतना अवश्य है. कि उक्त कमंवन्‍ध और निर्मिच- कारणका ऐसा अन्यान्य निर्मित्नेमित्तिकसम्वन्ध हैँ कि एके वैसा होने पर स्वभावतः दूसरा वेसा होता ही हैं। जब जब वैसा कर्मबन्ध दाता है तवतक वहीं आत्मपरिणास निर्मिच होता हैं। उसाका निर्मिचका मुख्यतासं या कहा जाता दूँ के जब जब उस प्रकारका आत्मपरिणाम होता है तव तव उसी प्रकारका कमवन्ध होता है। इस ध्यवस्थार्में अ्रतिपादित आवाधाकाण्डकर्के अनुसार थाड़ा सा सक्षम भेद ओर हैं सिंसकी यहाँ पर हमने विवज्ञा नहीं की है । «२ एसा लियस हे कि उदयावल्तिकों आप हुए निपकोका संक्रमण, उत्कपण, अपकर्पण ओर उदीरणा नहीं हाती । परन्तु इसके साथ एक निच्रम यह भी हे कि जिस जीवके अगले समय मानभावके स्थानमें क्रोचभाव होना होता है. उसके उस समयसें ( सानभावक्े समयमें ) ही मानकपाय आदि निपेकोंके परमार स्तिचुक संक्रमण द्वारा क्राथ कपायरूप परिणम जाते हैँ आर जब तक क्रोधभाव वना रहता है तब तक यहीं क्रम चालू रहता हैं। इसी अकार मानादि अन्य कपायों तथा सम्रति- पक्त अन्य ग्रकृतियोंके सस्वन्धमें भी यही नियम जान लेना चाहिए। विचारणीय यह है कि ऐसा क्यों होता है, आत्माका जा भाव एक समय वाद होनेवाला हैँ तदसुरूप एक समय पूर्व हो निर्मिच्तका व्यवस्था क्‍यों वन जाती हैं ? यदि कहा जाय कि अपम स्वभाव हा कारण हूँ। तो हम पूछते हैं कि जीवके उसी इपरिणामके होनेमें खभावकों दी कारण क्यों नहीं मान लिया कत्‌ कर्ममीमांसा ११७ जाता । इस दोपसे वचनेके लिये थदि कहा जाय कि उस 'समयका जो आत्माका सानरूप परिणाम है बह इस प्रकारकी व्यवस्था वनानेसें निमित्त होता हे, इसलिए ऐसी व्यवस्था वन जाती है तो यहाँ यह देखना होंगा कि उस समयके इस आत्म- परिणाममें ऐसी क्‍या विशेषता थी जिसे निमित्त करके कमे निपेकममं वैसा परिवर्तन हुआ। स्पष्ट है कि यदि हम उस विशेषताकों समम लें तो इस गुत्थीके सुलमनेमें आसानी हो जाय । वात यह है कि जो पिछले समयका आत्मपरिणाम है वही आत्म- 'परिणाम विशिष्ट द्रव्य ही अगले समयमें होनेबाले आत्मपरिणाम- का उपादान है, इसलिए वह उस प्रकारके निपेककी व्यवस्था होनेसें निमित्त हुआ ओर उस प्रकारका निपेक अगले समयमें होनेवाले आत्मपरिणामम निमित्त हुआ। कर्म ओर आत्माके निमित्त-ममित्तिक सम्बन्धकी यह व्यवस्था अनादिकालसे इसी प्रकार चली आ रही है । इस निमित्त-नेमित्तिक सम्बन्धकी उक्त वारीक़ीकों समझे लेनेके वाद यह दृढ़ प्रतीति हो जाती है कि प्रत्येक काय अपने उपादानके अनुसार ही होता है ओर जब वह कार्य होने लगता है तब अन्य द्रव्य उससें स्वयमेष निमित्त हो जाता है। इसलिए इसी तथ्यकों ध्यानमें रख कर आचार्य 'कुन्दकुन्द समयप्राभ्ृृतमें यह वचन कहते हैं--- णु वि कुब्चइ कम्मगुणे जीवो कम्मं॑ तहेव जीवगुणे | अण्णोण्णणिमित्तेण दु परिणाम जाण दोण्ं पि ॥८१॥ एएण कारणेण दु कत्ता आदा सएण भावेण | पुग्गलकम्मकबाणं ण दु कत्ता सच्बभावाण एप्शा जीव कमके गुणोंको नहीं करता । उसी प्रकार कर्म जीबके गुणोंकों नहीं करता । मात्र दोनोंका परिणसन परस्पर निमित्तसे ११८ जैनतत्वमोमांत्ता जानो । इस कारण आत्मा अपने भावोंका तो करती है परन्तु वह पुद्टल कर्मके द्वारा किये गये पुद्लल परिणामरूप सब भावोंका कती नहीं है. ॥८९-८र।। हे इस उल्लेखमें एक द्रव्यकी विवक्षित पयोयका दूसरे द्रव्यको विवज्षित प्योयके साथ निमित्त-ममित्तिकमाव स्वीकार करके भी कर्व-कर्मभाव नहीं स्वीकार किया गया है यह महत्त्वकी वात हे। इससे स्पष्ट विदित होता हैं कि अन्य द्रव्यकों पर्याय तंद्धन्न अन्य द्रव्यकी पयोयके हानेमें निमित्त तो होती है पर वह उसकी करता नहीं होती। इस प्रकार कर्ता-कर्मकी प्रश्नूचि दो द्रव्योंके आश्रयसे न होकर मात्र एक द्रव्यके आश्रयसे होती है यह निश्चित होता हैं । फिर भी लोकमें जा कुम्मकार ओर घटपयोथ आइढिके आश्षयसे कतो-कर्म व्यवहार रूढ़ है उसमें निमित्त कथनकी मुख्यता होनेसे उसे उपचरित कथन ही जानना चाहिए'। आचार्य कुन्दकुन्दने आत्माके योग और डपयोगकों घटादि कार्योका उत्पादक इसी अभिप्रायसे कहा है और अन्यत्र जहाँ पर भी इस प्रकारका कथन किया गया है बह कथन भी इसी अभिप्राय से किया गया जानना चाहिए। इतना निश्चित है कि निमित्त निमित्त है, वह उपादानका स्थान लेकर अन्य द्रव्यके कार्यका उत्पादक नहीं हो सकता, क्योंकि वह प्रथक सत्ताक द्रव्य है, इसलिए बह जो अन्य द्रव्यका कार्य है तद्रप परिणत नहीं होता। और जो जिस रूप परिणमन नहीं करता, जिसे उत्पन्न नहीं करता और जिसे आत्मसाद्र पसे भ्रहण नहीं करता वह उसका कार्य केसे हो सकता हैं?! अथात्‌ नहीं हां सकता। आचाये अमृत चन्द्र स्पष्ट कहते हैं कि 'इस आत्माके योग और उपयोग ये दोनों: १. देखी वृहद्द्वव्यसंग्रह गाथा ८ की टीका | कत्‌ कर्ममीमांसा ११६ अनित्य हैं, सव अवस्थाओंमें व्यापक नहीं हैं | थे उन घटादिकके तथा क्रोधादि पर द्रव्यस्वरूप कर्मोके निमित्तमात्रसे क्तों कहे जातें हैं। योग तो आत्माके प्रदेशोंका चलनरूप ज्यापार है आर उपयोग आत्माके चेतन्‍्यका रागादि विकाररूप परिणाम है। कदाचित्‌ अज्ञानसे इन दोनोंको करनेसे इनका आत्माकों भी कता कहा जाता है| परन्तु वह पर द्र॒व्यस्थवरूप कमका तो कर्ता कभी भी नहीं है ।!” उनके इस अर्थका प्रतिपादक वह वचन इस प्रकार हे-- अनित्यों योगोपयोगावेब तत्र निमित्वेन करत्तरी, योगोपयोगयो- स्वात्मविकल्पव्यापारयोः कदाचिदशानेन करणादात्मापि कर्तास्तु तथापि न परद्रव्यात्मयककमंकता स्थात्‌ ॥१००॥ इसलिए जो अपने आत्माकों परसे भिन्न मात्र ज्ञायकस्वभाव जानते हैं उनकी श्रद्धामें निमित्तके आश्रयसे होनेवाले अनादिरूढ़ कते-कर्सव्यवहारका त्याग तो हो ही जाता है। साथ ही उनके अज्ञानमय भावोंसे निवृत्त हो जानेके कारण वे राग-द्ेप आदि अज्ञानमय भावोंके कर्ता न होकर मात्र उनके ज्ञाता ही रहते हैं । समयप्राभ्गत कलशमें कहा भी है--- माउकर्तारममी स्पृशन्तु पुरुष सांख्या इवाषप्याईताः । कतार कलयन्तु त॑ किल सदा भसेदावबोधादधघः ॥ ऊरध्व॑ तृद्धतवोधधामनियतं प्रत्यक्षमेन॑ स्वयं | पश्यन्तु च्युतकतृ भावमचलं ज्ञातारमेक॑ परम्‌ ॥२०५॥॥ आहतजन सांख्योंके समान आत्माकों सर्वथा अकर्ता मत मानो | किन्तु भेदज्ञान होनेके पहले उसे कतों मानो ओर भेद्ज्ञान होनेके वाद उद्धत ज्ञानमन्दिरसें नियत इसे कतृभावसे रहित निश्चल स्वयं प्रत्यक्ष एक ज्ञाता ही देखो ॥२०४॥ छ १२० जैनतत्त्वमीमांसा जो श्रमणाभास सुख, दुख, निद्रा, जागरण, ज्ञान, अश्चान. मिथ्यात्व, अविरति आदिको केबल कर्मका ही काये मानते हैं उनकी वह मान्यता किस प्रकार मिथ्याहै ओर अनेकान्तदशनके अनुसार जीव किस रूपसें इनका कतो हू । तथा वह इनका कता कच नहीं होता इन्हीं सब प्रश्नोंका संज्ञेप्में उत्तर उक्त श्लोक द्वारा दिया गया है। इसमें जो वबतलाया गया हैँ. उसका भाव यह है. कि जब तक यह जीव स्वयं अन्नञानी हैं. तच तक वह अज्ञानमय इन भावोंका कर्ता भी हैं। किन्तु उसके ज्ञानी होने पर वह इनका कर्ता न होकर मात्र ज्षाता ही हाता है, क्योंकि ज्ञानीके साथ अज्ञानमय भावोंकी व्याप्ति नहीं वनती । यहाँ पर प्रश्न होता है. कि घट-पटादि तथा कम-नोकसोका कतो आत्मा नहीं है यह तो समभमें आता है पर ज्ञानों होने पर वह रागादि भावोंका भी कर्ता नहीं हाता चह समममें नहीं आता, क्‍योंकि कतोका लक्षण हैं. कि जो जिस समय जिस भाव रूप परिणसत्ता हैं इस समय वह उस भावका कतों हांता है । जब कि रागयादि भाव तथा गुणस्थान ओर मार्गणास्थात आदि आत्माके परिणाम हें, क्योंकि इन सच भाषोंका उपादान कारण आत्मा ही हैं, अन्य द्रव्य नहीं तव जिस ससय आत्मासें ये भाव होते हैं उस समय इनका कता आत्माका ही मानना न्यायसह्बत हैं। एसी अवस्थामें ज्ञानी जीव रागादि भावषोंका कतता नहीं हाता ऐसा क्यों कहा जाता है ? प्रश्त सामिक है किन्त इस प्रश्नका पूरा उत्तर ग्राप्त करनेके लिए हमें ज्ञानी ओर अज्ञानी जीवके स्वरूपको समझ कर हृदबंगम कर लेना आवश्यक है. क्योंकि उनके स्वरूपका ज्ञान होजानेसे प्रश्का उत्तर अपने आप मिल जाता हैं । कतृ कर्ममीमांसा १२१ आगसमें ज्ञानी जीवके लिए सम्यग्द्ष्टि ओर अज्ञानी जीवके लिए मिथ्याह्ष्टि ये शब्द आते हैं। समयग्राभ्नतमें इन्हींकों क्रमसे स्वसमय ओर परसमय कहा गया है । अन्तरात्मा और वहिरात्मा तथा स्वात्मा ओर परात्मा ये भी इनके पयोयवाची नाम हैं। इससे स्पष्ट हो जाता है कि समयप्राभ्तमें स्वसंमय और परसमयका जो भी स्पहूप .कहा गया हे उससे ज्ञानी ओर अज्ञानी जीवके स्वरूपका ही वोध होता है। वहाँ पर इनके स्वरूप पर प्रकाश 'डालते हुए कहा है-- जीवो चरित्त-दंसश-णाणुट्धिउ त॑ हि ससमयं जाण | पुसग्गलकम्मपरदेसट्चियं च त॑ जाण. परसमय ॥ २॥ जो जीव चारित्र, दर्शन ओर ज्ञानमें स्थित है उसे नियमसे स्वसमय जानो और जो जीव पुद्ठलक्मकि प्रदेशोंमें स्थित है, उसे 'परसमय जानो ॥२॥ प्रवचनसारमें स्वसमय ओर परसमयका स्वरूप निर्देश इन शब्दोंमें किया गया है-- जे पलएसु खिरदा जीवा परसमयिग त्ति णिद्दिद्वा । आदसहावाम्म ट्विदा ते सगसमया सुणेदव्या ॥६४॥ जो जीव पर्यायोंमें लीन हैं उन्हें परसमय कहा गया है ओर जो आत्मस्वभावमें स्थित हैं उन्हें स्वसमय जानना चाहिए ॥€४॥ परसमयके स्वरूप पर प्रकाश डालते हुए प्रवचनसारमें पुनः कहा है-- दब्बं सहावसिद्ध सदिति जिया तच्चदो समक्खाया । विद्ध तघ आगमदो णेच्छुदि जो सो हि परसमश्रों ॥६८॥ जिनेन्द्रदेवने जि चने तात्विकरूपसे द्रव्यकों स्वभावसिद्ध सत्स्वरूप हि. ३ सा श्य्र जनतत्त्वम्धमांस क न कहा है | द्रव्य इस प्रकारका है यह आगमसे सिद्ध है| किन्तु जा ऐसा नहीं मानता वह निम्रमस परसमच है ॥€ु८ा। यह ता हम पहले ही चतला आये हैं. कि अन्तरात्मा और वहिगत्मा उन्‍्हींक परयोयचाची माम है। इनकी व्याख्या करते हुए नियमसारमें कहा है--- अंतसवाब्स्डिप्ये जो बद्इ सो हद बहिसमा। जप्पेसु जा णु बहइ नो उच्चद अतरंगप्म 2५०॥ जो अन्तरक्ग ओर चहिरद्ग' जल्पमें स्थित है वह बहिरात्मा है ओर जो सच जल्पोंमें स्थित नहीं हें वह अन्तरात्मा कहा जाता ह ॥ १५०८] नियमसारमें इसी विपयको स्पष्ट करते हुए पुनः कहा है--- जो धम्म-सुक्रकार्णान्म परिणदों सो वि अंतर्ंगप्पा। भाणविही गो समग्यों इदिस्पा इदि विज्ाणाहि ११५१॥ जा श्रमण धम्यध्यान ओर शुक्लध्यानरूपस परिणत है. बह अन्तरात्मा है ओर जो श्रमण ध्यानसे गहित हैं उसे नियमसे चहिरात्मा ज्ञानो ॥१४ शा उक्त कथनका तात्पर्य बह है कि जो जिनापदिप्र आगम्मे अतिपादत द्रत्य, गुगु आर पयावस्वरूप इस लोकका अकृत्रिम आर स्वभावस निप्पन्न सानता हे अन्य किसीका काय नहीं मानता, अथान स्भावस निष्पन्न हानक कारण निमित्तजन्य नहीं सानता वह स्वसमय है । कारणद्रव्य परसासु आाद अन्य कसाक नल - १. लोशग्ो अविकिट्टमों जल अखाइसिहणो उहावगिप्परणों । जीवाजीवेहि भुझे झिच्चो तालरकवसंठाणों श्र मताचार द्वादशानप्रेज्ञाघिकार क॒तूं कर्ममीमांसा श्श्३ काय नहीं हैं इस तथ्यकों नेयायिक्रदर्शन भी स्वीकार करता है | विवाद तो ज्ञो लोकमें उनके विविध प्रकारके कार्य दिखलाई' देते हैं उनके विपयमें है । नेयाय्रिकदशनके अनुसार अच्ष्ठ सापेक्ष इंश्चर कारक साकल्यको जानकर अपनी इच्छा ओर प्रयत्नसे कार्योकों उत्पन्न करता है। किन्तु जैनदर्शन इसे स्वीकार नहीं करता । इसका यदि कोई यह अर्थ करे कि जनदशनने कतारूपसे इश्वर्को अस्वीकार किया है, निमित्तोंकों नहीं तो उसका उक्त कथनसे ऐसा तात्पय फलित करना ठीक नहीं है, क्योंकि कार्यकी उत्पत्तिमें अन्य निमित्तोंको तो नेयाय्रिकदर्शन भी कर्तारूपसे स्त्रीकार नहीं करता | कार्यात्पत्तिमें वे निमित्त अवश्य हांते है इ तो बह मानता हैं । परन्तु कतो होनेके लिए इतना मानना ही पर्याप्त नहीं हैं। उस दर्शनके अनुसार कर्ता घह हो सकता हैं जिसे क्रारकसाकल्यका पूरा ज्ञान हों ओर जो अपनी इच्छासे कारकसाकल्यकों जुटाकर कोर्यकोी उत्पन्न करनेके प्रयत्नमें लगा हो | यहाँ इतना ओर समझना चाहिए कि जो जिसका कर्ता होता हैं बहू नियमसे उस कार्यकों उत्पन्न करता है। ऐसा नहीं होता कि उसके प्रयत्न करने पर कभी कार्य उत्पन्न हो ओर कभी न हो। कार्य उत्पत्तिकें साथ उसकी व्याप्ति है। अब विचार कीजिए कि नेयायिकदर्शनके अनुसार क्या ये गुण इश्वरको छोड़कर अन्य निमित्तोंमं उपलब्ध हो सकते हैं. अर्थात नहीं हो सकते । इससे स्पष्ट हैं कि नेयायिकदर्शनके अनुसार इश्वरकों छोड़कर अन्य निमित्त कतो नहीं हों सकते। इस प्रकार जब नेबायिकदर्शनकी यह स्थिति है तो जो जेनदर्शन सब द्रव्योंको स्वभावसे उत्पाद, व्यय ओर ध्रोव्य स्वभाववाला मानता हैं उसके अनुसार निमित्त सव द्रव्योंकी पर्यायों (कार्या) के उत्पादक हो जायें यह्‌ तो त्रिकालमें सम्भव नहीं है। एक ओर तो हम लोककों .7 | 2 कतृ कर्ममीसांसा श्श्ध यह प्रश्न ही नहीं उठता, क्‍योंकि दोनों दशनोंमें निमित्तोंकी स्थिति लगभग एक समान है। जो मतभेद है वह कतोकों लेकर ही है। नेयायिकदर्शन कारण द्रव्यकों स्वयं अपरिणामी मानता है इसलिए उसे समवायीकरणकों गोण करके ईश्वररूप कर्ताकी कल्पना करनी पड़ी। किन्तु जैनदशनके अनुसार उपादान कारण स्वयं परिणामी नित्य है इसलिए इस दर्शनसें नित्य होकर भी परिणमनशील होनेके कारण वह स्वयं कतो है यह स्वीकार 'किया गया है। इन दोनों दर्शनोंमें कताका अलग-अलग लक्षण करनेका भी यही कारण है। यह वस्तुस्थिति है जिसे हृदयद्भम र लेनेसे जैनदशनमें द्रव्य, ज्षञेत्र, काल ओर भावरूप लोककों अकृत्रिसम क्‍यों कहा गया है यह समभमें आ जाता है । इस प्रकार जो समस्त लोॉककों अक्ृत्रियम समभकर अपने विकल्पों हारा स्वयं अन्यका कतों नहीं बनता और न अन्य द्रब्योंकीं अपना कतों वनाता है। किन्तु दर्शन, ज्ञान और चारित्रस्वरूप अपने आत्मस्वभावमें स्थित रहता हे वह स्वसमय है ओर इसके विपरीत जो अपने अज्ञानभमावकों निमित्तकर सश्ित हुए पुद्नल कर्मोका कतो वचकर तथा उनको निमित्त कर उत्पन्न होनेबालीं राग-हेष ओर नरक-नारकादि विविध प्रकारकी पयोयोंको आत्मस्थरूप मानकर उनमें रममाण होता हे वह परसमय है यह सिद्ध होता है। यहाँ यह तो है कि ये राग-- छवेपष और नर-नारकादि पयायें पुद्लकर्मोका कार्य नहीं हैं। परन्तु आत्मामें इनकी उत्पत्तिका मूल कारण अज्ञानसाव है, इसलिए यह आत्मा जब तेक अज्लञानी हुआ संसारमें परिभ्रमण करता रहता है तभी तक वह इनका कतो होता है। किन्तु ज्ञानी होने पर उसके पुद्ढल कर्मोको निममित्त कर उत्पन्न करत कर्म नोमांसा १२७ भाव उत्पन्त होते हैं ओर ज्ञानीके सब भाव ज्ञानमय उत्पन्न होते हैं. ॥१३०-१३१॥ इसी बातकों स्पष्ट करते हुए वे आगे पुनः कहते हैं--- णु य रायदोसमोहं कुब्बदि णाणी कसायभाव॑ं वा | सयमप्पणों शण॒ सो तेण कारगो तेसिं भावाणं ॥२८०॥ ज्ञानी जीव राग, हेप, मोहको अथवा कपायभावको स्वयं अपनेमें नहीं करता इसलिए वह उन भावोंका कर्ती नहीं होता' ॥ रृट्ट० ॥| इसकी टीकामें उक्त विषयका खुलासा करते हुए आचाये अमसृतचन्द्र कहते है-- यथोक्तवस्तुस्वभाव॑ जानन्‌ ज्ञानी शुद्धस्वभावादेव न प्रच्यवते ततो रागद्वे पमोहादिमावें: स्वयं न परिणमते न परेणापि परिणम्पते, -ततष्टंकोत्कीणंकशायकस्वमावोी ज्ञानी रागद्द पमोद्यदिभावानामकर्तेवेति नियमः ॥ १८० ॥ . थथोक्त बस्तुस्वभावको जानता हुआ ज्ञानी अपने शुद्ध स्वभावसे ही च्युत नहीं होता, इसलिए बह राग, हेप, मोहादि भावरूप न तो स्वयं परिणत होता है और न दूसरेके द्वारा ही 'परिशमाया जाता है, इसलिए टंकोत्कीण एक ज्ञायकस्वसावरूप ज्ञानी राग, ढेप, मोह आदि परभावोंका अकतों ही हैं ऐसा , नियम हैं ॥ २८० ॥ 3 इसी वातका समयप्राश्षतकलशर्स इस शब्दोंमें व्यक्त किया है--- कया ह. .._*. तात्पर्य यह है कि सम्यस्दृष्टिके श्रद्धानमें रागादि भाव मेरे हैं ऐसा क्रभिप्राय नहीं रहता, इसलिए वह उच रागादि भावोंका कर्ता नहीं होता | करत कर्म मी मांसा १२६ पटकायिक जीवोंको आत्मा करता है तो लौकिंक जनोंका और श्रमणोंका एक सिद्धान्त निश्चित हुआ। उसमें कुछ विशेषता दिखलाई नहीं देती, क्योंक्रि ऐसा माननेपर लोकिक जनोंके अनुसार जिस प्रकार विप्णु कतो सिद्ध होता है उसी प्रकार श्रमणोंके यहाँ भी आत्मा कर्ता सिद्ध हो जाता है ओर इस प्रकार देव, मनुष्य ओर असुर सहित सब लेकक्े नित्य कर्ता हानेसे लौकिक जन और श्रमण उन दोनोंकों ढी कोई मोक्ष प्राप्त होगा ऐसा दिखलाई नहीं देता ।३२१-१२१॥ अतः अन्य अन्यका कता होता हे इस अनादि लोकरूढ़ व्यवह्रकों छोड़कर सिद्धान्तरूपमें यही मानना उचित हैं कि जिस समय जो जिस भावरूपसे परिणमन करता हैं उस समय वह उस भावका कताो होता हँ। इसी वातका समयप्राभ्ृतके कलशोंमें पुद्लल ओर जीवके आश्रयसे ज्ञिन शब्दोंमें व्यक्त किया है यह उन्हींके शब्दोंमें पढ़िए--- स्थितेत्यविष्ना खलु पुद्गलस्य स्वभावभूता परिणामशक्तिः । तस्यां स्थितायां स करोति भाव यमात्मनस्तस्य स एव कर्ता ॥६४॥ ध्थितेति जीवस्व निरन्तराया स्वभावभृता परिणामशक्तिः । « तसयां स्थितायां स करोति भाव॑ यः स्वस्थ तस्येव भवेत्स कर्ता ॥६६॥ इस प्रकार पूर्वोक्त कथनसे पुद्ठल द्रव्यकी स्वभावभूत परि- णामशक्ति विना वाधाके सिद्ध होती है ओर उसके सिद्ध होनेपर वह अपने जिस भसावकों करता है उसका वही कता होता तथा इसी प्रकार पूर्वोक्त कथनसे जीवद्रव्यकी स्वभावभूत परि- णामशक्ति सिद्ध होती हे और उसके सिद्ध होनेपर वह अपने जिस भावको करता हैं उसका वही कतो होता है ॥६४-६४॥ इस प्रकार अनादिरूढ़ लोक व्यवहारकी इृष्टिसे कतो-कर्मकी ््‌ पट्कारकमीमांसो १३१ . आधार है वह अधिकरणकारक कहलाता है । इस प्रकार ये छह कारक क्रियानिष्पत्तिमें प्रयोजक हैं, इसलिए इनकी कारक संज्ञा है । सम्बन्ध क्रियानिष्पत्तिमें प्रयोजक नहीं होता, इसलिए उसकी कारक संज्ञा नहीं है। उदाहरणार्थ वह जिनदत्तके मकानको देखता है? इस उल्लेखमें 'जिनदत्तके” यह पद अन्यथासिद्ध है, इसलिए उसमें कारकपना घटित नहीं होता | तात्पर्य यह है कि जो किसी न किसी रूपमें क्रिया व्यापारके प्रति प्रयोजक होता है कारक वही हो सकता हैं, अन्य नहीं। इसलिए कतो आदिके भेदसे कुल कारक छह हैं यही सिद्ध होता है । अब इनका व्यवहारनय ओर निश्चयनयकी अपेक्षासे विचार कीजिये। यह तो हम आगे वतलानेवाले है कि व्यवहासनय निमित्तकों स्वीकार करता है ओर निश्चयनय उपादानकों स्वीकार करता है, इसलिए व्यवह्रनयकी अपेक्षा घटरूप क्रियानिप्पत्तिके प्रति कुम्मकार कतो होगा, कुम्भ कर्म होगा, चक्र ओर चीवर आदि करण होंगे, जलधारणरूप प्रयोजन सम्प्रदान होगा, कुम्भ कारका अन्य व्यापारसे निव्ृत्त होना अपादान होगा और प्रथिवी आदि अधिकरण होगा। यहाँपर ऐसा समभझना चाहिए कि कुम्भकार स्वतन्त्र द्ृल्य हे ओर घटरूप पयोयसे परिणत होनेवाली मसृत्तिका स्वतन्त्र द्रव्य हैं। कुम्भकारका घटनिमाणानुकूल व्यापार अपनेमें हो रहा है ओर मृत्तिकाका घटपरिशुमनरूप व्यापार मृत्तिकामें हो रहा है । फिर भी घटोत्पत्तिमें कुम्मकार निमित्त होनेसे वह व्यवहारसंयसे उसका कतो कहा जाता है और घट उसका कर्म कहा जाता है। व्यवहारनयसे चक्र, चीवर आदिकों जो करण संज्ञा तथा प्रथिवी आदिको जो अधिकरण संज्ञा दी जाती है वह भी निमित्तत्वकी अपेक्षा ही दी जाती है। निमित्तत्वकी अपेक्षा कुस्भकार, चक्र, चीवर, और प्रथित्री आदि समान हैं, क्योंकि श्श्र्‌ जैनतत्त्वमीमांसा घटरूप कार्यात्पत्तिमं बे सव निर्मित्त ह। किन्तु अलग अलग प्रयोजनसे इनसेंस कुम्भकार कता कहलाता है, चक्र, चावर आदि करण कहलात गलात हैं. ओर प्रथिवी आदि आधिकरण कहलात॑ है । है व्यवहारनयका कथन है | कन्तचु यह परमाथश्॒त क्यों नहा है इस प्रश्का समाधान सवाथसिद्धिके इस बचनस हो जाता ह। वह वचतन्त इस प्रकार ६--- यदि धर्मादीनां लोकाकाशमाधारः, श्राकाशस्य के आधार इति ? आकाशस्थ नास्थ्यन्य आाधारः । स्वप्रतिप्ठमाकाशन | यद्याकाशं स्वप्रतिप्ठम्‌ , धर्मादीन्यपि स्वप्रतिप्ठान्येव | अथ धर्मादानामन्य आधारः कल्प्यते, आकाशस्याप्यन्य आधारः कल्यः । तथा सत्यनवस्थायसंग इति चेत्‌ ? नैप दोपः, नाकाशादन्‍्यदधिकपरिमाण द्रव्यमस्ति यन्नाकाश स्थितमित्युच्येत । सर्वतोउनन्तं हि तत्‌ । ततो घर्मादीनां पुनराध्रिकरण- म्राकाशमिल्युच्यते व्यवह्मरयवशात््‌ । एवम्मूननयापेक्षया हु सर्वाणि द्रव्याणि स्वप्रतिप्ठान्येव । तथा चोक्तम--क्र भवानास्ते ? आत्मनि? इति | घर्मादीनि लोकाकाशान्न बहिः सनन्‍्तीत्यतावदत्राधाराधियकल्यना- साध्यं फलम्‌ । प्रश्न यह है| कि यदि धर्मोदिक द्रव्यका आधार आकाश है तो आकाशका आधार क्‍या है ? इसका जो समाधान किया गया हे उसका भाव यह है कि आकाशका अन्य आधार नहीं क्योंकि वह स्वप्रतिष्ठ हे। इस पर फिर शंका हुई कि यदि आकाश स्वप्नतिष्ठ हे तो धमोदिक द्रव्य भी स्वप्रतिष्ठ रहे आवें आर यदि धसमोदिक द्रव्योंका अन्य आधार कल्पित किया जाता * है तो आकाशका भी अन्य आधार मानना चाहिए । किन्तु ऐसा सानने पर अनवस्था दोप आता हे । यह दूसरी शंका है | इसका जो सामाधान किया गया हैं उसका भाव यह है कि आक्ाशका पटुकारकमीमांसा १ न्प्श 9 रु परिमाण सबसे बड़ा है । उससे अधिक अन्य द्रव्योंका परिमाण ( विस्तार ) नहीं है जहाँ पर आकाश स्थित हो ऐसा कहा जावे । वह सबसे अनन्त है, इसलिए घर्मादिक द्वव्योंका अधिकरण आकाश है यह व्यवहारनयकी अपेक्षासे कहा जाता हैं। एबम्भूतनयकी अपेक्षा विचार करने पर तो सभी द्रव्य स्वप्रति् ही हैं| कहा भी है कि आप कहाँ रहते है ? अपनेमें ।! तात्पर्य यह है कि धर्मादिक द्रव्य लोकाकाशके वाहर नहीं पाय जाते इतना मात्र यहाँ पर आधाराधय कल्पनाका फल यहाँ पर यह शंका की जा सकती है कि व्यवह्यारतय भी तो सम्यक श्रतज्ञानका एक भेद्र हैं, इसलिए उससे ग्रहीत विपयको अभृताथ क्‍यों कहा जाता है ? समाधान यह है कि व्यवह्यारनयका विपय उपचरित है इसे सम्यर्ज्ञान इसी रूपसें जब ग्रहण करता हैं. तभी व्यवह्रनय सम्यक_ श्रुतक्रा भेद ठहरता हूँ, अन्यथा नहीं। अब व्यवहारतयका विपय परमायंभृत क्‍यों नहीं हैं इस पर विचार कीजिए। सामान्य नियम यह हे कि प्रत्येक द्रव्य श्र बस्वभाव होकर भी स्वभावसे परिणमनशील है । उससे प्रथक अन्य द्रव्य यदि उसे परिणमन कराव आझोर तब बह परिणमन करे, अन्यथा वह परिशणमन न करे तो परिणमन करना उसका स्वभाव नहीं ठहरेगा। इसलिए जिस द्रब्यके जिस कार्यका जो उपादानज्षण हैं. उसके ग्राप्त होने पर बह द्रव्य स्वयं परिणमन कर उस कार्यके आकारकों धारण करता है यह निश्चित होता है और ऐसा निश्चित होने पर कारकका 'जो क्रियाकों उत्पन्न करता हैं. बह कारक कहलाता है? यह लक्षण अपने उपादानरूप मिद्ठीमें ही घटित होता हैं, क्‍योंकि परिणमन रूप क्रिया-ध्यापारकों मिट्टी स्वयं कर रही है, कुम्मकार, चक्र, चीवर और प्रथ्रिवी आदि नहीं । उपादानक्े अपने परिणमनरूप न्श्त १३४ जैनतत्त्वमीमांसा क्रिया व्यावारके समय ये कुम्भकार आदि बलाधानमें निर्मित हैं इतना अवश्य है । पर इतने मात्रस मिद्टीके परिशमतरूप क्रिया व्यापारका तत्त्वतः वे स्वयं कर रहे हैं. यह नहीं कहा जा सकता, क्योंकि उस समय वे अपने परिणमन रूप क्रिया व्यापारका कर रहे है | प्रत्यक्ष द्रब्यमें छुह कारकलूप शक्तियोंका सद्भाव स्वीकार करनका यहा] कारण है, इसलिए व्यवद्यास्नयके विपयका परमार्यमृत न सानकर जा उपचरित कहा गया है' सी ठाक हा कहा गया है । अनगारघमंमतमें व्यवद्धागनय्स कर्ता आदिको भिन्‍त रूपसे स्वीकार करनेमें क्या सार्थकता है इसका स्पष्टीकरण करते हुए परिइतप्रवर आशाबरजों कहने हैं--- कर्ता बस्तुनो भिन्ना येन निश्चयसिद्धये । साध्वन्ते व्यवहारोंठसी निश्चयस्तदमेदद्क्‌ ॥१-०१०३॥ १, जो विवज्तित्त वस्तुमें सत्य होता है वह परमार्द ता हझोर जो विवज्चित बस्तुमें न होकर निमित्त या प्रयोजन विशेषत्त उसमें ग्रारोवित किया जाता है वह उपवरित कहलाता हैं। कहा भी है--सत्ति निमित्ते प्रयोजने च उपचार: प्रवर्तते । उदाहरणाईर्य कुम्भकारमें घटका करत त्य बर्म नहीं है । फिर भी घटोलत्तिमें कुम्मकार निमित्त होनेसे कृम्मकारमें घद्नों कतू खका उपचार किया जाता है । इसलिए व्यवहारनयके इस वक्‍सब्य- को उपचरित कबन हो जानना चाहिए। 'कुम्मकार घठका हर्ता है! इसे उपचरित असद्भू त स्वयक्रा विपय बतलानेका यही कारण हूँ इसके लिए जी दृहदृद्रत्यसंग्रह गाया 2८। पणथ्चास्तिकाथ गाया ६७ कर्मका निर्देश किया गया है वह भी इसी अभिप्रावस्त किया गया है । इतना अ्रवश्य है कि वहां संश्लेपरूप वस्वपयतयकी सुख्यता होनेसे वह अनुपचरित असद्भुत व्यवहारतयक्रा पट्कारकमीमांसा मी श्१५ जिसके द्वारा निश्चयकी सिद्धिके लिए कती आदि वस्तुसे सिन्‍न सिद्ध किये जाते हैं वह व्यवहार हार है ओर जिसके द्वारा कर्ता आदिक वस्तुसे अभिन्‍न जाने जाते है. वह निश्चय. है ॥१-१२०॥ यहाँ पर व्यचहारका लक्षण कहते समय जो मुख्य बात कही गई हैं वह यह है कि कर्ता आदिको वस्तुसे भिन्‍न सिद्ध करना तभी सार्थक है. जब वह कतो आदि वस्तुसे अभिन्‍न हैं इसे स्वीकार करनेवाले निश्चयकी सिद्धिका प्रयोजक हो । अब थोड़ा इस वात पर विचार कीजिए कि पण्डितप्रवर आशाधरजीने ऐसा क्‍यों कहा ? यदि व्यवहारसे कतो आदि वस्तुसे सिन्‍न होकर वास्तविक हैं तो उनकी साथ्थकता तभी क्‍यों मानी जाय जब वे निश्चयकी सिद्धि करें ? प्रश्न सामिक हे। समाधान यह है कि जो भिन्न पदार्थ है वह अपने उत्पाद-व्ययमें लगा रहता हैं । उदाहरण हैं| इसो प्रकार निमित्तमें परिणमानेरूप या कार्यमें विशेषता उत्पन्न करने रूप जितने भी धर्मोका सद्भाव स्वीकार किया जाता है वह सब आरोपित या उपचरित कथन होनेसे असउ्भुूत व्यवहारतयकी परिधिमें ही गभित है ) यह कथन परके आश्रयसे किया जाता है, इसलिए तो व्यवहार हैं और अन्य द्रव्यमें तद्धिन्त श्रन्‍्य द्रव्यके कतृत्वि आदि धमकी उपलब्धि नहीं होती, इम्नलिए श्रसद्भूत हैं। यही कारण हैं कि ऐसे कथनक्रों स्वीकार करनेवाले नयकों असदुभूत व्यवहारनय कहा गया हैँ । सम्बन्दृष्टि जीव इस तथ्यक्ोी जानता है, इसलिए वह “अन्य द्रव्य तद्धिन्न अन्य द्रव्यके कार्यका कर्ता है, कर्म है, करण है, सम्प्रदान है, अपादान है और अ्रधिक्ररण है! ऐसा श्रद्धान नहों करता । किन्तु निमित्तको अपेक्षा लोकमें इस प्रकारका व्यवहार होता है इतना वह जानता श्रवश्य है । इसका विशेष स्पष्टीकरण हमने विपषयप्रवेश अ्रधिकारमें किया ही है । पट्कारकमीमांसा १३७ कंहा जाता है। वास्तवमें वह (निमित्त ) उसी कालमें स्वयं छउपादान होकर हे तो अपनी उत्पाद-व्ययरूप क्रियाका कर्ता ही । पफिर भी उसमें अन्य द्रव्यके उत्पाद-ठ्ययरूप क्रियाके कर्ठंत्वका उपचार करके उस द्वारा मुख्याथंका द्योतन किया जाता है। यहाँ पर निमितसें कठंत्वका उपचार करनेका यही प्रयोजन है। पण्डितप्रवर आशाधरजीकी इस तथ्यकी ओर इप्टि थी। यही कारण हैं कि उन्होंने कवा आदिको वस्तुसे भिन्‍न सिद्ध करनेरूप व्यवहार कथनकों ऐसे निश्चयकों सिद्ध करनेवाला स्वीकार किया है जा 'कर्ता आदि तत्त्वतः बस्तुसे अभिन्‍न हैं! यह ज्ञान कराता है। आगसमें जहाँ सी व्यवहारको निश्चयकी सिद्धिमें प्रयोजक माना गया है बह इसी अभिप्रायसे माना गया है | अच यहाँ पर थोड़ा इस इष्टिसे भी विचार कीजिए कि संसारी जीवका मुख्य प्रयोजन मोज्ञगप्राप्ति है ओर उसका साक्षात्‌ साधन निश्चय रत्नत्रय परिणत स्वयं आत्मा हे। उसमें भी निश्चय ध्यानकी मुख्यता है, क्‍योंकि उसकी प्राप्ति होनेपर ही अबस्था होती हैं। इसी तथ्यकों ध्यानमें रखकर आचाये कुन्दकुन्द सर्बविशुद्धिज्ञानाधिकारमें कहते हैं-- मोक्खपरदे अप्पाण ठवाह त चच माह ते चब | तत्थेव विहर शिच्चं मा विहरसु अण्णदव्वेसु ॥४४१२॥ मोक्षपदमें अपने आत्माको ही स्थापित कर, उसीका ध्यान कर ओर उसीमें त्रिहार कर । अन्य द्रव्योंमें विहार मत कर ॥ ४१२॥ यद्यपि आचार्य ग्रद्धपच्छने अपने तत्त्वाथंसूजसें “तपसा निर्जेरा च! इस सूत्र हारा तपको संवर ओर निजराका प्रधान अज्ल वतलाया है परन्तु तत्वाथंसूत्रके इस कथनको उक्त कथनका श्श्द जैनतत्त्वमीमांसा ही परक जानना चाहिए, क्योंकि एक तो ध्यान तपका मुख्य भेद हैं। दूसरे तपकी अन्तिम परिसमाप्ति निश्चयरूप ध्यानम हो होती हैं। इसलिए निश्चय रत्नत्रयपरिणत आत्मा मांक्षका साक्षात्‌ साधन हैं यह जो कहा गया हैं बह निश्चय वध्यानकां- प्रधानतासे ही कहा गया है। शुक्लध्यान आठवें गुणस्थानसे होता है या ग्यारहवें गुणस्थानसे होता हे इस विपयम दो सम्प्रदाय उपलब्ध हाते हैं। यहाँपर हमें उनकी विश्वप सासासा नहीं करनी है। परन्तु प्रकृतमें इतना बरतला देना आवश्यक प्रतीत होता है कि आठवें गुणस्थानसे शुक्लध्यान हांता है इस कथनको जो प्रमुखता दी गई है उसका कारण यह है कि जबतक यह जीव ध्यान, ध्याता ओर ध्येयक्रे विकल्पस तथा कता, कर्म आर क्रियाके विकल्पसे निव्वत्त हाकर स्वमें स्थित नहीं होता तबतक चारित्रमोहनीयकी पूण्णरूपसे निर्जेरा नहीं हो सकती। यद्यपि तेरहवें ओर चोदहवे गुणस्थानमें चित्तसन्तत्तिका अभाव रहनेसे चित्तसन्ततिके निरोधरूप ध्यानकी सिद्धि नहीं होती। फिर भी वहाँ पर ध्यानका उपचार किया गया हैँ सो क्यों ? स्पष्ट हैं कि इस द्वारा भी यह चतलाया गया है कि मोज्ञग्राप्तिका यदि काइ साज्षात्‌ साथन हैं तो वह निश्चय ध्यान ही है, अन्य नहीं । ऐसे ध्यानके होनेपर ही यह आत्मा निश्चय रत्तत्रयरूप अबस्थाका प्राप्त होता है, अन्यथा नहीं। इस प्रकार मोक्षप्राप्तिका जा साक्षात्‌ साधन ध्यान है वह किस प्रकारका होता हैं अब इसपर विचार कीजिए। शुद्धापयोग ओर उक्त प्रकारका ध्यान इन दनाका ण्क़ द्दी अथ ह। इसपर प्रकाश डालते हए परण्डित- प्रवर दोलतराम जी छहढालामें कहते जहेँ ध्यान ध्याता ध्वेबको विकल्प वच भेद न जहां चिद्धाव कर्म चिंदेश कर्ता चेतना क्रिया तहां [ पट्कारकमीमांसा १३९. तीनों अभिन्न अखण्ड शुध उपयोगकी निश्चल दशा । प्रगटी जहाँ दृग ज्ञान ब्रत ये तीनथा एके लसा ॥ जहाँ पर यह ध्यान है, यह ध्याता है ओर यह ध्येय है इस प्रकारका विकल्प नहीं रहता ओर जहाँ पर किसी प्रकारका चचनभेद सी लक्षित नहीं होता वहाँ पर आत्माका चेतन्यभमाव कम है, आत्मा कर्ता है ओर चेतनारूप परिणति क्रिया है। इस प्रकार जहाँ पर कतो, कर्म ओर क्रिया ये तीनों अभिन्न और अखगण्डरूप होकर शुद्धोपयोगकी निश्चल दशा प्रगट होती है वहाँ पर दर्शन, ज्ञान ओर चारित्र ये तीनों एकरूप होकर शोभायमान ऐसा ही ध्यान उत्कृष्ट विशुद्धिका कारण है इसका निर्देश करते हुए परिडतप्रवर आशाधरजी भी अपने अनगारधमासृतमें कहते हैं-- अयमात्मात्मनात्मानमात्मन्यात्मन आत्मने । समादधानो हि परां विशुद्धि प्रतिपद्यतें ॥१-११३॥ यह स्वसंवेदनरूपसे सुब्यक्त हुआ आत्मा स्वसंवेदनरूप आत्माके द्वारा निविकल्परूप आत्मामें ज्ञानात्मक अन्तःकरणरूप आत्महेतुक शुद्ध चिंदानन्दरूप आरस्माकी प्राप्तिके लिए शुद्ध चिदानन्दरूप आत्माका ध्यान करता हुआ उत्कृष्ट विशुद्धिको प्राप्त दोता है ॥॥१-१९श॥ ह यह सोक्षप्राप्रिमं निश्चय रत्नत्रयान्वित साज्ञात्‌ साधनमूत ध्यानका प्रकार हैं। इस पर इृष्टिपात करनेसे विदित होता है कि जब वही आत्मा कतो “होता है, वही कर्म होता है, वही करण. होता है, .बही सम्प्रदान होता है, वही अपादान होता हे ओर वही अधिकरण होता है तव जाकर शुद्धापयोगकी निश्चल दशा १४० जनतत्वमीमांसा प्रकट हाती हैं ओर तमी उसके घातिकर्मो या समस्त कर्मोका समृल उच्छेद होता है । यह निश्चय रत्नत््य परिणत आत्साके ध्यानकी उत्कृष्ट दशा है । अब इस आधारसे जब सम्यग्दष्टिकी इससे नीचली दशाका विचार करते हैं तब विदित होता हैं. कि यदि सम्यम्दश्टिकी श्रद्धामें अन्य मिथ्याहृष्टि जनोंके समात यह मान्यता बनी रहे कि अन्य द्रव्य तद्धिन्न अन्य द्रव्यकी उत्पाद-व्ययरूप क्रियापरिणतिका कर्तो आदि होता है! ओर यही मान्यता आगगेके गुणस्थानोंसं भी चलती रहे ता बह श॒द्धापयागकी पूर्बोक्त निश्चल दशाकों कैसे प्राप्त हो सकता हैं ? अ्थात नहीं प्राप्त हो सकता और जब उच्त सान्यताके कारण शुद्धापयोगकी निश्चल दशा नहीं प्राप्त होगी तो साक्षका प्राप्त हाना भी दुलभ हैं। स्पष्ट है कि जहां तक श्रद्धार्मे इस सान्यताका सद्भाव है कि अन्य द्रव्य तड्िल अन्य दव्यकी उत्पाद-व्ययरूप क्रियापरिशनतिका कतो आदि होता है! वहीं तक मिथ्यात्व दशा है ओर जहाँसे श्रद्धामें उसका स्थान वस्तुभूत यह विचार ले लेता हे कि प्रत्यक द्रव्य अपनी क्रियापरिणतिका कर्ता आदि आप स्वर्य हैे। यह आत्मा अपने अज्ञानवश संसारका पात्र आप स्वयं बना हुआ हैं ओर अपने पुरुवार्थ द्वास उसका अन्त कर आप स्वयं सोक्षका पात्र चनेगा! वहींसे आत्माकी सम्यग्दशन रूप अवस्थाका प्रारस्भ होता हे और इस आधारसे जैसे-जैसे चारित्रमें परनिरपेत्षता आकर स्वावलम्बनमें श्रृद्धि होती जाती है वस-बेसे सम्पग्हट्टिका उक्त विचार आत्मचयोका रूप लेता हुआ असम समाधि दशा परिणत हो जाता है। अतण्व अन्य द्रव्य तेज अन्य दब्यकी क्रियापरिणतिका कतो है, कर्स है, करण है, सम्प्रदान हे आपादान है आर आधधकरण है यह व्यवहारसे रसे ही कहा जाता दे, निश्चयसे ता प्रत्येक द्रव्य अपनी क्रियापरिणतिका पट्कारकमोमांसा १४१ स्वयं कता हू, स्वयं कम हैं, स्वयं करण हैं, स्वयं सम्प्रदान हें, स्वर: अपादन है, ओर स्वयं आवधिकरण हूँ यहाँ सिद्ध होता है। पत्चास्तुकायम इस वबातकोा स्पष्ट करते हुए आचाय कुन्दकन्द कहते कम्म॑ पि सं कुब्बदि सेश सहावेश सम्ममपाणं | जीवो विय तारिसओ कम्मसहावेण भावेण | ६२ ॥ कम भी अपने स्वभावसे स्तर (अपने ) को करता हैं और उसी प्रकार जीव भी अपने क्रिया स्वभावरूप भावसे सम्यक रूप अपनेका करता हैं ॥६२॥ इसकी टीका करते हुए आचार्य अम्ृतचन्द्र कहते हैं-- अत्र निश्चयनयेनामिन्नकारकत्वात्कमंणो जीवस्य व स्वय स्वरूप- कतृ त्वमुक्तम्‌ । कर्म खलु कर्मत्वप्रवर्तमानपुद्गलस्कन्धरूपेण कत्‌ तामनु- बिश्वाणं कर्मत्वगमनशक्तिरूपेण करणतामात्मसात्कुव॑त्‌ प्राप्यकर्मत्व- परिशामरूपेण कर्मतां कलयत्‌ पूर्वभावव्यपायेठप अुवत्वालम्बना- दुपात्तापादानस्वं उपजायमानपरिणामरूपकर्मणा भ्रियमाणत्वादुपोढ- सम्प्रदानत्व॑आधीयमानपरिणामाधारत्वाद्‌ यहीताधिकरणत्व॑ स्वयमेव प्दकारकीरूपेण व्यवतिष्ठमान न कारकान्तरमपेक्षते | एवं जीवो5पि भावषथयिण प्रबतंमानात्मद्रव्यरूपेण कतू तामनुविश्राणो भावपर्याय- गमनशक्तिर्पेण. करणतामात्मसात्कुर्वत्‌ प्राप्यभावपयायरूपेण कर्मतां कलयत्‌ पूर्वभावपर्यायव्यपायेउपि श्रुवत्वालम्बनाडुपत्तापादानत्व॑ उपजाय- मानभावपर्यायस्जकर्मणाअियमाणत्वाहुपोढसम्प्रदानलः. आधीोयमान- भावषयायाधारत्वाद शहींताधिकरणुत्वः स्वयमेव पदकारकीरूपेश व्यवतिष्टमानों न कारकान्तरमपेक्षते । अतः कर्मणः कतु नॉस्ति जीवचः कर्ता जीवस्य कठु नास्ति कर्म कतृ निश्चयेनेति ॥६२॥ निश्च॑यनयसे अभिन्न कारक होनेसे कम ओर जीव स्वये स्वरूप ( अपनी-अपनी पयाय ) के कता है ऐसा यहां कहा है। श्र जैनतत्वमोमांसा यथा--( २ ) कर्म वास्तव कमरूपसे प्रवतेसान पुदुगलस्कन्ध- रूपसे कठत्वकों घारण करता हृथ्य (२) कमपना प्राप्त करनका , शक्तिरूप करणपनेकों अंगीकार करता हुआ, (,३ ) प्राप्य ऐसे कर्मल्वपरिशासरूपसे कर्मपनेका सस्पादन करता हुआ, ( ४ ) पूछे- सावका नाश हो जानेपर भी 'व्रवप्नका अवलम्धन करनेसे अपादानपनको प्राप्र करता हुआ, ( ४ ) उपजनबाले परिणामरूप कर्मद्वारा आश्ियमाश हानेले सम्प्रदानपनको प्राप्त करता हुआ था (५ ) बारण किय जाते हुए परिणामका आधार हानंस अधिकरणपतका ग्रहण करता हुआ इस प्रकार स्वयं ही पटकारक रूपसे अवस्थित हाता हुआ अपनेस भिन्न अन्य कारककी अपना नहीं रखता। उसी प्रका”ग ज्ञाव भी (१?) भावपयायरूपस प्रवतमान आत्मद्रब्यन्पस कतेस्वका धारण करता हुआ, (२) सावपयांयको प्राप्त करसकी शक्तिरूपसे करणपनको अज्ञीकार करता हुआ, (३) प्राप्य ऐसी भावपयोयरूपसे कर्मपनको स्वीकार करता हुआ, (2) पूर्व भावपयायका नाश होने पर भी श्र चत्वका अचलम्बन होनेसे अपादानपनका प्राप्त होता हुआ, (५) उपजने- बाले भावपयायरूप कर्म द्वारा समाश्रियमाण होानेसे सम्प्रदान- पनेका प्राप्त होता हुआ तथा (६) धारण की जाती हुई भाव- परयायका आधार हानेसे अधिकरणपनेका प्राप्त करता हुआ इस प्रकार स्वर ही पटकारकरूपसे अवस्थित होता हुआ अपनेसे भिन्न अन्य कारककी अपेक्षा नहीं रखता। इसलिए निश्चयसे कर्मरूप कर्ताका जीव कतो नहीं हैं. और जीवरूप कर्ताका कर्स कर्ता नहीं है यह पद्चास्तिकायका उल्लेख हे । इसी प्रकारका एक उल्लेख प्रवचनसारसें भी उपलब्ध होता है। वहाँ स्वयंध शब्दकी पट्कारकमीमांसा १४३ व्याख्या करते हुए गाथा १६ की टीकामें एक द्रव्यके आश्रयसे घटकारककी प्रवृत्ति किस प्रकार होती है इसका व्याख्यान करते हुए जो टीका वचन उपलब्ध होता है वह इस प्रकार है--- अय॑। खल्वात्मा शुद्धोपयोगमावनानुभावगप्रस्यस्तमितसमस्तघाति- कमंतया समुपलब्धशुद्धानन्तशक्तिचित्खमावः शुद्धानन्तशक्तिज्ञायक- स्वभावेन स्वतन्त्रत्वाद्‌ ग्रहीतकतृ त्वाधिकारः शुद्धानन्तशक्तिन्नानविपरि- शुमनस्वभावेन प्राप्यत्वात्‌ कमत्वं कलयन्‌ शुद्धानन्तशक्तिज्ञानविपरिणमन- स्वभावेन साधकतमत्वात्‌ करणत्वमनुविश्राणः शुद्धानन्तशक्तिज्ञानविपरि- शुमनत्वभावेन कर्मणा समाश्रियमाणत्वात्‌ सम्प्रदानत्वं दघानः शुद्धानन्त- शक्तिज्ञानविपरिणमनसमये पूवग्रत्नत्त विकलज्नानस्वभावापगमे5पि सहज- ज्ञानस्वभावेन श्रुवत्वावलम्बनादपादानत्वमुपाददानः शुद्धानन्तशक्तिज्ञान- विपरिणमनस्वभावस्याधारभूतत्वादधिकरणत्वमात्मसात्कुर्वाणः स्वयमेव प्रदकारकी रूपेणोपजायमानः उत्पत्तिव्यपेक्षया द्र॒व्यभावभेदभिन्नधाति- कर्माण्यपास्य स्वयमेबाविभू तत्वाद्दा स्वयंभूरिति निर्दिश्यते । अतो न निश्चयतः परेण सहात्मनः कारकसम्बन्धोउस्ति | यतः शुद्धात्मस्वभाव- लाभाय सामग्रीमार्गशव्यग्रतया परतन्त्रेम यते ॥ १६॥ निश्चयसे यह आत्मा शुद्धोपयोगरूप भावनाके माहात्म्यवश सससस्‍्त घातिकर्मोके नाश हो जानेसे शुद्ध अनन्त शक्तिरूप चित्स्वभावकों प्राप्त. होता है अतएव वह स्वयं शुद्ध अनन्त शक्ति- रूप ज्ञायकस्वभावके द्वारा स्व॒तन्त्ररूपसे - कतृत्वाधिकारको प्रहण किये हुए है, वही स्वयं शुद्ध अनन्तशक्तिरूप ज्ञानके विपरिणमन स्वसावके द्वारा प्राप्य होनेसे कर्मपनेको धारण करता है, चही सस्‍्त्रयं शुद्ध अनन्तशक्तिरूप ज्ञानके विपरिणमन स्वभाव द्वार साधकतम होनेसे करणपनेको धारण करता है, वही स्वयं शुद्ध अनन्तशक्तिरूप ज्ञानके विपरिशमन स्वभावद्वारा षट्कारकमीमांसा ध्ड्प्‌ * यह निचोड़ है। ऐसा नियस है कि जहाँ पर आकुलता है वहीं पर परतन्त्रता है ओर जहाँ पर निराकुलता है वहीं पर स्वतन्त्रतां है, क्योंकि आकुलताकी परतन्त्रताके साथ ओर नियकुलताकी स्वतन्त्रताके साथ व्याप्ति हैं। अतएव इस सब कथनके समुच्चय- रूपमें यही निश्चय करना चाहिए कि जो निश्चय कथन है वह यथाथ है, वस्तुमूत है ओर कतों, कम आदिकी वास्तविक स्थितिको सूचित करनेवाला है। तथा जो व्यवहार कथन है वह मूल वस्तुको स्पर्श करनेबाला न होनेसे उपचरित है, अभूतार्थ है ओर कत्तो-कर्म आदिकी वास्तविक स्थितिकी विडम्वना करनेवाला है। जो पुरुष व्यवहार कथनका आश्रय कर प्रवृत्ति करते हैं वे शुद्ध आत्मतत्त्वकी उपलब्धिसें समर्थ नहीं होते अतएव संसारके ही पात्र वने रहते हैं. ओर जो पुरुष इसके स्थानमें निश्चय कथन- का आश्रय कर प्रवृत्ति करते हैं वे क्रमशः मोक्षके पात्र होते हैं । सम्यग्दष्टि जीवके रागवश व्यवहार रत्नत्रयके आश्रयसे जो भ्रवृत्ति होती है उसके क्रमशः छूटतें जानेका यही कारण है। तात्पर्य यह है कि सम्यग्दष्टिके व्यवहारधर्म होता तो अवश्य हे पर बह उसका चइट्टिपूवंक कतों नहीं होता। रागवश व्यवहार धर्ममें प्रवृत्ति करते समय भी वह कतो स्वभावभूत आत्मपरिशास- का ही होता हे। इस विषयपर विशेष प्रकाश हम कतो-कर्म अधिकारसें डाल ही आये हैं । इसी अभिप्रायकों ध्यानमें रखकर आचायदघर कुन्दकुन्दने प्रवचनसारमें यह वचन कहा है--- कत्ता करण कम्मं फलं च अ्रप्प त्ति शिच्छिदों समणो । परिणमदि्‌ शेव अण्णं जदि अप्यं लहदि सुद्ध ॥१२६॥ यदि श्रमण आत्मा ही कतो है, आत्मा ही कर्म है, आत्मा ही करण है और आत्मा ही फल ( सम्प्रदान ) है? ऐसा निश्चय १० १४६ जनतत्त्वमी मांसा #: कई: छ.. +. शुद्ध आत्माकों शक करके अन्यरूप परिणमित नहीं ही हा ता बह शुद्ध आर उपलब्ध करता हैं ॥९०६॥ समग्र कथनका तात्पर्य यह है. कि संसाररूप अवस्थाके होनेमें जहाँ निश्चय पटकारक होता हैं वहाँ वयवहार पदकारक हांता हा है। वह मिथ्यादप्टिके भी हाता है ओर सम्बस्द्रष्टिके भी होता है । उसका निषेध नहीं। परन्तु अनादि कालसे यह जीव निम्चय पटकारकका भलकर अपने विकल्प द्वारा मात्र व्यवहार पट- कारकका अवलम्वन करता आ रहा हैँ, इसलिए वह संसारका पात्र बना हुआ हैं। इस अब पुरुषपाथ द्वारा अपनी दृष्टि बदलकर निश्चय पटकारकका अवलस्बन लना हैं, क्योंकि ऐसी दृष्टि बनाये बिना ओर तदनुकूल म्वभावचारित्रका आश्रय लिए बिना शुद्धात्मतत्वकी उपलब्धि नहीं हा सकती। इसलिए जीवन संशोधनमें निश्चय पटक्रारकका अवलम्धन करना ही कार्यकारी है ऐसा यहाँपर समझना चाहिए। यहाँ प्रश्न होता है कि यदि ऐसी बात है तो पद्चास्तिकाय गाथा १७२ की टीकामें अनादिकालसे भेदवासित चबुद्धि होनेके कारण प्राथमिक जीव व्यवहारनयसे भिन्न साथन-साध्यभावका अवलम्वन लेकर सुखसे तीर्थका प्रारम्भ करते हैं? ऐसा क्यों कहा। टीका वचन इस प्रकार है-. व्यवहारतयन भिन्नसाध्य-साधनभावमवलम्ध्यानादिभेदवासितबुद्धवः सुखेनवाबतरन्ति तीथ' प्राथमिकाः । समाधान यह है कि सम्यम्द्ष्टि जीवोंकी दृष्टि तो एकमात्र ज्ञायकभावपर ही रहती है। उसका उनके कदाचित्‌ भी त्याग नहीं होता। फिर सी रागबश उनके तीथ सेबचनकी प्राथमिक दशामें वीच-वीचमें जितने कालतक आंशिक शुद्धिके साथ साथ पट्कारकमीमांसा १४७ . प्रावलस्वी विकल्प होते है उतने कालतक वे भिन्न साध्य-साधन भावका भी अवलम्वन लेते हैं | परन्तु इसे वे मोक्षुका उपाय नहीं समभकर मात्र निश्चय पटकारकके अवलम्वन लेनेको ही अपना तरणोपाय मानते हैं, इसलिए थे उतने कालतक भिन्न साध्य- _ साधनभावका अवलम्बन लेनेपर भी मागस्थ ही हैं ऐसा यहाँ ' समभना चाहिए | तात्पय यह है कि सम्यग्हष्टि जीवके प्राथमिक अवस्थामें देव, गुरु, शाख और शुभाचारके निमित्तसे तो राग होता ही हैं । साथ ही वह पाँच इन्द्रियोंके विपयोंके निमित्तसे भी हाता है। किन्तु उसमें उसका अनुवन्ध न होनेसे वह उसका कर्ता नहीं होता । इसलिए वह पश्चात्तापवश ऐसे नष्ट होजाता हैं जैसे सूर्य 'फकिरणोंका निमित्त पाकर हरिद्राका रंग नष्ठ होजाता हे। इसी तथ्यकों स्पष्ट करते हुए मुलाचार अनगारभावनाधिकार गाथा १०६ की टीकामें मृलका स्पष्टीकरण करते हुए कहा भी यद्यपि कदाचिद्रागः स्वात्तथापि पुनरनुवन्ध न कुबन्ति, पश्चात्तापेन तत्वुणादेव विनाशमुपयाति हरिद्रारक्तवस्नस्य पीतप्रमा रविकिरणस्पृण्टचेति। यद्यपि यह हम मानते हैं कि इन्द्रिय विषयक रागसे देबादि- 'विपयक राग प्रशस्त माना गया है। परन्तु केबल इस कारणसे उसे उपादेय मानना उचित नहीं हैँं। रागका अवलम्बन कुछ भी क्यों न हो परन्तु बह वन्धपरयोयरूप होनेसे हेय ही हे। देवादिक तो अन्य हैं । उनकी बात छोड़िये । जहाँ अपनी आत्मा विपयक राग ही हेय माना गया है वहाँ अन्य पदार्थ विषयक राग उपादेय होगा यह कैसे सम्भव हो सकता हैँं। इस प्रकार व्यवहार ओर निश्चयके आश्रयसे पटकारककी ग्रवृत्तिका वास्तविक रहस्य क्या सकी मीमांसा की । क्रमनियमितपर्यायमीमांसा १४९ होनेके समयकी व्यवस्था है। हम पहलेसे प्रतिदिन सूर्यके उगने ओर अस्त होनेके समयक्रा निश्चय इसी आधारपर कर लेते हैं। तथा 'इसी आधारपर चन्द्रमहण और सूर्यग्रहणक्रे समय ओर स्थानका भी निम्चय कर लेते हैं । किस ऋतुमें- किस दिन कितने घंटे, मिनट आर पलका दिन या सत्रि होगी यह ज्ञान भी हमें इसीसे होजाता | ज्योतियज्ञान और निमित्तज्ञानकी सार्थकता भी इसीमें है। किसी व्यक्तिकी जीवनी या खास घटना पंचाड़् या ज्योतिपग्रन्थमें लिखी नहीं रहती । व्यक्ति अगणित हैं। उनकी जीवन धटनाओंका तो पारावार नहीं, इसलिए वे पं॑चाहुममें या ज्योतिपके प्रन्थोंमें लिखी भी नहीं जा सकतीं। फिर भी उत्तमें प्रकृति ओर ज्योतिष- मण्डलके अध्ययनसे कुछ ऐसे तथ्य संकलित किए गये हैं जिनके आधारपर प्रत्येक व्यक्तिकी आगामी खास घटनाओंका पता लग जाता है | इसलिए प्रत्येक व्यक्तिके जीवनमें जो भी खास घटना होती है जो उस व्यक्तिकी जीवनधाराकों ही वदल देती है उसे आकस्मिक नहीं कहा जा सकता। चाहे देखनेसें वह आकस्मिक "भले ही लगे पर होती है बह अपने नियत क्रमके अन्तगत ही । ऐसे विचारवाले व्यक्ति इसके समथनमें कुछ शास्त्रीय उदाहरण 'भी उपस्थित करते हैं । प्रथम उद्घाहरण देते हुए वे कहते हैं कि जब भगवान ऋषपभदेव इस घरणीतलपर विराजमान थे तभी उन्होंने मरीचिके सम्वन्धरमें यह भविष्यवाणी कर दी थी कि वह आगामी तीथेक्लर होगा और बह हुआ भी | दूसरा उदाहरण वे द्वारकादाहका उपस्थित करते है। यह भगवान नेमिनाथको केवल- ज्ञान उत्पन्न होनेके वादकी घटना हैं| उन्होंने केवलज्ञानसे जानकर एक प्रश्नके उत्तरसें कहा था कि आजसे बारह वर्षके अन्तमें मदिरा ओर द्वीपायन मुनिके योगसे द्वारकादाह होगा ओर वह कार्य भी उनकी भमविष्यवाणीके अनुसार हुआ। इस भविष्यवाणीको विफल >पजू3 जैमनन्चमानसासा सर सम बाई प्रयत्न उठा नहीं मन्चा था । परन्त ज्तदी: करनेके लिए बादवोंन छाइ ग्रवन्न उठा नह रखा था। परन्तु उनका अविष्यवार्णो लफल हाकर हो रहा। तोसग उदाहरण व क्षीकृण्णकत रु. नम रा उअब््लगाकी उस मगवान नमिना» न्प्ा सका उपस्थित करते है। श्षाक्षण्णका सत्य सरत्ीन सोमनाश्रत ज़र्न्कुमारके वागके बागसे चनलाइ थी। जरत्कुमास्न उस | | हि, 5| चहल दालना चाहा । इस कारण वह धरद्वार छोड़कर जंगल-जंगल भटकता किये! परन्तु अन्तम जा हाना था बह होछर ही रहा | कही भगवानकी भविष्यवाणी व्रिफल हा सकती थो। चौथा उदाहरण व अन्तिस श्रुतकेव्ली भद्रवाहुका उपस्थित करते है । जब भव्रवाहु ब्रालक थ तब वे अपने दूसरे साथियोंक्र साथ जिस समय गसालियोंस खेल रहे थ उसी समय विशिष्ट निर्मित्तज्ञानी एक आचाय वहाँसे निकल। उत्होंन देखा कवि चालक भद्रवाहुने आपसे बुद्धिकाशलसे एकके ऊपर प्सक इस प्रकार चोदह गालियां चद्ाकर अपने साथो लव वालकोंका आश्र्यचक्रित कर दिया है। बह देस्चकर आचार्यन अपने निर्मिचक्षानसे जानकर यह भविष्यवाणी को कि वह चालक ग्याग्ह अंग और चौोंदह )५ $ टय जो 3 | | ४ 4ध| जे कै _। ह॥ | ल्टे ५ पृवका पाठी अन्तिस श्रुतकेचली होगा और उनकी वह भविष्य- बागी सफल हुई । पुराणोंनें चक्रवतों भरत ओर चन्द्रशुप्त सम्राटके 4८ बट > इसका फ़्ल हल लिन्बा ह्र्ञ्ा े [+क. आ स्वब्स अंकित हे । बहा उनका फल भी लिया हुआ है। तीखकरके सब है । इसके सिया पुगणोम अगणित प्राणियोके भविष्य दृतास्त संकलित हैं जिनमें चतलाया गया है छि कौन कब प्चडम ड्काक्षत है जिनसे चतलाया गया हू कि कान कब ह््या. परयोच धारण कर कहां कहां उत्पन्न हागा. यह सच क्या है? उनका ऋद्टला > कवि सद्धि ५ प्रत्थक्क व्यन्छिका सीवनऋम ० ट /नना हक याद अत्यक्ष व्याक्तका जावनकम मुनाश्चत नहा हा ता निवित्तणात्र, ज्योतिषशात्र या अन्य विशद जझानके आधारल यह सब केस जाना जा सकता है ? चतः भविष्य- ऋमनियमितपर्यायमी मांसा १५१ सम्बन्धी घटनाओंके होनेके पहले ही वे जान ली जाती है. ऐसा शात्रोंमें उल्लेख है ओर चतमानमें भी ऐसे बेज्ञानिक उपकरण यथा अन्य साधन उपलब्ध हैं जिनके आधारसे अंशतः या परी तरहसे भविष्यत्सम्बन्धी कुछ घटनाओंका ज्ञान किया जा सकता है और किया जाता है। इससे स्पष्ट विदित होता हैं कि जिस द्रव्यका परिणमन जिसरूपमें जिन हेतओंसे जब हांना निश्चित है. वह उसी कऋ्रमसे हांता है। उसमें अन्य कोई परिवतेन नहीं कर सकता | क्रिन्तु इसके विपरीत दूसरी विचारधारा यह है कि लोकमें स्थूल ओर सूक्ष्म जितने भी काय होते हैं वे सव क्रमनियमित होते हैं. ऐसा कोई एकान्त नहीं है। कई कार्य तो ऐसे होते हैं जो अपने-अपने स्वकालके प्राप्त हाने पर ही होते हे। जैसे शुद्ध द्रव्योंकी प्रति समयकी पयोय अपने-अपने स्व॒कालमें ही होती है, क्योंकि उनके होनेमें कारणभूत अन्य कोई वाह्य निमित्त न होनेसे उनके स्वकालमें होनेमें कोई वाधा नहीं आती। किन्तु संयुक्त द्रव्योंकी सब या कुछ पयोयें बाह्य निमित्तों पर अबलम्पबित है इसलिए वे सब अपने-अपने उपादानके अनुसार एक नियत क्रमको लिये हुए ही होती हैं. ऐसा कोई नियम नहीं हैं, क्‍योंकि वे बाह्य निमित्तोंके विना हो नहीं सकती ओर निमित्त पर हैं, इसलिए जब जैसी साधन सामग्रीका योग मिलता है उसीके अनुसार थे होती हैं ओर इसका कोई नियम नहीं है कि कब कैसी वाह्य सामग्री मिलेगी इसलिए संयुक्त द्रब्योंकी पयोयें सुनिश्चित क्रमसे ही होती हैं ऐसा नहीं कहा जा सकता। ऐसा साननेवालोंके कहनेका अभिप्राय यह है कि संयुक्त द्रव्योंकी सब पर्यायें बाह्य साधनोंपर अवलण्बित होनेके कारण उनमेंसे कुछ पर्यायोंका जो क्रम नियत हे उसके १५२ जैनतत्त्वमो मांसता अनुसार वे होती हैं और बीच-बीचमें कुछ पर्यायें अनियत क्रमसे भी होती हैं। इसकी पुष्टिसं वे लॉोकिक ओर शास्त्रीय दोमों प्रकारके प्रमाण उपस्थित करते हैं। लोकिक प्रमाणोंको उपस्थित करते हुए थे कहते हैं. कि भारतवर्षम॑ छह ऋतओंका हाना सुनिश्चित हे ओर उनका समय भी निश्चित है। साथ ही प्रतिवर्ष अधिकतर ऋतुऐँ समचपर होती भी है । परन्त कभी कभी वाह्य प्रकृतिका ऐसा घिलक्षण प्रकाप होता है जिससे उनका क्रम उलट-पलट हा जाता है। दूसरा उदाहरण ह्रण वे अग्ुवर्मा ओर हाइड्रॉजन वर्मों आदि संहारक अस्त्रोंका उपस्थित करते हैं। उनका कहना है कि इस प्रकारके संहारक अख्रोंका प्रयोग करनेसे दुनियाका जां नियत जीवनक्रम चल रहा हैं वह एक क्षणमें वदलकर घड़ाभारी व्यतिक्रम उपस्थित कर देता है | वतंमानमें जा विज्ञानकी प्रगति दिखलाई पड़ रही है उससे कुछ काल वाद जलके स्थानमें स्थल ओर स्थलके स्थानमें जलरूप बिलत्ञण परिवतन हांता हुआ दिखलाई देना अशक्य नहीं है। मनुष्य उसके वलसे हवा, पानी, अन्तरीज्ष और नक्षत्रलोंक इन सबपर त्रेजय शआप्त करता हुआ चला जा रहा हैं। वाह्य सामग्री क्या कर सकती है इसके नये-नये करतव प्रतिदिन होते हए दिखलाई दे रहे हैं। केवल वे लौकिक उदाहरण उपस्थित करके ही इस विचारथाराका समथन नहीं करते। किन्तु थे इस सम्बन्धमें शास्त्रीय प्रमाण भी उपस्थित करते वे कहते हैं कि यदि सच हच्याकों पयाय क्रमनियत ही हैं तो केवल देव, नारकी, भोग- भूसज मजुष्यन॑तैेयच तथा चरम शरीरी मलुप्योंकी आयकों अनपवत्य कहना कोई मतलब नहीं रखता | जब सब जीवोंका जन्‍म और सरण तथा अन्य कार्यक्रम नियमित है तव किसीकी भी आयुका अपवत्य नहीं कहना चाहिए। यतः शाख्रोमें विप- क्रमनियमितपर्यायमी मांसा १५३- अक्षण, रक्तक्षय, तीत्र बेदना ओर भय आदि कारणोंके उपस्थित होनेपर कर्मभूमिज मनुष्यों और तियचोंकी नियत आयु पूरी हुए पविना भी बीचसें मरण देखा जाता है और यही देखकर शाखर- कारोंने अकालमरणके इन साधनोंका निर्देश भी किया हे अतः सब पयायें क्रम नियमित ही हैं ऐसा नहीं कहा जा सकता | अपने इस पक्षके समथनमें वे उदीरणा, संक्रमण, 'उत्कर्पण ओर अपकर्पणकों भी उपस्थित करते हैं। उदीरणाका अथ ही कर्मका नियत समयसे पहले फल देना है। लोकमें आम पाक दो प्रकारसे होता है । कोई आम बृक्षमें लगे लगे ही -नियत समय पर पकता है ओर किसी आमको पकनेसे पहले ही तोड़कर घकाया जाता है । कर्मोके उदय ओर उदीरणामें सी यही अन्तर है। उदय स्थितिके अनुसार नियत समयपर होता है ओर उदीरणा समसयसे पहले हो जाती है । उत्कर्पण और अपकर्पणका भी यही हाल है | इतना अवश्य है कि उत्कर्पणमें नियत समयमें वृद्धि जाती है ओर अपकर्पणमें नियत समयकों घटा दिया जाता है। “संक्रमणमें नियत समयके घटाने-वढ़ानेकी वात तो नहां होती पर डसमें संक्रमित होनेबाले कर्मका स्वभाव ही बदल जाता हैं। इसलिए द्रव्योंकी सव पयीयें क्रमनियत हैं. ऐसा नहीं कहा जा सकता | वे लोग अपने पक्षके समर्थनर्में यह भी कहते हैँ कि यदि ऐसा माना जाय कि जिस द्रव्यकी जो पयोय जिस समय होनी है बह उसी समय होती है। अर्थात जिसे जब नरक जाना है उस समय वह नरक जायगा द्वी। जिसे जब स्वर्ग मिलना है उस समय बह मिलेगा ही ओर जिसे जब मोक्ष जाना है. तब चह जायगा ही तो फिर सदाचार, त्रत, नियम, संयम ओर पूजा श्ण्ड जनतत्त्वमोमां पा पाठका उपदेश क्‍यों दिया जाता है ओर क्यों इन सवका आचरण करना श्रेष.्ठ माना जाता है? उनके कहनेका तात्पय यह है कि जब सब शुभाशुभ कार्य नियत समय पर ही होते हैं. तब वे अपना समय आने पर होंगे ही, उनके लिए अलगसे प्रयत्त करना था उपदेश देना निष्फल है । किन्तु सर्वथा ऐसा नहीं हैं, क्योंकि लोकमें प्रयत्त और उपदेश आदिकी सफलता देखी जाती हूँ, अतः यह सिद्ध होता है. कि जब जेंसी साधन सामग्री मिलती है तव उसके अनुसार ही कार्य होता है। कब क्या साधन सामग्री मिलेगी ओर तदनुसार कब क्‍या कार्य हागा इसका न तो कोई क्रम ही निश्चित किया जा सकता हैं. ओर न समय ही। शास्त्रोंमे नियतिबादकों जो मिथ्या कहां गया उप्तका यही कारण है। ये दो प्रकारकी विचारधाराएँ है जो अनादि कालसे लोकमें प्रचलित है । किन्तु इनमेंसे कोन विचारधारा यदि ठीक हैं तो कहा तक ठोक है ओआर यदि ठीक नहीं है ता क्यो ठोक नहा हूँ इसका विस्तारके साथ आगम प्रमाणके आधारसे प्रकृतमें विचार करते हैं। हस पहले “'निमित्त-इपादालसीसांसा” नामक प्रकरणमें सिद्ध कर आये हैं कि प्रत्येक कार्य अपने उपादानके अनुसार ही होता है ओर जब जो कार्य होता हैं उसके अनुकूल निमित्त मिलते ही हैं। यद्यपि जो कार्य पुरुष प्रयत्न सापेक्ष होते हैं उनमें वे मिलाये जाते हैं. ऐसा उपचारसे कहा जाता है. पर यह कोइ एकान्त नहीं है कि प्रयत्न करनेपर निमित्त मिलते ही हैं! उदाहरणार्थ कई वालक स्कूल पढ़नेके लिये जाते हैं और उन्हें अध्यापक सनायोग पूर्वक पढ़ाता भी हैँ। पढ़नेमें पुर्तक आदि: जो अन्य साथन सामग्री निमित्त होतो भी उन्हें सुलभ ऋमनियमितपर्यायमीमांसा श्ष्प्‌ रहती है । फिर भी अपने पृ्व संस्कारवश कई बालक पढ़नेमें तेज निकलते हैं कई मध्यम होते हैं, कई मदठ होते हैं और कई नियमित रूपसे, स्कूल जाकर भी पढ़नेसें समर्थ नहीं होते। इसका कारण क्या है ? जिस वाह्य साधन सामग्रीकों लोकमें कार्योत्यादक कहा जाता हे वह सवको सुलभ है ओर वे पढ़नेमें परिश्रम भी करते हैं। फिर वे एक समान क्‍यों नहीं पढ़ते । यह कहना कि सबका ज्ञानावरण कर्मका क्षयोपशम एक-सा नहीं होता, इसलिये सच एक ससान पढ़नेसें समर्थ नहीं होते ठीक प्रतीत नहीं होता क्योंकि उसमें भी तो वहीं प्रश्न होता हैं कि जब सबको एक समान वाह्मय सामग्री सुलभ है तव सवका एक समान क्षयोपशम क्यों नहीं होता ? जो लोग वाह्म सामग्रीको कार्योत्पादक मानते हैं उनको अन्तमें इस प्रश्नका ठीक उत्तर प्राप्त करनके लिये योग्यता पर ही आना पड़ता हैं। तब यही मानना पड़ता हे कि जब योग्यताका पुरुपार्थे द्वारा कार्यरूप परिणत होनेका स्वकाल आता हैं तव उसमें निमित्त होनेवाली बाह्य साधन सामग्री भी मिल जाती है। कहीं वह साधन सामग्री अनायास मिलती है ओर कहीं वह प्रयस्नसापेज्ष सिलती हे। पर वह मिलती अवश्य हँ। जहाँ प्रयत्नसापेक्ष मिलती हे वहाँ उसके निमित्तसे होनेवाले उस कार्यसें प्रयत्तनकी मुख्यता कही जाती हे और जहाँ बिना प्रयत्नके मिलती हैं वहां देवकी मुख्यता कही जाती हैं | उपादानकी इृष्टिसे कार्योत्यादनक्षम योग्यताका स्वकाल दोनों जगह अलुस्थूत है यह निश्चित है । शाख्रोंमें अभव्य द्रव्य मुनियोक्रे वहुतसे उदाहरण आते हैं वे चरणानुयोगमें द्रव्य संयमके पालनेकी जो विधि वतलाई उसके अनुसार आचरण करते हुए भी भावसंयमके पात्र क्‍यों | 5 श्ला प्‌ गिर क्रमनियमितपर्यायमीमांसा 2१५७- क्यों उपस्थित नहीं किया ? इसका जो समाधान किया गया है उसका भाव यह है कि काललब्धिके बिना देवेन्द्र गशधरकों उपस्थित करनेमें अससर्थ था। इससे भी कार्योत्पत्तिमें उपादान- गत योग्यताका सर्वोपरि स्थान है इसका ज्ञान हा जाता है ।, जयघवलाका वह सन्दर्भ इस प्रकार है-- . दिव्बज्कुणीए किमट्डं तत्थापउत्तों ? गशिंदाभावादों | सोहम्मिदेश तक्खणे चेव गशिंदो किएण टोइदो ? ण॒, काललद्धीए विणा असहेजस्स देविंदस्स तड़ोयणसत्तीए अभावादों | वह योग्यता किसी उपादानमें होती हो ओर किसी उपादानमें नहीं होती हो ऐसा नहीं है । किन्तु ऐसा है कि प्रत्येक समयके अलग-अलग जितने उपादान हैं उतनी योग्यताएँ भी हैं, क्‍योंकि इनके विना एक कार्यके उपादानसे दूसरे कार्यके उपादानमें भेद करना सम्भव नहीं है। यतः एक उपादानका कार्य दूसरे उपादानके कार्यसे भिन्‍न होता है, अतः कार्यमेदके अनुसार उपादान भेदकी नियामक उसकी स्व॒तन्त्र योग्यता माननी ही पड़ती है। इसके समर्थनमें हम पिछले प्रकरणोंमें प्रमाण दे ही आये हैं और आगे भी विचार करनेवाले हैं। | यहां पर यह्‌ प्रश्न किया जा सकता है कि जिन शाख्रोंके आधारसे आप योग्यताका समर्थन करते हो उन्हीं शाखोंमें ऐसा कथन भी तो उपलब्ध होता है कि निमित्त होनेसे कार्य नहीं हुआ । उदाहरणार्थ सिद्ध जीव लोकान्तसे उपर क्यों गमन नहीं करते यह प्रश्न उपस्थित होने पर आचार कुन्दकुन्दने नियमसार- में यह उत्तर दिया है कि लोकके बाहर धमोस्तिकाय न होनेसे वे' लोकान्तसे ऊपर अलोकाकाशमें गमन नहीं करते। आचार्य गृद्धपिच्छने भी तत्वाथसूत्रमें 'धर्मास्तिकायामाबात्‌” कद जे क्वलाना (० का हिहूट | रू प्र |; द् > १ ४» जञ्पफज्िकियाँ [4 ..ह0#.5 नव्यय नक्रिय अतय $१४४६३४- ध्यन्-+ज # यू द्र्द्न्ल गतिक्रिलों क्र &+ 3 इ३ ८. फू न्न् धह्लामात हवा ता 2£. (सात 2 रन पुद़ल दर 425] अरकनमंभ ््दााखं नर य््र हट ः 5 लक हि न्प्ट्ट 5 धक्ि हंती कल >> गलितर्सि लिया न हकद्ध 3० गो कह रे न्ल्ट्रा ना >+०८ /््ड + टू शक अटल शत “2 - ८ हि तन दर खक्न 3 > अपनी मे खह्र स््क स्द के हक ध््दुससोा झट लि अनन्त लि इब4श +* हि ै स्तन * कै हु 5 कक रे रद रे हे हुब्यत4 2 | चलता क लविल दार्ती £ै. न का अडद्ादा ऋपनक दिन द्वानन द्घन्न ६७ याद £ हक आलम बह, पु न्न्दृ डलग्न्विल्िय स्न्ा+ ४ का »> 2 वाम्दत न्देः पा ;- झऊइशध्च्ं +£ 4 प्र द्रक्चड। २ तआग्लद ऊा5 मी | हक छ्र दर सेव _ एक 9] हे जल ँ ; ल्‍ १५ श्ठ ) उूर अत £ व5 5 न्दा चइक्तर द्वलक दर द्वा आट्चादय -४किं ह् गा >> द्् हे दर हि द्धिदया का 5 सता वहा दर > ः हु ॥ ही उद्रपनन 5४ सु उ 5 |. द्रदात दात न्ज्ल्टा छः गुग्युस्थान सड जज 52 झशउन्थानस (चर न नल ख्चटडटर न्ड्डय्ट रू डुचदर ब्८र5 भर छू प्स्ट्र्ट दाम नत्ल्‌ है ..>+ै तन 5 श्स््टःः ग्बन्दासः पृद्धन्क चा ४ ०] इसका व्यय £>च्झन्यली न लता £ जया >-5 स्ध्वदे नल कि ल्ल्ल श्प कट जप $घव ६ ३ २० दिन क्ध््वः ब्ट्न्णा ब्बच्चे झनद्रत+ न प्र है! ४ 2८ < डाश्यद्र नल कद टपटओ > 5 2८“ हक मे हे ५५ ४] है | ०१ 4६455 £ है ्ड्ट्राजटगा 33) 4 ख््द क्षमितोका ई न्थ कीि+०५० कान 5० हु प््ल जज [] रे झख्ीपि, जद नल उनानात न्त्तु न नह स्प्द्न. ्मनिक्रियार्स | श् 2 5* ६४१६४: 5 ) रा. श्र, च्त स्व ' 37३ क्ष्त र का दू ४5 8 । *. ्शच्छी नली ६५८०7“ * श्र घ्रक्ार ०.4 2. इद्दर [867१ परत । त्् हग्त ््ड् ू 2272६. न >$ हु. ी ४५ । 430 मेक । सिद्मसतीर ++ ४ 5<44 स्ल्छोॉः स्खाल्च्ट उन्द्ण के 547. टन *ब5 ५४६5*. मन | ६7#"*_ क्रमनियमितपर्यायमीमांसा १५९ दिया गया है. दूसरा कारण यह अतात हता है. इसके पहले आचार्य कुन्दकुन्द उसी नियमसारम शुद्ध द्रव्योंकी पयायोंका परनिरपेक्ष वतला आये हैं| इसलिये यदि कोइ उक्त कथनका यह अर्थ करे कि शुद्ध द्रब्योंकी जो भी पर्याय हांता या गतिक्रिया होती है उनमें धमोदिक द्रव्य भी निर्मित नहीं होते यह पयायोंको परनिरपेज्ञ कहनेका तात्पय है ता उसका उक्ते कथनसे ऐसा तात्पये निकालना ठीक नहीं है, इसलिये यहावर उपादान कारणकी इष्टिसे उत्तर न देकर निर्मित्तकां मुख्यतास उत्तर दिया गया है। अतः नियमसार ओर तत्त्वाथसत्रक उर्फ कथनके आधारसे यह फलित करना उचित नहीं है कि उपादान कारणका सद्भाव होने पर भी यदि निमित्त न हो तो काय न हा । कारण कि विंवज्षित डपादानके कार्यरूपसे परिणत होनेके साथ विवक्षित निमित्तकी समव्याप्ति है। फिर भी कार्यात्पात्तिम मुख्यता उपादानकी हो हैं, - क्योंकि वह स्वयं कारयरूप परिणत होता हैं.। नि उसे यत्किचित्‌ भी अपता अंश प्रदान नहीं करता । निमित्तकी निमित्तता इसी अर्थमें चरितारथ है, वह. कीथयका उत्पादक है इस अथर्में नहां। निमित्तमें कार्योत्पादक गुणका आरोप कर कथन करना अन्य बात हे । यहाँपर इस विपयको रुपष्ट करनेके लिए. जो हमने तक दिये के वे क्‍यों ठीक है. इसे विशदरूपसे सममनेके लिए पद्चास्ति- कायकी ८हवीं गाथा और उसका टीका ज्ञातव्य है। गाथा इस प्रकार है विजदि जेसि गमण ठाशु पण॒ तेसिमेव समवाद | ते सगपरिणामाह गमण्‌ ठाणु च कव्चीत ॥८६॥ जिनकी गति होती है. उनकी पुनः स्थिति होती है ( और १६० उनतत्त्वमीमांसा जिनकी स्थिति होती है उनकी बथासम्भव पुनः गति हाती है ), इसलिए वे गति ओर स्थिति करनेवाले पदार्थ अपने परिणामोंसे ही गति और स्थिति करते हैं ॥८९॥ इसकी टीका करते हुए आचार्त्र अम्रतचन्द्र लिखते हैं-- धर्माधर्मबोरीदासीन्ये देलुपत्यासोईयम । धर्म! किल न जीव- पुदूगलानां कदाचिद्‌ गतिद्वेतुत्ममम्वसति, न कदाचित्‌ स्थितिदेतुत्व- मधर्मः । तो हि परेपां गति-स्थित्योयंदि मुस्यदत्‌ स्थातां तदा येषां गति- स्तेपां गतिरेव न स्थितिः, येपां स्थितिस्तेपां स्थितिरेव न गतिः॥ तत एकेपामपि गति-स्थितिद्शनादनुमीयते न ती तथोमुख्यदेतू । किस्सु व्यवहास्नयव्यवस्थापितों उदासीनों | कथमेवं गति-स्थितिमतां पदार्थानां गति-स्थिती भवत इति चेत्‌ , सर्व हि. गति-स्थितिमन्तः पदार्थाः स्वपरि णुमरेव निश्चयेन गति-स्थिती ऋुर्वन्तीति ॥८६॥ धर्म और अधर्म द्रव्यकी उदासीनताके सम्बन्ध हेतु कहा गया है. । वास्तवमें ( निश्चयसे ) धर्मद्रव्य कभी भी जीवों आर पुठुलोंकी गतिमें हेतु नहीं हाता और अधथर्म द्रव्य कभी भी उनकी स्थितिमें हेतु नहीं होता। चरदि वे दूसरोंक्ी गति और स्थितिके मुख्य हेतु हो ता जिनकी गति हो उनकी गति ही रहनी चाहिए, स्थिति नहीं होनी चाहिए और जिनकी स्थिति हो उनकी स्थिति ही रहनी चाहिए, गति नहीं होनी चाहिए | किन्त अकेले एक पदाथंकी भी गति ओर स्थिति देखी जाती हैं इसलिए अनमान होता हैँ कि वे ( थर्म और अधर्म द्रव्य ) गति और स्थितिके सुख्य हेतु नहीं हैं। किन्तु व्यवहास्नयसे स्थापित उदासीन ह्तु ह । शक्ता-न्यदि एसा हैं तो गति और स्थितिवाले पदार्थोक्ती गति ओर स्थिति किस प्रकार होती हैं ? क्रमनियमितपर्यायमोमांसा १६१ समाधान--बास्तवमें गति ओर स्थिति करनेवाले पदाथ अपने-अपने परिणासोंसे ही निश्चयसे गति ओर स्थिति करते हैं । यह पश्चास्तिकाय और उसकी टीकाका वक्तव्य है । इसके सन्दर्ससं नियमसार ओर तत्त्वाथंसत्रफे उक्त कथनकों पढ़ने पर ज्ञात हांता है कि उन ( नियमसार ओर तत्त्वाथसूत्र आदि ) अन्धोंमें जो यह कहा गया हैं. कि सिद्ध जीव लोकान्तसे ऊपर धमास्तिकाय न होनेसे गमन नहीं करते सो यह व्यवहारनय ( उपचारनय ) का ही वक्तव्य है जा केवल वहाँतक निमित्तताके दिखलानके लिए किया गया ह। मुख्य हेतु तो अपना-अपना उपादान ही हैँ । मुख्य हेतु कहो, निश्चय हेतु कहो था उपादान हेतु कहा एक ही तात्पर्य हैं। स्पष्ट हे कि जिस कालमें उपादान की जितने ज्षेत्र तक़ गसन करनेकी या जिस क्षेत्रसें स्थित होनेकी योग्यता होती हैं उस कालमें वह पदार्थ उतने ही क्षेत्र तक गसन करता है ओर उस न्षेत्नमें स्थित हाता हैं। यह परमाथ सत्य हैं। परन्तु जब वह गमन करता हैँ था स्थित होता हैं. तब धमम द्रव्य गमनमें ओर अधर्म द्रव्य स्थित होनेमें उपचरित हेतु होता हें, इसलिए प्रयोजन विशेषवश यह भी कह दिया जाता है कि सिद्ध जाब लांकान्तके ऊपर धमास्तिकाय न हानेसे गमन नहा करत | यद्यपि इस कथनमें उपचरित हेतुकी मुख्यतासे कथन किया गया है। पर इस परसे यह फलित करना उचित नहीं है कि उस कालसे उपादानकी योग्यता तो आगे भी जानेकी थी पर उपचरिंत हतु न होनेसे सिद्ध जीवोंका ओर ऊपर गसन नहीं हुआ, क्योंकि उससे ऐसा अथ फलित करनेपर जो अथे विपयास होता हैं उसका वारण नहीं किया जा सकता । अतणव़ परसार्थरूपमें यही मानना उचित हे कि वस्तुतः काय तो प्रत्येक समयमें अपने उपादानके अनुसार ही होता हँ। किन्तु जब कार्य होता हैं तब अन्य द्रव्य स्वयमेव २१ र १६२ जैनतत्वमोमांसा उसमें उपचरित हते होना है] किसा कायका मुख्य हतु हे आर. इपचरित हल ने हा एस्ता नहीं है । किनत ऊब किस कावका मुख्य हेतु हाता है तय उसका उपचरित देसु होता ही हें ऐसा नियम हैं । सावलिड्कक हानेपर द्ब्यलिक नियमसे हाता है. यह विधि इसी आधारपर फलित होती है। यह हम सानते हे कि शात्रोंम लाकालाकका विभाग उपचरित हेलुके आधारसे बनलाया गया हैं। परनन्‍्त चह व्याख्यान करनका एक घाला हमें यह बाघ हो जाता हें कि गतिसान जीवों आर पुद्नलोंका न्श्चयस लाक्ान्त तक न्च् गमन दाता है. काकक बाहर खभावसे उनका गसन नहीं हाता । इस प्रकार इतने विवेचनस यह सिद्ध हुआ कि प्रत्यक् उपादान अपनी अपनी स्व॒तन्त्र योग्यता संन्पन्‍्त होता है ओर उसके अल्ुसार प्रत्यक्ष कार्यकी उत्पत्ति होती हैं। तथा इससे यह भी सिद्ध हुआ क्रि प्रत्यक्ष समचका उपाद्मान प्रधक्त प्रथक हें इसलिए उनसे ऋमशः जो-जो पयांग्रें उत्पन्त होती हैं. थे अपने- अपने कालमें नियत हैं । वे अपन अपने समयमें ही होती आग-पीछ नहीं होतीं इस वातको स्पष्ट करते हुए अमृतचन्द्र आचाय प्रवचनसार गाथा €€ की दीकामें कहते हैः--- 3) क्येव हि परिच्तीतद्राधिल्नि पलम्प:तऊे सम शिव हू परवद्ात्द्रावाम्न पलम्द॒माने सुचक्ताइलदामिनि समस्लेप्चपि लघानसल्वकानलु दुका हल्पूसरो रे ए धामसत्तरो्तरम नामदबात्‌ कि ते लिततय दुकाइजपए उतर पु घामसतरात्तरमुक्ता फला ना मुदबात्‌ पृथपृवमुक्ताफलानामनव्यनात न अजक मील टी स्तर बतइतछजती हलानासनुदयनात्‌ सवंत्रापि परस्यगनस्वतिसभ्रकस्य सन्रक पर । अलकारय प्रसिस्ि डिसवतरते पस्थानानू दबेलक अद्ाइसबतरते | सथंय हि परसोगद्रीतनित्य- इसिनिवर्तमाने हब्ये समस्तेष्यपि स्वादसरे -. - अऊवतसान दब्य समस्तप्वपि स्वावसन्पचकानत्म परिणशामेप्रसगेच्तरें- श है 353 (5 2५:77 पत्र पास्णमानासद्यनात पर्चपर्च ने *पेससिरपस्णिमानासुदवनात्‌ पि क्रमनिय्रमितपर्यायमीमांसा. | १६३ जिस प्रकार वित्रक्षित लम्बाईकों लिए हुए लटकर्ती हुई ' मसोतीकी सालामें अपने अपने स्थानमें चमकते हुए सभी मोतियोंमें आगे आगगेके स्थानोंमें आगे आगेके मोतियोंके प्रगट होनेसेः अत्ब पूर्व-पू्वके मोतियोंके अस्तंगत होते जानेसे तथा सभी मोतियोंमें अनुत्यूतिके सूचक.एक डोरेके अवस्थित होनेसे उत्पाद- व्यय-श्रोग्यहृप अ्लक्षण्य प्रसिद्धिकों प्राप्त होता है उसी प्रकार स्व्रीक्षत नित्यव्रत्तिसे निवर्तेमान द्रब्यमें अपने अपने कालमें प्रकाशमान होनेवाली सभी परयोयोमें आगे आगेके कालोंमें आगे आगेकी पयायोंक उत्पन्न होनेसे अतण्व पूर्व पूर्व पर्यायोंका व्यय होनेसे तथ। इन समो पयायोंमें अनुस्यूत्तिको लिए हुए एक प्रवाहके अवस्थित होनेसघते उत्पाद, उयय ओर प्रोव्यरूप अ्रलक्षस्य अखसिद्धिको प्राप्त होता है । यह प्रवचनसारकी टीकाका उद्धरण है जो कि प्रत्येक द्रव्यमें उत्पादादि त्रथके समर्थनक्े लिए आया है। इसमें द्रव्यस्थानीय मोतीकी माला है, उत्पाद-व्ययस्थानीय मोती हैं और अन्वय ' ( उध्यतासामान्य) स्थानीय डोरा है। जिस प्रकार मोतीकी मालामें सभी मोती अपने अपने स्थानमें चमक रहे हैं। गणशुनाक्रमसे .. उनसेंसे पोछे-पीछेका एक-एक मोती अतीत होता जाता हैं और आगे आगगेका एक-एक सोती प्रगठ होता जाता है। फिर सी सभी मोतियोंमें डोरा अजुस्यृूत होनेसे उनमें अन्बय बना रहता हैं, । इसलिए तज्ेलक्षण्यकी सिद्धि होती है । उसी प्रकार नित्य परिणाम- स्वभाव एक द्रत्यमें अतीत, वर्तमान, और अनागत सभी पयोयें अपने अपने कालमें प्रकाशित हो रही हैं। अतएव उनसेंसे पर्व पूर्व पर्यायोंक्े क्रसे व्ययक्तों प्राप्त होते जानपर आगे आगेकी पंयोयें उत्पादरूप होती जाती हैं ओर उनमें अनुस्थृतिकों लिए हुए एक अखरड प्रवाह (श्वेता सामान्य) निरन्तर अवस्थित ८९ हि 0॥/ १्द्ड जेनतत्त्वमीमांसा रहता है, इसलिए उत्पाद-5यय-आओव्यरूप त्रेलज्षण्यकों सिद्धि होती है यह उक्त कथनका तात्पये है। इसकों यदि और अधिक स्पपष्टरूपसे देखा जाय तो ज्ञात होता है कि भूतकालमें पदार्थ जो जो पयोयें हुई थीं बे सब द्रव्य रूपसे वर्तमान पदार्थ अवस्थित हैं ओर भविष्यत्‌ कालमें जो जो पर्यायें होगीं वे भी द्रव्यछपसे वत्तमान पदार्थममें अवस्थित हैं । अतएव जिस पर्यायके उत्पादका जो समय होता है उसी समयमें वह पयाय उत्पन्न हाती हे और जिस पयायक व्ययका जां समय होता है उस समय बह विलीन हाजाती है। ऐसी एक भी पयोय नहीं है जो द्रव्यरूपसे वस्तुमं न हो ओर होजाय ओर ऐसी भी कोई पयाय नहीं है जिसका व्यय होनेपर द्रव्यरूपसे बस्तु्ें उसका अस्तित्व ही न हो। इसी वातको स्पष्ट करते हुए आप्तमीमांसामें स्वामी समन्तभद्र कहते है--- यद्यसत्‌ सर्वथा कार्य तन्‍्मा जनि खपुप्पवत्‌ | , मोपादाननियामी भून्माश्वासः कार्यजन्मनि ॥४२॥ यदि कार्य सबंधा असन्‌ है । अथात्‌ जिस प्रकार वह पर्याय- रूपसे असत्‌ है. उसी प्रकार चह द्रव्यरूपसे भी असत्‌ है तो जिस प्रकार आकाशकुसमकी उत्पत्ति नहीं होती डसी प्रकार कार्यकी भी उत्पत्ति मत होओ तथा उपादानका नियम भी न रहे ओर कायके पेदा होनेमें समाश्वास भी न होवे ॥४०॥ ु इसी वावकों आचाय विद्यानन्दने उक्त श्लोकफकी टीकामें इस शब्दोंमें स्वीकार किया है :-- कथ।अझित्सत एय सस्थतत्वांतन्नत्व घबच्नाहद्विनाशबबवनवत्‌ ॥ जैसे कथंचित्‌ सतका ही विनाश घटित होता है उसी प्रकार - : कथंचित्‌ सतका ही धोव्य ओर उत्पाद घटित होता है । क्रमनियमितपर्थायमी मांसा १६५ प्रध्यंसाभावक्के समर्थनक्े प्रसंगसे इसी बातकों और भी स्पष्ट ऋरते हुए आचार्य विद्यानन्द अप्रसहस्री प्रष्ट ४३ में कहते हैं-- स॒ हि द्रव्यस्थ वा स्वाययावस्य वा ? न ताइद्‌ द्रव्यस्य, नित्यत्वात्‌ | नापि परयायत्य, द्रव्बन्पेण श्रोव्यात्‌ ! तथाहि-विवादापतन्न मण्यादों मलाद प्रयायाथतया नश्वरमात्र द्रच्याथतया अवम. सच््चानयथानुपपत्त | चह अत्यन्त विनाश द्रव्यका होता है या पयोयका ? द्रव्यका तो हो नहीं सकता, क्योंकि वह नित्य हैं। पर्योयका भी नहीं हो सकता, क्योंकि वह द्रव्यरूपसे ओव्य हैं। यथा--विवादास्पद्‌ मणि आदिमें मज्न आदि पयायरूपसे नश्वर होकर भी द्रत्यरूपसे श्रुव है, अन्यथा उसकी सत्त्वरूपसे उत्पत्ति नहीं हो सकती । यहां पर स्वामी ससन्तसद्रने ओर आचार्य विद्यानन्दने प्रत्येक कार्यकी द्रव्यमें जो कथ्ंचित्‌ सता स्वीकार की है सो उसका यही तात्पय हैं कि अत्येक कार्य द्रव्यमें शक्तिरूपसे अवस्थित रहता हैं। यदि बह उसमें शक्तिरूपसे अवस्थित न हो तो उसका उत्पाद ऐसे ही नहीं वेनता जैसे आकाशकुसुमका उत्पाद नहीं बनता। इतना ही नहीं, जो उपादानका नियम हे कि इससे यही कार्य उत्पन्न होता है,उसके बिना यह नियस भी नहीं वन सकता है। तव तो मिट्ठीसे वस्त्रकी ओर जीवसे अजीवकी भी उत्पत्ति हा जानी चाहिए। ओर यदि ऐसा होने लगे तो इससे यही काये होगा ऐसा समाश्रास करना कठिन हो जायगा। अतएब द्रव्यमें शक्ति- रूपसे-जो कारये विद्यमान है वहीं स्वकाल आनेपर कायेरूपसे 'परिणत होता है ऐसा निश्चय करना चाहिये | कारणमें कायकी सत्ताको तो सांख्यदर्शन भी मानता है। किन्तु वह प्रकृतिकों सबेधा नित्य ओर उससें कार्यकी सत्ताकों सर्वथा सत्‌ मानता है। इसलिये उसने कायका उत्पाद और श्द्द्द्‌ जनत्तत््वमीमांसा व्यय स्वीकार न कर उसका आविभाव ओर तिरोभाव माना है। जैनदर्शनका सांख्यदर्शनसे यदि कोई मतभेद है तो बह इसी बातमें हैं कि बह कारणकोा सर्चथा नित्य सानता है जंनदशंन कथंचिन नित्य मानता है । वह कारणमें कायका सबधा सत्व स्वीकार करता है, जेनदर्शन कर्थंचित्‌ सत्त्व स्त्रीकार करता है। बह कार्यका आविभाव-तिरोभाव सानता है, जेनदर्शन कार्यका उत्पाद-व्यय स्वीकार करता है । “कारणमें कार्य स्वथा है नहीं। उसके पर्व उसका सर्वथा प्रागभाव है। यह सत नेयाय्रिकदर्शनका है । किन्तु जेसदर्शन इसके भी विरुद्ध है । वह न तो सर्वधा सांख्यदर्शनका ही अनुसरण करता हैं और न सर्वधा नयायिकदर्शनका ही। ओर यह ठीक भी है, क्योंकि - द्रव्य कथंचिन नित्य उत्पादयय-श्रोव्यस्वसाव प्रतीतिसं आता है | साथ ही उसमें कार्यकी कारणरूपसे सत्ता होनेसे जो जिस कार्यका स्वकाल हाता है उस कालमें उसका जन्म होता हैं | इस विपयके पोपक अन्य उदाहरणोंकी वात छोड़कर यदि द्दम कार्मणवर्गगाओंके कर्मरूपसे परिणमनकी जो प्रक्रिया है ओर कमरूप हानेके बाद उसको जो विविध अचस्थाएँ होती हैं उनपर ध्यान दें तो प्रत्येक कार्य स्वकालमें होता है यह तत्त्व अनायास समभमें आ जाता हैं । साधारण नियम यह है कि प्रास्मभके गुणस्थानोंमं आयुवन्धके समय आठ कर्मोका ओर अन्य कालमें सात कमेका प्रति समय वन्ध होता हैं। यहाँ विचार यह करना है कि कम्ंचन्ध होनेके पहले सच कार्मणवर्गणाएँ एक प्रकारकी होती हैं या सब कर्मोक्री अलग-अलग वर्गणाएँ होती हैं ? साथ ही यह भी देखना हैं कि कार्मणवर्गणाएँ ही कमंरूप क्या परिखुत हांती है ? अन्य वर्गंणाएँ निमित्तोंके द्वारा . क्रमनियमितपर्यायमी मांसा १६७ कर्मरूप परिणत क्‍यों नहीं हो जातीं? यद्यपि ये प्रश्न थोड़े जटिल तो प्रतीत होते हैं. परन्तु शास्त्रीय व्यवस्थाओं पर ध्यान देनेसे इनका समाधान हो जाता है। शास्त्रोंमें बतलाया हैं कि योगके निमित्तसे प्रकृतिबन्ध ओर प्रदेशवन्ध होता है । अब थोड़ा इस कथनपर विचार कीजिए कि क्‍या योग सासान्यसे कार्मशवर्गणाओंके ग्रहणमें निमित्त होकर ज्ञानावरणादिरूपसे उनके विभागमें भी निमित्त होता हे या ज्ञानावरणादिरूपसे जो कर्मवर्गणाएँ पहलेसे अवस्थित हैं उनके श्रहण करनेमें निमित्त होता है ? इनमेंसे पहली वात तो मान्य हो नहीं सकती, क्योंकि कर्मबर्गशाओंमें ज्ञानावरणादिरूप स्वभावके पेदा करनेसें योगकी निमित्तता नहीं है | जो जिस रूपमें हैं उनका उसी रूपसें ग्रहण हो इसमें योगकी निमित्तता है। अब देखना यह है कि क्‍या वन्ध होनेके पहले ही कर्मबर्गणाएँ ज्ञानावरणादिरूपसे अवस्थित रहती ' हैं १ यद्यपि पूर्वोक्त कथनसे इस प्रश्लवका समाधान हो जाता है, क्योंकि योग जब ज्ञानावरणादिरूप ग्रकृतिभेद्स निमित्त नहीं होता : किन्तु ज्ञानावरणादिरूप प्रकृतिवन्धर्में निमित्त होता है तब अथात्त्‌ यह वात आ जाती है क्रि प्रत्येक कमंकी कार्मणवर्गणाएँ ही अलग-अलग होती हैं। फिर भी इस वातके समथनसें हम आगस प्रमाण उपस्थित कर देना आवश्यक मानते हैं | वर्गणाखंड वनन्‍्धन अनुयोगद्वार चूलिकासें कार्मण द्रव्यवर्गण। किसे कहते हैं. इसकी व्याख्या करनेके लिए एक सूत्र आया है। उसकी व्याख्या केरते हुए बीरसेन आचाये कहते है ;-- : णाणावरणीयस्स जाणि पाओग्गाणि दव्याणि ताणि चेव मिच्छुत्तादि- पत्चएहि पंचणाणावरणीयसरूवेण परिणमंति ण॒ अण्णेसि सरूवेण | कुदो ). अ्रययाश्रोग्गतादों | एवं सब्वेसि कम्माणं बत्तव्ं, अण्णहा १६८ जनतत्त्वमीमांसा गागणु वरणीयस्स जाणि दव्वाणि ताशि ब्रत्तण मिललट्नत्तादिपज्वाग॒द्दि शाणावस्णीयत्ताए परिणामद्ण जीवा परिणमंति ज्ञि मुत्ताणुवत्तांदा | जदि एवं तो कम्मइ्यबर्गणाओ अर््टेब त्ति किए्ण परूविदाओं ? गण, अंतराभावेणु तथोबदेसामावादो | इसका तात्पय है कि ज्ञानावरणीयके योग्य जा द्रव्य है वे ही मिथ्यात्व आदि प्रत्ययोंफे कारण पाँच ज्ञानावरणीयरूपसे - परिणमन करते हैं, अन्य रूपसे वे परिशमन नहीं करते, क्योंकि वे अन्य कर्मरूप परिणमन करनेके अयोग्य होते हैं। इसी प्रकार सब कमकि विपयमें व्याव्यान करता चाहिए। अन्यथा ज्ञाना- चरणीयके जो द्रव्य है उन्हें अहण कर मिथ्यात्व आदि प्रत्ययवश ज्ञानावरणीयरूपसे परिणमा कर जीव परिणुमन करते हैँ. यह सूत्र नहीं वन सकता है । शंका :--यदि ऐसा हैं तो कार्मण वर्गणाएँ आठ हैं. ऐसा कथन क्‍यों नहीं किया हैं. ? समाधान :--नहीं, क्योंकि आठों कमंचगंणाओंम अन्तरका अभाव होनेसे उस प्रकारका उपदेश नहीं पाया जाता। यह पटसखंडागमके उक्त सूत्नके कथनका सार हैं जो अपने स्पष्ठ होकर उपादानकी विशेषताकों ही सचित करता ह। झानावरण आदि कर्मोक्रे अवान्तर भेदोंका उसीके अवान्तर भेदोंमें ही संक्रमण होता है यह जो कमंसिद्धान्तका नियम है उससे भी उक्त कथनकी पुष्टि होती है। यहाँ यह शंका होती हैं. कि यदि यह थात है. तो दर्शनमोहनीय ओर चारित्रमोहनीयका परस्पर तथा चार आयुओंका परस्पर संक्रमण क्यों नहीं होता ? परन्तु शंका इसलिए उपयुक्त नहीं हैं, क्‍योंकि अन्य ऋरमोके समान इन कर्मीकों वगेणाएँ सी अकृग-अलग होनी चाहिए, इसलिए उनका परस्पर सक्रसण नहीं होता । ऋषमनियमितपर्यायमी मांसा १६९ उपादानकी विशेषताकोी समभनेक्रे लिए यह बात और ध्यान देने याग्य है. कि प्रति समय जितना विखसोपचय होता है जो कि सबंदा आत्मप्रदेशोंके साथ एकच्षेत्रावगाही रहता है बह सबका सब एक साथ कमरूप परिणत नहीं होता। ऐसी अवस्थामें यह विखसापचय इस समय कर्मरूप परिणत हो और यह्‌ कर्मरूप परिणत न हो यह विभाग कौन करता है ? योग द्वारा तो यह विभाग हो नहीं सकता, क्योंकि विश्नसोपचयके ऐसे विभागमें निमित्त हाना उसका कार्य नहीं है। जो विश्लसोपचय उस समय कमपयोयरूपसे परिणत होनेयाले हों उनके वन्धरमें निमित्त होना मात्र इतना योगका काय है। इस प्रकार कमेशास्त्रमें बनन्‍्ध संक्रमण ओर विश्रसोपचयके सम्बन्धमें स्वीक/र की गई इन व्यचस्थाओं पर इृष्टिपांत करनेसे यही विदित होता है. कि कायमें उपादानकी योग्यता ही नियामक हैं ओर जब उपादानके कायरूप होनका स्वकाल आता है तभी वह अन्य द्वव्यको निमित्त कर कार्यरूप परिणत हाता है | कर्म साहित्यमें बद्ध कर्मकी जो उद्दीरणा, उत्कर्पण और अपकपण आदि अवस्थाएँ बतलाई है. उनपर सृक्ष्मतासें ध्यान देने पर भी उक्त व्यवस्था ही फलित होती है । उद्दयकालका ग्राप्त हुए पूरे निपेकका अभाव हो जाता हैं यह ठीक हैं । परन्तु उदीरणा उस्कर्पण और अपकर्पणमें ऐसा न हाकर प्रति समय कुछ परसाणुओंकी विवक्षित निपेकमेंसे उद्दीरणा होती है, कुछका उत्कर्पण हाता है, कुछका अपकर्षण होता हैं ओर कुछका संक्रमण होता है । तथा उसी निपेकममें कुछ परमाणु ऐसे भी होते हैं. जो उपशमरूप रहते हैं, कुछ निधत्तिरूप ओर कुछ निकायचितरूप भी रहते हैं। सो क्यों ? निपेक एक हैं। उसमें ये सव परमाणु अचस्थित है । फिर उनका प्रत्येक समयमें यह विभाग कोन करता 553० ऊउनसन्द्सामास हे न अमर: नकल ने इ्द्ीग्गारूप हाओआा ब् शा लत इस्कागारूप हू कि इस सनय तुस उदारथास्य हाथ पर तुम उसत्कापरुस: के हाआ नमी 2 32232 24% डे नेट लत हि प्रति ऊन चाय पका ऊ हाआ आदि । बह बात नो नाटठ दे कि प्रति समय इस प्रकान जा बलमनियकाका इदीनगम आदि दपस चदमाग अं पइसल अं मु ऋझगानपकाक्ना उदार आडइल्पस बदनकास हक्ता हसडाया ॥ +- २-५ लत न >प-3+ ० ० कन्क कणक पं डडफटजर 2 लसनपनने का गाम इससे प्रति समयक जावक सस्लशात्प था पविशादेखवम परम > «० हल >> कक मु] £ सिमित्त हान क चमससे सन्द्रद्र सत्रीं। परनन यह आपस हम्त-पराद सीनच हात हू इ्लम ऋनन्‍दढ्न सद्रा। परसन्त चंद आपस ऋअस्त-वाड 7 $ “+' ३ सहीं। ऋनण्व निःक्रपरूपमने “का लक कम न कम पल रन सहा। अतएज नपक्राल्पन बहा फॉकत हाता हू क्र जब्स अल >म अपील हे पल सिइ- अफओि. आपजिनान आदत सनय जैन केसपरनान्तुछाक्ा जिस रूपन इधातका भर ब्यता हाती है थे कर्म कर्मपरमाग उस समय हार जीवके परिणामों ु हाता हें थे कसपरनाओु उस ऊनसय हुए जाबक पान्मासाका निर्मिक्त पिन ज न व एड अर विस 424 ब्रह5 चाॉनतत करक उसकरूप स्वर्च परिणन जान दे ! ऋमनसाहित्यसें 4७ न प्ले लिए व एकमात्र यह नियम कललसाह्त्यन अपकपणक किए ता एकमात्र यह सलिबन दे कि धवयावलिक प्् -॥ प्रीतर स्थित कमपरसारओंका 5० लत ज अक कक तप घड़ई दर 5 ज॑वीवीज्ञक भातर स्थित कमपरसासुआका अपकेपण नहा हाता | ज्ञा बज र्मागा अयाचलिक बाहर अचुमस्थित हल इसका दादा । ऊ किसपस्सास्तु अयायत्तिक बाहर अवन्यिते हूं इनक |) > हा | अपकपण हा सकता हँ। परन्तु उत्कर्मण उद्यावलिके बाहर स्थित सनी कर्मंपरमारुओंका हो सकता हो ऐसा नहीं है। उत्कर्पण हानेके लिए नियम बहुत हैं और अपवाद मी बहुत हैं। परन्तु संत्षेप में एक चही नियम किया जा सकता ह कि दिन परमाणुओंकी डत्केपणसुक्र याग्य शस्हिस्थिति क्षय ह्दू आर च्च च्त्क्पणके याग्य स्थानमें +- £- 5: ५० कि य ३ ६ निम्र स्थित है उन्दाका उत्क पं हा सकता हें अन्यका नहीं। अछि डा बज रू डाले ऋअाइच डले॑स चयम घत्ला <- ल्‍ा वीद हेस इस नियनाऊझा ध्यानसे कुकर व्रिचार करें ना नी यही घान फलित हानो है 5. | ऋमभपणमाण हे पाते शिलत दता ह छि ज्ञा कमपर्माणु अत्कयणक याग्य उच्क न श हि का, आल ४ हे | चग्चता सन्यन्न है थे हो ज्यीब परिणासोका जल मिमिक्त करके स्क्घि नीम सन्यज्ञ द व हा काब परेगा्का निमिच्त करके सस्कृपित हाद न्ट> पु 5 हट की + की ड हि 0 हात है च्ससे सी चू सच पस्सागु उत्कर्षित बम 5 डक अ के आप है| इससे सा व सच परनसारा उत्कर्षित हान हा एंसामा क्रमनियमितपर्यायमो मांसा १७१ नहीं हैं। किन्तु जिनमें विवक्तित समयमें उत्कर्पित हानेकी योग्यता होती है वे विवज्षित समयमें उत्कर्षित होते है ओर जिनमें द्विती- यादि समयोंमें उत्कपित हानकी योग्यता होती है थे द्वितीयादि समय उत्कपित होते है । यही नियम अपकर्यण आदिके लिए भी जान लेना चाहिए | यह कर्मा ओर विश्लसापचयोंका विवक्तित समयमें विधज्षित कायरूप हानेका क्रम है। यदि हम कमग्रक्रियामें निहित इस रहस्यका ठीक तरहसे जान लें ता हमें अ्रक्रालमरण ओर अकाल- पाक आदिके कथनका भी रहस्य समभमें आनेमें देर न लगे | कर्मतन्धकें समय जिन कर्मपरमाणओंमें जितनी व्यक्तिस्थिति पड़नेकी योग्यता होती है उस समत्र इनमें उतनी व्यक्तिस्थिति पड़ती है ओर शेप शक्तिस्विति रही आती है इसमें सन्देह नहीं। परन्तु उन कर्मपरमाणुओंको अपनी व्यक्तिस्थिति या शक्तिस्थिति- के काल तक कर्मरूप नियमस रहना ही चाहिए ओर यदि वे उतने काल तक कर्मरूप नहीं रहते है. तो उसका कारण बे स्वयं कथमपि नहीं हैं. अन्य ही है यह नहीं माना जा सकता, क्योंकि ऐसा मानने पर एक तो कारणमें कार्य कथंचित्‌ सत्तारूपसे अवस्थित रहता है इस सिद्धान्तका अपलाप होता हैं। दूसरे कौन किसका समर्थ उपादान है इसका कोई नियम न रहनेसे जड़-वेतनका भेंद न रह कर अनियमसे कार्यकी उत्पत्ति प्राप्त होती है | इसलिए जब उडपादानको अपेक्षा कथन किया जाता है तब प्रत्यक कार्य स्वकालमें ही होता है यही सिद्धान्त स्थिर होता है । इस इष्टिसे अकालमरण ओर अकालपाक जैसी वस्तुकों कोई स्थान नहीं मिलता । ओर जब उनका अतकितापस्थित या प्रयत्नों- पस्थित निमित्तोंकी अपेक्षा कथन किया जाता है तब बे ही कार्य १७२ जेनतत्त्वमीमांसा घ अकालमरण या अकालपाक जेंसे शब्दों द्वारा भी पुकारे जाते हैं | यह निश्चय ओर व्यवहारके आल्म्वनसे व्याख्यान करनेको विशेषता है । इससे वस्तुख्वरूप दो प्रकारका हो जाता हा एंसा नहीं हैं । यह तो हस मानते हैं कि वतमानमें विज्ञानके नग्रे नये प्रयोग इष्टियाचर हा रहें हैं। संहारक अस्त्रोंकी तीत्रता भी हम स्वीकार करते हैं। आजके मानवकों आकांज्ा ओर प्रयत्त धरती और नक्षत्नल्लोकको एक करनेकी हैं यह भी हमें ज्ञात है पर इससे प्रत्येक काये अपने अपने उपादानके अनुसार स्वकालके प्राप्त होनेपर ही होता है इस सिद्धान्तका कहाँ व्याघात होता हैं ओर इस सिद्धान्तके स्वीकार कर लेनेसे उपदेशादिकी उयथता भी कहाँ प्रमाणित होती है ? सब कार्य-क्रारणपद्धतिसे अपने अपने कालमें हो रहें हैं ओर होते रहेंगे। लोकमें तत्त्वमार्यके उपदेश्धा और माक्षमागके आदि कर्ता बड़े बड़े तीथेक्लूर होगये हैं और आगे भी होंगे पर उनके उपदेशोंसे कितने श्राणी ल्ाभान््रित हुए। जिन्होंने असन्नमव्यताका परिपाकका स्वकाल आनेपर भगवान्‌ का उपदेश स्वीकारकर पुरुपा्थ किया वे ही कि अन्य सभी प्राणी । इसी प्रकार वर्तमानसें या आगे भी जो आसन्नमव्यताका परिपाक काल आले पर सगवानका उपदेश स्वीकार कर पुरुपा्थे करेंगे वे हो लाभान्वित होंगे कि अन्य सभी प्राणी । विचार कोजिये । यदि निमित्तोंमं पदार्थंकी काय निष्पादनक्षम यग्यताका स्वकाल आये विना अकेले ही अनियत समयमें कायाका उत्पन्न करतका सासथ्य हातां तो सव्याभव्यक्रा विभाग समाप्त होकर संसारका अन्त कभ्मोका होगया होता ! हम यह तो सालते हैं कि जो लोग सगवानकी वाणीके ड् क्रमनियमितयर्यायमोमांसा १७३ अनुसार तकका आश्रय लेकर या विना लिए स्वयं अपनी विवेक बुद्धिसे तत्त्वका -निर्णय तो करते नहीं और केवल सूयादिके नियत समयपर डगने ओर अस्त होने आदि उदाहरणोंको उपस्थितकर या शास्त्रोंमे चणशित कुछ भविष्यत्कथनसम्वन्धी घटनाओंकों उपस्थितकर एकान्त नियतिका समर्थन करना चाहते ह्‌्ते हैं उतकी वह विचारधारा कार्यकारणपरःपराके अनुसार तके- सा्गका अनुसरण नहीं करती, इसलिए वे उदाहरण अपनेमें ठीक होकर भी आत्मपुरुषार्थकों जागृत करनेमें समर्थ नहीं हो पाते | पण्डितग्रवर वच्यरसीदासजीके जीवनमें ऐसा एक प्रसंग उपस्थित हुआ था। वे उसका चित्रण करते हुए स्वयं अपने कथानकमें कहते हैं :--- करणीका रस जान्यो नहिं नहिं जानयो आतमस्वाद । भई बनारसिकी दशा जथा ऊडुँटको पाद॥ किन्तु इतनेमात्रसे दूसरे विचारवाले मनुष्य यदि अपने पक्षुका . समर्थन करना चाहें तों उनका ऐसा करना किसी भी : अबस्थामें उचित नहीं कहा जा सकता, क्योंकि उनकी विचार- धारा कार्योत्पत्तिके समय निमित्तका क्‍या स्थान है यह निर्णय करनेकी न होकर उपादानकों उपादान कारण न रहने देनेकी है। मालूम नहीं, वे उपादान ओर निमित्तका क्‍या लक्षण कर इस विचारधाराको प्रस्तुत कर रहे हैं । वे अपने समथनमें कर्म- साहित्य और दर्शन-न्यायसाहित्यके अनेक ग्रन्थोंके नाम लेनेसे भी नहीं चूकते। पर वे एक वार इन ग्रन्थोंके आधारसे यह तो स्थिर करें कि इनमें उपादानकारण और निमित्तकारणके ये लक्षण किये गये हैं। फिर उन लक्षणोंकी सर्वत्र व्याप्ति विठलाते हुए तत्वका निणुय करें। हमारा विश्वास है कि वे यदि इस प्रक्रियाको श्छ्ड जैनतत्त्वमोमांसा स्वीकार करलें तो तत्त्वनिर्णय होनेमें देर न लगे। शुद्ध द्रव्योंमें तो सब पयीयें ऋमवद्ध ही होती हैं पर अशुद्ध द्॒व्योंमें ऐसा कोई नियम नहीं है। केबल इतना प्रतिज्ञा वाक्य कह देनेसे क्या होता है ? यदि कोई निर्मित्तकारण उपादानकारणमें निहित योग्यत्ताकी पर्चा किये विना उस समय उपादान द्वारानल होनेबाले कार्यकों कर सकता है तो बह मुक्त जीवकों संसार भी चना सकता है । हमें विश्वास है कि वे इस तकके सहत्त्वको सममेंगे। कहीं-कहाीँ निमित्तको कतो कहा गया हैं ओर कहीं कहीं उसे कर्ता न कहकर भी उस पर कतृत्व धर्यका आरोप किया गया है यह हम सानते हैं। पर बहाँ वह उसी अशथरयसें क॒तो कहा गया हैं जिस अथमे उपादान कर्ता होता हैं या अन्य अर्थमें । यदि हम इस फरकको ठीक तरहसे समभ लें तो भी तत्त्वकी वहुत कुछ रक्चा हो सकती हे। तेगसनयका पेट बहुत बड़ा है। उसमें क्रितनी विवक्षाएँ समाई हुई है. यह प्रकृतसें ज्ञातव्य है। जब निमित्त कुछ करता नहीं यह कहा जाता हैं * तब वह थयः परिणमति स कता! इस अल्ुुपचरित मुख्याथंकों ध्यानमें रखकर ही कहा जाता है। इससें अत्युक्ति कहाँ हैं यह हम अभी त्तक नहीं समझ पाये । यदि कोई कार्योत्पत्तिके समय 'जों वलाधानमें निमित्त होता है बह कतो” इस प्रकार निमित्तसें कठेत्वका उपचार करके निमित्तकों कतो कहता चाहता है, जैसा कि अनेक स्थल्नों पर शास्मकारोंने उपचारसे कहा भी है तो उसका कोई निषेध भी नहीं करता । कार्योत्तत्तिमें अन्य द्रव्य । निनित है इसे तो किसीने अस्वीकार किया नहीं हाँ | इतना अवश्य है के मोक्षमारोसें स्वावलस्वनकी मुख्यता होनेसे कार्योत्यादन क्षम अपनी योग्यताके साथ पुरुपार्थकों ही प्रश्रय दिया गया है आए प्रत्येक भव्य जीवको उसी अनुपचरित अर्थका आश्रय क्रमनिय मितपर्यायमी मांसा १७५ लेनेका मुख्यतासे उपदेश दिया जाता है। क्‍या यह सच नहीं है कि अपने उपादानका भूलकर अपने विकल्प द्वारा मात्र निमित्त- का अवलम्बन हस अनन्त कालसे करते आ रहे हैं पर अभी तक सधार नहीं हुआ ओर क्या यह सच नहीं है कि एकवार भी यदि यह जीब भीतरसे परका अवलम्बन छोड़कर श्रद्धा, ज्ञान ओर चर्यारूप अपना अवलम्वन स्त्रीकार करले तो उसे संसारसे पार होनेमें देर न लगें। कार्य-कारणपरम्पराका ज्ञान तत्वनिर्णय के लिए होता है, आश्रयके लिए नहीं। आश्रय तो परनिरपेक्ष उपादानका ही करना होगा । इसके विना संसारका अन्त होना दलमस है। बहत कहाँ तक लिखें। इस प्रकरणका सार यह है कि प्रत्येक काये अपने स्वकालमें होता है, इसलिए प्रत्येक द्रव्यकी पयोयें ऋमनियसित हैं। एकके वाद एक अपने अपने उपादानके अनुसार होती रहती हैं । यहाँ पर “क्रम” शब्द पयोयोंकी क्रमाभिव्यक्तिको दिखलानेके लिए स्वीकार किया हैँ और “नियमित! शब्द अत्येक पर्यायका स्थकाल अपने अपने डपादानके अनुसार नियमित है यह दिखलानेके लिए दिया गया हे। चर्तमानकालसें * जिस अथको क्रमवद्धपयायः शब्द द्वारा व्यक्त किया जाता है क्रतलनियमितपयोय”ः का वही अथे है ऐसा स्वीकार करनेमें आपत्ति नहीं। सात्र प्रत्येक पययाय दूसरी पयायसे बंधी हुई न होकर अपनेसें स्व॒तन्त्र है यह दिखलानेके लिए यहाँपर हमने क्रयनियमित' शब्दका प्रयोग किया है। आचाय अम्ततचन्द्रने समचप्राश्षत गाथा ३०८ आदिकी टीकासें ऋ्रमनियमित' शब्दका प्रयोग इसी अर्थमें किया है, क्योंकि वह प्रकरण स्वविशुद्धज्ञानका है । सबविशुद्धज्ञान कैसे प्रगट होता है यह दिखलानेके लिए समयमप्राश्बतकी गाथा ३०८ से ३११ त्ककी टीकामें मीमांसा करते १७६ जनतत्त्वमी मांसा हुए आत्माका अकतोपन सिद्ध किया गया है, क्योंकि अज्ञानी जीव अझसादिकालसे अपनेको परका कतों सानता आ रहा हे। यह कर्तापनका भाव कैसे दूर हो यह उन गाथाओंसें बतलानेका प्रयोजन है । जब इस जीवको यह निश्चय हाता है. कि प्रत्येक पदार्थ अपने-अपने ऋमनियमितपनेसे परिणमता है. इसलिए परका तो कुछ भी करनेका मुझमें अधिकार हैं नहीं, स॑रो पयोगयोंमें भी में कुछ फेरफार कर सकता हूं यह विकल्प भी शमन करने योग्य है। तभी यह जीव निज आत्माके स्व्रभावसन्मुख होकर ज्ञाता दृष्टारूपसे परिणमन करता हुआ निजको परका अकता मानता है ओर तभी उसने ऋमनियमित' के सिद्धान्तको पस्सार्थरूपसे स्वीकार किया यह कहा ज्ञा सकता हैं। क्रम- नियमित” का सिद्धान्त स्व्रयं अपनेसें मालिक होकर आत्माके अकर्तापनकों सिद्ध करता है। प्रकृतमें अकतोका फलितार्थ ही जाता-दृष्टा है। आत्मा परका अकता होकर ज्ञाता दृष्टा तभी हो सकता है. जब बह भीतरसे ऋ्रमनियमित” के सिद्धान्तकों स्त्रीकार कर लेता है, इसलिए मोक्तसार्गम इस सिद्धान्तका बहुत बड़ा स्थान है ऐसा प्रकृतमें जानना चाहिए । इस विपयको स्पष्ट करते हुए आचाय अमृतचन्द्र उक्त गाथाओंकी टीका करते हुए कहते है-- जीवो हि तावत्‌ क्रमनियमितात्मपरिणामैरु द्यममानों जीव एव नाजीव:, एवमजीवोउपिं ऋ्रमनियमितात्मपरिणामैंरुसद्रमानोउजीव एव न जीव, सर्वद्रव्याणां स्वपरिणामैः सह तादात्म्बात्‌ कंकणादेपरिणामैः फाश्चनवत्‌ । एज हि जीवस्थ स्वपरिणामैरुतगद्ममनस्थाप्यजीवेन सह फायंकारणभावो न सिद्धअति, स्वद्रव्याणां द्रव्याम्तरेण सहोत्याद्रोत्यादक- भावाभावात्‌ | त्दसिद्धों चाजीवस्य जीवकर्मत्वं न सिद्धत्ति । तदसिद्धो ऋरमनियमितपर्यायमीमांसा श्छछ च क्त-कर्मणोरनन्यापेज्ञसिद्धत्वाद्‌ जीवस्याजीवकतृत्व॑ न सिद्धबति, अतो जीवो5कर्ताउवतिठछते ॥३०८-३ ११॥ प्रथम ता जीव क्रमनियसित अपने परिणामों ( पयोयों ) से उत्पन्न होता हुआ जीव ही है, अजीव नहीं, इसीप्रकार अजीब सी क्रमनियमित अपने परिणामोंसे उत्पन्न होता हुआ अजीब ही है, जीव नहीं, क्‍योंकि जैसे सुव्णंका कंकण आदि परिणासोंके साथ तादात्म्य है बेस ही सब द्र॒व्योंका अपने अपने परिणामोंके साथ तादात्म्य है। इस प्रकार जीव अपने परिणामोंसे उत्पन्न होता है तथापि उसका अजीवके साथ कार्यकारणभाव सिद्ध नहं होता, क्योंकि सब द्॒व्योंका अन्य द्रव्यके साथ उत्पाद्य-उत्पादक भावका अभाव है । और एक द्र॒व्यका दूसरे द्र॒व्यके साथ कार्य- कारणभाव सिद्ध न होनेपर अजीव जीवका कम है यह सिद्ध नहीं होता ओर अजीवके जीवका कमत्व सिद्ध न होने पर कतो-कर्म परनिरपेक्ष सिद्ध होता है ओर कर्ता-कर्मके परनिरपेक्ष सिद्ध होनेसे जीव अजीवका कतो सिद्ध नहीं होता, इसलिए जीव अकतों है यह व्यवस्था वन जाती है । इस प्रकार जीवनमें क्रमनियमितपयोय” के सिद्धान्तकों स्वीकार करनेका क्‍या महत्त्व है ओर उसकी सिद्धि किस प्रकार होती है इसकी सीमांसा की । सम्यक्‌ निंयार्तिस्बरुपमीसमा[साः उपादान निज गुण मह्य नियति! सवलज्नञण द्रव्य | ऐसी श्रद्धा जो गहें जानो उसको भव्य ॥ अब प्रश्न यह हैं कि आत्मा परका अकता होकर ज्ञाता- हृष्टा चना रहे इस तत्त्वको फलित करनेके लिए 'क्रमनियमित- पयाय! का सिद्धान्त ता स्वीकार किया पर उसे स्वीकार करने पर जो नियतिवादका प्रसंग आता है उसका परिहार केसे होगा ? यदि कहा जाय कि नियतिवादका प्रसंग आता है तो आने दो। उसके भयसे 'क्रमनियमितपर्याया के सिद्धान्तका त्याग थोड़े ही किया जा सकता है सो भी कहना उचित नहीं है. क्योंकि शास्रकारोंने नियतिवादकों मिथ्या वतलाया है। गोस्सट- सार कमकाण्डमें कहा भी है :--- जल्तु जदा जेश जहा जस्म य गियमेण होदि तलु तदा | तेण तहा तस्स हवे इंदि वादों खियदिवादों दु ॥सूपश॥। . इसका तालये हैं जो जब जिस रूपसे जिस प्रकार जिसके होता है. बह तब उस रूपसे उस प्रकार उसके नियमसे होता है इस प्रकार जो वाद है वह नियतिवाद है ॥८८शा यह नियतिवादका साधारण अथ है । श्वेताम्वर साहित्यमें भी इसकी निन्‍्दा की गयी है। इस प्रकार नियतिवादके प्रसंगका भय दिखलाकर जो लोग क्रमनियमितपयोय! के सिद्धान्तकी अवहेलना करना चाहते हैं उन्हें यह स्मरण रखना चाहिए कि जो सर्वधा नियतिवादकों सम्यक नियतिस्वरूपमोमांसा १७९ हे ५ ह ७. हर क्ज बे मानते हैं वे कार्य-कारणपरम्पराको स्वीकार नहीं करते। और यह हमारा कोरा कथन नहीं हे किन्तु वर्तमान कालमें इस विपयका प्रतिपादन करनेवाला जो भी साहित्य उपलब्ध होता है उससे इसका समथन होता है। किन्तु जेनदर्शनकी स्थिति इससे भिन्न हैं, क्योंकि उसने काय-कारणपरमस्पराकों स्वीकार कर उसके अंगरूपसे नियतिको स्थान दिया है, इसलिए उसे एकान्तसे 'नियतिवाद स्वीकार नहीं है यह सिद्ध होता है । एक नियतिवाद ही कया उसे एकान्तसे कालवाद, पुरुपार्थवाद, स्वभाववाद और इश्वर 'निमित्त' वाद यह कोई भी बाद स्वीकार नहीं हैं, क्योंकि वह प्रत्येक कायकी उत्पत्तिमें स्वभाव, पुरुपार्थ, काल, निमित्त ओर नियति ( निश्चय ) इनकी कारणताका स्वीकार करता है । इसलिए उसने जहाँ एकान्तसे नियतिवादका निषेध किया है वहाँ उसने एकान्तसे साने गये इन सब वादोंका भी निषेध किया है । फल्लस्वरूप यदि कोई कमकांडकी उक्त गाथा परसे यह अथ निकाले कि जैनधर्मसें नियति ( निश्चय ) को रंचसात्र भी स्थान नहीं है तो उसका उस परसे यह अर्थ फलित करना ठीक प्रतीत नहीं होता; क्‍योंकि कार्यकारणपरम्परामें उपादान-उपादेयके अविनाभावको स्वीकार करनेसे तो सम्यक नियतिका समर्थन होता ही है | साथ ही जैन सिद्धान्तमें ऐसी व्यवस्थाएं स्वीकार की - गयी हैं. जिनसे स्पष्टतः सम्यक् नियतिका- समर्थन होता है। यया-- | द्रव्यकी अपेक्षा :--सव द्रव्य छः हैं। उनके अवान्तर भेदोंकी संख्या भी नियत है। सब उत्पाद, व्यय और .ध्ौ्य स्वमावसे युक्त हैं, उनका उत्पाद और व्यय प्रति समय नियमसे होता हे। फिर भी द्रव्योंकी संख्यामें वृद्धि हानि नहीं होती। सम्यक नियतिस्वहूपमोमांसा १८१ कर्मममिसस्थन्धी जो क्षेत्र बचता है उससें कल्पकालके अनुसार निरन्तर ओर नियमित ढंगसे उत्सपिणी ओर अवसपिणी कालकी प्रवृत्ति होती रहती है । एक कल्पकाल वीस कोड़ा-कोड़ी सागरका होता है । उसमेंसे दस कोड़ाकीड़ी सागर अवसपिणीके लिए और दस कोड़ाकोड़ो सागर उत्सपिणीके लिए सुनिश्चित है। उसमें भी प्रत्येक उत्सपिणी ओर अवसपिणी छः छः कालोंमें विभक्त है | उसमें भी जिस कालका जो समय नियत है उसके पूरा होनेपर स्वभावतः उसके बादके कालका प्रारम्भ हो जाता । उदाहरणाथ अवसपिणी कालमें जीबोंकी आयु ओर काय ' ह्वासोन्मुख होते है । उ्नके जितने कम ओर नोकम होते है वे भी ह्ासोन्मुख पयोयोंके होनेसें निर्मित्त होते हैं। किन्तु अवसपिणी कालका अन्त होकर उत्सपिणीके प्रथम समयसे ही यह स्थिति बदलने लगती है। कर्म ओर नोकर्स आदि भी उसी प्रकारके परिणमनसें निमित्त होने लगते हैँ। विचार तो कीजिए कि जो ओदारिक शरीर सामकर्म उत्तम भोगभूमिसें तीन कोसके शरीरके निर्माणमें निमित्त होता हे वही ओदारिक शरीर नामकर्म अवब- सपिणीके छटे कालके अन्तसें एक हाथके शरीरके निर्मोणमें निमित्त होता है । कोई अन्य सामग्री तो होनी चाहिए जिससे यह रद स्थापित होता है। इन कालोंकी अन्‍्तंव्यवस्थाको देखें तो ज्ञात होता है कि उत्सपिंणीके तृतीय कालमें ओर अवसर्पिणीके चतुर्थ कालमें चोचीस ततीथंकर, वारह चक्रवर्ती, नो नारायण, नो प्रतिनारायण, नो वलसद्र, ग्यारह रुद्र ओर चोवीस कासदेबोंका उत्पन्न होना निश्चित हे। निमित्तानुसार ये पद कभी अधिक ओर क्रभी कम क्यों नहीं होते, विचार कीजिए । कमभूमिमें आयुकर्मका वन्‍्ध आठ अपकर्पेकालोंसें या मरणके अन्‍्तमु हूते पूवे ही क्‍यों होता है, इसके वन्धके योग्य परिणाम उसी समय 2८२ जैनतत्वमोमांसा क्‍यों होते हैं, विचार कीलिए। जो इस अवस्थाके भीतर कारण अन्तर्निदित है उसे ध्यानमें लीजिए। छुद माह: आठ समयमें छह सौ आठ जीव ही मात्तलाभ करते हैं. ऐसा क्यों हे विचार कीजिए । कालनियमके अन्तर्गत और भी बहुतसी व्यवस्थाएँ हैं जो ध्यान देने बाग्य है । भावकी अपयन्ना;--कपावस्थान असन्ध्याव लाकंप्रमाण स्ि वे न्यूनाधिक नहीं होते । स्थूलरूपस सत्र लश्याएँ छह्द हैं। उनके अवान्तर भदोंका प्रमाण भी निश्चित है | देवलाकमें तीन शुभ लेश्याएं और नरकलोकमसें तोन अशुभ लेश्याएँ ही होती हैं उसमें भी प्रत्यक्ष देबलाककी ओर प्रत्येक नरकलोकक्ी लश्या नियत है। वहाँ उनके निभिन कारण द्रव्य, च्षेत्रादि भी नियत हैं | इतना अवश्य है कि भवनत्रिकोंमें कपात अशुस लेश्या अपयोप्र अवम्धामें सम्भव है। पर वह केस मचनश्रिकोंक छाती है यह भी नियत है। इसी प्रकार भागभृमिके मनुप्यों ओर तियश्नोंमें भी लश्याका नियम है। कम ममि ज्ञत्रमें ओर एकन्द्रियादि जीवोंम लेश्या परिवततन हाता है अवश्य पर वह नियत ऋरमसे ही हाता है। गुण- स्थानोंमं भी परिणामोंका उताग्-चढ्ाव शाम्त्राक्त नियत ऋ्रमसे ही हाता है | अधःकरण आदि परिणामोंका क्रम भी नियत हैं । तथा उनमेंसे किस परिणामके सदभावमें क्या कार्य हाता है यह भी नियत है। एक सारकी जा नरकमें प्रथभापशम सम्यक्त्त्वका करता हैं उसके ओर एक देव जो देवलोकमें श्रथमोपशम सम्वक्त्त का इतसन्न करता हू उसके जा अधःकरण आदिरूप परणिमोंकी जाति हाती है वह एकसी होती हैं। उसके सदभावमें जो कार्य हाते है वे भी प्रायः एकसे होते है। अन्य द्रव्यनक्षेत्रादि बरांह्म निर्मित्त उनमें फेर-फार नहीं कर सकते। यद्यपि एक समयवर्ती सम्यक्‌ नियतिस्वरूपमीमांसा १८३ ओर भिन्न समयवर्ती जीवोंके अधःकरण परिणामोंमें भेद देखा जाता है पर यह भेद नरकलोकमें सम्भव हो और देवलोकमें सम्भव न हो ऐसा नहीं है । अतः इससे उपादानकी विशेषता ही फलित होती है । जैनदर्शनमें इस प्रकार ये सब व्यवस्थाएँ हैं जो जैनदर्शनमें कार्य-कारण परम्पराको स्वीकार करनेके वाद भी जेन सिद्धान्तकी अंग बनी हुई हैं । तथ्योंको प्ररूपित करनेवाले ग्रन्थोंमें कुछ ऐसे बचन भी मिलते हैं जिनसे इनके पूरक रूपसें सम्यक नियतिका समर्थन होता हे । उदाहर्णार्थ द्वदशालुप्रेज्ञामे स्वामी कार्तिकेय कहते हैं. 854 2 ज॑ जस्स जम्मि देसे जेण विहाणेण जम्मि कालम्मि । णादं जिशेण शियदं जम्मं वा अहव मरणं वा ॥३२१॥ तं तस्स तम्मि देसे तेण विद्णेण तम्मि कालम्मि | ,. को सक्‍कइ चालेदु इंदो था अदद जिशिंदो वा ॥३१२२॥ एवं जो शिच्छुयदो जाण॒दि दव्बाणि सब्वपज्जाए सो सदिद्ी सुछो जो संकदि सो हु कुद्दिद्दी ॥३२३॥ जिस जन्म अथवा मरणकों जिस जीवके जिस देशमें जिस विधिसे जिस कालमें नियत जाना है उसे उस जीवके उस देशमें डस विधिसे उस कालमें शक्र अथवा जिनेन्द्रदेव इनमेंसे कोन के: | का कर कप चलायमान कर सकता है, अथोत्‌ कोई भी चलायमान नहीं कर सकता | इस प्रकार जो निश्चयसे सब द्र्व्यों ओर उत्तकी सब के ७० उच / हे किक ६०३“ हे पर्यायोंको जानता हे वह शुद्ध सम्यग्दष्टि हे ओर जो शंका करता है वह कुदष्टि ( मिथ्यादृष्टि ) है ॥३०१-१२श॥ ह इसी तथ्यको पद्मपुराणमें इन शब्दोंमें व्यक्त किया है ३-- सम्यक्‌ नियतिस्वरूपमी मांसा श्टपु मिंमित्तोंका नहीं है | अन्य पयोयके कालमें यदि वह अज्ञानसावका अन्तकर अपनी इच्छानुसार ज्ञाननय पयायको उत्पन्न करना भी चाहे तो इतना स्पष्ट है कि अपने चाहने मात्रसे तो अज्ञान भावका अन्त होकर ज्ञानमय पयोय उत्पन्न होगी नहीं। न तो कभी ऐसा हुआ ओर न कभी ऐसा होगा ही, क्‍योंकि पयोयकी उत्पत्तिमें जो स्वभाव आदि पाँच कारण बतलाये हैं उनका समवाय होने पर ही चह पयोय उत्पन्न होती है ऐसा नियम है । इसके साथ यह भी निश्चित हे कि इनमेंसे कोइ कारण पहले मिलता हो आर कोई कारण बादमें यह भी नहीं हे, क्योंकि इनका समवाय जब भी होता है एक साथ ही होता हे ओर जब इनका समवाय होता है तब नियमसे कार्य होता है । तथा निमित्तकी निमित्तता सभी तभी मानी जाती हे। इसलिए पुरुपार्थवी हानि चतला कर सम्यक नियतिका निपेथ करना उचित नहीं है । सम्यक नियतिका बास्तविक अर्थ हे कि द्रव्यादिकी नियत अवस्थितिके साथ जो कार्य जिस उपादानसे ज्ञिस निमित्तके सदभावमें होनेवाला है उन्हींसे होगा अन्यसे नहीं होगा। इसमें सम्यक् नियतिकी स्वीकृतिके साथ कार्य-कारणप्रक्रियाकों भी स्वीकार कर लिया गया है| जैनथर्ममें जो सम्यक नियतिकों स्वीकार किया गया है वह इसी अर्थम स्वीकार किया गया है। ,यहाँ नियतिका अन्य “कोई अर्थ नहीं है । इसके स्थानमें यदि कोई चाहे कि जो कार्य जिस उ्पादान और जिस निमित्तसे होनेवाला है उनके सिवा अन्य उपादान ओर अन्य निमित्तसे उस कार्यकी उत्पत्ति अपने पुरुपार्थ द्वारा की जा सकती है तो उसका ऐसा सोचना भ्रम है। अतएव निय्रति कोई स्व॒तन्त्र पदार्थ न होकर पूर्बोक्त विधिसें कार्यकारणपरम्पराका एक अंग है ऐसा श्रद्धान करके ही चलना चाहिए । इतना अवश्य है कि जैन साहित्यमें नियति या नियत सम्यक्‌ नियतिस्वरूपमीमांसा श्ट _ क्षमाबलो ब्रह्मचयंगुत उपशमप्रधानो नियतिलक्षणो निष्परिग्रहताव- लम्बनः । जिनेन्द्रदेव द्वारा कहा गया यह धर्म अहिंसालक्षणवाला है सत्यसे अधिष्ठित है, विनय उसका मूल है, क्षमा उसका बल हे, ब्रह्मचयसे रक्षित है, उपशमभावकी उससे प्रधानता है, नियति उसका लक्षण है और परिग्रह रहितपना उसका आलम्बन है। यदि हम हिन्दी पद्मवन्ध अन्थोंका आलोडन करें तो उनमें भी निश्चयंके अथमें नियत” या 'नियति' शब्दकी उपलब्धि हो सकती है। छहढालाकी तृतीय ढालमें “निम्बय' के अर्थमें नियत' शब्द आया है | इसलिए किस कार्यकी उत्पत्तिमें उपादान कोन है ओर उसके वलाधानमें निमित्त कोन है इसकी निश्चिति 'नियति? शब्द द्वारा ध्वनित होकर भी मुख्याथंकी दृष्टिसे उस द्वारा उपादानका ही ग्रहण होता है ऐसा निर्णय करना भी परसार्थभूत प्रतीत होता है । इन सब तथ्योंकों दृष्टिमें रखकर यदि मनुष्यके विवेकमें यह वात आ जाय कि जिस उपादानसे जो कार्य होनेवाला है उसे हम अपने तथाकथित प्रयत्न या निमित्त द्वारा त्रिकालसें भी नहीं वदल सकते तो उसे 'सम्यक नियति” को स्वीकार करनेसें रंचमात्र भी अड्चन न रहे । समग्र कथनका तात्पये यह है कि नियति शब्द द्वारा कोई भी द्रव्य या द्रव्यांश, गुण या गुणांश अन्य हेतुओंसे अन्यथा परिणमन नहीं कर सकता यह सूचित किया गया है। कोई भी काय अपने उपाद्रान ओर निमित्तके विना अपने आप होता है यह नहीं | इस प्रकार जैनधममें नियतिका क्या स्थान है ओर वह किसरूपमें स्वीकार किया गया है इसका सम्यक्‌ विचार किया । “--4-४ै३--६--- निश्चय-व्यवहारमीमांसा १८९. यह तो इस लोकमें कोन द्रव्य किस रूपमें अवस्थित है इसका विचार हुआ । अब कारण-कायकी हृष्टिसे इन द्वव्योंकी जो स्थिति है उस पर संक्षेप्ें प्रकाश डालते है। जो धर्मोदिक चार द्रव्य, शुद्ध जीव तथा पुद्टल परमारु है उनकी सब पयोयें परनिरपेक्ष होती हैं ओर जा पुद्कटल स्कन्ध तथा संसारी जीच है उनकी पयोयें स्वपर सापेक्ष होती हैं। इन छुहों द्रव्योंकी पर- है निरपंतज्ष ' पर्योयाकी स्वभाव प्रयोग” सज्ञा हैं तथा जीवों ओर पुद्ल्‍ल्लोंकी जो स्व-परसापेक्ष पयोयें होती है उन्तकी विभाव पयोय? संज्ञा है। इन छहों द्रव्योंकी अर्थपयायों और व्यंजन पर्यायोंके होनेमें यही एक नियम जान लेना चांहिए। इतना अवश्य हे कि संसारी जीवोंकी भी स्वभाव सन्मुख होकर जिस गुणकी जो स्वभाव पयोय प्रगट होती है वह भी परनिरपेक्ष होती है । संक्षेपमें प्रकृतमें उपयोगी यह ज्ञेयतत्त्व मीमांसा है। जो ज्ञान न्यूनता ओर अधिकतासे रहित होकर संशय, विपयय ओर नध्यवसायके विना इसे इसी रूपमें जानता है. वह सम्यग्ज्ञान हैं। दशनशास्त्रमें स्व्समयका निरूपण करते समय ऐसे ही ज्ञानकों प्रमाणज्ञान? संज्ञा दी गई है। प्रकृतमें सम्यग्क्लान दपेण- स्थानीय है | स्वच्छ दर्पणमें, जो पदार्थ जिस रूपसें अवस्थित होता है चह, उसी रूपमें प्रतिविम्बित होता है। यही सम्यम्ज्ञानकी स्थिति है। जिस प्रकार दर्पणुमें समग्र वस्तु अखण्डभावसे प्रतिविम्बित हाता है उसा ग्रकार असाणज्ञानसे भी समग्र वस्तु गुण-परयायका भेद किये विना अखंडभावसे विपयभाबको प्राप्त होती है। इसका अभिप्राय यह नहीं है कि प्रमाणज्ञान गुणोंकों ओर पयोयोंको नहीं जानता | जानता अवश्य है, परन्तु वह इन सहित समग्र बस्तुकों गौण-मुख्यका भेद किये विना युगपत्‌ जानता है। इसके १०७० जैनतत्त्वमीमांसा आश्रयसे जब किसी एक वस्मुका किसी एक धर्मकी मुख्यतासे प्रतिपादन भी क्रिया जाता है तंव उसमें अन्य अशेप धर्म अभेदबृत्ति या अमेदोपचारसे अन्तनिहित रहते हैं। इसलिए प्रमाण सप्रमंगीमें प्रत्येक भंग अशेप वस्तुका कथन करनेवाला माना गया है| यह तो प्रमाणज्ञान ओर उसके आश्रयस होनेवाल चचन व्यवहारकी स्थिति हैं। अब थोड़ा नय्द्नप्टिसे इसका विचार कीजिये। यों तो सम्बग्दष्टिके क्ञायोपशमिक ओर ज्ञायिक अन्य जितना भी ज्ञान हाता हैं बह सब प्रमाणज्ञान ही है। किन्तु प्रमाणज्ञानका श्रुतज्ञान एक ऐसा भेद हैं: जो प्रमाणज्ञान ओर नयज्ञान इस प्रकार उभयरूप होता हैं | इसी वरिपयकों स्पप्ट करते हुए सवोर्थसिद्धि (अ० १, सू० ६ ) में कहा भी हैं:-- तत्र प्रमाणं द्विविधम-स्वार्था पशार्थ च। तत्न स्वार्थ प्रमाशं श्रुतवज्जम्‌ | श्रत॑ पुनः स्वार्थ भवति परार्थ' च। जलानात्मकं स्वार्थ वचनात्मक पराथंम्‌। ताइ्वकल्पा नयाः । प्रकृतमें प्रमाणके दो भेद हें--स्वार्थ ओर परार्थ। उनमेंसे अतको छोड़कर शेप सव ज्ञान स्वार्थ प्रमाण हैं| परन्त श्रतज्ञान स्वार्थ और पराथ्थ दोनों प्रकारका है । जानात्मक स्वा्थत्रमाण हे ओर बचनात्मक पराथे प्रमाण हैं। उनके भेद नय हैं । तात्पय यह हे कि अवधिज्ञान, सनःपर्ययज्ञान और केचल- ज्ञान इन्द्रियादिकों निमित्त न करके ही विपयकों ग्रहण करनेके लिए ग्रवृत्त होते है, इसलिए ये तो अपनी अपनी योग्यतानुसार समग्र वस्तुको अशेप सावसे प्रहण करते हैं. इसमें सन्देह नहीं । किन्तु जो सतिज्ञान पांच, इन्द्रियां, मन ओर आलोकादिको निमित्त करके प्रवृत्त होता है वह भी समग्र वस्तुको अशेप भावसे अहण करता है, क्योंकि वह जहाँसे सनको निमित्त कर चिन्तन- निश्चय-व्यवहा रमी मांसा १९१ धारा प्रारस्स होती है उससे पूर्बर्ती ज्ञान है। अब रहा अरतज्ञान सो यह' चिन्तनधाराके उस्यात्मक होनेसे दोनों रूप माना गया है। श्रतज्ञानमें मनका जो विकल्प अखंडभावसे बस्तुका स्वीकार करता हे वह प्रमाशज्ञान है ओर जो विकल्प किसी एक अंशको मुख्य कर ओर दूसरे अंशकों गोण कर वस्तुकों स्वीकार करता है वह नयज्ञान है। सस्यक श्रतका भेद होनेसे नयज्ञान भी उतना ही प्रमाण है जितना कि प्रमाणज्ञान। फिर भी शात्र- कारोंने इसे जो अलगसे परिगणित किया है सों उसका कारण विवक्ञाविशेषकों दिखलाना मात्र है। जो ज्ञान समग्र वस्तुको अखंडभावसे स्वीकार करता है उसकी उन्होंने प्रमाणुसंज्ञा रखी है ओर जो ज्ञान समग्र वस्तुकों किसी एक अंशको मुख्य कर ओर दूसरे अंशकों गोंण कर स्वीकार करता है उसकी उन्होंने नयसंज्ञा रखी है। सस्यग्ज्ञानके प्रमाण ओर नय ऐसे दो भेद करनेका यही कारण है। किन्तु इन भेदोंकों देखकर यदि कोई सर्वधा यह समझे कि सम्यर्ज्ञानके भेद होकर भी पग्रमाणज्ञान यथार्थ है नयज्ञान नहीं तो उसका ऐसा समभा ठीक नहीं हे,- क्योंकि जिस प्रकार प्रसाणज्ञानके द्वारा जो वस्तु जिस रूपमें अवस्थित होती है उसी रूपमें जानी जाती है उसी प्रकार नय- ज्ञानका प्रयोजन भी यथावस्थित वस्तुका ज्ञान कराना है। इन दोनोंमें यदि कोई अन्तर हे तो इतना ही कि प्रमाणज्ञाननें अंशभेद अविवक्तित रहता है जब कि नयज्ञानसमें अंशभेद विवक्तित होकर . उस हारा बस्तु स्वीकार की जाती है। इसलिये नयका लक्षण करते हुए आचाये पूज्यपाद स्वार्थसिद्धि (अ० ९, सू० ३३ ) सें कहते चस्त॒न्यनकान्तात्मान आवराचन हेत्वप॑णात्साध्यविशेषपस्य याथात्म्य- ग्रापणप्रवणुः प्रयोगो नयः । श्नुय्‌ पैनतन्व मो मां वा हे स्तसें विनेवक्के बिना मख्यतासे अनकान्तात्मकू बस्तर विरातक्त बिना हंतुका सुख्यतान साध्यविशयक्ली बधाथताक प्राम्र ऊगनसने समर्थ प्रयोगका नव ० पड कहनस है | छाचाय प्रचश्यपादन संथक्ता यद्र लच्ण नवमसप्रमगाकरा सक््य ह भय /ाुे ७० कर बचतलनबका किया है । नक्वाथबानिक्म सचका लक्षण ऋरषत लत हक समय भद्ठरूलंऋदेवक्की भों बहो दृष्टि रही है। झानपरक नवका का ४ ] औ। लत्षण करत हम सयचक्रम यह्र वचन आता ह्‌ ४ > पक करे हु शअआार्ःर च्यानत सत्र बल्थुशसनबयदवनतु संबदन्यु | है पड डे टः 5८४ >> ८+ 5 ५९ ने इंद्र झुर्द पडर्च ग्याणी पूरा ता सास्एहं ॥१ ०७४ बस्त॒क एक अंशका भरहण ऋरनवाला जा झानीका विकल्प हाता हू. जा कि शक्तकज्लानका एक भद हू उस प्रक्तम चंय कहा गया ह आर जा सयज्ञानका आश्रय करता हैं वह ज्ञानी है॥१०४॥। ध्ध यहाँ पर प्रश्न हाता 6 कि वस्तु तो अनेछान्तात्मक हैं उसमें कु एक अंशको ग्रहण ऋरनेचाल कहना उचिद नहीं के अशाका अरहण ऋरसत्राल जकानका सच कहना 5 सह व्त हूँ। यह प्रश्त् चयचकऋक कताके सामन भी रहा हैँ) वे इसका !् ल्द ; समाधान करत हुए कहने हे :--- है» लए-># हल +१७; हनझामरण | छा शाउच्ता छत इंनुकानण ॥ ६७४ ॥ |) यतः सचके विना मनुप्यक्ता स्थाह्रदर्क्की प्रतिपत्ति नहीं हाती. जे एकान्तके आमव्रहसे मुक्त हाना चाहता हैं उसे सय लानन याग्य है ॥7 शा च्बितप क्र इसा सथ्यका पष्ठ करत हए ८ पत्त: सह इस तेथ्यका पुष्ठ करत हुए व्‌ पुन; कहते हैँ :-- रह मी > ० झ्ज् सार जज आड़ गा ०० अपकाकक-> बगल थ री झूठ सद्धारं आई सम्पयनं उचह सलदाई समाफिसता- पे हर *+। उह छंदादु शुन्दनुलए जे व चछ के च प्‌ निश्चय-व्यवहारमीमांसा १९३ जिंस प्रकार सम्यक्त्वमें श्रद्धानकी मुख्यता हे, जिस प्रकार गुणोंमें तपकी मुख्यता हे ओर जिस प्रकार ध्यानमें एकरस ध्येयकी मुख्यता है उसी प्रकार अनेकान्तकी सिद्धिमें नयकी मुख्यता है. ॥१९७६॥ यहाँपर प्रश्न होता है कि अनेकान्तकी सिद्धि प्रमाण सप्तभंगी के द्वारा दोजाती है। उसके लिए नयसप्नभंगीकी आवश्यकता नहीं है, अतः सम्यग्ज्ञान प्रमाणरूप ही रह्य आवे, उसका एक भेद नय भी हैं ऐसा साननेकी क्या आवश्यकता है ? समाधान यह है कि जितना भी वचन प्रयोग होता है वह नयात्मक ही होता हैं। छोकसें ऐसा एक भी वचन उपलब्ध नहीं होता जो धर्मविशेषके छारा वस्तुका प्रतिपादन न करता हो। उदाहरणार्थ “्रव्यः शब्द ही लीजिए । इसे हम 'जो गुण-पर्योयवाला हो” या उत्पाद, व्यय ओर ध्रोव्यसे युक्त हो? इस अथर्से रूढ करके द्रव्यकी व्याख्या करते हैं, परन्तु इसका योगिक अथ “जो द्रवबता है अर्थात्‌ अन्बित होता है वह द्रव्य” यही होता है, इसलिए जितना भी वचनव्यवहार हे वह तो नयरूप ही है | फिर भी हम प्रसाण सप्तमंगीके अत्येक भंगमें कहींपर 'स्यात्‌! शब्द द्वारा अमेदगत्ति कके ओर कहींपर उसी द्वारा अभेदोपचार करके उन सब भंगोंके समुदायको प्रमाण सप्तमंगी कहते हैं | प्रथस भंग द्रव्याथिक नयकी सुख्यतासे कहा जाता है इसलिये उसमें अभेदवृत्ति विवक्षित रहती हे, दूसरा भंग परयोयाथिक नयकी मुख्यतासे कहा जाता है, इसलिए उसमे' अभेदोपचार विवज्षित रहता हे और शेप भंग क्रमसे ओर अक्रमसे दोनों नयोंकी मुख्यतासे कहे जाते हैं इसलिये उन्तमें उसी विधिसे अभेद॒ब्ृत्ति सौर अभेदोपचारकी मुख्यता रहती है। प्रत्येक वचन नयात्मक ५३ १०४ उनदतत्वतमामाता 2 ही हाता हैं. परन्तु यह वक्ताको विवज्ञा पर निमर हू कि वह कहाँ किस वचनका किस अभिप्रावसे प्रयाग कर रहा हैं । अतः तत्व और तीथेकी स्थापना करनेके लिये नवोंकी आवश्यकता हैँ ऐसा चहाँपर समझना चाहिये | यह तो इन पहले ही वतला आये हैं छि प्रत्येक द्रव्य न सामान्यात्मक हैं ओर न विशेषात्मक ही हैं । किन्तु बढ़ उमवात्मक है. अतः इनके द्वारा वस्तुका अहण करनेचाला नय भी दो श्रकारका है--द्रव्याबिक और परयोधाश्रिक | जो विकल्पक्षान पयायका गाण करके द्त्यके सामान्य अंश हारा उसे जानता हैं वह द्रव्यारथिक नय है और जो विकल्पज्ञान सामान्य अंशको गौंण करके द्रव्यक्ने विशेप अंश छारा उसे जानता है वह परवोयाथिक नय हूँ। इस प्रकार सत्र नयोंके आधारमृत झुख्य नय दा ही है ओर उनके आश्रयसे प्रदत्त दानवाला वचनव्यवह्यर भीद्ाप्रकारसे प्रदत्त हाता है--द्रत्यके सामान्य अंशको झुख्य कर ओर विशज्षेप अंशक तथा द्च्यक न्रिदाय हि | | अद्ाका याखसकर अव्ृत्त हानवाला चचनव्यवहार शेष अंशको झुख्यकर और सामान्य अंशकों गाखुकर प्रदत्त हानवाला वचनव्यचह्मर। शाब्दादिक तीन नंब भी परयाचाथिक नयके अवान्तर भेद माने गये हैं, इसलिए इस परसे कोई यह शांका करें कि जब द्रव्यके सामान्य अंशका अतिपादन ऋरनतवाला कोई वचन ही उपलब्ध नहीं होता < ऐसी अवस्था द्रव्यके सामान्य अंशकों सुख्यक्रर और विशेष १ अंशको नोणकर अद्वत्त होनेवाला वचनव्यबहार होता है ऐसा कथन क्या किया नया हूँ ता उसके छाट ऐसी शंकाका किया जाना ठीक नहीं हे, क्योंकि शराब्दादिक नयोंसे एक अर्थमें हिंगादिके भेदसे जो. शब्द अब्रोग द्वोता है या रौद्िक और निश्चय-व्यवहारमीमांसा १९५ यागिक अथर्में जा शब्द प्रयोग होता हैं. वह कहां किस रूपमें सान्‍्य हैं सात्र इतना विचार किया जाता है। जब कि प्रकृतमें जा भी बचनव्यवहार होता है उसमें कौन वचनव्यवहार द्रव्यके सामान्य अंशर्का मुख्य कर ओर विशेष अंशको गाण कर ग्रवृत हुआ है तथा कोन वचनव्यवहार द्रव्यके विशेष अंशको मुख्य कर आर सामान्य अंशको गांणु कर प्रवृत्त हुआ है इसका विचार किया गया है | तात्पय यह है कि परयायकी इृष्टिसे किस अथर्मे - फेस प्रकारका वचन प्रयाग करना ठीक हैं यह विचार शब्दादिक नयोंमें किया जाता हे ओर यहां पर जो भी वचनव्यवहार होता हैं वह कहां किस अपेक्षासे क्रिया गया है यह दृष्टि मुख्य है, इसलिये उक्त दांनों कथनोंमें कोइ विरोध नहीं समझना चाहिए। इस प्रकार मुख्य .नय दो हैं--द्रब्याशिकनय और पयोया- थिकनय । आगममें नयोंके नेगम आदि जो सात भेद इृष्टिगोचर होते हैं थे सब इन्हीं दो नयोंक्रे अवान्तर भेद हैं । मात्र नेंगमनय- करे विपयमें विशेष वक्तव्य हे जो अन्यत्रसे जान लेना चाहिए। विशेष प्रयोजन न होनेसे उसको यहां पर हम मीमांसा नहीं करेंगे । नयह्ृष्टिसे विश्लेषण कर पदार्थोक्रों जाननेकी यह एक पद्धति है । इसके सिच्रा वस्तुस्वभाव और कार्य-कारणपरस्पराके साथ पदार्थकों जाननेकी एक नयपद्धति ओर है जो मोक्षमागर्मे विशेष प्रयोजनीय होनेसे अध्यात्मनय” शब्द द्वारा व्यवह्गत की गई है| तात्पर्य यह है कि जहां पर शब्द व्यवहारकी मुख्यता से या उसकी .मुख्यता किये बिना उपचरित और अनुपचरित कथनको समानभावसे स्वीकार करके द्रव्य, गुण ओर पर्योयकी इप्टिसे सब पदार्थेके भेदाभेदका विचार किया गया है वहां पर बैसा विचार करनेके लिये नेगमादि नयोंकी पद्धति स्वीकार की कि १९६ जैनतत्त्वमीमांसा गई है। किन्तु जहां पर आत्मसिद्धिमें प्रयोजनीय इदृष्टिको सस्पादित करनेके लिये कौस कथन उपचरित हैँ और कौन कथन अमुपचरित है इसकी मीमांसा की गई है वहां पर भिन्न प्रकारसे नयपद्धति स्वीकार की गई हैं । प्रकृतमें दूसरी नयपद्धतिकी मीमांसा करना मुख्य प्रयोजन होनेसे उसीके आश्रयसे विचार करते हैं ;-- मूल नय दो हैं;--निश्चयनय और व्यवहारनय | ये दोसों मूलनय हैं इसका उल्लेख नयचक्रमें इन शब्दोमे' किया हँ-- णिच्छुय-ववहारणयवा मूलिमभेया श॒याण सब्वाणं | णिच्छुयसाहणदेऊ पज्जव-दव्वत्थियं मुणह ॥ १८शा सव नयोंके निश्वयनय और व्यवहारनय ये दा मूल भेद हैं। तथा परयोयार्थिननय ओर द्रव्या्थिकनयको निश्चयनयकीः सिद्धिका हेतु जानो ॥१८१॥ इन नयोंक्रा स्वरूप निर्देश करते हुए समयप्राम्मतमे' कहा है;- बवहारो5भूयत्थो भृयत्यो देसिदों दु सुछणओ भयत्थमस्खिदों खलु सम्माइट्री हवइ जीवो ॥११॥ आगससे' व्यवह्स्वयकों अभूतार्थ ओर निश्चयनयको भूतार्थ कहा हैं। इनमे से भूतार्थका आश्रय करनेवाला जीव नियमसे सस्यस्दरष्टि है ॥१९॥ | इस गाथाकी व्याख्या करते हुए आचार्य अमृतचन्द्र कहते हें:-- व्यवहारनयो हि सर्व एवामूतार्थवादभूतमर्थ प्रयोतयति | शुद्धनय एक एव भृताथत्वाद्‌ भूृतमस्॒थ प्रयोत्तयति [: व्यवहार्तय नियससे सबका सब अभूतार्थ होनेसे अभूत निश्चय-व्यवहारमीमांसा १९७ अथको प्रकाशित करता है; तथा शुद्धनय एकमात्र भूताथ होनेसे भूत अथको प्रकाशित करता है | आगे इसी टठीकामे' आचाय अम्रतचन्द्रने भूताथ और अमूताथ शब्दोंके अथका स्पष्टीकरण करते हुए जो वतलाया हैं उसका भाव यह है कि जिस प्रकार कीचड़ युक्त जल जलका स्वभाव नहीं है, इसलिये कीचड़ युक्त जलकों जलन समभना अभूताथ है ओर जो जल निर्मलीके द्वारा कीचड़से अलग कर लिया जाता है वह मात्र जल होनेसे भूतार्थ है। डसीग्रकार कर्म- संयुक्त अवस्था आत्माका स्वभाव न होनेसे अभूता्थ है ओर झुद्धहष्टि द्वारा कमसंयुक्त अवस्थासे ज्ञायकस्वभाव आत्माकों अलग करके उसे ही आत्मा सममना भूतार्थ है। इस प्रकार भूतार्थ ओर अभूताथ शब्दोंका स्पष्टीकरण करके अन्तमें वे कहते हैं कि यतः व्यवहारनय अमूताथत्राही है अतः बह अनुसरण करने योग्य नहीं है । ह यहाँ इतना विशेष सममना चाहिए कि प्रकृतसें आचाये ' असृत्तचन्द्रने भूताथ ओर अभूतार्थका जो अथ्थ किया हे वह अपनेसें मौलिक होकर भी प्रकृतमें भूतार्थका वाच्य क्या है और अभूतार्थ शब्दमें कितने अथथ गमित हैं इसका हमें अन्य प्रमाणोंके अकाशमें विस्तारसे विचार करना होगा । उसमें भी हम सर्वप्रथम ' भूताथथके विंपयमें विचार करके अन्‍न्तमें अभूताथके सम्वन्धमें निर्देश करेंगे । समयप्राम्ंतमें शुद्ध आत्माका निर्देश करते हुए कहा | णु वि होदि अप्यमत्तो ण॒ पमत्तो जाणओ दु जो भावों । एवं भणंति सुद्ध णाओ जो सो उसो चेव |६॥ जो ज्ञायक भाव है वह अप्रमत्त भी नहीं है ओर न प्रमत्त हैं। ओर इस प्रकार जो ज्ञात १९) ४ मी । | ह ब्न्न्नन्बी ञः 2 न्ज /!॥ रे श शुद्ध आत्माकां व्याख्या की है। शुद्ध आत्मा क्या है ऐसा प्रश्न हानेपर वे कहते हैं. कि जाज्ञायक्ृरभात्र हे वह न ता प्रमत्त हें ऑरन अग्नमत्त हां है । जाबका प्रमत्त ओर अप्रसत्त थ अवन्थाविशेप है । इन्हें लक्ष्यम लनचस ये अनम्धाए हा कक््यम आता हु. !नत्रकाला धवस्तभावद आत्माकी प्रतीति नहीं हाती | इसलिए यहाँपर आत्मा न ता हूं आर न अम्रमत्त ही हे ऐसा कहकर सदमत ओर असदसमृत दानां प्रकारक्त व्यवहारका निपेघ किया गया है । तात्पय कि जा संसारी जीव अपने त्रिकाली ध्रवस्वभा:क सन्मुस्त हाकर उसका अद्धा करता है, रुचि करता हू ओर प्रतीति करता हैं उसे उक्त दोनों प्रकारकी अवस्थाओंसे मुक्त एक मात्र निर्विकल्प आत्मा ही अनुमचर्मे आता है। गाथाके प्रारस्ममें यद्यपि उसे विशंपणुरूपस ज्ञायक् शब्द द्वारा सन्‍्वाधित किया गया है। परन्तु पचारकर देखा जाय ता उसका किसी भी झाब्द द्वारा जज & कथन करना सन्मव नहीं है. क्योंकि पयोचवाी जितने भी नाम हे व उस घनविशिष्र करके ही इसका कथन करते हैं, इसलिए प्रकृत साथाम उस निविकल्प आत्माका ज्ञान करानेके लिए अन्तमें . कहा गया ६:-- बह ता बहा है! ॥ 0) हर! चहापर एसा समकता चाहिए कि लोकमसें जड़ ओर चेतन जितन भा पदाथ॑ हू व॑ सब अपने अपने जसुण-पयायास वव्रश्षिप्ठ हाक्र पयक प्रथक सत्ता रखतें है| अल्यक्ष आत्माकां सत्ता ्य्स्य जड़ पदाथांस ता सिन्न | कस हैं ही, किन्तु अपने समान अन्य चेतन पदाथांसे भी प्रि न ० 5 श् ह€। ।कन्तु प्रकृतमें माचसासे निश्चय-व्यवहारमीमांसा १९९ पर आरूढ़ होनेके लिए इतना ज्ञान लेना ही पर्याप्त नहीं है, क्योंकि जबतक इस जीवको अध्यात्मशास्त्रोंमं प्ररूपित विधिसे जीवादि नो पदार्थोकी यथार्थ प्रतीति “नहीं होती है तब तक वह सम्यग्दशंनका भी अधिकारी नहीं हो सकता। विचार कीजिये हमने यह जान लिया कि रूप-रसादिसे भिन्न चेतनालत्षणवाला जीव स्वतन्त्र द्रव्य हे। उसकी संसार ओर मुक्त ये दो अवस्थाएँ है । संसारी जीब इन्द्रियोंके भेदसे पांच प्रकारके ओर कायके भेदसे छह प्रकारके हैं तो इतना जान लेने मात्रसे हमें क््या लाभ मिला। केचल निखिल शाखोंका ज्ञाता होना ही मोक्षमार्गसें कार्यकारी नहीं है। मोक्षमार्गके ऊपर आरूढ़ होनेके लिए उपयोगो पड़नेबाली जीवादि नो पदार्थेकि विश्लेपण- की प्रक्रिया ही भिन्न प्रकारकी है। जब तक उस प्रक्रियाके अनुसार जीवादि नो पदा्थोका यथार्थ वोध होकर स्वरूपरुचि नहीं उत्पन्न होती तब तक वह सम्यस्दष्टि नहीं हो सकता यह उक्त कथनका तात्पर्य है। इसी तथ्यकों स्पष्ट करते हुए आचार्य कुन्दकुन्द समयप्राभ्वतमें कहते हैं:-- भूयत्येणामिगदा जीवाजीवा य पुणए पाव॑ च। आतव संवंर शिजर बंधो मोवखो य सम्मतं ॥११॥ भूतार्थनयसे जाने हुए जीच, अजोब, पुण्य, पाप, आखब * संबर, निजेरा, वन्‍्ध ओर मोक्ष ये नो तत्त्व सम्यकत्व है । यहां पर मतार्थनयसे जाने गये नो पदार्थकोी सम्यर्दशरनं कहा है। अब यहां पर सर्वप्रथम उन जोबादि नो पदार्थोका भतार्थनयसे जानना क्या वस्तु है इसका विचार करना है, क्योंकि वाह्य दष्टिसे जीव और पुद्लकी अनादि बन्ध पर्यायकों लक्ष्यमें लेकर एकत्वका अनुभव करने पर भी वे भूताथ प्रतीत होते हैं २०० जनतत्त्वमोमांसा ओर अन्‍्तेहष्टिसे ज्ञायक भाव जीव है तथा उसके बविकारका दतु अजीब है, इसलिये केवल जीवक विकार, पुण्य, पाय, आन्नव संवर, निर्जरा, बन्ध और मोक्ष ठहरते हैं तथा जीवके विकाग्के हेतु पुण्य, पाप, आख्व, संबर, निजंग, वन्य आर मसानत्ररूप पुदगलकर्म ठहरते हैं। इस प्रकार इस इष्टिस देखने पर भी नों पदार्थ भतार प्रतीत हाते है, इसलिय यहां पर यह प्रश्न हाता कि प्रकृत गायामें आचार्य मह।राजका 'भताथा शब्दका क्या थे अर्थ मान्य है या इसका काई दूसरा अर्थ यहां पर लिया गया हूं? यद्यपि इस प्रश्का समाधान स्वयं शआाचाय महागजने भतार्थ' शब्दका अर्थ करके इस गाधाके पूर्च ही कर दिया हैं. । वे गाथा १२ में स्पष्ट कहते € कि शुद्ध ( गुण-पयाव भद निगपेज्ञ ) आत्माका उपदेश करनवाला जा नय है वही शुद्ध ( भनाथ ) नय है। यदि कहा जाय कि 'शुद्ध' का ध्यथ ता सिद्ध पर्योय विशिष्ट आत्मा भी हाता है, इसलिये शद्भ शब्दसे बह धर्थ प्रकृतमें क्यों नहीं लिया जाता है ता उसका ऐसा कथन करना ठीक नहीं क्योंकि शद्धनयमें द्नयमें जिस प्रकार गुगभेद अवनिवन्नित गहते हैं उसी प्रकार पयायभेदर भी अविवजक्षित रहता हैं इस बविपय पर स्वयं आचाये महाराजने समग्रप्राभतमे' प्रकाश डाला है। थे कहते हैं :--- चबद्ारेणुवद्स्सि३ह णागिस्स चरित्त दंसशु गा । ण्‌ वि शणाणं ग्॒‌ चरित्तं गु दंसणं जागुगो सद्धों ॥ ७ ॥ क्षानीके चारित्र, ज्ञान ओर दर्शन ये ध्यवृहारनयस उपडिप्ट किये जाते हैं। निश्चयनयसे ज्ञान भी नहीं है, चारित्र भी नहीं ओर दशन भी नहीं हे, ज्ञानी तो मात्र शुद्ध ( गुणपर्यायभेद्‌ निरपेक्ष ) ज्ञायक ही निश्चय-यवहारमीमांसा २०१ इसकी टीका करते हुए आचाये अमृतचन्द्र कहते हैं :-- आत्तां तावदू बन्ध्रप्रत्ययाद्‌ ज्ञायकस्याशुद्धल्, दर्शन-ज्ञान- चारित्रास्येव न विद्यन्ते। यतो हानन्तथर्मस्येकस्मिन्‌ धर्मिस्यनिष्णात- स्वान्तेवासिजनस्थ॒तदवत्रीधविधायिभिः केश्विडमस्तमनुशासतां सरीणां धम-घधर्मिणोः स्वभावतो उभेदेडपि व्यपदेशतो भेदमुत्पाद्व व्यवद्दास्मात्रेणैच ज्ञािनिनों दशनं ज्ञानं चारित्रमित्युपदेश:। परमार्थतस्त्वेकद्रव्यनिष्पीता- नन्तपर्यायतत्रेक किश्विन्मिलितास्वादमभेदमेकस्वभावमनुभवतों न दर्शन नज्ञानं न चारित्रम्‌, ज्ञावक एजेंकः शुद्धः । ज्ञायक जीवके वन्धके निमित्तसे अशुद्धता उपलब्ध होती है' यह कथन तो रहने दो, वस्तुत: उसके दर्शन, ज्ञान ओर चारित्र ही नहीं होते, क्‍योंकि जा अन्तेवासी अनन्त धर्मोबाले एक धर्मकोी समभनेमें अपरिपक्च हे उसे उसका उपदश करते हुए. आचार्योका धर्म और धर्मीमें स्वरमावसे असेद होने पर भी संज्ञासे भेद उत्पन्न करके व्यवहारमात्रसे ही ज्ञानीके दर्शन है, ज्ञान है' ओर चारित्र है ऐसा उपदेश है। परमार्थले तो अनन्त पर्यायोंको पीये हुए एक द्रव्यके होनेसे किंचित मिलित स्वादरूप अभेद एक स्वभाववाले एक द्रव्यका अनुभव करनेबालेके न दशन है, न ज्ञान हैं ओर न चारित्र है, वह एक शुद्ध ज्ञायक ही है। ऐक ज्ञायक- भावकी उपासना करते हुए ( अपने श्रद्धा, ज्ञान ओर चारिंत्रका आश्रय बनाते हुए ) वह 'शुद्ध! ऐसा कहा जाता है । इस तथ्यको प्रकाशमें लानेके असिप्रायसें आचाये अम्ृतचन्द्र समयग्राभ्रत गाथा छहकी टीकामें भी कहते हैं :-- ; यो हि. नाम स्वतःसिद्धत्वेनानादिसर्नन्ती नित्योग्रोतो विशद- ज्योतिज्ञायक एको भाव: । स संसारावस्थायामनादिवन्धपर्यायनिरूपणया च्ीरोदकबत्कमंकलंडें: सममेकत्वेडपि द्रव्यस्वभावनिरूपणया दुरन्‍्तकपाय- निश्चय-व्यवहारमीमांसा रण०्३े किया गया है। समयप्राश्षत गाथा & और १० में श्रतकेवलीकी जो निश्चयपरक व्याख्या की है और गाथा १४ में जो शुद्धनयका स्वरूप वतलाया है उससे भी उक्त अर्थका ही समर्थन होता है इस पर शंका होती हे कि जब मूतार्थ शब्दसे प्रकृतमें ज्ञायकभावका आशेप विशेष निरपेक्ष त्रिकाली भ्रवस्वभाव लिया गया है ऐसी अवस्थासें जीव द्रव्यमें जो गुणसेद ओर पयोय- भेदकी प्रतीति होती है उसे क्या सर्वेथा अभूताथे समका जाय ? , ओर यदि गुणसेद ओर पयोयसेदको स्वधा अभूताथ माना जाता हैं तो जीवद्रत्यके संसारी आर मुक्तरूप जो नानासेद ट्रिगोचर होते हैं वे नहीं होने चाहिये ओर यदि इस भेद व्यवहारकों परमार्थभूत माना जाता है तो उसका निषेध करके ज्ञायकभावके केवल त्रिकाली भर वस्वभावकों भृता्थ बतलाकर सात्र उसीको आश्रय करने योग्य नहीं वतलाना चाहिये। यह तो सुस्पष्ट हे कि जैनदशनमें न तो केवल समान्यरूप पदार्थको स्वीकार किया गया है ओर न केवल विशेषरूप स्व्रीकार किया गया है। किन्तु उसमें पदार्थकों सामान्य-विशेषास्मक सानकर ही. वस्तु व्यवस्था की गई है। ऐसी अवस्थामें ज्ञायकभावके त्रिकाली श्र बस्व॒भावकों भूतार्थ वतल्ााकर मोक्षमार्गमें उसे ही आश्रय करने योग्य चतलाना कहाँ तक उचित है यह विचारणोय हो जाता हैं, क्‍योंकि जब कि ज्ञायकभावका केबल त्रिकाली थ्र वस्वभाव सर्वथा कोई स्वतन्त्र पदाथ ही नहीं हे ऐसी अवस्थामें सात्र उसीको आश्रय करने योग्य केसे माना जा सकता हे ? उक्त धनका तात्पय यह हे कि प्रकृतमें या तो यह मानों कि सासान्य- विशेषात्मक कोई पदार्थ न होकर सामान्यात्मक ही पदार्थ है, इसलिये सोक्षमार्गम सात्र उसे ही आश्रय करने योग्य बतलाया र्ण्४ड जनतक्तमीमांसा गया है और यदि पदार्थकों सामान्य-विशेषात्मक माना जाता ह तो केवल उसके सामान्य अंशका भतार्थ ऋहकर उसके विशेष अंशका अभताथ बनलाते हुए उसका निपथ मत करो । तब यहां माना कि जा जीव द्ब्यका सामान्य-विद्यपात्मकऋ्पस भुतावं जानकर उभयरूप उसका लक्ष्यमें लता है बह सम्यस्दष्ठि हैं यह एक मोलिक प्रश्न है जिस पर यहाँ सांगापांग विचार करना है| यह ता मानी हुई बात है कि आगममे एक जीव द्रव्य ही क्‍या प्रत्येक द्रव्यका जा सामान्य-विशेषात्मक या गुण-प्रयायवाला चतलाया गया है| वह अवथार्थ नहीं ह। संसारी जीव छाना- चरणादि कममसे संयक्त होकर विविध प्रकारकी नग्-नारकादि पर्यायोंकी धारण कर रहा है इस किसीन अपरमाधमत कहा हो ऐसा हमारे देखनेमें नहीं आया। क्‍्यय॑ं आचाय॑े अम्ृतचन्द्रन समयप्राभृत गाथा ९३ व १४ की टीका जीब द्रब्यकी इन सब अवस्थाओंका भृतावस्पस स्वीकार किया है। इसलिए कांड जीवद्र॒त्यकों या अन्य द्रब्योंकों सामान्य-विशेषात्मकर्पस जानता है तो बह अयथार्थ जानता हे यह प्रश्न ही नहीं उठता। एक द्रव्यके आभ्रयसे व्यवह्यरनयका जितना भी विपय है बह सबका सब भृताथ है इसमें सन्दंह नहीं | फिर भी यहां पर जा व्यवद्वार- नयके विपयको अभतार्थ ओर निश्चयनयक्ेें विषयको भतार्थ के गया है उसका कारण अन्य हैं। चात यह ह कि संसारी जीव अनादि कालसे परके निमित्तस अपने अपने स्वकालमें ज़ब जो पयाय उत्पन्न होती हैं उसे ही स्वात्मा मानता आ रहा हैं। परिणामस्वरूप किसी विवज्षित पयायके उत्पन्न होने पर रागवश वह उसका प्राप्तिमें हूपित होता है ओर उसके व्ययक्ेे सम्मस्त होने पर वियोगकी कल्पनासे दुखी होता हैं। पर्यायोका उत्पन्त हाना ओर नष्ट होना यह उनका अपना स्वभाव है इसे मल कर निश्चय-व्यवहारमीमांसा २०५ वह उनके उत्पाद और व्ययकों अपना ही उत्पाद और व्यय समानता आ रहा है । इन पयोयोमें रममाण होनेवाला में त्रिकाली प्रवस्वभाव हूं इसका उसे भान ही नहीं रहा है। इस जीवके अनादि कालसे संसारमें परिभ्रमण करनेका मूल कारण यही है। यह तो स्पष्ट है कि इस जीवकी संसारस्वरूप जितनी भी पर्यायें प्राप्त होती हैं वे सबकी सब त्यागने योग्य हैं और यह भी स्पष्ट है कि सिद्धपयोय उपादेय होने पर भी उसे बतंमानमें प्राप्त नहीं है। अब विचार कीजिये कि जो पायें त्यागने योग्य हैं उनका आश्रय लेनेसे तो सिद्ध प्योयकी आप्ति हो नहीं सकती,. क्योंकि उनका आश्रय लेनेसे संसारकी ही वृद्धि होती है' और जो पयोय ( सिद्धपयोय ) व्तेमानमें है. नहीं उसका आश्रय लिया नहीं जा सकता, क्‍योंकि जो वतमानमें है ही नहीं उसका अब- लम्बन लेना कैसे सम्भव हे । परन्तु इस जीवकों संसारका अन्त कर मुक्त अवस्था अवश्य प्राप्त करनी है, क्‍योंकि वह इसका चरम ध्येय है । तब प्रश्न होता है कि वह किसका आश्रय लेकर आगे बढ़े और मुक्ति केसे प्राप्त करे ? इसके समाधानस्वरूप यह कहना तो बनता नहीं कि जो साधक जीव संसारका अन्त कर मुक्त हो गये हैं उनका आश्रय लेनेसे इस जीबको मुक्तिकी प्राप्ति हो जायगी, क्‍योंकि वे पर हैं। अतएव॒ एक तो परका आश्रय लेना बनता नहीं। और कदाचित्‌ व्यवहारसे निमित्त-मेमित्तिकभावको लक्ष्यमें रखकर ऐसा मान भी लिया जाय तो क्या यह सम्भव हे कि निमित्त पर दृष्टि रखनेसे इस जीवको उस हाय मुक्ति ग्राप्त हो . १, यद्यपि ऐसे जीवके श्रस्तित्वादि गुणको शुद्ध पर्यायें होती है तो भो वे भेदरूप होनेसे उसके आ्राश्ययसे भी राग उत्पन्न होता है, इसलिएः . उनका भी आश्रय नहीं लिया जा सकता। २०६ ज्नतत्त्वमोमांसा जायगी ? अथांन नहीं होगी. क्योंकि जो पर हैं उसपर दृष्टि रखनेसे परनिज्षेप पर्यायकी प्राप्रि हो जाय यह त्रिकालमें भी सम्भव नहीं हैं| यदि कहा जाय कि जा इस जीचके ज्ञानादि गुण हैं उन पर इष्टि रखनेसे मुक्तिकी प्राप्ति हह जायगी सो ऐसा कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि ऐसा करनेसे भी व्िकल्पज्ञानकी प्रद्नत्ति नहीं रुक सकती और जब तक विकल्पज्ञानकी प्रवृत्ति नहीं रुकेगी तब तक अभेद रत्लत्रयम्बहप मोक्षकी प्राप्रि होना सम्भव नहीं हैं। तब यह पुनः प्रश्न हाता है कि यह जीव किसका आश्रय लेकर मोक्षक लिए उद्यस करे, क्योंकि चह जीच किसीका आश्रय लिए विना मुक्तिको प्राप्त कर ले यह ता सम्भव नहीं हैं। साथ ही यह भी वात है कि जिसका आश्रय लिया जाय वह न तो काल्पनिक होना चाहिये ओर न सुण-परयोयर्क भदरूप हो होना चाहिये। वह आश्रयभूत पदाथे उससे सचथा भिन्न हां नहीं सकता, क्योंकि जहाँ कथंचित्‌ भेद विवज्षा भी प्रकृतर्वं अयोजनीय नहीं हैं वहाँ सवधा भेदरूप पदाथका आश्रय लेनेसे इंप्ट कायकी सिद्धि केसे हो सकती है, अथान नहीं हा सकती | साथ ही एक वात ओर वह यह कि साज्ञके लिये जिस पदाथका आश्रय लिया जाय बह अपनेसे अभिन्न होकर भी स्वयं अविकारी तो होना ही चाहिये साथ ही नित्य भी हाना चाहिए, क्योंकि जो विकारी होगा उसका आश्रय लेनेसे निरन्तर बिकारकी ही सष्टि होगी आर जो अनित्य होगा उसका सचेदा आश्रय करता वचन नहीं सकेगा | अब विचार काजिए कि ऐसा कोन सा पदार्थ हो सकता है जो अपनेसे आभन्न होकर भी न ता विकारी है ओर न अनित्य हो हैं। विचार करने पर बिडत हाता हैं कि ऐसा पढ्मर्थ परम पारिशामिकर्माव हा हा सकता हैं। ज्ञायक भाव या त्रिकाली ध्रवभाव भी उसी कहते ६ै। चियससारक टीकाकारने जिसकी कारण परमात्मा ०॥/१ /! 4५ टह १ निश्चय-व्यवहारमीमांसा २०७ संज्ञा रखी है वह यही है । वह निगोद पर्योयसे लेकर सिद्ध पर्याय तक सव अबस्थाओंमें समानरूपसे सदा एकरूपमें पाया जाता है, इसलिये वह स्वयं निरुपाधि है ओर जो स्वयं निरुपाधि होता है बह विकार रहित तो होता ही है. यह भी स्पष्ट है और जो स्वयं विकार रहित होता है बह नित्य भी होता है यह भी स्पष्ट है। ऐसा नित्य और निरुपाधि स्वभावभूत जो ज्ञायक भाव है' वही मोक्षमार्गमें आश्रय करने योग्य है यह जान कर आचार्य कुन्दकुन्दने इसे तो भूता्थ कहा हे ओर इसके सिवा जितना भी भेदव्यवहार है उसे अभूतार्थ कहा है। द्रब्यमें गशुणभेद और पर्योयभेद है इसमें सनन्‍्देह नहीं और इस इष्टिसे वह भूत्ताथ है यह भी सच हो। परन्तु त्रिकाली ध्रचसस्‍्वभावी ज्ञायक भावसें वह अन्तर्लीन होकर भी अविवज्षित रहता है, इस लिये इस अपेक्षासे उसमें इसकी नास्ति ही जाननी चाहिये । कहीं कहीं इस भेदव्यवह्ारकों असत्यार्थ और मिथ्या भी कहा गया है-सो ऐसा कहनेका भी यही कारण है। वात यह है कि जो साधक है उसे यह भेद जानने योग्य होकर भी आश्रय करने योग्य त्रिकालमें नहीं है, इसलिये उस परसे दृष्टि हटाकर ज्ञायकके एकमात्र त्रिकाली भ्र्‌वस्वभाव पर दृष्टि करनेके लिये यह कहा गया हे कि जितना भी भेदव्यवहार ओर संयोगसम्वन्ध है वह सवका सव अभूतार्थ है, असत्यार्थ है और मिथ्या है। इस प्रकार जीव द्रव्यके सासान्य-विशेषात्मक होने पर भी मोक्ष- सार्गमें ज्ञायकभावके त्रिकाली ध्रवभावकों तो क्यों भूतार्थ चतलाकर आश्रय करने योग्य कहा और भेद॒ग्यवहारक्ों क्‍यों १. पारिणामिकस्त्वनादिनिधनो निरुपाधि: स्वाभाविक एवं । पञ्चास्तिकाय गाथा ५८ टीका २०८ जेनतत्त्वमीमांसा अ्रभतार्थ वतलाकर त्यागने योग्य वतलाया इसका विचार किया। यह तो मूठार्थ और अमूतार्थकी मीमांसा हुई। इस इष्टिसे जब इन नयोंका विचार करते हैं तो मोक्षमार्गमें आश्रय करने योग्य जो भताथ है वह एक प्रकारका होनेसे उसे विषय करनेवाला निश्चयनय तो एक ही प्रकारका बनता हैँ। यह परससाचतश्राही निश्चयनय है। इसका लक्षण वतलाते हुए नयचक्रमें कहा भी है;-- गेहइ दबच्बसहाव॑ असुद्ध-सुद्धोपयारपरिचत्तं । सो परमभावगाही णायब्यों सिद्धिकामेंण ॥१ध्ध।॥ जा अशुद्ध, शुद्ध आर उपचारस राहत सात्र हृठ्यस्रभावका अहण करता है, सिद्धिके इच्छुक पुरुष ढ्ारा वह परम भावश्रादी द्रव्याथिकनय जानने योग्य है ॥१६९॥ उत्त गाथामें आया हुआ 'सिद्धिकामेण” पद ध्यान देने योग्य है । इस द्वारा यह सूचित किया गया हैं कि जो पुरुष मुक्तिके इच्छुक हैं उन्‍हें एक मात्र इस नयका विपय ही आश्रय करने योग्य है। किन्तु इस चयके विषयका आश्रय करना तभी सम्भव है जब इस जीवकी दृष्टि न ता जीवकी शुद्ध अचस्था पर रहती - हैँ, न अशुद्ध अवस्था पर रहती है ओर न उपचरित कथनको ही वह अपना आलम्बन चनाती है, इसलिए उक्त गाथामें दृव्याथिकनय ( निश्चयनय ) के विपयका निर्देश करते हुए डसे अशुद्ध, शुद्ध ओर उपचारसे रहित कहा है। निश्चय शब्द “निरः उपसर्ग पूर्वक 'चि? धातुसे बना है। डसका अथ हैँ जो नय सब प्रकारके चय अथात्‌ गुणोंके ओर पयोयोके समुदाय, संयोगसस्थन्ध, निमित्त-नेंमित्तिकसम्व॒न्ध आर उपादान-उपादेयसम्वन्धकों प्रकाशित करनेवाले उ्यवद्यारसे निश्चय-व्यवहा रमो मांसा २०९ निष्क्रान्त होकर मात्र अभेदरूप त्रिकाली धर वभाव या परम ' पारिणामिकभावकों स्वीकार करता निश्चयनय है! | इसका किसी उदाहरण द्वारा कथन करना तो सम्भव नहीं है, क्‍योंकि विधिपरक जिस शब्द द्वारा इसका क्रथन करेंगे उससे किसी अवस्था या शुणविशिष्ट बस्तुका ही वोध होगा। परन्तु माज्ष- सागमें आश्रय करने योग्य जो निश्चयका विपय है वह ऐसा नहीं है, इसलिए इसका जो भी लक्षण किया जायगा वह व्यवहारका निपेघ परक ही होगा । यही सब विचारकर पंचा- ध्यायीकारने इसका इस प्रकार लक्षण किया है;--- व्यवहारः प्रतिपेध्यस्तस्य प्रतिपेघकश्रः परमार्थः | व्यवहारप्रतिपेघः स एवं निश्चयनयस्य वाच्यः स्थात्‌ ॥१-४६८।॥ व्यवहारः स यथा स्थात्‌ सद्‌ द्र॒व्यं ज्ञानवांश्व जीवो वा । नेत्येतावन्मात्रो भवति स निश्चयनयो नयाधिपतिः ॥१-५६६॥ व्यवहार प्रतिपेध्य है अथोत्‌ निपेध करने योग्य है ओर निश्चय उसका निपेध करनेवाला है, इसलिये व्यवहारका ग्रतिपेध- रूप जो भी पदार्थ है वही निश्चयनयका वाच्य. है ॥॥१-४५८८॥ जैसे द्रव्य सदरूप है या जीव ज्ञानवान्‌ है ऐसा विपय करनेयवाला व्यवहारनय है ओर उसका निषेधपरक “न! इतना मात्र निश्चयनय 'है जो सब नयोंमें मुख्य है॥ १-५८९॥ समयप्राश्षत गाथा १४ में शुद्धनयका लक्षण करते हुए जो यह कहा है कि जो आत्माकों वन्ध ओर परके स्पशसे रहित अन्यत्व रहित, चलाचलरहित, विशेषरहित ओर अन्य संयोग रहित ऐसे पाँच भावरूप देखता है उसे शुद्धनय ( परमभावश्नाही , १, यह व्युत्पत्ति निश्चय शब्दकें ऊपरसे की गई है। ( पूज्य पं० वंशीधर जी न्यायालंकार इस व्युत्पत्तिको स्वीकार करते हैं । ४९: निश्चय-व्यवहारमो मांसा २११ विपय क्या है यह दिखल्ञाते हुए:उसका कथन किया है और दूसरी वार जो निमश्चय्ननयका विपय हैँ उसरूप आत्मानुभूतिकों ही निश्चयनय कहा हे सो उनके ऐसा कथन करनेका खास कारण यह है कि जब तक यह जीव निश्चयनयके विपयको ठीक तरहसे हृदयंगम करके तद्र,.प आत्मानुभूतिको प्रगट करता हुआ उसीमें सुस्थित नहीं होता है तब तक वह विविध पग्रकारके अध्यवसान- भावोंसे जायमान अपनी भावसंसाररूप परयोयका अन्त कर मुक्तिका पात्र नहीं हो सकता। मुक्ति ओर संसारका परस्पर विरोध है। संसारके कारण विविध प्रकारके अध्यवसान भाव हैं और मुक्तिका कारण उनका त्याग है। परन्तु विविध प्रकारके अध्यवसानभावोंका त्याग हो कैसे यह प्रश्न हे! यह तो हो नहीं सकता कि यह जीव एक ओर विविध प्रकारके अध्यवसान भावोंके कारणभूत व्यवह्ारनयकों उपादेय सानकर उसका आश्रय भी लिये रहे ओर दूसरी ओर संसारका त्याग करनेके लिये उद्यम भी करता रहे, क्‍योंकि जब॒ तक यह जीव उपादेय सानकर व्यवहारसयका आश्रय करता रहता है तब तक नियससे ध्यवसानभावोंकी उत्पत्ति होती रहती हे और जब तक इसके अध्यवसानभावोंकी उत्पत्ति होती रहती हे तव तक संसारका अन्त होना असम्भव हे, इसलिये जो निश्चयनयका विपय हैँ वही आश्रय करने योग्य है ऐसा जान कर उसकी अनुभूतिकों ही निश्चयनय कहा है | व्यवहारनय ग्रतिपेध्य क्यों है और निमग्चयनय अतिपेधक क्यों हे इसका रहस्य भी इसीसें छिपा हुआ है। आधचाये कुन्दकुन्दने समयप्राभ्बत आदि परमसागममें सत्र पहले उ्यवहारनयके विपयकों उपस्थितकर वादमें निश्चयनयके कथन द्वारा जो उसका निपेध किया है उसका कारण भी यही । जैसा कि उनके इस उल्लेखसे ही स्पष्ट हे २१२ जैनतत्त्वमीमांसा एवं बवहरणओं पडिसिद्धो जाण शिच्छुयण॒एणु । शिच्छुयबणयासिदा पुण मुणशिणो पावंति शिव्वाणं ॥२७२॥ इस प्रकार निम्वयनयके द्वारा व्यवहारनय ग्रतिपिद्ध हैँ एसा जानो। तथा जो मुनि निम्वयनयका आश्रय लिये हुए हैं थे' निर्वाणको प्राप्त होते हैं ॥ २७२ ॥ यहाँपर गाथामें आया हुआ 'णिच्छुयणयासिदा' पद ध्यान देने याग्य हैं। इस द्वारा आचार्य महाराज स्पष्ट सूचित करते हैं कि मोक्षमार्गमें एकमात्र निश्वयनयका सहारा लेनेस ही मुक्तिकी प्राप्ति हागी, व्यवहारनयका सहारा लेनेसे नहीं । यद्यपि आचार्य महाराज निश्चयनयके द्वारा व्यवहारनय प्रतिपिद्ध क्‍यों हे इसके कारणका ज्ञान इसके पहले ही करा आये हैं पर सोज्षमार्गमें निश्चयलयका सहारा लेना ही कायकारी हैं ऐसा कहनेसे भी उक्त अथ फलित हो जाता हैं । निश्चयनय प्रतिपेघक है ओर व्यवहारनय प्रतिपेध्य हे यह आचाय अमृतचन्द्रके इस वचनसे भी सिद्ध है। वे समयप्राभ्रत गाथा ५६ की टीकामें कहते हैं :-- निश्चयनयस्तु द्रव्याभितत्वात्केवलस्थ जीवस्व स्वाभाविक भावभव-- लम्ब्योत्ज्लवमानः परभावं परस्य सबंमेव प्रतिपधयति | ह तथा निश्चयनय द्रव्याश्रित होनेस केवल जीवके स्वाभाविक भावका अचलस्व॒न लेकर प्रकाशित होता है, इसलिए वह परके सभी अकारके परभावका प्रतिपेध करता है | यह तो सुविदित बात हैं कि जो आश्रय करने योग्य नहीं होता है वह प्रतिपेध्य होता है और जो आश्रय करने योग्य हांता पतिषंधक होता हैँ। उदाहरणाथ ज्ञो प्राणी स्वच्छ और शॉतल जलसे अपनी उृष्णा उपशान्त करना चाहता हैं बह जब निश्चय-व्यवहा रमीमांसा “२१३ किसी निर्भीरिणोमें गंदले जलकों देखता हे तो वह जलके गंदले- 'पनको प्रतियेथ्य समझ कर उसके प्रतिपेघकरूप स्वच्छ एवं शीतल जलको ही स्वीकार करता है । यही वात प्रकृतमें जाननी चाहिएण। यहाँ पर सलिन जलस्थानीय व्यवह्रनयका विपय है आर स्वच्छ एवं शीतल जलस्थानोय निश्चयनयका विषय है। इस- लिए मोक्षका इच्छुक जो आसनन्‍्न भव्य प्राणी पहले निश्चयनयके विपयकों ठीक तरहसें जान कर उसीका आश्रय लेता है उसके द्वारा व्यवहारनयका विपय आश्रय करने योग्य न होनेसे अपने आप प्रतिपेध्य हो जाता है । ह तात्पर्य यह है कि जो निश्चयनयका विपय है वही इस जोवके झारा आश्रय करने योग्य है, इसलिये उसके द्वारा व्यवहारनयका 'विपय अपने आप प्रतिपिद्ध हो जाता है | निश्चयनय आश्रय करने योग्य क्‍यों है इसका निर्देश करते हुए आचाये अम्ृतचन्द्र समय- गश्चत गाथा ११ की टीकामें पूर्वोक्त जलके दृष्टान्त द्वारा चहुत ही स्पष्ठ खुलासा करते हुए स्वयं कहते हैं :-- यथा प्रचल्पंक्संचलनतिराहितसहजेकाचछुमावस्थ. परयसोडनु- भवितारः पुरुषराः पड़ु-यवसोविवेकमकुबन्तों बहबोइनच्छुमेब तदनु- भवत्ति | केचित्त स्वकरविकीर्णक्रतकनिपातमात्रोपजनितपं कपयसोर्विवेकतया स्वपुस्याकारांव भावतसह जकाब्छ मावत्वादच्छुमेव तदनुभव्रान्त । तथा अबलकमंसंबलनतिरोहितसहजेकज्ञायकस्यात्मनों उनुमवितार पुरुषा आत्मकर्मंणोर्विवेकमकवन्ती व्यवहारावमादहतहुदयां प्रयोतमानभाव- चश्वरून्य तमनुभवान्त | मृताथदाशनस्यु स्वमतिनिपातितशुद्ध नवानुबोध मात्रापजानतात्मक्मावबकतया स्वपुरु बाकाराविभावितसहे जकज्ञायकस्व भा- चत्वात्‌ प्रद्योतमानैकज्ञायक्रमावं तमनुमवन्ति | तदत्र ये भूतार्थमाअ्यन्ति ते एवं सम्बक पश्यन्तः सम्यन्दाट्या भत्रात्त ने पुन्तरत्म क़तकस्थानीयत्वा- च्च्लद्धनयत्य | अतः प्र यगात्मदशि/भव्यंवहारनयों नानुसतंव्यः । २१४ जैनतत्त्वमीमांसा जिस प्रकार प्रवल कीचड़के मिलनेसे जिसका सहज एक निर्मलभाव आच्छादित है ऐसे जलका अनुभव करनेवाले बहुतसे पुरुष तो ऐसे हैं जो कीचड़ ओर जलका विवेक न करते हुए उस मेले जलका ही अनुभव करते हैं। परन्तु कितने ही पुरुष अपने हाथसे डाले हुए कतकफलके गिरनेमात्रसे उत्पन्न हुए कीचड़ ओर जलके प्रथककरण वश अपने पुरुपार्थ द्वारा अगंट क्रिया गया सहज एक स्वच्छ जलस्वभाव होनेसे उस निर्मेल जलका ही अनुभव करते हैं। उसी प्रकार प्रवल कर्मोके मिलनेसे जिसका सहज एक ज्ञायकभाव तिरोहित है. ऐसे आत्माका अनुभव करने- वाले बहुतसे पुरुष तो ऐसे है जो आत्मा ओर कर्मका विवेक न करते हुए व्यवहारसे विमोहित हृदयवाले होकर प्रगट हुए वेश्वरूप भावकों लिए हुए उस आत्माका अनुभव करते हैं । किन्तु भृत्ताथदर्शी ( सहज एक ज्ञायकभावकों देखनेवाले ) पुरुष अपनी चुद्धिसे डाला गया जा शुद्धनय तदनुरूप बोध होनेमात्रसे आत्मा ओर कमका विदेक हो जानेके कारण अपने पुरुपाथे द्वारा प्रकट हुए सहज एक ज्ञायकस्वभाव होनेसें प्रकाशमान एक ज्ञायकभावरूप उस आत्माको अनुभव करते हैं। इसलिए यहाँ ऐसा समभना चाहिए कि जो भूतार्थ (सहज एक ज्ञायकभाव) का आश्रय करते है वे ही आत्माकों सम्यकरूपसे देखते हैं, इसलिए सन्यम्दृष्टि हैं। परन्तु इनसे भिन्‍न दूसरे पुरुष सम्यग्दृष्टि नहीं हैं, क्योंकि शुद्धनय कतकस्थानीय है। अतः कर्मासे सिन्‍न आत्माका देखनेवाले जीवोंको वयवह्रनय अनुसरण करने योग्य नहीं है । . आशय यह है कि जिस प्रकार कीचड़ युक्त जलमें जल भी . ह ओर उसकी कीचड़ युक्त अवस्था भी हैं। अब यदि कोई पुरुष उसमेंसे जलकी स्वच्छ अवस्था प्रगट करना चाहता हैं तो उसे कतक फल डाल कर ही उसे प्रगट करना होगा, अन्यथा निश्चय-व्यवहारमीमांसा २१५ बह स्वच्छ जलका उपभोग नहीं कर सकता। उसी प्रकार कर्म संयुक्त जीवमें जीव भी है ओर उसकी कर्मसंयुक्त अवस्था भी हैं। अब यदि कोई पुरुष उसमेंसे जीचकी कमरहित अवस्था प्रगट करना चाहता है. तो उसे भूतार्थनयका आश्रय लेकर ही उसे प्रगट करना होगा, अन्यथा वह जीवकी कमराहित अवस्थाका उपभोग त्रिकालमें नहीं कर सकता। इससे स्पष्ट है कि मोक्षमार्गमें एकसात्र निश्चयनय ही अनुसरण करने योग्य है उ्यवहारनय नहीं। यहाँ ऐसा समझना चाहिए कि व्यवहार ओर निश्चय इस प्रकार जो ये दो नय हैं उनमेंसे प्रकृतमें ठयवहारनय तो कर्म संयुक्त अवस्था विशिष्ट जीवको स्वीकार करता है ओर निग्चधयनय जीवके कमसंयुक्त होने पर भी कर्मसंयुक्त अवस्थाकों न देखकर सात्र ध्रवस्वभावी परम पारिणामिक भावरूप एक जीवको स्वीकार करता हें, क्‍योंकि ऐसा नियम है कि प्रत्येक नय अंशग्राही ही : होता हे इसलिए वे एक एक अंशको ही ग्रहण करते हैं। निश्चय- नय तो केवल सामान्य अंशको ग्रहण करता है ओर व्यवह्यारनय केवल विशेष अंशको ग्रहण करता है। साथ ही एक नियम यह भी है कि प्रत्येक द्रव्यका जो परम पारिणामिक भाषरूप सासान्य अंश है वह सदा अविकारी होता है, एक होता है और द्रव्यकी सब अबस्थाओंमें व्याप्त होकर रहनेके कारण नित्य तथा व्यापक होता है। किन्तु जो विशेष अंश होता है वह यतः कममोदिकके साथ सम्पक करता हे इसलिए विकारी होता है, क्षण क्षणमें अन्य अन्य होनेसे अनेकरूप होता है और एक क्षण स्थायी होनेसे अनित्य तथा व्याप्य होता है। इस प्रकार ये दोनों नय एक द्रव्यके इन दो अंशों- को स्वीकार करते हैं । अब प्रकृतमें विचार यह करना है कि कर्म- संयुक्त यह जीव अपनी कममके संयोगसे रहित अवस्थाकों कैसे २६६ जैनतत्त्वमीमांसा प्रगट करे | निरन्तर यदि बह कर्मसंयुक्त अवस्थाका ही अनुभव करता रहता है और उसीका आश्रय लिए रहता हैं तो बह त्रिकालमें कर्मरहित' अवस्थाका प्रगट नहीं कर सकता, क्योंकि जो जिसका आश्रय लिए रहता है उससे वही अचस्था प्रगट हाती है। यही कारण हैं कि आचारयोने कर्मसंयुक्त अवम्धाके मेंटनेक्रे लिए निश्चयरूप एक ध्र वस्वभावी ज्ञायकभावका आन्वय लनका उपदेश दिया है। यह जीव इन दोनों नयोंके ठारा जानता नो अपने इन दोनों अंशोंकों ही । इसलिए जाननके लिए निश्चयनय के समान व्यवहारनय मी प्रयोजनवान है. पर मोक्षार्थी आश्रय एकमात्र निश्चयनयका लेता हैं, क्‍योंकि उसका आश्नय लिए बिना संसारी जीवका वन्धनसे मुक्त दोना सम्भव नहीं हू। जानने ओर जानकर आश्रय लेनेमें घड़ा अन्तर हैँै। व्यवहारनय जानने योग्य हे ओर निश्चय नय जानकर आश्रय लेने योग्य है यह उक्त कथनका तात्पय हैं। इसलिए मोज्षमार्गमं व्यवहारनयकों प्रतिपिद्ध क्यों कहा ओर निश्चयनयको ग्रतिपेधक क्यों माना इसका स्पष्टीकरण हो जाता है। यहाँपर कोई प्रश्न करता है कि मोक्षसार्गमें निश्चय्ननयके द्वारा यदि व्येबहारनय सेथा प्रतिपिद्ध हैँ तो साधकके व्यवहारथर्मकी प्रवृत्ति केसे बच सकेगी ओर उसके व्यवहाग्ध्ंक्की प्रद्नृत्ति होती ही नहीं यह कहना उचित नहीं हैं, क्योंकि गुणस्थानोंकी भूमिकानुसार उसके व्यवहारघर्म पाया ही जाता है। दालनों नयोंकी उपयोगिताको ध्यानमें रखकर एक गाथा उद्ध्बतकर आचाये अमृतचन्द्र भी समयसारकी टीकासें कहते हैं;-- जइ जिशमयं पवज्जह ता मा ववहार-णिच्छुए मुयह । एगेण विणा छिज्जइ तित्थं अण्णेण उण तच्च ॥ निश्चय-व्यवहारमीमांसा २१७ यदि तुम जैनधर्मका ग्रवर्तत करना चाहते हो तो व्यवहार ओर निश्चय इन दोनों नयोंकों मत छोड़ो, क्‍योंकि एक (व्यवहार- नय) के बिना तो तीथका नाश हो जायगा ओर दूसरे (निमश्वयनय) के विन्ता तत्त्वयका नाश हो जायगा | समाधान यह हे कि साथकके अपने अपने गुणस्थानानुसार व्यवहारधर्म होता हैं इसमें सन्देह नहीं पर एक तो वह वन्ध परयोयरूप होनेके कारण साधककी उसमें सदाकाल हेय वुद्धि वनी रहती हे। दूसरे वह रागका कतो न होनेसे श्रद्धामें उसे आश्रय करने थोग्य नहीं मानता । साधक श्रद्धामें तो निश्चयनयकों ही आश्रय करने याग्य मानता हैं परन्तु बह जिस भूमिकासें स्थित होता उसके अनुसार वतन करता हुआ उस कालमें व्यवहारधमंका जानसा भी व्यवहारनयसे प्रयोजनवान गिनता हे। इसी आशयको ध्यानमें रखकर आचाय अम्ृतचन्द्रने यह वचन कहा हे. व्यवहरणुनयः स्वाद्यदग्यपिं प्रावपदव्यामिह निहितपदानां हंत हस्तावलम्बः । तदपि परममर्थ चितच्रमत्कारमात्रं परविरहितमन्तःपश्यतां नेप किंचित्‌ ॥२/। जिन्होंने साधक दशाकी इस पहली पदवीमें ( शुद्धस्वरूपकी श्राप्ति होनेकी पूवकती अवस्थार्मे ) अपना पर रखा यद्यपि व्यवहारनय सले ही हस्तावलम्ब होवे तथापि जो पुरुष परद्रव्य भावोंसे रहित चेतन्‍्य चमत्कारमात्र परम अथको अनन्‍्तरंग्में अवलोकन करते हैं (उसकी श्रद्धा करते है तथा उसरूप लीन होकर चारित्रिभावको प्राप्त होते हैं ) उन्हें यह व्यवहारनय कुछ भी प्रयोजवान नहीं है ॥४५॥ इसपर पुनः अश्न होता है. कि यदि मोक्षमार्गमें निः्चयनयकी ही मुख्यता है तो आचाये झुन्दकुन्दने समयसारकों दोनों २१८ जैनतत्त्वमौमांसा नयोंके पच्से रहित क्‍यों कहा ? अपने इस भावको व्यक्त करते _ हुए वे समयप्राश्॒तमें कहते हैं;-- कम्मं वद्धमबद्ध जीवे एवं तु जाण ण॒यपकखं | पक्खातिक्कतों पुण भण्णदि जो सो समयसारों ॥१४२॥ जीवमें कर्म वद्ध है अथवा अवद्ध हे इस प्रकार तो नयपत्ष जानो। किन्तु जो पन्षातिक्रान्त कहलाता है वह समयसार ( निविकल्प शुद्ध आत्मतत्त्व ) है ॥१७श॥ इसी बातको स्पष्ट करते हुए बे दूसरे शब्दोंमें पुनः कहते हैं;- दाण्ह ववे श॒याणु भाणुय जाएइ णुवर तु समयपाडेब्रद्धा । णु दु ण॒यपक्खं गिरदृदि फ्रिचि वि णुयपत्खपरिहीणों |[१४३१॥ नयपक्षसे रहित जीव समयसे प्रतिवद्ध होता हुआ (चित्स्वरूप आत्माका अनुभव करता हुआ ) दोनों ही नयोंके कथनकों मात्र जानता ही है, परन्तु नयपक्षको किंचित्‌ मात्र भी ग्रहण नहीं करता ॥१४३॥ आचाय अमृृतचन्द्र भी इसका समथन करते हुए कहते हैं-- य एव मुक्त्वा नयपक्षुपातं स्वरूपगुता निवसन्ति नित्यम्‌ | विकल्पजालच्युतशान्तचित्तास्त एवं साक्षादम्तं पिवन्ति ॥६६॥ जो नयोंके पक्तपातकों छोड़कर सदा अपने स्व॒रूपमें गुप्त होकर निवास करते हैं वे विकल्पजालसे रहित शान्तचित्त होते हुए साक्षात्‌ अम्गृतपान करते हैं ॥६७॥ इसी प्रकार इस कथनके वाद फिर भी वहुत्त प्रकारसे आचाय अमृतचन्द्रन दोनों नयोंके विपयोंको उपस्थितकर उनके दों पक्षपात बतलाये हैँ आर अन्तमें कहा है कि जो तत्त्ववेदी पक्त- पातसे रहित होता है उसे चित्स्वरूप यह जीव निरन्तर चित्स्वरूप निश्वय-व्यवहारमीमांसा २२९ जो आत्माको शुद्ध जानता है. वह शुद्ध हां आत्माको प्राप्त करता है ओर जो उसे अशुद्ध जानता है वह अशुद्ध ही आत्माको प्राप्त करता है ॥९८७॥ ' ... इसकी पुष्टि करते हुए आचाये असृतचन्द्र भी कहते हैं :-- इद्मेवात्र तात्यय हेयो शुद्धनया न हि । नास्ति बन्धस्तदत्यागात्‌ तत्त्यागाद्‌ बन्ध एव-हि ॥१२२॥ प्रकृतमें यही तात्पय है कि शुद्धनय हेय नहीं हे, क्योंकि: उसके अत्यागसे वन्ध नहीं होता और उसके त्यागसे.वन्‍्ध होता ही है ॥१२२५॥ इंसलिए आचार्य कुन्दकुन्दने जहाँ यह कहा है कि कर्म जीवमें वद्ध है अथवा अवद्ध है इसे एक एक नयका पक्ष जानों वहाँ उनका बैसा कथन करनेका अभिप्राय दोनों नयोंके: विषयका ज्ञान कराकर ओर उस सम्बन्धी उत्पन्न विकल्प ( राग ) को छुड़ाकर अपने भ्रवस्वमावकी ओर क्ुकानेका रहा है, क्योंकि वे यह अच्छी तरहसे जानते रहे हैं कि जो यह मानता है कि में करमसे सबेथा अवद्ध हूँ उसे कुछ करनेके लिए नहीं रह जाता है । साथ ही वे यह भी अच्छी तरहसे जानते रहे हैं कि जो यह सानता है कि में कर्से स्वाथा वद्ध हूं वह प्रयन्ष करके भी कर्मसे त्रिकालसें मुक्त नहीं हो सकता, इसलिए उन्होंने एकान्तके आग्रहके साथ दोनों नयोंके विकल्पकों छुड़ाकर निविकल्प होनेके लिए उक्त वचन कहा है इसमें सन्देह नहीं, क्‍योंकि वैसा हुए विना अनादिकालसे चली आ रही रागकी कठेत्ववुद्धि नहीं छूट सकती । परन्तु इसप्रकार अनेकान्तमार्गका अनुसतों होकर भी साधक हेयरूप व्यवहारनयका आश्रय न लेकर उपादेयरूप निश्चयनयका ही आश्रय लेता है, क्योंकि मोत्रूप प्रयोजनकी सिद्धिके लिए. निश्चय-व्यवहा रमीमांसा र२३ सब विकल्प सत्तरां पल्ञायमान हो जाते हैं। प्रमाणके समान नय भी दो प्रकारके है इसका निर्देश नयचक्र प्रष्ठ ६६ में एक गाथा उद्ध्वत कर किया गया हैं। गाथा इस प्रकार हैं-- सवियष्प स्॒व्वियप्पं - पमाणरूव॑ जिखेहे शणिहद्दिट्रं । तहविह ण॒या वि भणि वा सविवप्पा शिव्त्रियप्पा वि | जिनदेवने सविकल्प और निर्तविकल्पके भेदसे प्रमाण दो प्रकारका कहा है। तथा उसी प्रकार सविकल्प और निबिकल्पके भेदसे नय भी दो प्रकारके कहे हैं इसप्रकार शद्धनुभतिके कालमें आत्माके सबिकल्प नयोंसे अतिक्रान्त हो जाने पर भी निश्चयनयके विपयका किस प्रकार आश्रय वना रहता है यह स्पष्ट हो जाता है । हू परम भावश्राही निश्चयनय है | इसके सिवा निम्चयनयक्े जितने भी भेद शाख्रोंमे वतलाये हैं वे सब व्यवहारनयमें ही अन्तर्मत हो जाते हैं | उदाहरणा्थ समयप्राभ्षत गाथा ८३ में कहा कि आत्मा आत्माकों ही करता है ओर आत्मा आत्माकों ही भोगता है सो यह कथन परसे भेदक्षान करानेके लिए किया गया है, इसलिए वह पयोयाथिकरूप निश्चयनय है। तात्पर्य यह है कि यहाँ पर पर्याय कथनकी मुख्यता होनेसे द्रव्यमें भेद- व्यवहारकी प्रसिद्धि हुई है, इसलिए इसे व्यवह्ारनयका विपय ही जानना चाहिए। समयग्राभ्तत कल्षश ६२ में जो यह कहा गया है कि आत्मा ज्ञान है, वह स्वयं ज्ञान है, वह ज्ञानसे अन्य किसे करता है सो इसमें भी पर्योय कथनकी मुख्यता होनेसे इसे भी व्यवहारनयका विपय जानना चाहिए | इसी प्रकार अन्यत्र जहां कहीं एक द्रव्यके आश्रयसे पर्यायका कथन करके उसे लिश्चयनयका विपय कहा भी है. सो निश्चयनय भूता्थकों स्वीकार र्र्ड जनतत्त्वमीमांसा करता है इस अभिप्रायकों ध्यानसें रख कर ही कहा है। परन्तु परम भावप्राही निश्चयनयके विपयमत भतार्थमं और इस भूतार्थ में मौलिक भेद हे जिसका स्पष्टीकरण हम पहले कर हो आये हैं | तात्पय यह है कि शुद्ध निश्ववनयके लिया निश्चयनयक्रे अन्य जितने भेद-प्रसेद शास्रोंमें दृष्टिगोंचर होते हैं वे सब विशेषण युक्त वस्तुका विवेचन करनेवाले होनेसे व्यवहारनय ही जानने चाहिए | इसी वातको ध्यानमें रखकर आचाये जयसेनने समय- ग्राभ्नत गाथा १०२ की टीकासे यह वचन कहा हैं :--- अज्ञानी जीवो शुद्धनिश्वयनयेनाशुद्धापादानरूपेण मिथ्यात्वरागादि- भावानामेब कर्ता न च॒ द्रव्यक्रमंणः। स चाशुद्धनिश्चयनयों यद्यपि द्रव्यकर्मकतृत्वरूपासद्ध तव्यवहारापेनज्षया निश्चयसंजश्ां लभते तथापि शुद्धनिश्चयापेक्षुया व्यवहार एव । अज्ञानी जीव अशुद्ध उ्पादानरूप अशुद्ध निश्चयनयसे मिथ्यात्व ओर रागादि भावोंका ही कतो है, द्रव्यकर्मका कतो नहीं है | बह अशुद्ध निश्चयनय यद्यपि 'द्रव्यकर्मका कर्ता जीव है? इसे स्वीकार करनेवाले असदभत व्यवहारनयकी अपेक्षा निश्चय संज्ञाका प्राप्त करता है तथापि शुद्ध निश्वयनयकी अपेक्षा वह व्यवहार ही हैं | निश्चयनयके कथनमें तीन विशेषताएं होती हैं | एक तो बह अभेदग्राही होता है, दूसरे बह एक द्रव्यके आश्रयसे प्रवृत्त होता है ओर तीसरे वह विशेषण रहित होता है। किन्तु व्यवहार- नयका कथन इससे उत्तरा होता है। अब यदि इस हृष्टिको ध्यानमें रखकर विचार करते हैं तो शुद्ध निश्चयनय ही एकमात्र निरचरयनय ठहरता हैं, क्‍योंकि उसके विपयमें गुण-पर्योयरूपसे किसी प्रकारका भेद परिलक्षित न होकर वह सात्न द्रव्यके आशभ्रयसे- निश्चय-व्यवहारमीमांसा र्र५ प्रवृत्त होता है। किन्तु इसके सिवा निश्चयनयके अशुद्ध निश्चयनय आदि जितने भी प्रकार शास्त्रोंमें वतलाये गये हें वे सब इन विशेषपताओंकोी एक साथ लिए हुए इृष्टिगोचर नहीं होते, क्योंकि ये एक द्रव्यके आश्रयसे प्रवृत्त होकर भी किसी न किसी प्रकारके भेदका या उपाधि सहित वस्तुका ही कथन करते हैँ, इसलिए वे भेद कथन या उपाधि सहित द्रव्य कथनकी मुख्यतासे व्यवहारनय- की परिधिमें आ जाते हैं । आचाय जयसेनने अशुद्धनिश्वयनय शुद्धनेश्वयनयकी अपेक्षा व्यवहार ही है ऐसा जो कहा है सो वह इसी अभिग्रायसे कहा है। जैसे परसंग्रहनयके सिवा अपर संग्रहनयके जितने भी अवान्तर भेद सम्भव हे वे स्वयं एक अपेक्षासे असेदका कथन करनेवाले होकर भी दूसरी अपेक्षासे भेदका ही कथन करते हैं, इसलिए वे व्यवहारनयके भेदोंमें अन्तभत हो जाते हैं उसी प्रकार शुद्धनेश्वयनयके सिवा निश्चय- नयके अन्य जितने प्रकार वतलाये गये हैँ उन सबका व्यवहार- नयके अवान्तर भेदोंमें अन्तर्भाव हो जाता है यह्‌ उक्त कथनका तात्पय है। पद्नाध्यायीसें निश्वचयनय एक ही प्रकारका है यह सिद्ध करनेके लिए जो निश्चयनयके दो भेद माननेवालेको मिथ्याहृष्टि कहा है सो वह इसी अभिम्रायसे कहा है कि द्रव्यके त्रिकाली ध्रवभावमें वस्तुतः किसी प्रकारका सेद्‌ करना सम्भव है ओर जो गुणभेद या परयोयमेदसे वस्तुकों ग्रहण करता है उसे द्र॒व्याथिकनय नहीं माना जा सकता है। पंचाध्यायीका वह वचन इस प्रकार है।-- शुद्धद्रव्यार्थिक इति स्वादेकः शुद्धनिश्चयों नाम । अपरोउशुद्धदरव्यार्थिक इति तदशुद्धनिश्चयो नाम ॥१६-६०॥॥ इत्यादिकाश्च वहवो भेदा निश्चयनयस्य यस्य मते । स हि मिथ्याद्ष्टिः स्थात्‌ स्वक्ञावमानितों नियमात्‌ ॥१-६६१ 4 श्२६ जैनतत्त्वमीमांसा शद्धनिश्चय नामवाला एक शुद्ध द्रव्याथिकनय है ओर अशद्ध निश्चय नामवाला एक अशद्ध द्रव्याथिकनय है ॥|१-६६०।॥ इत्यादि रूपसे जिसके मतमें निश्चयनयके वहुवसे भेद कल्पित किये गये हैं वह नियमसे सर्वज्ञषकी आज्ञाका अपमान करनेवाला है, इसलिए बह मिथ्याद्ष्टि ही है ॥१-६६१॥ उक्त कथनका तात्पय यह है कि समयप्राभ्बत आदि शाम्रोंमें परमभावग्राही निश्वयनयके सिवा अन्य अर्थ्में भी निश्चयनय ' शब्दका प्रयोग हुआ है इसमें सन्देह नहीं, परन्तु बैसा कथन वहाँपर विवक्ताविशेषसे ही किया गया है, इसलिए यदि परमाथ्थ इृषप्टिसे देखा जाय तो निश्चयनय एक ही है ओर वही मोक्ष॒मार्गमें आश्रय करने थोग्य है, क्‍योंकि उसका आश्रय लेकर स्वभाव सन्मुख होनेपर ही निविकल्प शुद्धानुभतिका उदय होता है। इस प्रकार निश्चयनय क्या हे ओर उसका जीवनमें साधकके लिए क्या उपयोग है इसका विचार किया | अब गक्ृतमें व्यवहारनयकी सीमांसा करनी है । यह तो हम पहले ही वतला आये हैं कि समयप्राभृतमें व्यवह्ास्नयकों अभूता्थ कहा है। वहाँ अभृतार्थका क्‍या अथथ इट्ट है यह भी हम वतला आये हैं। अब उसीके आलस्‍्वनसे यहाँ पर नयका ओर उसके भेदोंका सांगोपांग विचार करते हैं। प्रकृतमें व्यवहार! यह यागिक शब्द है। यह वि? ओर अब? उपसर्ग पूर्वक '(ह! घातुसे वता है। इसका अथथे है. गुंय और पंयोय आदिका आलम्वन लेकर अखंड बस्तुमें किसी प्रकारका भेद्‌ करना। एक तो यह विकल्पात्मक श्रतज्ञानका एक भेद है । दूसरे यह भेदकी भुख्यतासे ही बस्तुकों स्वीकार करता है, इसलिए जितना भी व्यवहारतय है वह उदाहरण सहित विशेषण-विशेष्य- निश्चय-व्यवहारममांता २२७ रूप ही होता है। इसी तथ्यकों ध्यानमें रखकर पंचाध्यायीमें इसका लक्षण करते हुए कहा भी है ;-- सोदाहरणो यावान्नयो विशेषणविशेष्यरूपः स्यात्‌ | व्यवहारापरनामा पर्यायार्थों नयो न द्रव्याथ: ॥१-१६६॥ जितना भी उदाहरण सहित विशेषण-विशेष्यरूप नय है वह (5 /+ 7 आप जब पर्योयाथिकनय है। उसीका दूसरा नाम व्यवहारनय है। कप रद कर को किन्तु दृव्याथिकनय ऐसा नहीं है ॥१-४५८६॥ पंचाध्यायीमें इसी विपयको अन्यरूंपसे इन शब्दोंमें व्यक्त किया है : पर्बायार्थिक नय इति यदि वा व्यवहार एव नामेति | एकार्था यस्मादिह सर्वोद्ष्युपचारमात्रः स्थात्‌ ॥१-५२१॥ व्यवहरण व्यवहारः स्थादिति शब्दार्थती न परमाथः । स यथा गुणगुणिनोरिह सदभेदे भेदकरण स्थात्‌ ॥१-*%२२॥ साधारण शुण इति यदि वाउसाधारणः सतस्तस्थ | भवति .विवच्यों हि यदा व्यवह्सरनयस्तदा श्रेयान्‌ ॥१-४२३॥ पर्योयाथिक यह संज्ञा अथवा व्यवह्यारनय यह संज्ञा एक ही अथकी वाचक हे, क्योंकि इसमें समस्त व्यवहार उपचारमात्र है ॥ १-४२१ ॥ विधिपूर्वक भेद करनेकों व्यवहार कहते है यह्‌ उसका निरुक्‍्त्यथ हे। यह परमाथ्थरूप नहीं है । जेसे कि गुण ओर शुणीमें सत्तारूपसे भेद न होने पर भेद करना व्यवहारनय है ॥ २-५२०॥ जिस समय सतके साथ साधारण अथवा असाधारण गुणोंमेंसे कोई एक गुण विवज्षित हाता है उस समय व्यवहारनय ठांक माना गया है ॥१-५२३॥ नयचक्रस इसका लक्षण इन शब्दास हांट्रगांचर हांता ह ग्स्८ जनतत्त्वमानाना जी चिय जीवसहाबों गिच्छवदो हाइ सच्बजोवागं | सो चिय भेदुबबाग जाण फुडं हाइ वचहारावारइ4 4१ ॥ 4 पे ५|। (| थे हि | ६४ निश्चयनयस सत्र जीवोंका जो स्वभाव हैं वह द्वारा उपचरित किया जाता हैं तब उसे विपय करनेबाला व्यवहार नय जानो ॥न३द्ता | इसी तथ्यका नयचक्रमें दसर शब्दोंमें था व्यक्त किया हैं जो सिवभेदुवयार धम्माणं कद प्गवस्टुस्स । तर बबहारों मशियों विवरीयों शिच्छवों होदि ॥२६२४ सा बवहारा मश्णया विवरीया शिच्छुयां दाद ॥२६२॥ _ जो एक वस्तुर्मे धर्मोक्के कथंचित सेदका उपचार करता हैं उसे व्यवहारनव कहा हैँ और निश्चयनव इससे उल्टा हांता है ॥र5य। जिसे समयप्राभ्नतमें अखंड वस्तु स्वभावमें न होनेसे अमृत्ा्थ कहा गया है उसे दी नवचक्रमें भेदोपचार शब्द द्वारा व्यवहृत किया गया हैं । व्यवहारनयका विपय अभूतार्थ क्यों हें इसका निर्देश करते हुए पंचाध्यायीमें कहा है : इमत्र निदान किल गणवद रत्य॑ यदतक्तमि इसने [नदान कछल्न॒_गुणुव॒द्‌ दत्य बदुक्तामद सत्र ! पा हि. हक व तेचा है... ः ््ड शा ञ 2 कंचलमद्वेत सद भवनु शुणा वा सद ठव्यम ॥१-55३४॥ केपलमन ल्पफ भवितारतल्तद २४ ति 98 है ४। & | & | / ई#) ठ 9 श्र 4॥ है जय ? ॥ हक 5 फिट >४। बे | (4 हे नथ॥ | श्श ले ् कि 2|/ हर 52, ग्वे न्द ही हर शा हा व्यवह्यस्नथका अभृतार्थ कहनेका कारण चह है कि दृब्यकों जो शुणवाला कहा हैं सो इसका तात्पर्य यह हैं. कि गुण च्षेः >> पृथक हैं, दव्य प्रथक हैं ओर इनके संचोगसे द्रव्य प्राप्त होता निश्चय-व्यवहारमी मांसा २२९ है ॥१-६३४॥ परन्तु यह असत्‌ है, क्योंकि न गुण हे, न द्रव्य है, न दोनों है ओर न उनका संयोग ही है। किन्तु सत्‌ केवल अद्वेंत रहा आवे जिसे चाहे गुण मान लो, चाहे द्रव्य मान लों, हूँ वह अद्वेतरूप ही ॥१-६३१४॥ इसलिए न्यायवलसे यह सिद्ध हुआ कि व्यचहार नय होकर भी अभूता्थ है । जो केवल पा अनुभव करनेवाले हैं वे मिथ्याहृष्टि हैं और पथश्रष्ट है ॥१-६३६॥ इस प्रकार जहाँ पर गुणों ओर परयोगोके आश्रयसे या स्वद्रव्य, स्वक्षेत्र, स्वकाल ओर स्वभावके आश्रयसे भेदका उपचार कर जो वस्तुकोी विपय करता हे वह व्यवहारनय हे यह उक्त 'कथनका तात्पय है। सदभतव्यवहारनय यह इसीकी संज्ञा हे। इसके मुख्य भेद दो हैं ;--अनु पचरित सद्भत व्यवह्ारनय ओर उपचरित सद्भूत व्यवह्रनय | जिस पदाथका जो शुण था शुद्ध 'पयाय है उस गुण था पयाय द्वारा ही यह नय उस पदाथकों विपय करता है, इसलिए तो इसे सद्भृत व्यवह्मरनय कहते है । जैसे यह कहना कि ज्ञान जीव हैं यह सदभत व्यवहार॒नयक्का उदाहरण है। इसमें इतनी विशेषता ओर हे कि यदि इसमें अन्यके सम्वन्धसे दूसरा विशेषण नहीं लगाया जाता हे तो यही उदाहरण अनुपचरित सदभत व्यवहारनयका हो जाता है। ओर यदि इसे पर यागसे विशेषण सहित कर दिया जाता है तो वह उपचरित सदभत व्यवहारनयका उदाहरण हो जाता हैं। इसी तथ्यकों ध्यानमें रखकर पश्चाध्यायीमें अनुपचरित सद्भूतव्यवहारसयका ईवेचार करते हुए वतलाया है स्थादादिमी यथान्तर्लीना या शक्तिरस्ति यस्य सतः। -- » तत्तत्सामान्यतया निरूप्यते चेद्‌ विशेषनिरपेक्षम्‌ ॥१-५३१५॥ ह ५ | २३० जैनतत्वमीमांसा इदमन्रोदादरण ज्ञान जीवोपजीधि जीवगुणः । ज्ञेयालम्बनकाले न तथा ज्ञेबोपजीवि स्वातू ॥१-%६९॥ पघ्रट्सद्‌भावे द्वि बथा धटनिरपेत्ञ चिदेव जीवगुणः ! | अस्ति घठाभावेषपि च घटनिरपेक्ष चिदिव जीवगुणः ॥१-४२७॥ जिस पद्माथकी जा आत्ममत शक्ति हे उसे जो नय अवान्तर भेद किये बिना सामान्यरूपसे उसी पदाथकों वतलाता अनुपचरित सदभत व्यवहार्नय है ॥१-४३४॥ इस विपयसे यह उदाहरण है कि जिस प्रकार जीबका ज्ञान गुण जीवोपजीवी हांता उस प्रकार वह ज्लेयका विषय करते समय क्षेयोपजीबी नहीं होता ॥१-४५१७॥ जैसे घटके सद्भावमभें जीवका ज्ञान गुण घटकी अपेक्षा किय बिना चंतन्यमात्र दी हैं बसे घटके अभावमें भी जीवका ज्ञान गुण घटकी अपेक्षा किये बिना चंतन्यमात्र ही है ॥१-४३१जा ' तात्पर्य यह है कि जीवद्रव्य एक अखंड पदार्थ हैं। उसमें , किसी एक स्वभाचसत गुणके द्वारा मेदकर विपय करना अनुप- चरित सद्भृत व्यवहारनय है। उपचरित सदभत व्यवह्ारतयका निर्देश करते हुए वहाँ वतलाया हैं: १ क्ष 6 हा है उपचरितः सद्मृतो व्यवह्ारः स्वान्नयो यथा नाम । अविरुद्ध हेतुवशात्पस्तोउप्युपचर्यत चतः स्वगुणः ॥१-५४४०॥ अथविकल्पो ज्ञान॑ प्रभाशमिति लक्ष्यतेउधुनापि यथा । अथः स्वपरनिकायो मवत्ति विकल्पत्तु चित्तदाकारम ॥१-४४ १ असदाप लक्षुणमंतत्सन्मात्रत्वे सुनिर्विकल्पत्वात्‌ | तदपि न विनालम्बान्निविपयं शक्‍्यते वक्तुम ॥१-४४२॥ तस्मादनन्यशरण सदूपि ज्ञानं स्वरूपसिद्धत्वात्‌ ! उपचरित देतुवशात्‌ तदिह श्ञानं तदन्यशरणमिव ॥१-५७३॥ निश्चय-व्यवहारमीमांसा २३१ यतः हेतुवश स्वगुणका पररूपसे अविरोधपू्वक उपचार करना उपचरितसद्भृतव्यवहारनय है ॥१-४५४०।॥ जैसे अथथ विकल्पात्मक ज्ञान प्रमाण है यह प्रमाणका लक्षण है सो यह उपचरित सदभत व्यवहारनयका उदाहरण हे। यहाँपर हाँपर स्व-पर समुदायका नाम अर्थ है ओर ज्ञानका तदाकार होना इसका नाम विकल्प है' ॥१-४४१॥ सत्सासान्य निविकल्प होनेके कारण उसकी अपेक्षा यद्यपि यह लक्षण असत्‌ है तथापि आलम्बनक्ते विना विपय रहित ज्ञानका कथन करना शक्य नहीं है ॥१-५४श॥। इसलिए ज्ञान स्वरूपसिद्ध होनेसे अन्यकी अपेक्षाके विना ही सद्रप है तथापि हेतुके बशसे वह ज्ञान अन्य शरणकी तरह उपचरित किया जाता हू ॥१९-४४७१॥ ४5 तात्पर्य यह हे कि एक अखंड पदार्थर्मं असाधारण गुण द्वारा भेद करके डसे परके आलम्बनसे विशेषण सहित करना यह उपचरित सभूतव्यवहास्तयका उद्दाहरण हे। यहाँपर पद्मा- ध्यायीमें मतिन्नान आदि जीव हैं इसे उपचरित सदूभूतव्यवहार नयका उदाहरण नहीं वतलाया है सो इसका कारण हे। वात यह है कि जितने भी विभावभाव हैं उन सबको अध्यात्म- शासत्रमें परभाव वतलाया गया है, क्‍योंकि सम्यग्हाप्टि जीव ऐसे ही त्रिकाली ज्ञायकभावका आश्रय करता है. जिसमें इनका लेशमात्र भी स्पर्श ( सद्भाव) सम्भव नहीं है। अब यदि इस हृष्टिसे जो स्वात्मा ( स्वसमय ) है उससें व्यवहारनयका आश्रय कर असाधारण शुणका आरोप किया जाता है अर्थात्‌ भेद विवक्षित किया जाता है तो बह स्वभावभूत असाधारण ' सामान्य गुणके रूपमें ही हो सकता है, अन्य रूपमें नहीं। इसलिए तो पंचाध्यायीमें अनुपचरित सद्भूतव्यवहास्नयका २३२ जैनतत्त्वमीमांसा लक्षण करते हुए यह बतलाया है कि जो नय जिस पदार्थकी जो आत्मभूत शक्ति है उसे अवान्तर भेद किय्रे विना सामान्य- रूपसे उसी पदार्थ की वतलाता हे वह अनुपचरित सदभूतव्यव हारनय है | तथा व्यवहारनयसे एक बार स्थात्मामें ज्ञानसामान्य को अय्रेज्ञा भेद विवक्षित कर लेने पर उसे जाननेरूप घर्मकी अपेक्षा स्व-परविकल्पढूप स्वीकार करना पड़ता हैं. | चंकि ज्ञानमें इस धर्मका स्वके समान परयोगसे आरोप किया जाता हैं च्यत: इसे स्वीकार करनेवाले नयकों उपचरित सद्भृत व्यवहार- नय कहा है। इस प्रकार पंचाध्यायीमें इन दोनों नयों के ये लक्षण किस इष्टिसे किय्रे गये हैं. यह स्पष्ट हो जाता है| किन्तु अन्यत्र (अनगारबमोसत और आलापपद्धति आदि में ) साधक आत्माके स्वात्मा ओर परात्मा ऐसे भेद विषक्षित न करके इन नयोंके लक्षण ओर उद्याहरण दिये गये हैं. इसलिए वहाँ इनके लक्षण आदिका विचार दूसरे प्रकारसे किया गया है | तात्पय यह है कि जहाँ पर सम्यग्दष्टिकी श्रद्धांके विषयकी विवत्षा हो वहाँ पर पद्चाध्यायीके कथनानुसार व्यवहार्के भेद किये जाते हैं ओर | लोकव्यवहारमूलक ज्ञानके विपयकी बतिवक्ञा हो वहाँ दूसरे (आल्ापपद्धते ओर अनगारघधर्मामतत आदि ) शास्त्रोंके कथनानुपार व्यवहास्नयके भेद किये जाते हैं। यहाँ इतना ओर विशेष समझता चाहिए कि पंचाध्यायीकारने यह मीमांसा स्वमतिसे ही की हो ऐसा नहीं हे। किन्तु उन्होंने यह सब समयप्राश्नत्में चतलाये गये स्वसमय ओर परसमयके स्वरूपकों ध्यानमें रखकर दी लिखा है। उनके ऐसा कहनेके पीछे जो हेतु 'ओर प्रयोजन हू उसका निर्देश उन्होंन स्वयं किया ही है। यह व्यवहारनयका एक विचार है। इसके सिधा उसकी मीमांसा एक भिन्न प्रकारसे की गई है। आगे.उसीका स्पष्टीकरण निश्चय-व्यवहा रमीमांसा श्३३ “करते हैं--बात यह है कि संसार अवस्थामें जीवके जो रागादि विभाव भाव होते हैं वे केवल जीवसें नहीं पाये जाते। किन्तु जब यह जीव कर्मासे आविष्ट रहता है तभी उनकी उपलब्धि होती है। ये भाव जीवमें ही होते हैं ओर जीव ही इनका उपादान है इसमें संदेह नहीं। पर होते हैं. ये पुदगल कर्मरूप निमित्तोंके सद्भावमें ही, इसलिये इनके नेमित्तिक होनेसे मृत होने पर भी 'इन्हें जीवका कहना यह भी एक व्यवहार है। इसी तथ्यकों यानमें रखकर आचाये अमृतर्चन्द्रने समयप्राश्वत गाथा २७२ की टीकामें व्यवहस्नयका यह लक्षण किया है ;-- पराश्रितो व्यवह्यरनयः । . जो परके आश्रयसे होता है अर्थात्‌ अन्य वस्तुके गुण धर्मको अन्यके स्वीकार करता है वह 5यवह्यारनय है । यहाँ पर आचाय कुन्दकुन्दका परके आश्रयसे इस जीवके जो अध्यवसान भाव होता है उसे छुड़ानेका अभिप्राय है | उसी “ असंगसें आचाय अमृतचन्द्रने व्यवहारनयका यह लक्षण किया है | यह व्यवहार असदूभूत है, क्‍योंकि जितने भी नेमित्तिक भाव होते हैं वे मूते होनेसे जीबके स्वभावमें उपलब्ध नहीं होते | फिर इस नय द्वारा जीवके स्वीकार किये जाते है, इसलिए इस . दृष्टिको स्वीकार करनेवाला नय असदूभमत व्यवहारनय कहलाता . है | इसी तथ्यकों ध्यानमें रखकर पंचाध्यायीमें इस नयका यह ल्क्षण दृष्टिगोचर होता है. १0६ * ३ 5 अपि चासद्मूतादिव्यवहारान्तो नवश्र भवति यथा । अन्यद्रव्यस्थ गुणाः संजायन्ते बलादन्यत्र ॥९-०२६॥ , २३४ जैनतत्त्वमीमांता अन्य द्रव्यके गुोंकी वलपृर्वक ( उपचार सामथ्यंसे ) अन्य दरव्यमें संयोजना करना यह असदभृतव्यवहारनय हैं इस नयका उदाह रण देते हुए पंचाध्यायांम कहा हं--- स यथा वर्णादिमतों नमूतंद्रव्यत्य कम किल मृतम्‌ । तत्संबोगत्वादिह नूर्ता: क्रोधादबोडपि जीवभवाः ॥१-3०॥। उदाहरणाथ वणण आदिवाले मृत्तद्रव्यका कम एक भद हैं, अत्त: नियमसे मृते हं। उसके संयोगसे क्राधादिक भा मृत हैं| फिर भी उन्हें जीवमें हुए कहना असदूभृत व्यवहार नय हैं ॥१-५३०। पर यह प्रश्न होता हे कि ऐसा नियम हैं कि एक द्रव्यर्क गुणधर्म अन्य द्रव्यमें संक्रमित नहीं होते। ऐसी अवस्धामे प्रकृतमें जीवके रागादि भावोंकों मृतें क्‍यों कहा गया है, क्योंकि मृत यह धमम पुद्ठलोंका है । वह पुद्ललोंका छोड़कर जींवमें त्रिकाल- में संक्रमित नहीं हां सकता ओर जब वह जीवमसें संक्रमित नहां हा सकता तव जिन ऋआधादिभावाका उपादान कारण जाब है उनमें वह त्रिकालमें नहीं पाया जा सकता। यदि उन भावोंके नमित्तक होते मसात्रसे उनमें मूतेवमकों उपलाब्ध होतों है ता अज्ञान दशाम भी क्राधादिभावोंका कतो जीव न हाकर पुद्टल हा जायगा ओर इस प्रकार इन भावषोंका कठेत्व पुद्नलमें घटित हानेस पुदूगल हो उन भावषाक्रा उपादान ठहरंगा जां युक्त नहा हूं। अतएव रागादिे भावबोंका मृत सानक़्र असदभतव्यवहार नयका जा लक्षण किया जाता है वह करना चाहिए। यह एक प्रश्न हैं। सामाधान यह है कि प्रकृततमें जीवकी रागादिरूप अवस्थास [त्रकाला ज्ञायकस्वभाव जीवकों भिन्‍न करना है, इस लिए सव वेभाविक भावोंकी व्याप्ति पुदूगल कर्मोके साथ घटित निश्चय-व्यवहा रमीमांसा २३५ हो जानेके कारण उन्हें आध्यात्मशाखमें पोद्गलिक कहा गया है। ओर इस प्रकार बे पौद्गलिक हैं ऐसा निश्चित हो जाने पर उन्हें सूत साननेसें भी कोई आपत्ति नहीं आती, क्यों कि मूत्त कहो या पॉद्गलिक एक ही अथ है। ये भाव पोदुगलिक हैं इसका निर्देश स्वयं आचाये कुन्दकुन्दने समयप्राश्बत गाथा ४० से लेकर ४५ तक किया हैं। थे गाथा ५५ में उपसंहार करते हुए कहते हैं--- णेव य जीबड्टाणा ण गुणदाणा य अत्यि जीवस्स ) जेंण दु एदे सब्बे पुग्गलद्ब्बस्स परिणामा ॥५५॥ जीवके. .,जीवस्थान नहीं है ओर न गुणस्थान हैं, क्योंकि ये सब पुद्नलद्॒व्यके परिणाम हैं ॥५५॥ इसकी टीका करते हुए आचार्य अम्ृतचन्द्र कहते हैं-- _-तानि सर्वास्यपि न सन्ति जीवस्य, पुद्गलद्रव्यपरिणाममयत्वेः किक के ७4. सत्यन मूताभन्नत्वातू ॥५०॥। ये जो जीवस्थान और गुणस्थान आदि भाव हैं वे सब जीवके नहीं हैं, क्योंकि वे सब पुद्टल द्रव्यके परिणमनमय होनेसे. आत्मानुभूतिसे मिन्‍न है ॥६५॥ यहां पर परभावोंके समान रागादि विभावरूप भावोंसे त्रिकाली ज्ञायक भावका भेदज्षान कराना मुख्य प्रयोजन है। किन्तु इस ग्रयोजनकी सिद्धि त्रिकाली श्र वसस्‍्वभावरूप ज्ञायक भावमें उनका तादात्म्य साननेपर नहीं हो सकती, क्योंकि त्रिकाली भ्र वस्व॒भावमें उनका अस्तित्व ही उपलब्ध नहीं होता। यदि त्रिकाली ध्र वस्वभावमें भी उनका अस्तित्व माना जाय तो उसमेंसे ज्ञानके समान उनका कभी भी अभाव नहीं हो सकता | अतणएब ये जिसके सदूभावमें होते हैं उसीके परिणाम हैं ऐसा यहाँ कहा गया हैं यह उक्त कथनका तात्पयं समकना चाहिए। इसी भावकों उध्ट केरनके अभिप्रायसे समयप्राभृतमें आचार झुन्दकुन्द ्बु एएटिं य संत्रंधो जहेव खीरोदव॑ मुगणेदब्वो। शबहत तत्स ताशि दु उबश्नोगगुगाधिगों अम्दा ॥५७॥) इन बखणुंस लेकर गणस्थान पय्रन्त भाषाक साथ जावका सम्बन्ध दूध आर पानाीके संवागसन्चन्धके समान जानना चाहए | इसलिये वे भाव जीवके न क्याकि चह्‌ उपयाग शुणक द्वारा उनसे प्रथक्ष है ॥४७]॥ बहा पर आचाय महाराजने परस्पर समाश्रत ज्ञार ओर नीर का हृष्टान्त दंकर यह वतलाया हू कि जिस प्रकार मिल्ले हुए चार आर नारम संयागसन्वन्ध हाता हू अग्नि और उप्ण गणके समान तादात्म्य सम्बन्ध नह । हाता उसी प्रकार वगुसे लेकर इन शुणस्थान पयनत सच भावाक्रा ज्ञावक साथ संयोग सम्बन्ध जानना चाहिए, तादालय सम्बन्ध नहीं। जिस प्रकार जीवके साथ वर्णादिका संयागसम्बन्ध हें उस अकार जाम उत्पन्न हुए इन रागादि भावोंका जीवके साथ संयोग सम्वन्ध कस हा सकता है इस अश्नको उठाकर आचाय जयसेन से इसका समाधान किया है । वे कहते हैं--- नम वशणशादयां वहिरंगात्तत व्यवद्यरंण ज्ञीरनीरवत्‌ संश्लेपसम्बन्धों भवतु ने चाभ्यन्तराणां रागादीनां। पेत्राशुद्धनिस्वयेन भवितव्यम ? नंवन, अच्यकमबन्धापेक्षया योउसी झआसदू+ भृतव्यवह्ारस्तदपेन्नया । तार- तम्नजापनाथ रामादीनामशुद्धनिश्चयो भस्यते । चतुतल शुद्ध निश्चया- 'छेवा पुनरशुद्ध निश्चयो5पि व्यवहार एवेति भाषा: | निश्चय-व्यवहारमीमांसा... २३७- शंका--वर्णादिक जीवसे अलग हैं, इसलिए उनके साथ जीवका व्यवहारनयसे क्षीर ओर पानीके समान संश्लेष सम्बन्ध रहा आओ, आश्यन्तर रागादिकका जीवके साथ संयोगसम्बन्ध नहीं वन सकता । इन दोनोंमं तो अशुद्ध निश्चयरूप सम्बन्ध होना चाहिए ? ह समाधान--ऐसा नहीं है, क्योंकि द्वव्यकर्मवन्धकी अपेक्षा जो यह असद्भूत व्यवहार है उसकी अपेक्षा इनमें संश्लेप सम्बन्ध साना गया है। यद्यपि रागादि सावोंका जोवमें तारतस्य दिखलाने के लिए इन्हें अशुद्ध निश्चयरूप कहा जाता है। परन्तु वास्तवमें निश्चयकी अपेत्ना अशुद्ध निश्चय भी व्यवहार ही हे यह उक्त कथनका भावाथ है । बृहद्द्रग्यसंग्रह गाथा १६ की टीकामें भी इस विपयको स्पष्ट करते हुए लिखा है;-- तथैवाशुद्धनिश्ववनयेन योउसों रागादिरूपो भावबन्धः कथ्यते . सोऊपि शुद्दनिश्चनयेन पुद्दलबनन्धः एव | उसी प्रकार अशुद्ध निश्वयनयसे जो यह रागादिरूप भाववन्ध कहा जाता है वह भी श॒द्ध निश्चयनयकी अपेक्षा पुद्रलवन्ध ही है। इनका जीवके साथ संयोगसम्वन्ध क्यों कहा गया है। इस / ५ विपयको स्पष्ट करनेके लिए मूलाचार गाथा ४८ की टीकामें आचार्य वसुनन्दि संयोगसम्बन्धका लक्षण करते हुए कहते हैं:-- अनात्मनीनस्थात्मभावः संयोग: । संयोग एव लक्षण येपां ते संयोग- लक्षणा विनश्वरा इत्यथः । अनात्मीय पदार्थमें आत्मभाव होना संयोग है । संयोग ही हक लक्षण है बे संयोग लक्षणवाले अथोत्‌ बिनश्वर माने. गये है । 2052 २३८ जैनतत््वमोमांसा पर्ायकप की है बह इसी अप्रेज्ञासे कहा है क्योंकि वे इन्ध- पर्यायरूप होनेस अनात्माय + अत अत है। तात्पव यह # हि "गादि भावोंका आत्मासे संयुक्त चतलानेमें उपाशनकी मुख्यता भेहाकर वन्‍्यप्रयायकी डेख्यता है क्योंकि य पॉडलिक कम्मोंक़ सड्ाव्मे हो होते हैं. झ यथा नही हाने और जब किये पॉड्रलिक कर्मोके सद्भावमें हा होते हू नो इन्हें मृवंस्पसे स्वीकार करना है। सुख्यता है, अन्यथा इनका त्वाय करना सहाँ बन सकना । सकऊतम इन्हे मृत या पालक भाननका चहा कारण 5 अकार जीवमें होकर भी परधादियाव नूर्त कैसे है यद जे हुआ और यह सिद्ध हो ही जानेपर भूत क्राधादिकक्ों जीवका ऊेंदेना असद्भत न्यवहारनय ही #- “सा चहाँ निश्चय करना चाहिए | .. भदेभूतव्यवह्यरसयके समान यह असदभृतव्यवद्ारतय र्भी दो अकारका है-अनुपचरित रत असदर भृतेज्यबहारतय ओर उपचारित असदभूृतव्यवहारनय पंच | की अजुपचरित असदभत व जववहारनयक्ा जलण करते हुए पश्चाध्याद भिकह्य हे-- कादर जीउस्प हि विषक्षितास्चेदबुदि: द्विभवा: ॥ ६-५ ७६ ॥ निश्चय-व्यवहारमी मांसा २३९ है यह तो हम पहले ही बतला आये हैं। उसमें भी जो नय अन्य विशेपणुसे रहित होकर ही उन्‍हें जीवका स्वीकार करता है उसमें विशेषण द्वारा अन्य उपचारकों स्थान नहीं मिलता है । यतः अबुद्धिपूर्वक क्रोधादिक सूक्ष्म होनेसे उस समयका ज्ञानोपयोग उन्हें नहीं जान सकता, इसलिए इसे अनुपचरित असद्भूत- व्यवहारनय कहा गया है. यह उक्त क्रथनका तात्पर्य है। उक्त कथनको ध्यानमें रखकर उपचरित असदभूतव्यवहार :.. सयका लक्षण पश्चाध्यायीमें इस प्रकार उपलब्ध होता है-- उपचरितो 5सदूभूतो व्यवहाराख्यो नवः स भवति यथा । क्रोधाद्याः शदयिकाश्चितश्चेद बुद्धिजा विवच्ष्याः स्थुः ॥१-४४६॥ बीज॑ विभावभावाः स्वपरोभयददेतवस्तथा नियमात्‌ | सत्यपि शक्तिविशेषे न परनिमित्ताद्दिना भवन्ति यत्त ॥१-५५०॥ जब जीचके क्रोधादिक ओऔदयिकमाब वुद्धिमें आये हुए हक [कप के हे ७५ कर 5 कप श विवज्षित होते हैं तव उसरूपमें उन्हें स्वीकार करनेवाला उपचरित असदूभूतव्यवहारनय होता हैं. ॥१-५४९॥ इस नयकी प्रवृत्तिमें | * यह कारण है कि जितने भी विभावभाव होते हैं. बे नियमसे स्व ओर परहेतुक होते हैं, क्योंकि द्रव्यमें विभावरूपसे परिणमन 'करनेकी शक्तिविशेपकरे होनेपर भी वे परनिमित्तके विना नहीं होते होते ॥९-५४५५॥ मूलमें बुद्धिजन्य क्रोधादिकको उपचरित असदूभूतव्यवहार- नयका उदाहरण वतलाया है सो यहाँ ऐसा समझना चाहिए कि सम्यग्दष्टिके उपयोगमें ज्ञान ओर वुद्धिपूवंक कोधादिक ये दोनों अलग अलग परिलक्षित होते हैं तो भी उन क्रोधादिककों ज्ञानका कहना यह उपचार है। इसी उपचारको ध्यानमें रखकर दा निश्चय-व्यवहा रमीमांसा २४१ सकता। जो पदार्थ जिस रूपमें अवस्थित है उसे उसी रूपमें स्वीकार करनेवाला ज्ञान ही प्रमाण माना गया है और नयज्ञान प्रमाणज्ञानका ही भेद है। यदि इन ज्ञानोंमें कोई अन्तर है तो इतना ही कि प्रसाणज्ञान अंशसेद किये बिना पदार्थकों समग्र- भावसे स्वीकार करता है ओर नयज्ञान एक एक अंश द्वारा उसे स्वीकार करता है। अतः प्रकृतमें यही समभना चाहिए कि जो नयज्ञान विवक्षित पदार्थके गुणबर्मको उसीके बतलाता है वही नयज्ञान सम्यक्‌ कोटिसें आता है, अन्य नयज्ञान नहीं । पंचा- ध्यायीमें नयका लक्षण तद्ग़ुणसंविज्ञानरूप करनेका यही कारण है। यदि कहा जाय कि यदि ऐसी वात है तो अन्यत्र (अनगारधमोस्तत ओर आलापपद्धति आदि अन्थोंमें) अतदगुण आरोपको असद्भ त व्यवहारनय बतला कर 'शरीर मेरा है? इसे स्वीकार करनेवाले विकल्पज्ञानकों अनुपचरित असजझ्ू त व्यवहार नय ओर “धन मेरा है? इसे स्वीकार करनेवाले विकल्पज्ञानको उपचरित असद्भत व्यवहारनय क्‍यों माना गया है। समाधान यह है कि मिथ्यादृष्टिके अज्ञानवश ओर सम्यग्दष्टिके शगवश शरीर आहदि पर द्रव्योंम ममकाररूप विकल्प होता है इसमें नहीं। पर क्या इस विकल्पके होनेसात्रसे वे अनात्ममृत शरीरादि पदाथ उसके आत्मभत हो जाते है ! यदि कहा जाय कि रहते तो वे हैं अनात्मभत ही, वे ( शरीरादि पदार्थ ) आत्मभूत त्रिकालमें नहीं हों सकते । फिर भी मिथ्यादृष्टिकी बात छोड़िए सम्यग्दष्ठिके भी रागवश "ये मेरे! इस प्रकारका विकल्प तो होता ही है। इसे मिथ्या कैसे माना जाय ? समाधान यह है कि सम्यस्दष्टेके लोकव्यवहारकी दृष्टिसे रागवश ये सेरे! इस प्रकारका विकल्प होता है इसमें सन्देह नहीं। यहां सम्यम्दष्टिके इस प्रकारका विकल्प ही नहीं हाता यह वतलानेका प्रयोजन १६ श्र जेनतत्त्वमीमांसा नहीं है। किन्तु यहां देखना यह है. कि जहां सम्यस्दष्टिके : थे मेरे इस विकल्पको ही 'स्व' नहीं वतलाया है वहां शरीरादि पर द्रब्योंकी उसका स्व” केसे माना जा सकता है। अथात्‌. त्रिकालमें नहीं माना जा सकता | इसी अमिप्रायकों ध्यानमें रख कर समयप्राश्वतमें कहा भी है अहमेद एदमह अहमेदस्सेव होमि मम एड | अरण ज॑ परदव्व॑ सबच्चित्ताचित्तमिस्स वा ॥२०॥ आसि मम पुव्वमेद एद्स्स अर पि आसि पुष्य हि | होहिदि पुणो वि मज्म एयस्स अहं पि होस्सामि ॥२१॥ एयं तु असब्भूद आदवियप्पं करेंदि संमृदो। भूदत्यं जाणूती ण्‌ करेदि दु त॑ं असंमृठो ॥२२॥ जो पुरुष सचित्त, अचित्त और समिश्ररूप अन्य पर द्रव्योंके आश्रयसे ऐसा अद्भूत ( मिथ्या ) आत्मविकल्प करता है कि में इन शरीर ( धन और सकान आदि ) रूप हूँ, ये मुझ स्वरूप हैं, में इनका हूँ, ये मेरे हैं, ये मेरे पहिले थे, में इनका पहिले था. थे मेरे भविष्यमें होंगे ओर में भी इनका भविष्यमें होऊंगा वह मूह है किन्तु जो पुरुष भूताथंकों जान कर ऐसा असदूभूत आत्मविकल्प नहीं करता वह ज्ञानी है २०-२२ इसलिए जितने भी रागादि वेभाविक भाव आत्मामें उत्पन्न होते है उन्हें आत्माका मानना तो श्रद्धामूलक ज्ञाननयकी अपेक्षा असदूभूत व्यवहारतयका विपय हो सकता है। किन्तु इस इृष्टिसे शरीर मेरा! ओर “धन सेरा' ये उदाहरण अदूभूत व्यवहार्नयके विपय नहीं हो सकते। पंचाध्यायीमें इसी तथ्यका विवेक कर रागादिकों असदूभृत व्यवहारनयका उदाहरण बतलाया.गया निश्चय-व्यवहारमीमांसा २४३ । शरीरादि ओर धनादि पर द्रव्य हैं, इसलिये वे तो आत्मामें असदमभत हैं ही । इनके योगसे थे मेरे! इत्याकारक जो आत्म- विकल्प होता है वह भी ज्ञायकस्वभावसें असदभत है। इसी तथ्यकों ध्यानसें रखकर आचाये कुन्दकन्दने ऐसा विकल्प करने- चालेको मृढ़-अज्ञानी कहा है ओर यह वात ठीक भी है, क्योंकि जो पर द्रव्य हैं उनमें इस जीवकी यदि आत्मबुद्धि बनी रहती है तो वह ज्ञानी केसे हो सकता है। इतना अ्रवश्य हैं कि सम्यग्दष्टिके शरीरादि पर द्रव्योंमें आत्मवुद्धि तो नहीं होती पर जहाँ तक प्रसाद दशा है वहाँ तक राग अवश्य होता है। उसका निपेध नहीं। यद्यपि यह राग भी आत्माका स्वभाव नहीं है इसलिए उसे परभाव वतलाया गया ह पर होता वह आत्मा ही हैँ। प्रत्येक सम्यग्दप्टि इस तथ्यकों जानता है। जानता नहीं हैं, ऐसी उसकी श्रद्धा भी होती हैँ कि यह राग आत्मामें उत्पन्न होकर भी कर्म ( और नोकरमम ) के सम्पकमें ही उत्पन्न होता हैं, उनके अभावमें उत्पन्न नहीं होता, अतः यह सेरा स्वभाव न होनेसे पर हैं अतएव हेय है ओर ये जो सम्यकत्वादि स्वभावभृत आत्माके गुण हैं बे आत्माके स्वभाव सन्मुख होनेपर ही उत्पन्न होते हैं, परनिमित्तोंका आश्रय लेनेसे त्रिकालमें उत्पन्न नहीं होते, अतः मुझे परनिमित्तोंका आलम्बन छोड़कर मात्र * अपने त्रिकाली ज्ञायकस्वभावका ही आलस्वन लेना श्रेयस्कर है | सम्यग्दष्टिकी ऐसी श्रद्धा होनेके कारण वह आत्मामें रागादि वभाविक भावोंकों स्वीकार तो करता है किन्तु परभावरूपसे ही स्वीकार करता हे। इस प्रकार रागादि परभाव हैं फिर भी वे आत्मामें स्वीकार किये गये, इसलिए जो अन्य बस्तुके गुणधर्मको अ-यमें आरोपित करता है वह असदूभूत व्यवहारनय है इस लक्षणके अलुसार तो 'रागादि जीवके! इसे असदूभूत व्यवहाएं- २४४८ जैनतत्वमीमांसा नयका उदाहरण मानना ठीक है. पर 'शर्रारादि मेरे! ओर धनादि मेरा! ऐसे विशपण युक्त विकल्पका असर्देभुत व्यवहाश्तवका उदाहरण मानना ठीक नहीं है । फ़िर भी अन्यत्र (अनगारधमाशत और आलापपद्धति आदिमें) 'शरीर मेरा, धन भरा इस स्वीकार करनच्राला जो असदभत व्यवह्ारनव चतलाबा गया हैं सा सम्यर्थ्ट्रकिे बह लीकिक व्यवह्रकोा स्वीकार करनाल ज्ञानकी मुख्यतास वतलाया गया है, श्रद्धामुणक्री म्ुख्यतास नहीं। वात यह है कि लोकमें 'यह शरीर मेरा. यह धन या अन्य पदार्थ मेरा! ऐसा अज्ञानमूलक वहुजनसम्मत व्यवहार हांता हैं आर सम्परहष्टि भी इस जानता हैं । यद्यपि यह व्यवहार मिश्या हैं, क्योंकि जिन शरीरादिक आश्रयस लोाकमें यह व्यवहार प्रवृत्त दाता हूं उनका आत्मामे अत्यन्ताभाव है । फिर भी सम्बग्दप्रिके ज्ञानमें लोकमें ऐसा व्यवहार हाता है इसकी स्वीकृति है । चस इसी वातका ध्यानमें रखकर अन्यत्र शरीर मेरा, धन मेरा! इस व्यवहारको हार्को स्वीकार करनेवाले नवकी असदभत व्यवह्ारसय कहा गया हं। लोकमें इसी प्रकारके ओर भी बहतसे व्यवहार प्रचलित हैं । जैसे पर द्ृब्यके आश्रयसे कत्ता-कर्मव्यवहार, ओक्ताभोग्वव्यवहार, ओर आधार-आवेयवब्यवहार आदि इन सब व्यवहारोंके बिपयमें भी इसी दृष्चिकोणसे विचार कर. लेना चाहिए। श्रद्धागुणकी इृषप्टिसे चंदि विचार किया जाता हैं वो न तो आत्मा कत्तो है ओर अन्य पदार्थ उसका कर्म हैं? यह व्यवहार वनता है, न आत्मा भोक्ता है ओर अन्य पदाथे भोग्य यह व्यवहार बनता हैं, तथा न 'घटादि पदार्थ आधार हैं ओर जलादि पदार्थ आधेय हैं? यह व्यवहार बनता है, क्योंकि एक पद्ाथंका दूसरे पदाथमें अत्यन्ताभाव होनेसे निश्चयसे सब पदाथ स्वतंत्र है, कतो-कर्मे आदि रूप जो भी व्यवहार होता है निश्चय-व्यवहारप्रोमांसा र्डप्‌ चह अपनेमें ही होता है। दो द्रव्यॉंके आश्रयसे इस प्रकारका व्यवहार त्रिकालमें नहीं हो सकता, इसलिये वह अपनी अश्रद्धामें इन सब व्यवहारोंकोी परसाथरूपसे स्वीकार नहीं करता । परन्तु निमित्तादिकी रृष्टिसे ये व्यवहार होते हैं. ऐसा वह जानता है इतना अवश्य है, अतः श्रद्धाकी अपेक्ता इन सब व्यवहारोंका किसी नयमें अन्तभोव न होकर भी ज्ञानकी अपेक्षा इनका असदूभत व्यवहारनयमें अन्तभाव हो जाता है। पंचाध्यायीमें इन व्यवहारोंकों स्वीकार करनेवाले नयकों चयाभास वतलानेका ओर अन्यत्र इन्हें नयरूपसे स्वीकार करनेका यही कारण है । इस प्रकार मोक्षसागंकी इष्टिसे निश्वचयनय ओर व्यवहार- नयका स्वरूप क्‍या है इसका विचार किया। इससे ही हसें यह ज्ञान होता है कि जीवन संशोधनमें निश्चयनय क्‍यों तो उपादेय है ओर व्यवहारनय क्यों हेय है । आचाय कुन्दकुन्द मोक्षमार्गमें उप/देयरूपसे व्यवह्ारनयका आश्रय करनेवाले जीवको पर्यायमूढ़ कहते है उसका कारण भी यही है । थे प्रवचनसारमें अपने इस भावको व्यक्त करते हुए कहते हैं. अत्थी खलु दव्बमओो दब्याणि गुशप्पगाशि भणिदाणि। तेहिं पुण पजाया पज्जयमूदा हि. परसमया ॥६३॥ प्रत्येक पदार्थ द्रव्यस्थरूप है, द्रव्य गुणात्मक कहे गये हैं ओर उन दोनोंसे पर्याग्र होती हैं। जो पयोयोंमें मूढ़ हैं वे पर समय हैं ॥७३॥ प्रवचनसारकी उक्त गाथा द्वारा यह ज्ञान कराया गया है कि वस्तु स्वरूपका निर्णय करते समय जिसप्रकार असेदमसाही द्रव्यार्थिक (निश्चय) नय उपयोगी है उसी प्रकार भेदग्राही (पर्योयार्थिक) नय भी . उपयोगी है इसमें सन्देह नहीं। किन्तु यह संसारी जीव अनादि- २४६ जैनतत्त्वमीमांता कालसे अपने निश्चयरूप आत्मस्वसू्पको भूलकर मात्र पयायमृद हा रहा है, अथान परयायका ही अपना स्वरूप समकक रहा है | एक तो अ्ज्लानवश वह अपने स्वरूपका जानता ही नहीं, जब जो मनप्यादि पर्यीय मिलती है. बसे आत्मा मानकर यह उसीको रक्तामें प्रयत्तनशील रहता है। यदि उप्तकी हानि होती है तो यह अपनी हानि सालता है ओर उसकी प्राप्रिसं अपना लाभ मानता हैं। थद्या कदाचित उसे आत्माके यथार्थ स्वरूपका ज्ञान कराया भी जाता है तो भी बह अपनी पुरानी टक्रकों छोड़नेमें समर्थ नहीं होता । फलम्वरूप यह जीव अनादिकालसे पयोगमृद्ध वना हुआ हैं. ओर जब तक पर्यायमृद वा रहेगा तव तक उसके संसारकी ही बृद्ध हाती रहेगी। इसलिए इस आवकाो उस परयोगोंसें अभेदरूप अनादि-अनग्त एक भाव जा चेतना द्ूृव्य हैं उस ग्रहण करके ओर उसे निश्चयनयका विपय कह कर जीव दृब्यका ज्ञान कराया गया है. और पयोयाश्रित भेदनयकों गोण किया गया हैं। साथ ही अभेद हृष्टिमं व भेद दिखलाई नहीं देते, इसलिय अमेदह॒प्टिकी ऋढ़ श्रद्धा करानेके लिए कहा गया है. कि जो पयायनय हैं. सा व्यवहार है, अमूताथ हैं और असत्वार्थ | वह साज्षसार्गसे अनुसरण करने योग्य नहीं है, अथोत मोक्ष मागमें लक्ष्य रूपसे स्वीकार करते योग्य नहीं है। इसी प्रकार निमित्तादिकी अपेक्षा जो व्यवह्यारकी प्रवृत्ति होती है वह भी डपचरित होनेसे मोज्षमार्गमें अनुसरण करने योग्य नहीं है । यद्यपि यह्‌ तो हम मानते हैँ कि निमित्तादिकी अपेक्षा लोकसें जो व्यवहार होता है वह उपचरित होने पर भी इप्टार्थका बोध क्रानस सहायक 6। लंसे 'घीका घड़ा! कहने पर उसी घड़ेंका प्रतीति होती है जिससें थी भरा जाता है या कुम्हारकों व॒ला लाओ? ऐसा कहने पर उसी मनुष्यकी प्रतीति होती है जो घटकी निश्वय-व्यवहा रमीमांसा २४९ ' भाव होते हैं ओर कदाचित्‌ उसकी अन्य भोजनादि कार्यों भी रुचि होती है त्तो भी बह अपने लक्ष्यसे च्युत नहीं होता | यदि वह अपने लक्ष्यसे च्युत होकर अन्य कार्योंको ही उपादेय मानने लगे तो जिस प्रकार लक्ष्यसे च्युत हुआ विद्यार्थी कभी भी विद्याजन करनेसें सफल नहीं होता उसी प्रकार सोक्षप्राप्तिकी छउपायमूत स्वभावह्टिसे च्युत हुआ सम्यग्दष्टि कभी सी मोज्षरूप आत्मकार्यके साधनेसे सफल नहीं होता । तव तो जिस प्रकार विद्यार्लनरूप लक्ष्यसे अ्रष्ट हुआ विद्यार्थी विद्यार्थी नहीं रहता उसी प्रकार मोक्षप्राप्तिकी उपायभूत स्वभावचष्टिसे भ्रष्ट हुआ सम्यस्द्ृष्टि सस्यग्द्ष्टि ही नहीं रहता | अतणएव॒ प्रकृतमें यही समझना चाहिए कि सम्यर्हट्रिके व्यवहारनय ज्ञान करनेके लिए यथापदवी प्रयोजनवान्‌ होनेपर भी वह सोक्षकायकी सिद्धिमें रंचमात्र भी आश्रयणीय नहीं है। आचायेनि जहाँ भी व्यवहासदष्टिको चन्धमाग ओर स्वभावहष्टिकां मोक्षमार्ग कहा है वहाँ वह इसी अमिप्रायसे कहा है। इसका यदि कोई यह अर्थ करे कि इस प्रकार व्यवहारहष्टिके वन्‍्धमार्ग सिद्ध होजानेपर न तो सम्यग्हष्टिके देवपूजा, शुरुपास्ति, दान ओर उपदेश आदि देनेका भाव ही होना चाहिए ओर न उसके व्यवहा[रघमरूप प्रवृत्ति ही होनी चाहिये सो उसका ऐसा अर्थ करना ठीक नहीं है, क्योंकि सम्य- दृष्टिके स्वभावदृष्टि हो जानेपर भी रागरूप प्रवृत्ति होती ही ' नहीं यह तो कहा नहीं जा सकता। कारण कि जबतक उसके रागांश विद्यमान है तवतक उसके रागरूप प्रवृत्ति भी होती रहती है और जबतक उसके रागरूप प्रवृत्ति होती रहती है तबतक उसके फलस्वरूप देवपूजादि व्यवहारधसंका उपदेश देनेके भाव भी होते रहते हैं और उसरूप आचरण करनेके भी भाव होते २७० जनतत्त्वमोर्मासा रहते हैं । फिर भी वह अपनी श्रद्धामें उसे मोक्षमाग नहों मानता: इसलिए उसका कता नहीं होता । आगममे सम्यस्ट्राटकी अवन्धक कहा है सो वह स्वभावदष्टीकी अपेक्षा ही कहा हैं, रागकूप व्यवहारधमंकी अपेत्तासे नहीं। सम्यम्दष्टि एक ही कालमें वन्‍्धक भी है ओर अवन्धक भी हैं इस विपयको सखवयं आगममें स्पष्ट किया गया है। आचार्य अमृतचन्द्र पुरुषा्थसिद्धय पायसें कहते ह-- येनांशेन सुदृष्स्तिनांशेनास्थ वनन्‍्धन नास्ति! येनांशेन ठु रागस्तेनांशेनास्थ बन्धन भवति ॥२१२॥ येनांशेन ज्ञान तेनांशिनास्यथ वन्धनं नारित | येनांशेन तु रागस्तेनांशेनास्थ बनन्‍्धर्न भवति ॥२१३॥ येनांशेन चरित्र तेनांशेनास्थ बन्धन नास्ति । येनांशेन तु रागस्तेनांशेनास्थ बन्‍्ध्न भवति ॥२१४॥ जिस अंशसे यह जीव सम्यम्दृष्टि हैं उस अंशसे इसके वन्‍्धन नहीं है । किन्तु जिस अंशसे राग है उस अंशसे इसके घन्धन है ॥२१२॥ जिस अंशसे यह जीव ज्ञान है. उस अंशसे इसके वन्धन नहीं है । किन्तु जिस अंशसे राग है उस अंशसे इसके बन्धन है ॥२११॥) जिस अंशसे यह जीब चारित्र है उस अंशसे इसके वन्धन नहीं हे । किन्तु जिस अंशसे राग है उस अंशसे इसके वन्धन है ॥२१४॥ इस प्रकार निश्वयलय ओर व्यवहारनयके विवेचन द्वारा यह निणय हो जाने पर कि मोक्षमार्गमें क्‍यों तो मात्र निम्चयनय उपादेय है और क्यों यथापदवी जाननेके लिए प्रयोजनवान होने पर भी ज्यवह्यरनय अल्॒पादेय है, यहां उनके आश्रयसे उपदेश निश्चय-व्यवहारमीमांसा ह २५१ देनेकी पद्धतिकी मीमांसा करनी हैं.। यह तो हम पहले ही वतला आये हैं कि निश्चयनयमें अभेदकथनकी मुख्यता होनेसे वह परसे भिन्न ध्रवस्वभावी एकसात्र ज्ञायकभाव आत्माकों ही स्वीकार करता है । प्रकृतमें परका पेट बहुत वड़ा है । उससें स्वात्मातिरिक्त अन्य द्रव्य अपने गुण-पर्यायके साथ तो समाये हुए हैं ही। साथ ही जिन्हें व्यवह्स्नय ( पर्यायार्थिकनय ) स्वात्मारूपसे स्वीकार करता हैं वे भी इस नयमें पर हैं, इसलिए निश्चयनय स्वात्मारूपसे न तो गुणभेदकों स्वीकार करता है, न पर्योयमेदको ही स्वीकार करता हैं ओर न निमित्ताशित विभावभावोंको ही स्वीकार करता है | संयोग पर उसकी दृष्टि ही नहीं है। ये सब उसकी इटप्टिसें पर हैं, इसलिए बह इन सव बिकल्पोंसे मुक्त असमेदरूप ओर नित्य एकसात्र ज्ञायकस्वभाव आत्माकों ही स्त्रीकार करता है। कार्यकारण पद्धतिकी अपेक्षा विचार करने पर जब वह ज्ञायक स्वसाव आत्माके सिवा अन्य सबको पर मानता है तव वह अन्यके आश्रयसे कार्य होता है इस दृष्टिकोश- को केसे स्वीकार कर सकता है अर्थात्‌ नहीं कर सकता, इसलिए उसकी अपेक्षा एकमात्र यही प्रतिपादन किया जाता है कि जो कुछ सी काय हाता है वह अपने उपादानसे ही होता है। वही उसका निज भाव है ओर वही अपनी परिणमनरूप सामथ्यके द्वारा कार्यरूप परिशत होता है । निमित्त है ओर वह अन्यका कुछ करता है. यह कथन इसे स्वीकार ही नहीं है। यह तो निश्चयनयकी तत्त्वविषेचनकी पद्धति है। किन्तु व्यवह्मस्नयकी तत्वविवेचनकी पद्धति इससे भिन्न प्रकारकी है। यह गुणसेद ओर पर्यायभेदरूप तो आत्माकों स्वीकार करता ही है। साथ ही जो विसाव भाव ओर संयुक्त अवस्था है उनरूप भी आत्माको मानता है । इस नयका वल निमित्तों पर अधिक है। इसलिए जैनतत्त्वमी मांसा नए हि ल्‍्प सयकी अपन्ञना बह काय इन निमित्तास हुआ चंद कहा जाता । यह कथन इसा नथम दामा पाता हैँ कि यद्रि सििसि ने हा ता काय भां नहा दहागा, नश्वचवयनयम्न महं।। निश्चयनयस ता यहा कहा जाचगा कि जब तक निश्चय रत्नन्नयका प्राप्र नद्य हाता तब तक प्रवंक्त किसो भा भावक्ता व्यवहार रत्वन्नय कहना संगत नहां है । आर जब वचश्चय् स्त्ननत्नयका ग्राप्र हा जाता हे तब उसके पृत्॑ जा नव तन्चाका श्रद्धा आर ज्लातन आंद भाव ०० /ज]७ दर श्धो हाते है उन्हें भी थत नेंगमनवस व्यवहार रत्मन्नय कहा जाता है. क्योंकि जब तक निश्चय प्रगट नहीं हाता तव तक व्यवहार किसका ? असव्योंने अनन्तवार द्रव्य मनिषद्का थारण किया पर उनका चित्त गगमे अटका रहनेसे उन्हें इश्चा्थकरी प्रामि नहीं हुई । अतग्ब व्यवहार सरत्लत्रय कार्यसिद्धिमें बत्तुतः साथक है. एसी श्रद्धा छाइकर त्रिकाली हव्यम्थभावकी उपासना द्वार निश्चय रत्नत्रयक्ी प्राप्ति ऋरती चाहिए। इस जीवका निश्चय रन्नन्नयकी प्राप्ति हाने पर व्यवहार रत्नन्नय हाता ही है। उसे प्राप्र करमेके लिए अलगसे प्रयत्त नहीं करता पइता। व्यवहार रत्लन्नय स्वर्य धस नहीं हैं। निश्चय रत्लत्नय्के सदभावमें उसमें धर्मका आरोप हाता हूँ इतना अवश्य है। उसी प्रकार रांटिबश जा जिस “ उसके सद्भधाचमं भी तव तक कायकी सिद्धि नहीं हाती जब तक जिस छार्यक्रा वह निमित्त 5 » | न््न्म्यी का श्र रा थे का , 8! ठो ० ल्ल्ज् दी ११) | कहा जाता हूँ 5 अनुल्प उपादानका तेयाराो न हा | अतेः्य कार्योसाड्धमें निमित्तोंका हाना अक्िंचित्कर हैं। जो चसारा श्राणा नामत्ाका मिलानके भाव तो करते हैं पर & 5 2 ० हि उ्पादानका सस्हाल् नहां करते वे इश्ाथंकी सिद्धिमें सफल नहीं हाते आर अनन्त संसारक पात्र वन रहते है। अतण्व निमित्त कायासाद्धस साथक है ऐसी अशद्धा छोड़कर अपने छपादानका निश्चय-व्यवहारमीमांसा श्ष्३े मुख्यरूपसे लक्ष्यमें लेना चाहिए। उपादानके ठीक होनेपर निमित्त मिलते ही हैं, उन्हें मिलाना नहीं पड़ता। निमित्त स्वयं कायसाथक नहीं है । किन्तु उपादानके कार्यके अनुरूप ध्यापार करनेपर जो वाह्य सामग्री उसमें हेतु होती हूं उसमें निम्ित्तपनेका बहार किया जाता हैं। निमित्त-नंसित्तिकसावकी यह व्यवस्था अनादिकालसे वन रही है| कोई उसमें उलट-फेर नहीं कर ' सकता, अतण्व प्रत्येक काय स्त्रकालसें उपादानके अनुसार अपने पुरुपार्थसे होता है यही श्रद्धा करना हितकारी है। इस प्रकार दोनों नयोंकी अपेक्षा विवेचन करनेकी यह पद्धति हैं, अतः जहाँ जिस नयकी अपेक्षा विवेचन किया गया हो उसे उसीरूपमें ग्रहण करना चाहिए । उसमें अन्यथा कल्पना करना उचित नहीं है | निश्चय कथन यथार्थ हैं. ओर व्यवहार कथन उपचरित (अयथार्थ ) है, अतः उपचरित कथनसे इहृष्टिको परावृत्त करनेके लिए वक्ता यददि मोंज्षप्राप्तिमें परम साधक निश्चय रत्नत्नयकी दृष्टिसे तत्वका विवेचन करता है तो इससे व्यवहारधमंका केसे लोप होता है यह हमारी समभक्े बाहर है। जय कि बस्तुस्थिति यह है कि निश्चय रत्नत्रथक्रे अनुरूप तत्त्वका निर्णय हो जानेपर उसकी यथापदवी उपासना करनेवाले व्यक्तिकी जब जो व्यवहार धर्मरूप प्रवृत्ति होती हे वह शुभ रूप पुण्यवर्धक ही होती हैं। प्रायः अशुभसें तो उसकी प्रवृत्ति होती ही नहीं। इस प्रकार निश्चयनय और व्यवहार्नय क्‍या नके अनुसार तत्त्वविवेचनकी पद्धति क्‍या हे ओर सोक्ष- मागमें क्यों तो निश्चयनय आश्रयणीय है ओर क्‍यों व्यवह्यरनय आश्रयणीय नहीं है इसका सांगोपांग ऊहापोह किया | ,११. ह के “+-४४8--- अनेकान्त-स्याद्वादमोंमांसा एक कालमे दॉलाए अमेकान्तिका रुप | एक सस्नमें लिये हों विधिननेपरदस्थरू॥ ॥ पिछले प्रकरण यद्यपि हमने निःययनय आर व्यवशाग्नय- क्या है इसका विवेचन करने साथ इस बानका भी विचार किया कि माक्षमार्गम मात्र निश्ययनय वनों आम्रयणीस हैं. ओर व्यबहासर्नय क्यों आाश्षयगीय नहीं है। फिर भी प्रकूसम अनकानन- की हृष्टिस इस तत्वकी रबंधणा ऋरना आवद्यक हें. क्योंकि मोज्ञसार्गमें व्यवहारसय गाौश होनेके कारण उसे आवय करने बोस्य ने मानने पर एक्रान्तका प्रसंग आता है ऐसा ऋुछ मर्नापियोंका मत है । यद्यपि श्रागमर्मं एस बचने उपलब्ध हाते £ जिनके चलपर यह कहा जा सकता हें कि भाज्षसासमे मात्र निश्चयनयका अवलम्धन लगना ही कायकार्सी 8। उदाहख्गा्थ समयप्राभ्ृतमें आचाये कुल्दकुन्द मोज्षका देतु एकमात्र परमार्थ ( निश्चयनय ) का अलम्बन है. इस ब्ातका समर्थन करते हुए कहते है ३--- माचण गिव्छुयट्ट बबहारेंग बिदसा पवट्रति । परमद्मस्सदाण दु जदीश कम्मक्खधों विदिशा ॥१५ निश्चयनयक्रे विषयकों छोड़कर विद्वान व्यवहारनयका आतलम्पन लकर प्रवृत्ति करत हैं, परन्तु परसाथका शाश्रय करने- जान यातयाका हो कमंत्तय हाता हैं ऐसा नियम ह ॥५९४६॥ अनेकान्त-स्याह्ादमीमांसा हि औ। नर नी रा ल े आच ए्‌ (9 इसी वातको स्पष्ट करते हुए य अमृतचन्द्र कहते है-- वृत्त ज्ञानस्वभावेन श्ञानस्य भवन सदा । एकद्रव्यस्वभावत्वान्मोक्नदह्देतुस्तदेव तत्‌ ॥१०६॥ वृत्त कर्मस्वभावेन ज्ञानस्य भवन न हि | हे द्रव्यान्तरस्वभावत्वान्मोक्षहेतुर्न कर्म तत्‌ |[१०७॥। ज्ञान एक द्रव्यका स्वभाव है, इसलिए ज्ञानका परिणमन -सदा ज्ञानरूपसे होनेके कारण एकमात्र वही साक्षका हेतु है ॥१०६॥ किन्तु कमंका स्वभाव अन्य द्रव्यरूप है इसालिये ज्ञानका परिणमन कमंरूपसे नहीं होनेके कारण कर्म सोक्षका हेतु नहीं हैं ॥१०७॥ वे पुनः इसी विपयको स्पष्ट करते हुए कहते हैं-- सर्वत्नाध्यवसायमेवमखिल त्याज्यं यदुक्त जिनेः तन्मन्ये व्यवहार एवं निखिलोउप्यन्याश्रयस्त्याजितः । सम्यझ निश्चयमेकमेव परम निष्कम्पमाक्रम्य कि शुद्धज्ञानवने महिम्नि न निजे वन्नन्ति सन्‍्तो ध्तिम्‌॥ सभी पदार्थेमें जो अध्यवसान है| उस सभीको जिनेन्द्रदेवने त्यागने योग्य कहा है इसलिए हम मानते हैं कि जिनेन्द्रदेवने परके आश्रयसे होनेवाले सभी प्रकारके व्यवह्यरकों छुड़ाया है। फलस्वरूप जो सत्पुरुष हैं. वे सम्यक्‌ प्रकार एक निश्चयकों ही निश्चलरूपसे अंगीकार करके शुद्ध ज्ञानधनस्वरूप अपनी हिमामें स्थिरताकों क्‍यों नहीं धारण करते ९ मोक्षकार्यकी सिद्धि निश्वयनयका अवलम्बन लेनेसे ही क्‍यों होती है इस वातका स्पष्ट निर्देश करते हुए नयचक्रमें कहा हे-- २५६ जैनतत्तमीमांसा शिच्छुयदों खलु मोकनों बंधो ववहासरचारिणों जम्हा। तम्हा शिब्बुदिकामी बवहारं चयदू तिविदेश ॥इदश॥। यतः निश्चयनयका आश्रय करनेसे भोक्ष होता है ओर व्यवहारका आचरण करनेवालेके वनन्‍्ध हाता हैं अतः सोक्षकी इच्छा रखनेवाले जीवको मन, वचन ओर कायस व्यवहारका त्याग कर देना चाहिए, अथान्‌ उसमें हेय बुद्धि कर लेनी , चाहिये ॥१८९॥ मोत्तणू वहिविसय आ्रादा वि बद्दे का । तडया संबर शिज्जर मोक्खा वि य होइ साहुस्स ॥शे८३॥ जब काई साधु वाह्य विषयका छोड़कर आत्माका विपय कर स्थित होता है तव उसके संचर, निंजरा ओर माक्त होता हैं ॥३८३॥ निश्चयनयके आश्रयसे ही धर्म होता है, व्यवहास्नयके आश्रयसे नहीं इसका खुलासा करते हुए आचाये देवसेनकृत नयचक्रकी टीका (प्रकाशक श्री वर्धभान पाश्वंनाथ शास्त्री सोलापुर . १६४८ ) में भी कहा है--- ननु प्रमाणलक्षणें योउइसो व्यवहारः स व्यवहार-निश्चयमनुभय् च गह्त्नरणधिकविपयत्वात्कथं न पृज्यनीयो ? नेबम्‌, नयपत्षातीतमात्मार्न कठु मशक्‍्यत्वात्‌ । तद्था-निश्चयय ग्रह्नन्नपि अन्ययोगव्यवच्छेद न फररोतीलन्ययोगव्यवच्छेदामावे व्यवह्ास्लज्षण भावक्रियां निरोदधुमशक्तः । अतएव ज्ञानचेतन्ये स्थापय्रितुमशक्य एवासावात्मानमिति | तथा प्रोच्यते- निश्चयनयस्लेकत्वे समुपनीय श्ञानचैतन्ये संस्थाप्य परमानन्द समुसाश् वीौत्तरा्य कृत्वा स्वयं निव्तमानो नयपक्षातिक्रान्त॑ करोति तमिति पूज्यतमः । अतएबव निश्चयनयः परमार्थप्रतिपादकलाद भूतार्थः । अन्नैयाविश्वान्तान्तष्टिम॑वत्यात्मा । अनेकान्त-स्याद्वादमी मांसा र्‌५छ ' शंका--जों यह प्रमाणलक्षण व्यवहार है वह व्यवहार, निश्चय ओर अनुभयको ग्रहण करता हुआ अधिक विषयवाला होनेसे पूज्य क्यों नहीं है ? समाधान--ऐसा नहीं है, क्‍योंकि प्रमाणलक्षण व्यवहार आत्माको नयपक्षसे अतिक्रान्त करनेसें समर्थ नहीं है। खुलासा इस प्रकार हे--वह निश्चयकों ग्रहण करके भी अन्ययोग- व्यवच्छेद नहीं करता और, अन्ययोगव्यवच्छेदके अभावमें वह व्यवहारलज्ञण भावक्रियाकों रोकनेमें असमर्थ है। अतएव चह आत्माको ज्ञानस्वरूप चैतन्यमें स्थापित करनेके लिए असमथ ही है। उसी प्रकार कहते हैं--निश्चयनय तो एकत्बको प्राप्त करनेके साथ ज्ञानस्वरूप चेतन्यमें स्थापित कर परमानन्दकों उत्पन्न करता हुआ वीतराग करके स्वयं निवृत्त होता हुआ उसे ' ( आत्माको ) नयपक्षसे अतिक्रान्त करता है, इसलिए यह उत्तम- प्रकारसे पूज्य है। अतएव निश्चयनय परमाथंका प्रतिपादक होनेसे भूताथ है | इसीमें यह आत्मा अविश्रान्तरूपसे अन्तद् ष्टि होता है । नयचक्रमें इस आशयकी एक गाथा भी उद्धृत की गई है । वह इस प्रकार है ;-- ववहारादो बंधों मोक्‍्खो जम्हा सहावसंजुत्तो । तम्हा कुरू त॑ गउणुं सहावमाराहणाकाले ॥१॥ व्यवहारसे वन्ध होता है, क्योंकि स्वभावसंयुक्त जीव ही मोक्ष है, इसलिए स्वभावकी आराधना करनेके कालमें उयवहारको गोण करना चाहिए ॥ १॥ स्वभावआराधनाका काल कहो या मोक्षमार्ग कहो एक ही , पअभिप्राय है| तदनुसार उक्त कथनका तात्पय यह है कि मोक्ष १७ अनेकान्त-स्याद्याद्मीमांसा २०९ सच अनेकान्तवादी ठहरते हैं। ऐसी अवस्थामें जैनदर्शनकी अनेकान्तवादीके रूपमें जो प्रसिद्धि है उसका कोई मूल्य नहीं रह जाता। साथ ही अनेकान्तका ऐसा अथ स्वीकार करनेपर एक 'पदार्थकी अन्य पदाथसे व्यात्रृत्ति तथा एक ही पदाथरसें एक गुणकी अन्य गुणसे या पयोयसे व्याबृत्ति, एक पर्योयकी अन्य 'पर्याय आदिसे व्यावृत्ति आदि दिखलाना नहीं वन सकता | अतः प्रकृतमें जेनदर्शनमें अनेकान्तकी जो स्व॒तन्त्र व्याख्या की गई है उसे सममकर ही इसका कथन करना चाहिये। आचाय अम्ृत- चन्द्र समयग्राश्बतकी टीकामें इसका लक्षण करते हुए कहते हैं।-- तत्र यदेव तत्‌ तदेवातत्‌ यदेवेक तदेवानेक॑ यदेव सत्‌ तदेवासत्‌ यदव नत्य तदवानत्यामत्यकबस्तान वस्त॒त्वनिष्यादकपरस्पर|वसखद्ध शाक्त+ इयप्रकाशनमनेकान्तः । प्रकृतमें जो तत्‌ है चही अतत्‌ है, जो एक है वही अनेक है, जो सत्‌ है वही असन्‌ हे तथा जो नित्य हैं वही अनित्य है इस प्रकार एक वस्तुसें बस्तुत्वको उपजानेबाली परस्पर विरुद्ध दो शक्तियोंका प्रकाशित होना अनेकान्त है । यद्यपि प्रकृतमें जो वस्तु तत्स्वरूप हो वही अतत्स्वरूप हो इसमें बिरोध दिखलाई देता है, क्योंकि एक ही बस्तुसें परस्पर विरूद्ध ढो धर्मोके स्वीकार करनेमें स्पष्ट वावा प्रतीति होती है । परन्तु इसमें वाधाकी कोई वात नहीं है, क्‍योंकि यहाँपर वस्तुको जिस अपेक्षासे तत्स्वरूप स्वीकार किया है उसी अपेक्षासे डसे अतत्स्वरूप नहीं स्वीकार किया हे। उदाहरणाथ एक ही व्यक्ति अपने पिताकी अपेक्षा पुत्र हें ओर अपने पुत्रकी अपेक्षा पिता है, इसलिए जिस प्रकार एक ही व्यक्तिमें मिन्न-मिन्न अपेक्षाओंसे पिदत्व और पुत्रत्व आदि विविध धर्मोका सद्भाव वन २६० जैनतत्त्वमीमांसा जाता है उसी प्रकार प्रत्येक पदाथ द्रव्याथिक हृष्टिसे तत्स्वरूप हैं क्योंकि अनन्त काल पहल वह जितना और जैसा था उतना और बसा हो वतमान कालमें भी इृट्रिगोचर होता हैं ओर वर्तमान काल में वह जितना ओर जैसा है उतना ओर वेसा ही वह अनन्तकाल तक वना रहेगा। उसमस काइ एक प्रदेश या गुण खिसक जाता हों ओर उसका स्थान कोइ अन्य प्रदेश या गुण ले लेता हो रैसा नहीं है, इसलिए तो बह सदाकाल तत्वरूप ही है । किन्त इस प्रकार उसके तत्स्वरूप सिद्ध हानपर भी परयोयरूपसे भी वह नहीं वदलता हा ऐसा नहीं है, क्योंकि हम देखते हैं कि जो वालक जन्मके समय होता है। कालान्तरमें वह वही होकर भी अन्य रूप भा हाजाता हैँ, अन्यथा उसमें वालक, युवा और वृद्ध इत्यादरूपस विविध अवस्थाएँ इृष्टिगाचर नहीं हो सकतीं इस(लए बिचज्ञा भेदस तन्‌ ओर अतत्‌ इन दोनों धर्मोको एक ही पस्पुम स्वीकार करनमें कोई बाधा नहीं आती | मात्र अन्वयको स्थाकार करनबाले द्रव्याथिकनयकी इृष्टिसे विचार करनेपर तो अत्यक पदाथ हमें तत्स्वरूप ही प्रतीत होता है और उसी पदार्थकों व्यातरकका स्वीकार करनेवाले पर्यायाथिक नयकी हृष्टिसे देखनेपर तह मात्र अतत्स्वरूप हीं प्रतीत हाता है। इसलिए प्रत्येक पदार्थ तत्स्वरूप भी हैं ओर अतत्स्वरूप भी हैं। इसी प्रकार प्रत्येक पदार्थ सत्‌ मी है और असत्‌ भी है। प्रत्येक पदार्थ स्वृद्रव्य स््षेत्र, स्वकाल और स्वभावरूपसे अस्तिरूप है, इसलिए तो पढे सन्‌ है और उससें परद्रव्य, परत्षेत्र; परकाल और परमावका उ्य अभाव हैँ इसलिए इस इृष्टिसे वह असत ्‌ है । प्रत्येक पदार्थकी नित्यानित्यता और एकानेकता इसी श्रकार साथ लेनी चाहिये, क्योंकि जब हम किसी पदार्थका दृव्यहट्रिसे अवलोकन हैं तो वह जहाँ हमें एक और नित्य प्रतीत होता है वहाँ अनेकान्त-स्थाद्रादमी मांसा २६१ उसे पर्योयहट्रिसे देखनेपर उसमें अनेकता और अनित्यता भी - अमाणित होती है। शाम प्रकृत विपयको पुष्ट करनेके लिए अनेक उदाहरण दिये गये हैं । विचार करने पर विदित होता है कि प्रत्येक द्रव्य 'एक अखण्ड पदाथ हे। इस इष्टिसे उसका विचार करनेपर उसमें द्रव्यभेद, क्षेत्रभेद, कालभेद ओर भावशसेद सम्भव नहीं हे, अन्यथा वह अखण्ड एक पदार्थ नहीं हो सकता, इसलिए द्रव्याथिकदृष्टि ( अमेदद्ृष्टि ) से उसका अवलोकन करनेपर वह तत्खरूप, एक, नित्य ओर अस्तिरूप ही पग्रतीतिमें आता है। किन्तु जब उसका नाना अवयब, अवयवबोंका प्रथक प्रथक ज्षेत्र प्रत्येक समयमें होनेवाला उनका परिणामलक्षण स्वकाल ओर उसके रूप-रसादि या ज्ञान दर्शानादि विविध भाव इन सबकी हृष्टिसे विचार करते हैं तो बह एक अखरड पदार्थ अतत्स्वरूप, अनेक, अनित्य और नास्तिरूप ही प्रतीतिमें आता है। प्रत्येक पदार्थ तड्धिन्न अन्य अनन्त पदार्थेसे प्रथक होनेके कारण उसमसें उन असन्‍्त पदार्थोका अत्यन्तासाव है यह तो स्पष्ट है ही अन्यथा उसका स्थ॒द्गव्यादिकी अपेक्षा स्वरूपास्तित्व आदि ही सिद्ध नहीं हो सकता और न उन अनन्त पदार्थोर्में अपने अपने द्रव्यादिकी अपेन्ता भेदक रेखा ही खींची जा सकती है। आचाये समन्तभद्रने अत्यन्ताभावके नहीं मानने पर किसी भी , _दब्यका विवज्षित द्रव्यादिख्यसे व्यपदेश करना सम्भव नहीं है यह जो आपत्ति दी है बह इसी अभिप्रायकों ध्यानमें रख कर ही दी हैं। साथ ही गुण-पर्योयोंके किंचित्‌ मिलित स्वभावरूप वह स्वयं भी एक है और एक नहीं है, नित्य है और नित्य नहीं है, तत्स्रहूप है ओर तत्स्वरूप नहीं हैं तथा अस्तिरूप है ओर अस्तिरूप नहीं है, क्योंकि द्रव्याथिकदृष्टिसे उसका अवलोकन २६२ जैनतत्वमीमांसा करनेपर जहाँ वह एक, नित्य, तत्स्वरूप ओर अस्तिरूप प्रतीतिमें आता है वहाँ पयोयार्थिकदष्टिसि उसका अवलोकन करनेपर वह एक नहीं है अथात अनेक है, नित्य नहीं हे अथांत्‌ अनित्य है, तत्स्वरूप नहीं है अथान अनत्ख॒रूप है ओर अस्तिरूप नहा हैं, शत तास्तिरूप है ऐसा भी प्रतीतिमें आता है । अन्यथा उसमें प्रागमाव, अ्ध्यंसाभाव ओर अन्योन्‍्यासावकी सिद्धि न हो सकनेके कारण न तो उसका विवज्षित समयमें विवज्षित आकार ही सिद्ध हागा और न उससें जो गुणभेद ओर पयोगसेदकी प्रतीति हाती है बह सी वन सकेगी। आचार्य समन्तभद्रने प्रागभावक्े नहीं माननेपर कार्यद्रव्य अनादि हो जायगा, प्रध्बंसा- भावके नहीं माननेपर कार्यद्रव्य अनन्तताकों प्राप्त हो जायगा ओर इसरतराभावके नहीं साननेपर वह एक सवोत्मक हो जायगा यह जो आपत्ति दी है वह इसी अभिप्रायकों ध्यानसें रखकर ही दी हैं। स्वामी समन्तभद्र प्रत्येक पदार्थ कथंचित सन है ओर ओर कथ्थंचित्‌ असन हैं” इसे स्पष्ट करते हुए कहते हैं; सदेव सव को नेच्छेत्‌ स्वरूपादिचतुष्टयात्‌ अमदेव विपयासान्न चेन्र व्यवतिष्ठते ॥१७॥ ऐसा कान पुरुष है जो, चेतन ओर अचेतन समस्त पदार्थजात स्वद्रव्य, स्वचेत्न, स्वकाल ओर स्वभावक्ती अपेक्ता सत्स्वरूप ही हैं, एसा नहीं मानता और परद्रव्य, परक्षेत्र, परकाल ओर परभावकी अपरेज्ञा असत्स्वरूप ही है, ऐसा नहीं मानता, क्योंकि ' ऐसा स्वीकार किये विना किसी भी ्ष्ट तत््वकी व्यवस्था नहीं चन सकती ॥१५॥ उक्त व्यवस्थाका स्वीकार नहीं करनेपर इष्ट तत्वकी उयवस्था किस प्रकार नहीं वन सकती इस विपयकों स्पष्ट करते हुए अनेकान्त-स्पाद्रादमीमांसा र६रे विद्यानन्दस्थासी उक्त श्लोककी टीकामें कहते है।-- स्वपररूपोपादानापोहनव्यवस्थापायत्वाइस्तुनि वस्तुलस्थ, स्वरूपादिव रव्यादपि सत्ते चेतनादेस्वेतनादित्वप्रसंगात्‌ तत्स्वात्मवत्‌ , पररूपादिव स्वरूसादप्यसस्वे सवंथा शज्यतापत्ते।, स्वद्रव्यादिव परद्रव्यादपि सच्चे द्रव्यप्रतिनियमविरोधात्‌ । इसमें सर्वप्रथम तो वस्तुका वस्तुत्व क्या है इसका स्पष्टीकरण करते हुए आचाय विद्यानन्दनं कहा है कि जिस व्यवस्थासे स्वरूपका उपादान ओर पररूपका अपोहन हो बही वस्तुका वस्तुत्व हैं। फिर भी जो इस व्यवस्थाको नहीं मानना चाहता उसके सामने जो आपत्तियाँ आती हैं उनका खुज्ञासा करते हुए थे कहते हें-- १. यदि स्वरूपके ससान पररूपसे भी बस्तुकों अस्तिरूप स्त्रीकार किया जाता है तो जितने भी चेतनादिक पदाथे हैं वे जैसे स्वरूपसे चेतन हैं वेसे ही वे अचेतन आदि भी हो जावेंगे । /, पररूपसे जैसे उनका असत्त्व हे उसी प्रकार स्वरूपसे . भी थदि उनका असत्त्व मान लिया जाता है तो स्वरूपास्तित्वके हक नहीं बननेसे सर्वथा शून्यताका प्रसंग आ जायगा | ३, तथा स्थद्वव्यके समान परद्रत्यरूपसे भी यदि सत्त्व मान लिया जाता है तो द्रव्योंका प्रतिनियम होनेमें विरोध आ ऊायगा। 29. सके हक. चेतन हि यत्तः उक्त दोप प्राप्त न हों अतः प्रत्येक चेतन-अचेतन द्रठ्यकों स्वरूपसे सद्रूप ही ओर पररूपसे असद्रूप ही मानना चाहिए । एक घट द्रब्यके आश्रयसे भद्टाकलंकदेवने घटका स्वात्मा क्‍या ऊनतठत्दमीमांसा बी द्ट जऊनतत्त्तमामास डर ओर परमात्मा क्या इस विपयपर महत्वपूर्ण प्रकाश डाला हैं । इससे समयप्राभत आदि शाल्रोंमें स्समय ओर परसमयका जो ल्वरूप बतलाया गया है उस पर मोलिक प्रकाश पड़ता है, इसलिए यहाँ पर बटका स्वात्मा क्या ओर परमात्मा क्या इसका विविध दृष्टियोंसे ऊह्यपाह करना इंध) सममकर तत्यार्थवार्तिक .( अ० २, सत्र ६) में इस सन्वन्धमें जो कुछ भी कह्या है उसके भावकों यहाँ उपस्थित करते हे १. जो घट बुद्धि ओर घव्शब्दकी प्रव्गत्तिका हँतु है वह खात्मा हैं ओर जिसमें घटवुद्धि ओर घव्शब्दकी प्रवृत्ति नहीं होती वह परात्मा है। घट स्वात्माकी दृष्टिस अस्तित्वरूप हैं, ओर परात्माक्ी इष्टिसे नास्तित्वरूप हैं । ॥!" /॥ नामधट, स्थापसावट, द्रृव्यवट ओर भाववाट इनमेंसे लव जो विवज्तित हो वह स्वात्मा ओर तद्दितर परात्मा। यदि उस समय विवज्षितकें समान इतररूपसे भी घट माना जाय यथा इतर रूपसे जिस प्रकार वह अधट है उसी प्रकार विवजक्षित रूपसे भी वह अबट माना जाय तो नासादि व्यवहारके उच्चेदका प्रसंग आता है। हु ््‌ 2, घट शब्दके वाच्च समान घमंत्राले अनेक शर्टोर्मेसे 5 हे. विवज्षित घटके अहण करने पर जा अतिनियत आकार आदि हें बह स्वात्मा ओर उससे मिन्न अन्य परात्मा। चद्टि इतर घढोंके आकारसे वह घट अस्वित्वरूप हो जाय तो सभी घट एक घटरूप हो जायेंगे ओर ऐसी अवस्थार्में सामान्यके आश्रवसे हानेवाले व्यवह्यरका लोप ही हो जायया । ग्ु धु जज |) ०! रु - ऋूव्याथिकहृप्रिसे अनक ज्णस्थायी घढसें जा परवेकालीन कुशूलपयन्त अवबस्थाएँ हाती हैं वें ओर जो ज्चरकालीन अनेकान्त-स्याह्ादमीमांसा २६५ कपालादि अवस्थाएँ होती हैं वे सब परात्मा और उनके मध्यमें अवस्थित घटपयाय स्वात्मा। मध्यवर्ती अवस्थारूपसे वह घट *, क्योंकि घटके शुण-क्रिया आदि उसी अवस्थासें होते हैं । यदि कुशूलान्त आर कपालादिरूपसे भी घट होवे तो घट अवस्थामें भी उनकी उपलब्धि होनी चाहिए। ओर ऐसी अवस्थासें घटकी उत्पत्ति ओर विनाशके लिए जो प्रयत्न किया जाता है उसके अभावका प्रसंग आता है । इतना ही क्यों, यदि अन्तरालवर्तों अवस्थारूपसे भी वह अघट हो जावे तो घटकाये आर उससे होनेवाले फलकी प्राप्ति नहीं होनी चाहिये। ४. उस मध्य कालवतां घटस्वरूप व्यजनपयोयम भा घट झ्े प्रति समय उपचय ओर अपचयरूप होता रहता है, अतः ऋजुसूत्रनयकी इष्टिसे एक क्षणवर्ती घट ह। स्वात्मा है ओर उसी घटकी अतीत ओर अनागत पयोयें परात्मा हैं। यदि ग्रत्युत्पन्न 'क्षणकी तरह अतीत ओर अनागत क्षणसे भी घटका अस्तित्व साना जाय तो सभी घट वर्तमान क्षणमात्र हो जायेंगे । या अतीत अनागतके समान वर्तमान क्षणछपसे भी असत्त्व माना जाय तो शटके आश्रयसे होनेवाले व्यवहारका ही लोप हो जायगा | ६. अनेक रूपादिके समुच्चयरूप उसी वर्तमान घटमसें ध्रथुवुध्नोदराकारसे घट अस्तित्वरूप है, अन्यरूपसे नहीं, क्योंकि उक्त आकारसे ही घट व्यवहार होता है, अन्यसे नहीं । यदि उक्त आकारसे घट न होवे तों उसका असाव ही हो जायगा और अन्य अकारसे घट होवे तो उस आकारसे रहित पदाथेसें भी बटव्यवहार होने लगेगा | ७. रूपादिके सन्निवेशविशेषका नास संस्थान है। उसमें चक्षुसे घटका ग्रहण होने पर रूपमुखसे घटका अश्रहण हुआ २६६ ज्नतत्त्वमीमांसा इसलिए रूप स्वात्मा है और रसादि परात्मा हैं। वह घरटरूपसे अस्तित्वरूप हे आर रसादिरू्पसे नास्तित्वरूप हैं। जब चछ्ुस घटका ग्रहण करते है तव यदि रसादि भी घट हें एंसा प्रहण हा जाय तो रसादि भी चच्ुग्राह्म होनेसे रूप हो जायँंगे ओर ऐसी अवस्थामें अन्य इन्द्रियोंकी कल्पना ही निरथश्रेक हो जायगी। अथवा चच्चु इन्द्रियसे रूप भी घट है. ऐसा अहण न होबे तो वह चन्षु इन्द्रियका विपय ही न ठहरेगा । शब्दभेदसे अथभेद होता हे, अतः घट, कुट आदि शब्दोंका अलग अलग अर्थ होंगा। जो घटनक्रियासें परिणत ऊ हागा वह घट कहलायगा ओर जा कटिलरूप क्रियास परिणत होगा वह कुट कहलायेगा। ऐसी अवस्थामें घटन क्रियाका कर्भाव स्वात्मा है. ओर अन्य परात्मा | यदिं अन्यरूपसे मी कहा जाय तो पटादिसे भी घट व्यवहार होना चाहिए और इस तरह सभी पदार्थ एक शब्दके चाच्य हो जायेंगे। अथवा घटने क्रियाको करते समय भी चह अघट होथे तो घट व्यवहार- की निग्गत्ति हो जायगी । ट्र ९. घट शब्दके प्रयोगके वाद उत्पन्त हुआ घटरूप उपयाग स्वात्मा हैं, क्योंकि वह अन्तरंग है ओर अहेय हैं तथा बाह्य घटाकार परात्मा हैं, क्‍योंकि उसके अभावसें भी घटव्यवहयार दंखा जाता हैँ। वह घट उपयोगाकारसे हैं अन्यरूपसे नहीं । यदि घट उपयोगाकारसे भी न हो तो वक्ता और श्रोताके उपयोगरूप बटाकारका अभाव हा जानेसे उसके आश्रयसे होनेवाला उयवहार र है लुप्त हह जायगा। अथवा इतररूपसे भी यदि घट होबे तो पटादिकको भी घटत्वका प्रसड्गः आ जायगा | १०. चेतन्यशक्तिके ढो आकार होते हैं--ज्ञानाकार और अनेकान्त-स्थाद्वादमी मांसा २६७- ज्ञलेयाकार | प्रतिविम्बसे रहित दर्षणुके समान ज्ञानाकार होता है ओर प्रतिविम्बय॒क्त दर्पएुके समान जेयाकार होता है। उससें घटरूप जल्लेयाकार स्वात्मा है, क्योंकि इसीके आश्रयसे घट _ व्यवहार होता है और ज्ञानाकार परात्मा है, क्‍योंकि वह सर्वसाधारण है । यदि ज्ञानाकारसे घट माना जाय तो पटादि ज्ञानके कालमें सी ज्ञानाकारका सन्निधान होनेसे घटव्यवहार होने लगेगा ओर यदि घटरूप ज्लेयाकारके कालमें भी घट नास्तित्वरूप माना जाय तो उसके आश्रयसे इतिकतंव्यताका लोप' हो जायगा। यह एक ही पदार्थमें एक कालसें नयभेंदसे सत्वधर्म ओर असत्त्वधर्मकी व्यवस्था है। आशय यह है कि प्रत्येक पदार्थमें जब जो धम विवज्तित होता है तव उसकी अपेक्ता वह अस्तित्वरूप होता है और तदितर अन्य धर्मोकी अपेक्ता वह नास्तित्वरूप होता है। अस्तित्व धर्मका नास्तित्त धर्म अविनाभावी है, इसलिए जहां किसी एक विवज्ञासे अस्तित्व धर्म घटित किया जाता है वहां तद्धिन्न अन्य विवज्ञासे सास्तित्व धर्म होता ही है। न तो केबल अस्तित्व ही वस्तुका स्ररूप है और न केवल नास्तित्व ही | सत्ताका लक्षण करते हुए आचार्येनि उसे समप्रतिपक्ष कहा है वह इसी अप्िप्रायसे कहा है! उदाहरणा्थ जब हम किसी विवज्षित मनुष्यकों नाम लेकर बुलाते हैं तो उसमें उससे मिन्न अन्य मनुष्योंको वुलानेका निषेघ गर्भित रहता ही है। या जैसे हम किसी विचज्षित पर्यायके ऊपर हृष्टि डालते हैं तो उसमें तद्धिन्न पयोयोका अमभाव गर्भित रहता ही है। या जब हम किसीके भव्य होनेका निर्णय करते हैं. तो उसमें अभमव्यताका अभाव गर्भित है : ही। इसलिए कहीं पर मात्र विधिद्वरा किसी धर्म विशेषका सत्त्व स्वीकार किया गया हो तो उसमें तद्तिरका असाव ग्सित २६८ जैनतत्त्वमीमांसा डी है ऐसा समकना चाहिए। एक वस्तुसें विवक्षित धमकी अपेक्षासे अस्तितत और अन्यकी अपेक्षासे नास्तित्व यही असेकान्त है। इससे विवज्षित बस्तुमें धमविशेषकी प्रतिष्ठा हाकर उसमें अन्यका निपेथ हो जाता है। यहां जिस प्रकार सदसत्त्वकी अपेक्षा अनेकान्तका निर्देश क्रिया है उसी प्रकार तद्तत्त्व, एकानेकत्य ओर भदामेदत्व आदिकी अपेक्षा भी उसका निर्देश कर लेना चाहिए। इस विपयको स्पष्ट करते हुए नाटकसमयसार- के स्याह्राद अधिकारमें परिडतप्रवर वनारसीदास जी कहते हैं-- द्रव्य ज्षेत्र काल भाव चारों भेद वस्तु ही में अपने चतुप्फ बल. अस्तिरुप मानिये। परके चत॒प्क वस्तुन अस्ति नियत अंग ताकी भेद द्रव्य परयाय मध्य जानिये।॥। दरव जो वस्तु क्षेत्र सत्ताभूमि काल चाल स्वभाव सहज मूल सकति बखानिये।! याही भांति पर विकलप बुद्धि कलपना व्यवहार दृष्टि अंश भेद परमानिये॥ १० ॥ यह स्याह्वादरूप वचलके आलम्वन द्वारा अनेकान्त तत्त्वकी सामान्य सीमसांसा है । इसके प्रकाशमें जब हम समयप्राभ्नतका अवलोकन करते हैं तब हमें उससें पद-पद पर इस सिद्धान्तके दर्शन होते हैं। उसमें सबे प्रथम आचाये कुन्दकुन्दने आत्मा- से परसे मिन्न एकत्वकों दिखलानेकी प्रतिज्ञा करके उस द्वारा इसी अनेकान्तका सूचन किया हँ। थे यह नहों कहते कि में जिसका कोई प्रतिपक्षी ही नहीं हीं ऐसे एकत्वको दिखलाऊंगा। यदि वे ऐसी प्रतिक्षा करते तो यह एकान्त हों लाता जो मिथ्या होनेसे इप्टाथंकी सिद्धिमें प्रयोजक न होता | अनेकान्त-स्यादह्वादमीमांसा २६९. इसलिये वे प्रतिज्ञा करते हुए कहते हैं. कि में आत्माके जिस एकत्वका प्रतिपादन करनेवाला हैँ उसका परसे भेद दिखलाते हुए ही प्रतिपादन करूँगा | यदि कोई समझे कि वे इस प्रतिज्ञा वचनको ही करके रह गये है सो भी वात नहीं हैं, क्‍योंकि जहाँ पर भी उन्होंने आत्माके ज्ञायकस्वभावकी स्थापना की है बहाँ पर उन्होंने परको स्वीकार करके उसमें परका नास्तित्व दिखलाते हुए ही उसकी स्थापना की है । इसी प्रकार प्रकृतमें प्रयोजनीय ' अन्य तत्त्वका कथन करते समय भी उन्होंने गोंण-मुख्यभावसे विधि-निपेध दइृष्टिको साथ कर ही उसका कथन किया है। अब इस विपयको स्पष्ट करनेके लिए हम समसयप्राभ्वतके कुछ उदाहरण उपस्थित कर देना चाहते है :-- १--ण वि होदि अपमत्तों ण्‌ पमत्तो” इत्यादि गाथाको लें। इस द्वारा आत्मामें ज्ञायकस्वभावका “अस्तित्वधर्म द्वारा ओर प्रमताप्रमत्तभावका 'नास्तित्वथर्म द्वारा प्रतिपादन किया गया है । हृ्टियाँ दो हैं--द्रव्यार्थिकटष्टि और पर्योयाथिकदृष्टि । द्रव्यार्थिक हदृष्टिसि आत्माका अवलोकन करनेपर वह ज्ञायकस्वभाव प्रतीतिमें आता है, क्योंकि यह आत्माका त्रिकालाबाधित स्वरूप है। किन्तु पर्यायाथिकद्ृष्टिसे उसी आत्माका अवलोकन करनेपर वह प्रसत्तमाव ओर अग्रमत्तमाव आदि विविध परयोयरूप प्रतीत होता है। इन दोनोंरूप आत्मा हे इसमें सन्‍्देह नहीं। परन्तु _ पर वन्धपयोयरूप प्रमत्तादि क्षणिक भावोंसे रुचि हटाकर इस आत्माकों अपने ध्रव॒स्वभावकी प्रतीति करानी है, इसलिए मोक्षमार्गमें द्रव्याथिकद्ृप्टिकी मुख्यता होकर पयायाथिकद्ृष्टि ( व्यवहारनय ) गोंण हा जाती है । यहाँ कारण हे कि यहाँपर द्रब्याथिकदृष्टिकी सुख्यता होनेसे आत्मामें ज्ञायकस्वभावकी अस्तित्व धर्म द्वारा प्रतीति कराई गई हे ओर आत्माके अनेकान्त-स्याद्वादमीमांसा २७१ 'करने योग्य नहीं है। क्‍यों अनुसरण करने योग्य नहीं हे इस “बातका समर्थन करनेके लिए ११ वीं गाथामें निश्चयनयकी भूताथता ओर व्यवहारनयकी अभूताथ्थता स्थापित की गई है। यहाँपर जब व्यवह्रनय है ओर उसका विषय है तो निश्चयनयके “समान यथावसर उसे भी अनुसरण करने योग्य मान लेनेसें क्या आपत्ति है ऐसा प्रश्न होनेपर १२ वीं गाथा द्वारा उसका समाधान करते . हुए बतलाया गया है कि मोक्षमार्गमें डपादेय 'रूपसे व्यवह्रनय अजुसरण करने योग्य तो कभी भी नहीं है । . हाँ गुणस्थान परिपाटीके अनुसार वह जहाँ जिस प्रकारका होता है उतना - जाना गया ग्रयोजनवान्‌ अवश्य है। इस प्रकार इस वक्तव्य द्वारा भी व्यवहारनय और उसका विपय है यह स्वीकार “करके 'तथा उसका त्रिकाली ध्रुवस्वभावमें असत्त्व दिखलाते हुए अनेकान्तकी ही प्रतिष्ठा की गई है । ४. गाथा १३ में जीवादिक नौ पदार्थ है यह कहकर व्यवहार नयके विपयकी स्वीकृति देकर भी भूताथ्थरूपसे वे जाने गये 'सम्यग्दर्शन हैं यह कहकर मोकछ्षसागममें एकमात्र निश्चयनयका विषय ही उपादेय है यह दिखलाया गया है। इसके बाद गाथा १४ सें भूतार्थरूपसे नो पदार्के देखनेपर एकमात्र अवद्धरप्रष्ट, अनन्‍्य, नियत, अविशेष ओर असंयुक्त आत्माके ही दशन होते 'हैं, अतएब इंस अकार आत्माकों देखनेवाला जो नय है उसे 'शुद्धनय कहते हैं यह कहकर व्यवहारनयके विषयकों गोण और निश्चनयके विपयको मुख्य करके पुनः अनेकान्तकी ही प्रतिष्ठा की गई है। ५, १४ वीं गाथासें उक्त विशेषणोंसे युक्त आत्माकों जो दे; े ४७ है. 3] था ' दिखता ह वह पूरे जिनशासनकों देखता है यह कहकर पूवाक्त र्‌७२ जैनतस्वमीमांसा प्रतिपादित मोक्षमार्गकी महिसा गाई गई है। व्यवहारनय है ओर उसका विपय भी है परन्तु उससे मुक्त होनेके लिए व्यवहार- नयके विपय परसे अपना लक्ष्य हटाकर निश्चयनयके विपय पर अपना लक्ष्य स्थिर करो। ऐसा करनेसे ही व्यवहास्मप वन्ध- पयोथ छूट कर निश्चय रस्नत्रयल्वरूप मुक्तिकी प्राप्ति होंगी। जिस महान आत्माने व्यवहास्ख्प वन्धपयोयकों गोण करके निश्चय रत्नत्रयकी आराधना द्वारा साक्षान्‌ निश्चय रबन्नत्नय॒कों प्राप्त किया है उसीने तत्त्वत: परे जिनशासनको देखा हैं। साचिए तो इसके सिवा जिनशासनका देखना ओर क्या होता जैनधर्मके विविध शाख्रोंकों पड़ लिया, किसी विपयके प्रगाढ विह्यन हो गये यह जिनशासनक्रा देखना नहीं है। जिनशासन तो रतनत्रयस्थरूप है. और उसकी प्राप्ति व्यवहारकों गीण किये विना तथा निश्चयपर आरूढ़ हुए बिना हो नहीं सकती, अतः जिसे पूरे जिनशासनको अपन जीवन देखना है उसे हेय या बन्धसार्ग जानकर व्यवहास्कों गोण ओर मोक्षमागमें उपादेय जानकर निश्चयकों मुख्य करना ही होगा तभी उसे निश्चय रत्नत्रयस्वरूप जिनशासनके अपने जीवनसें दर्शन होंगे । यह इस गाथाका भाव है | इसप्रकार हम देखते हैं कि इस गाथा द्वारा भी गोंण-सुख्यभावसे उसी अनेकान्तका उद्घोष किया गया है। ६. दंसण-णाण-चरित्ताणि! यह सोलहवीं गाथा है । इसमें सदप्रथस साधुकों न्रिल्तर दशन, ज्ञान और चारित्रके सेवन करनेका उपदेश देकर व्यवहारका सूचन किया है । परन्तु विचार कर देखा जाय तो ये दशन, ज्ञान ओर चारित्र आत्माकों छोड़कर अन्य कुछ भी नहीं हैं, इसलिए इस हारा भी तत्स्वरूप अखण्ड आत्मा सेवन करने योग्य है. यह सूचित किया गया है । तात्पर्य यह हैँ. कि निश्चयका ज्ञान करानेके लिए व्यवहार द्वारा ऐसा अनेकान्त-स्याद्ादमीमांसा २७३ उपदेश दिया जाता हे इसमें सन्देह नहीं पर उसमें मख्यता . निश्चयकी ही रहती है | इसके विपरीत यदि कोई उस व्यवहारकी ही मुख्यता सान ले तो उसे तत्स्वरूप अखण्ड ओर अविचल आत्माकी ग्रतीति ओर प्राप्ति त्रिकालमें नहीं हो सकती । इस गाथाका यही भाव है। इस विपयको स्पष्टरूपसे समभनेके , लिए गाथाके उत्तराधपर ध्यान देनेकी आवश्यकता है, क्योंकि गाथाके पृवोर्धमें जो कुछ कहा गया है उसका उत्तराधमें निषेध कर दिया है| सो क्‍यों ? इसलिए नहीं कि दर्शन, ज्ञान और चारित्र आदि पर्योयदष्टिसे भी अभूतार्थ हैं, वल्कि इसलिए कि व्यवहारनयसे देखने पर ही उनकी सत्ता हे। निमश्चयनयसे देखा जाय तो ज्ञायकस्वभाव आत्माकों छोड़कर वे अन्य कुछ भी नहीं हैं। इसलिए इस कथन हारा सी एक अखण्ड ओर अविचल आत्मा ही उपासना करने योग्य है यही सूचित किया गया हैं। इस प्रकार विचार करके देखा जाय तो इस गाथा द्वारा भी व्यवहारकों गौण करके और निश्चयकों मुख्य करके अनेकान्त ही सूचित किया गया है। इस प्रकार आचाये कुन्दकुन्दने व्यवहरसे क्या कहा जाता है ओर निश्चयसे क्या है इसकी सन्थि मिलाते हुए सर्वत्र अनेकान्तकी ही प्रतिष्ठा की है। इतना अवश्य है कि बहुतसा व्यवहार तो ऐसा होता है जो अखण्ड बस्तुमें भेदमूलक होता है। जैसे आत्माका ज्ञान, दर्शन ओर चारित्र आदिरूपसे भेद- व्यवहार या वन्धपयोयकी हृपष्टिसें आत्मामें नारकी, तिये॑त्, मनुष्य, देव, मतिज्ञानी, श्रुतज्ञानी, सी, पुरुष ओर नपु'सक आदि रूपसे पर्यायरूप भेदव्यवहार । ऐसे भेदद्वारा एक अखरण्ड आत्माका जो भी कथन किया जाता है, प्योयकी मुख्यतासे श्द र्ज्ड जनतत्त्वमीमासा आत्मा वैसा है इसमें सन्देह नहीं, क्योंकि आत्मा जब जिस पर्यायरूपसे परिणत होता हैं उस समय वह तद्रप दाता हँ, अन्यथा आत्माके संसारी ओर मुक्त य भेद नहीं वन सकते इसलिये जब भी आत्माके ज्ञायक स्वभाव उक्त व्यवहाग्का नास्तित्! कहा जाता है तथ भेदमृुलक व्यवद्यार गोंण हैं. ओर त्रिकाली धभ्रवस्रभावकी मुख्यता दै यह दिखलाना ही उसका प्रयोजन रहता है। परन्तु वहतसा व्यवहार एसा भी हाता है जा आत्मामें निमित्तादिकी धृष्टिसे या प्रयोजन विशेपस आरापित किया जाता हैं। यह व्यवहार आत्मामें हैँ नहीं, पर निमित्तादिकी हष्टिस उसमें स्थापित किया गया है. यह उक्त कथनका भाव है । इस विपयकों ठीक तरहसे सममनेके लिए स्थापना निक्तेपका उदाहरण पर्याप्त होगा। जेंसे किसी पापाणकी भतिमें इन्द्रकी स्थापना करने पर यहीं तो कहा जायगा कि बास्तवमें बह पापाण- की मति इन्द्रस्वरूप हैं. नहीं, क्‍योंकि उसमें आजा, ऐश्चय आदि आत्मगुणोंका अत्यन्ताभाव हैं | फिर भी श्रयोजनविशेपस उसमें इन्द्रकी स्थापना की गइ हं उसी प्रकार निमित्तादिकी अपेतक्ता आरोपित व्यवहार जानना चाहिए। निमित्तादिकी इहप्टिसे आरापत व्यवहार, जसे कुम्हारका घटका कता कहना ना | प्रयोजन विशेषसे आरोपित व्यवहार, जेंसे शरीरकी स्तुतिकों तीथंकरकी स्तुति कहना या सेनाके निकलने पर राजा मनिकला ऐसा कहना आदि | विचार कर देखा जाय तो रागादिरूप जीवके परिणाम और कर्मरूप पुद्नल परिणाम ये एक दूसरेके परिणमनमें निमित्त ( उपचरित हेतु ) होते हुए भी तत्वतः जीव और पुल परस्परमें कठू-कर्ममावसे रहित हैं। ऐसा तो है. कि जब विवज्षित मिट्टी न्‍ अनेकान्त-स्थाद्वादमी मांसा श्छ्प्‌ अपने परिणामस्वभावके कारण घटरूपसे परिणत होती है तव कुम्हारकी योंग-उपयोगरूप पयोय स्वयमेव उसमें निमित्त होती है। ऐसी वस्तुमयोंदा है। परन्तु कुम्हारकी उक्त पर्याय घट परयोयकी उत्पत्तिसें निमित्त होनेमात्रसे उसकी कतो नहीं होती, और न घट उसका कर्म होता है,क्योंकि अन्य द्रव्यमें अन्य द्रव्यके “कतत्य और करम्त्व धर्मका अत्यन्त अभाव हैं। फिर भी लोक- व्यवह्यस्थश कुम्हारकी विवक्षित पयायने मिदट्टीकी घट पर्योयकों उत्पन्न किया इस प्रकार उस पर मिट्टीकी घट पयोयके कठेत्वधर्मका ओर घटसमसें कुम्हारके कमत्वधर्मका आरोप ( स्थापना ) किया जाता है। यद्यपि शाम्कारोंने भी इसके अनुसार लोकिक इष्टिसे “वबचन्त प्रयाग किर्य हू परर यह व्यवहार असतू हां। यह ता निमित्तादिकी दृष्टिसे आरोपित व्यवह्यरककी चरचा हुईं। इसका वेशेप खुलासा हम कढे-कर्ममीमांसा प्रकरणमें कर आये हैं और | इसके ससथनमें प्रमाण भी दे आये है, इसलिए यहां पर इस विपयमें अधिक नहीं लिखा हैं । अब प्रयोजनविशेषसे आरोपित व्यवहारके उदाहरणोंका विश्लेषण कीजिए--जितने भी संसारी जीव हैं उनके एक कालमें 'कमससे कम दो ओर अधिकसे अधिक चार शररीरोंका , संयोग अवश्य होता है | यहां तक कि तीर्थंकर सयोगी-अयोगी जिन भी 'इसके अपयवाद नहीं हैं। व्यब विचार कीजिए कि जीवके साथ एकत्षेत्रवागाहीरूपसे सम्वन्धकों प्राप्त हुए उन शरीरोंमें जो अमुक अकारका रूप होता है, उनका यथासम्भव जो अमुक प्रकारका संस्थान और संहनन होता है इसका निमित्तकारण पुद्ल्‍लविपाकी * 'कर्मोका उदय ही है, जीवकी वर्तमान पर्याय नहीं तो भी शरीस्सें आप्त हुए रूप आदिको देखकर उस द्वारा ती्थंकर केचली जिनकी अनेकान्त-स्याद्दादमी मांसा २७७ अयोजनविशेपसे सेनाके निकल्लननेपर राजा निकला या राजाकी - सवारी निकली यह व्यवहार किया जाता है जो सबंथा असत्‌ है, इसलिए प्रयोजन विशेपसे किये गये इस व्यवहारकों भी आरोपित असद्‌ व्यवहार ही जानना चाहिए। इसी प्रकार लोकमें ओर भी बहुतसे व्यवहार प्रचलित है, क्योंकि वें किसी द्रव्यके नतोंगुण ही है और न पर्याय ही हैं, इसलिए वे बन्ध्यासुतव्यवहार या आकाश-कुसुमव्यवहारके . समान असत ही हैं। इसलिए जो व्यवहार विवज्षित पदार्थोमें पर्यायदट्िसे प्रतीतिमें आता है वह मोक्षमागमें अनुपादेय होनेसे आश्रय करने योग्य नहीं साना गया है अतणव उसे गौण करके अनेकान्तमूर्ति ज्ञायकस्वभाव आत्माकी स्थापना करना तो उचित है, किन्तु जो व्यवहार वस्तुभूत न होनेसे सर्वथा असत्‌ है, मात्र लोकिकहष्टिसे ज्ञानमें उसकी स्वीकृति हे। उसका मोक्षमार्गमें सर्वथा निषेध ही करना चाहिये | अनेकान्तकी प्रतिष्ठा करते समय आत्मासें ऐसे व्यव॒हारकों गोण करनेका प्रश्न ही नहीं उठता, क्योंकि जो व्यवहार भूताथ होता है उसे ही नय विशेषके आश्रयसे गोण किया जाता है। किन्तु जिसकी लोकमें सत्ता ही नहीं है उसे गोण करनेका अर्थ ही उसकी सत्ताकों स्वीकार करना हे जो युक्तियुक्त नहीं है। इसलिए जितना भी मिथ्या व्यवहार है उसे ' दूरसे ही त्याग कर और जितना पयोयदृष्टिसे भूताथ व्यवहार है उसे गोण करके एकमात्र ज्ञायकस्वभाव आत्माकी उपासना ही मोक्षमागेसें तरणोपाय हैं ऐसा निर्णय यहॉाँपर करना चाहिए । हाँपर यह प्रश्न होता है कि वर्णादि तो पुद्ठलके धर्म है,इसलिए आत्मामें ज्ञायकस्वभावके अस्तित्वको दिखलाकर उससें उनके नास्तित्वको दिखलाना तो उचित प्रतीत होता है। परन्तु आत्मामें २७८ जैनतत्वमोमांसा ज्ञायकमावके अस्तित्वका कथन करते समय उसमें प्रमत्तादि भावों के नास्तित्यकका कथन करना उचित प्रतीत नहीं हाता, क्योंकि ये दोनों भाव (ज्ञायक भाव ओर प्रमत्तादि भाव) एक द्रत्यके श्राश्नयसे रहते है, इसलिए एक द्र्यवूति होनेसे ज्ञायकभावके श्स्तित्वके थनके समय इन भावोंका निपेध नहीं चन सकता, अत्तगव इस हष्टिस अनकान्तका कथन करते समय “कथंथिन आत्मा छझ्षायक भावरूप है और कथंचित प्रमतादि भावरूप है! एसा कहना चाहिए। यह कहना ता बनता नहीं कि आत्मामें प्रसतादि भावोंका सत्र व्याम्रि नहीं देग्बी जाती, इसलिए आत्मार्मं उनका निषेध किया है, क्योंकि कहींपर ( प्रमत्तगुणस्थान तक ) प्रमत्मावकी ओर आगे अग्रमत्तमावकी व्यात्रि बन जानसे आत्मामें ज्ञायक- भावके साथ इनका सद्भाव मानना ही पड़ता है ? यह एक प्रश्न हे । समाधान यह है कि इस अनेकान्तस्थरूप प्रत्येक पदाथका कथन शचब्दरोंस दो प्रकारस किया जाता है। रुक क्रमिकरूपस ओर दूसरा योगपद्मरूपस । कथन करनेका! तोसरा काइ प्रकार नहीं है । जब अस्तित्व आदि अनेक धर्म कालादिकी अपेक्षा मिन्‍न मिन्‍न अर्थरूप विवज्षित हाते हैं. उस समय एक शब्दस अनेक धर्माके प्रतिपादनकी शक्ति न होनेसे ऋमसे प्रतिपादन होता हैं । इसे विकलादेश कहते हैं.। परन्तु जब उन्हीं असितित्वादि धर्मोकी कालादिकी इट्रिसे अभेद विंवत्ता ह।ती हैं तब एक ही शब्दके द्वारा एक धर्ममुखेन तादात्म्यूपसे एकत्वकों प्राप्त सभी धमाका अखण्डभावसे युगपन कथन हो जाता हैं। यह सकलादश कहलाता है। विकलादंश नयरूप हैं ओर सकलादे. प्रमाशरूप । इसलिए वस्तुक॑ स्वृस्पके स्पशेक्रे लिए सकलादंश ओर विकलादेश दानों ही कार्यकारी हैं ऐसा यहाँ समझसा चाहिए। एक है वचनप्रयोग जिसे हम सकलादेश कहते हैं वह विकला- अनेकान्त-स्याद्रादमी मांसा २७९ देशरूप भी होता है। यह वक्ताके अभिप्राय पर निर्भर हे कि वह विवज्ञित वचनप्रयोग किस इप्टिसे कर रहा है । यथावसर उसे समझनेकी चेट्टा तो की न जाय ओर उसपर एकान्त कथनका आरोप किया जाय यह उचित नहीं हे। अतएब वक्ता कहाँ किस अभिप्रायसे वचनप्रयोग कर रहा है इसे समझकर ही पदाथका निर्णय करना चाहिए। 'कथंचित्‌ जीव है ही ? यह वचनप्रयोग सकलादेश भी हे ओर विकलादेशरूप भी। यदि इस वाक्यमें स्थित हैं? पद अन्य अशेप धर्मोकों अभेदवृत्तिसे स्वीकार करता है तो यही वचन सकलादेशरूप हो जाता है और इस वाक्यमें स्थित हि पद मुख्यरूपसे अपना ही ग्रतिपादन करता है. तथा शेप धर्मोको . कथं॑चित्‌?पद द्वारा गोणभावसे ग्रहण किया जाता है तो यही वचन विकलादेशरूप हो जाता है । कोन वचन सकलादेशरूप हे ओर कोन वचन विकलादेशरूप यह वचनप्रयोगपर निर्भर न होकर वक्ता के अभिप्राय पर निर्भर करता है | अतणव 'जीव ज्ञायकभावरूप ही हैं? ऐसा कहने पर यदि इस वचनमें अशेदबृत्तिकी मुख्यता है तो यहो वचन सकलादेशरूप हो जाता है और इस वचनमें कथंचित्‌ पद द्वारा गोणभावसे अन्य अशेप धर्मोकों स्वीकार किया जाता है तो यही वचन विकलादेशरूप भी हो जाता है ऐसा यहाँ पर समझना चाहिए | यद्यपि यह वात तो है कि सम्यग्द्ष्टिके ज्ञानमें जहाँ ज्ञायक- स्वभाव आत्माकी स्वीकृति है वहाँ उसमें संसार अवस्था ओर मुक्ति अवस्थाकी भी स्वीकृति है। वह जीवकी संसार आर मुक्त अवस्थाका अभाव नहीं मानता । संसारमें जो उसकी नर-नारकादि ओर मतिज्ञान-श्रुतज्ञानादि रूप विविध अवस्थाएँ होती है. उनका २८० जैनतत्वमीमांसा भो अमाव नहों मानता। यदि बह बतंमानमें उनका अभाव माने तो वह मुक्तिके लिए प्रयन्न करता ही छोड़ दे । सो तो वह करता नहीं, इमालए वह इन सबका स्वीकार करके भी इन्हे आत्मकायकों सिद्धिमें अनुपादेय मानता हैं, इसलिए बह रहता हुआ सो इनका आनश्रव्य न लकर त्रिकाली नित्य एकमात्र झायकल्वभावका आनम्रव स्वोकार करता हें। निश्चयनय ओर उ्यवद्दाससयके विपयकाो जानना अन्य बात है ओर जानकर निश्चयनयकें विषयका अवलम्बन लेना अन्य बात है। सीज्ष- मार्गमे इस इृष्टिकाणसे हेखापादेशका विवेक करके स्वात्मा ओर परात्माका निर्णय क्रिया गया है। यदि लीकिक उद्ादरण द्वारा इस सममना चाहें तो यों कद्य जा सकता ह कि जैसे किसी यृहस्थका एक सकान है। इसमें इसके पढ़न-लिखने ओर उठने- चेठनेका स्वतंत्र कमरा हैं। बह घरके अन्य भागक्तो छोड़कर उसीसे निरन्तर उठता-अठनता और पह़ता-लिखता है। वह कदाचित मकासके अन्य भागमें भी जाता है । उसकी सार- सम्दाल भी करता हूँ। परन्तु उसमें उसकी विवज्षित कमरेके समान आत्मीय चुद्धि न हानेस वह मकानके शेप भागमें रहना नहीं चाहता । ठीक यही अवस्था सम्बस्द्प्रिकी हाती हैं। जो उसे बतंसानसें सर-नारक आदि चरंमान पर्याव मिली हुई है । बह उसास रह रहा हैं। अभा उसका पयायरूपस त्याग नहीं हुआ हे। परन्तु उसने अपनी वुद्धि द्वारा हब्याधिकनयका विपय्भृत ज्ञायकस्वभाव आत्मा ही सरा स्वात्मा है ऐसा निर्णय किया है, इसलिए बहू व्यवहारनयक्ते विषयमृत अन्य अशेप परभावोंकी गोश कर मात्र उसीका आश्रय लेता हें। कदाचित्‌ रागरूप परयायकी तीज्रतावश वह अपने स्थात्माका छोड़कर परात्मामें भी जाता हैं. तो भी वह उसमें क्षणमात्र भी टिकना नहीं अनेकान्त-स्याद्वादमीमांसा २८१ चाहता । उस अवस्थासें भी वह अपना तरणोपाय स्वात्माके अवलम्बनकों ही सानता हे। अतएवं इस दृष्टिकोणसे विचार करने पर सम्यग्हष्टिका विवजक्षित आत्मा स्वात्मा अन्य परात्मा यही अनेकान्त फलित होता है। इसमें आत्मा कथ्थ॑चित्‌ ज्ञायक भावरूप है और कथंचित्‌ प्रसत्तादि भावरूप है? इसकी स्वीकृति आ ही जाती है । परन्तु ज्ञायक भावमें प्रमत्तादिभांवोंकी 'नास्ति! , है, इसलिए इस अपेक्तासे यह अनेकान्त फलित होता है कि . आत्मा ज्ञायक सावरूप है अन्य रूप नहीं।” आचाये अमृृतचन्द्र ने आत्माको ज्ञायकसावरूप सानने पर अनेकान्तकी सिद्धि किस अकार होती है इसका निर्देश करते हुए लिखा है-- तत्वात्मवस्तुनो. ज्ञानमात्रत्वेउप्यन्तश्चकचकायमानज्ञानस्वरूपेण तत््वात्‌ वहिरुन्मिपदनन्तजेयतापन्नस्वरूपातिरिक्तपररूपेणातत्वात्‌ सहक्रम- ग्रवृत्तानन्तचिदंशसमुदयरूपाविभागद्रव्येणकत्वात्‌ू अविभागैकद्रव्यव्याप्त- सहक्रमप्रवृत्तानन्तचिदंशरूपपय ये रनेकत्वात्‌ स्वद्रव्य-ज्षेत्रकाल-भावभवन- शक्तिस्वभाववत््वेन. सच्तचात्‌ परद्रव्य-क्षेत्र-काल-भावाभवनशक्तिस्वभाव- बल्वेनासत्वातू. अनादिनिधनाविभागैकबृत्तिपरिणतत्वेन. नित्वत्वात्‌ क्रमप्रवृत्तेकसमयावच्छिन्नानेक़बृ व्यंशपरिणतत्वेनानित्यत्वात्तदतत्वमे कानेकत्व॑ सदसत्त्वं नित्यानित्यत्वं च प्रकाशत एवं । ह आत्माके ज्ञानमात्र होने पर भी भीतर प्रकाशमान ज्ञानरूपसे तत्पना है ओर बाहर प्रकाशित हांते हुए अनन्त ज्वयरूप आकारसे भिन्न पररूपसे अतत्पना है| सहम्रवृत्त ओर क्रमग्रवृत्त अनन्त- चैतन्य अंशोंके समुदायरूप अविभागी द्वव्यकी अपेक्षा उकपना है ओर अविभागी एक द्र॒व्यस व्याप्त हुए सहयशनन्ृत्त और करमप्रवृत्त अनन्त चेतन्य-अंशरूप पयोयोंकी अपेक्षा अनेक- यना है। स्व॒द्रत्य, क्षेत्र, काल ओर भावरूप होनेकी शक्तिरूप २८२ जैनतत्त्वमार्मांता स्वभाववाला होनेस सत्पना है. ओर परद्रब्य, ज्षेत्र, काल ओर भावरूप नहीं होनेक्की शक्तिरूप स्वभाववाला होनेसे असत्पना हैं तथा अनादिनिधन अविभागी एक बृत्तिर्पस परिणत हानक कारण नित्यपना हैं और क्रमशः प्रवतेमान एक समयवर्ती अनक वृत्यंशरूपस परिणत हानके कारण अनित्यपना है, इसलिए ज्ञानमात्र आत्मवस्तुको स्वीकार करन पर तत-अतत्पना, एक्क- अनकपना, सदसत्पना ओर नित्यानित्यपना स्वयं प्रकाशित होता ही हे । अतएव अनकान्तके विचारके प्रमंगस मोज्षमार्गम निश्चयनय- के विपयका आश्रय करने योग्य मानने पर प्कान्तका दोप केस नहीं आता इसका विचार क्िया। इसके विपरीत जो बन्धु अनकान्तका एक बस्तुके स्वरूपमें घटित न करके भव्य भी ओर अभव्य भा है! इत्यादि रूपसे या कुछ पर्याय अमुक कालमें अमुकरूप हैं ओर कुछ पयरायें तद्धिन्न दूसरे कालमें दूसरे रूप हैं! इत्यादि रूपसे अनेकान्तकों घटित करते हैं उन्हें अनेकान्तको शब्द श्रुतमें वॉयनवाली स्थाद्रादकी अंगभृत सप्रभंगीका यह लक्षण ध्यानमें ल लगा चाहियः-- प्रश्नवशादेकस्मिन बल्तुस्वबरोधेन विधि-प्रतियधकल्पना सप्तरंगी ! प्रश्नके अनुछ्तार एक्र बछुमें प्रमाणसे अविरुद्ध विधि और प्रतिपेधरूप घर्माकी कल्पना सप्रसंगी है । सप्तभंगामें प्रथम संग विधिरूप होता है और दूसरा भंग निपेधरूप होता है । विधि अथान्‌ द्रव्यार्थिक तथा प्रतिपेध्य अर्थात्‌ परयोयाथिक ।) आचाये कुन्दकुन्दने द्रब्याथिककों प्रतिपेधषक और केवलज्ञानस्वभावमीमांसा २८१ व्यवहारकों प्रतिपेध्य इसी अभिप्रायसे लिखा है। जिस इप्टिमें भेदव्यवहार है उसके आश्रयसे वन्ध है ओर जिसमें भेदठ्यवहार का लोप है या अभेदवृत्ति है उसके आश्रयसे वनन्‍्धका अभाव है यह उनके उक्त कथनका तात्पर्य है। .इस प्रकार अनेकान्त और उसे वचनव्यवहारका रूप देनेवाला स्याद्वाद क्‍या है उसकी संक्‍्षेपमें सीसांसा की । केंब्‌लज्ञानस्ब भावमी माँसा दपंणमे ज्यों पड़त है सहज वस्तुका बिम्ब । केवलज्ञान पर्याय त्यों निखिल ज्ञेय प्रतिबिम्ब ॥ अब जो अपरिमित माहात्म्यसे सम्पन्न हे ऐसे केवलज्लान स्वभावकी मीमांसा करते हैं। यह तो हम इन्द्रियोंसे ही जानते हैं कि जिनका सम्बन्ध स्पर्शन इन्द्रियसे होता है उनके स्पर्श ओर हलके-भारीपन आदिका ज्ञान उस इन्द्रियसे होता है। जिनका सस्वन्ध रसना इन्द्रियसे होता है उनके खट्टे -मीठे आदि रसका ज्ञान रसनेन्द्रियसे होता हे, जिनका सम्बन्ध प्राण इन्द्रियसे होता है उनकी सुगन्ध और दुर्गनन्‍्धका ज्ञान ब्राण इन्द्रियसे होता है, जो पदार्थ आँखोंके सामने आते हैँ उनके वण ओर आकार आदिका ज्ञान चन्तु इन्द्रिय द्वारा होता है ओर जिन शब्दोंका सम्बन्ध श्रोत्र इन्द्रियसे होता है उनका ज्ञान इस इन्द्रिय द्वारा होता है। .साथ ही हम यह भी अनुभव करते हैं कि निकटवर्ती या दूखर्ती, अतीतकालीन या भविष्यर्कालीन तथा वर्तमानकालीन स्ट्ट जनतत्वमीमांस 2. जो पदार्थ इत्यंभूत या अनित्य॑मृत मनके विपय होते है उन्हें हम मनसे जानते हैं | इन्द्रियाँ कंबल वतमानकालीन अपने विययोका जानता है जब कि सन बतमानकालान विधयाक साथ अतात आर भविष्यत्कालोच विपषयोका भी जानता हैँ, इसलिए बह अनुमान द्वारा आकाश आदि पद्ाथांका अनत्तताका भा बाब करनेस समसधे होता है। यह कौन नहीं जानता कि आजक वंज्ञानिकोंका ज्ञान इतर लोगोंके समान परात्ष ही दे | फिर भी उन्होंने अपने ज्ञानमें इतना अतिशय उत्पन्त कर लिया है. जिस द्वारा उन्‍होंने अनुमान लगाकर अनेक सूक्ष्म ओर अमृर्त पद्ा्थंक्ते असित्वकी सूचना दी है। आकाशके अन्तित्का और उसकी अनन्तताको भी उन्होंने स्वीकार किया हैं। यह क्या हें? ज्ञानके अपरिमित माहात्स्यक्र सिया इस ओर क्ष्या संज्ञा दी जा सकतों हैं ? जब इन्द्रिय ओर मनसन्वन्धी झानकी यह सासथ्य हे तब सो अतान्द्रिय ज्ञान अपन स्वाभाविक्रहपमों हागा उसकी क्या सामर्थ्य हागी, विचार कीजिय | नि: हू यह तो सब कोई जानते हैं कि ज्ञान जड़का धर्म तो हैँ नहीं, क्योंकि बह किसी भी जड़ पद्मार्थमें दृष्टिगाचर नहीं होता । बह जड़के रासायनिक संबोगोंका भी फल्ल नहीं हैं, क्योंकि जहाँ चतनाका अधिष्ठान होता है वहीं उसकी उपलब्धि होती हैं। विश्वमें अच तक अन्य अनेक प्रकारके प्रयोग हुए। उस प्रयोगों द्वारा अनक प्रकारके चमत्कार भी सामने आये। हाइड्रोजन वम चना, परसागुक्के विस्कोट्की भी बात कही गई ओर अन्तरात्षम एंस बाण छाड़े गये जा प्रथियीकी परिधिकर वाहर गमन करनमें समथ हुए आदि। किन्तु आज तक कोई भी चेंज्ञानिक दावा न कर सका कि मैंने चतसाका निर्माण कर लिया है या 24 केवलज्ञानस्वभावमीमांसा श्ट्ष्‌ चेतनाको पकड़ लिया है । यद्यपि वर्तमान कालमें भोतिकवादियोंके लिए चेतना रहस्थका विपय बना हुआ है। वर्तमान कालमें ही कया अतीत कालसें भी वह इनके लिए रहस्यका विपय रहा है ओर हम तो अपने अन्तःसात्षीस्वरूप अनुभवके आधार पर यह भी कह सकते है कि भविष्य कालमें भी वह इनके लिए रहस्यका विपय बना रहेगा, क्योंकि भोतिक पदार्थिके आलस्वनसे उसे पकड़नेकी जितनी भी चेट्टाएँ की जायेंगी वे सब विफल होंगी । इसमें संदेह नहीं कि अतीत कालमें ऐसे अगणित मनुष्य हो गये हैं जिन्होंने उसका साक्षात्कार किया ओर लोकके सामने ऐसा मार्ग रखा जिस पर चलकर उसका साक्षात्कार किया जा सकता है। किन्तु शुद्ध भीतिकवादी इस पर भरोसा नहीं करते ओर नाना युक्तियों प्रयुक्तियों द्वारा उसके अस्तित्वके खण्डनसें लगे रहते हैं । वे यह नहीं सोचते कि जिस चुद्धिक्े द्वारा वे इसके लोप करनेका प्रयत्न करते हैं. उसका आधारमूत पदाथ ही तो आत्मा है जो शररीरसे प्रथक है। मुद्दा शरीरसे स्चेतन शरीरसें जो अन्तर प्रतीत होता है बह एक मात्र उसीके कारण प्रतीत होता है। यह अन्तर केवल शरीरमेंसे प्राणबायुके निकल जानेके कारण नहीं होता | किन्तु उसके भीतर जो स्थायी तत्त्व निवास करता है उसके निकल जानेके कारण होता है। इससे ज्ञानमय स्वतंत्र द्रृ्यके अस्तित्वकी सिद्धि होती है। इस प्रकार ज्ञानका आश्रयभूत जो स्वतंत्र द्रव्य है. वह आत्मा है और वह शरीर _ आदि भौतिक पदार्थोंसे जुदा है यह ज्ञात हो जाता है। यद्यपि आत्माकी यह स्थिति है तो भी वह अनादिकालसे अपने अज्ञानवश पुठ्ल द्रव्यके साथ संयुक्त होनेके कारण अपने स्वरूपको भूल कर हीन अवस्थाको प्राप्त हो रहा है। किन्तु जब वह अपने प्रयत्न हारा अपनी इस अचस्थाका अन्त कर २८६ जैनतत्वमीमांसा स्वासाविक दशाको प्राप्त होता है तब उसके प्रयायरपल द्ञानम जा न्यूनता आा जाता भी निकल जाता हे आर बह अलोकसहित लाकमें स्थित त्रिकालचती समस्त पदाथाका युनपल आसने लगता है। जानकी इस सामथ्यका निरूपण करते द्राए चर्शगाखण्ड प्रकृति अनुयागद्राग्मं कहा है: सं भव्य उप्यंग्गणाणु्दर्सी संदेतासुस्माणुसत्स लोगस्स झांगदि गदि चबशोवबाद बंध मोकल दर्द ट्विदि जद आअखणुभागं सदई करन माणों माणसिय भु्त कर परटिसविर्द आदि सल्वजीय सच्यभावे सम्म सम जाणदि पर्स्सा > ल्‍ म्मं अस्शका्म सब्यलीण पं आचटकरमा शब्यताए अल त्ति॥८%॥| उत्पन्न हुए केवलज्ञान ओर केचलदशनसे ग्रुक्त भगवान स्यय॑ देवलाक ओर अमरलोकके साथ मनुप्यलाकक्की आगति, गति चयन, उपपाद बनन्‍्ध, माक्त, ऋद्धि, व्थिति, युति, अनुभाग तक, कल, मन, मानसिक, सुक्त, कृत, प्रतिसेधित, आदिकर्म कर, सब लोकों, सत्र जीबों ओर सब्र भावोंको सम्बक्ू प्रकारके युगपन जानते है, देखते हैं. आर विहार करते है ॥ट८स्ता इसी विपयको स्पष्ट करते हुए आचाय छुन्दकुन्द प्रवचनसार में कह ट कः ॒ः 2५१८ न ब्य + परिणमदोीं खल शागुं पच्चकता सच्चदत्यपत्जाया | ॥ शुव ते विजाणशदि उस्गहप्रब्वादि किग्यादि ॥२१॥ केवली भगवान केवलज्ञानरूपस परिणत हाते हैं, इसलिए उनके सब द्रव्य ओर उनकी सब पयाये प्रत्यक्ष हैं। अर्थात अलोक सहित लोकमें स्थित त्रिकालवर्ती ऐसा कोई भी द्रव्य आर उसकी पयायें नहीं हैं जिम्हें वे प्रत्यक्ष नहीं जानते। पर इसका यह अथ नहीं कि थे उन्हें अवग्रह आदि पर्वक होनेयाली क्रियाओंका आलस्बन लेकर जानते हैं ॥२९॥ केवलज्ञानस्वभावमोमांसा २८७ आचाये गरृद्धपिच्छ इस विषयकों स्पष्ट करते हुएं तत्वा्थ सूत्रमें कहते हैं-- सर्वद्रव्यपर्यायेपु केवलस्य ॥१-२६॥ केवलज्ञान सब द्रव्य और उनकी सब पर्योयोंकों जानता है | इसकी व्याख्या करते हुए पृज्यपादस्वामी स्वाथसिद्धिमें कहते हैं । जीवद्रब्याणि तावदनन्तानन्तानि, पुद्ललद्रव्याणि च ततोऊप्यनन्तानि अखुस्कत्धमेदमिन्नानि, धर्माधर्माकाशानि त्रीणि, कालश्चासंख्येयस्तेपां पर्यायाश्च त्रिकालभुवः प्रत्येकमनन्तानन्तास्तेयु | द्रव्यं पर्यायजातं वा न किंचिलेवलज्ञानस्थ. विपयभावमतिक्रान्तमस्ति | अपरिमितमाहा त्यं॑ हि तत्‌ ! जीव द्रव्य अनन्तानन्त हैं, पुद्ठल द्रव्य उनसे भी अनन्तगुणोे हैं, उनके अणु और स्कन्ध ये भेद हैं, धर्म, अधर्म ओर आकाश ये मिलकर तीन हैं और काल असंख्यात हैं। इन सब द्रव्योंकी प्रथक प्रथक तीनों काल्ोंमें होनेवा्ली अनन्तानन्त पयायें हैं । इन सवबमें केवलज्ञानकी प्रवृत्ति होती हे। ऐसा न कोइ द्रव्य है आर न परयोयसमूह है जो केवलज्ञानके विषयके वाहर हो। वह नियमसे अपरिमित माहात्म्यवाला है| केवलज्ञान ऐसी सामथ्यवाला है यह केवल अध्यात्म जगतूमें ही स्वीकार किया गया हो ऐसी बात नहीं है, दाशनिक जगतमें भी इस तथ्यकों स्वीकार किया गया हे। स्वामी समन्तभद्र आप्रमीमांसासें कहते हैं-- ; सूच्रमान्तरितद्रा था; प्रत्यक्षाः कस्यचितद्यथा । अनुमेयत्वतो 5ग्न्यादिरिति सवज्ञसंस्थितिः ॥२)॥ श्ट८ट जैनतत्वमीमांसा परमाणु आदि सूक्ष्म पदार्थ, राम-रावण आदि अन्तरित पदार्थ और स्वर्गलाक तथा सरकलोक आदि दृग्वनों पढाथ किसीक पत्यक्ष हैं, क्योंकि वे अनुमानस जान जात है। जैसे अग्नि | तात्पर्य यह है. कि जो जो अनुमानके विपय होते हैं थे यें किसाीके प्रत्यक्ष ज्ञानक भी बिपय होते हैं। जैसे किसी प्रदेश विशेषमें अग्निका अनुसानकर हस उसे प्रत्यक्षसे उपलब्ध कर लेते हैं उ्मी प्रकार थ सृक्ष्म आदि पदार्थ सी असुमानके व्िपय हानेंसे क्रिसीके प्रत्यज्षके विपय है यह निश्चित होता हैं जो सर्वज्षकी सिद्धि करता है ॥५॥ अलोक सहित त्रिलाकबर्ता ओर त्रिकालवर्ता समस्त पदार्थ केवलज्ञानमें ऐसे ही प्रतिमासित होते हैं जैसे दर्पणके सामने आया हुआ कोई पदार्थ उसमें प्रतिवरिम्बित हाता हे। यद्यपि दर्पण अपने स्थानमें रहता है ओर प्रतिविस्वित दोनेबाला पदार्थ अपने स्थानमें रहता हैं। न तो दर्पण पदार्थमें ज्ञाता हे ओर न पदार्थ दर्पणमें आता है। फिर भी सहज ऐसा निमित्त- नेमित्तिक सम्बन्ध है कि पदाथके दर्पणके सामने आने पर स्वभावसे दर्पशमें वह स्वयं प्रतिविम्बित होने लगता है. । उसी प्रकार केवल- ज्ञानका स्वभाव सब द्रव्यों और उनकी सब पर्यायोंकों जञाननेका है। दर्पणके समान यहां पर भी न तो सब॒॒ पदार्थ केवलज्ञानमें आते हैं और न केवलज्ञान सब पदार्थेमें जाता है । फिर भी पदार्थों ओर केवलज्नलानका ऐसा ज्लेय-ज्ञायकसम्बन्ध है कि इस आत्मामें केवलज्ञानके परयोयरूपसे प्रकट होने पर चह सब पदार्थों ओर उनकी त्रिकालबर्तों पर्योयोंको स्वभावसे जानने लगता है। - यहां प्रश्न होता है कि केवलज्ञान सब पदार्थोकों स्पर्श किये केवलज्ञानस्वभावमीमांसा २८९ विना उन्हें केसे जानता है। समाधान यह है कि केवलज्ञान जानता तो अपनेको ही है परन्तु उसकी प्रत्येक समयकी जो पर्याय होती है वह प्रतिविम्ब युक्त दर्पणके समान सब पदार्थोके आकार ( ग्रतिभासको ) लिए हुए ही होती है, इसलिए प्रत्येक समयमें उस पयोयका ज्ञान होनेसे व्यवहारसे यह कहा जाता है कि केवलज्ञान प्रत्येक समयमें सब द्र॒व्यों और उनकी त्रिकालवर्ती सब पयोयोंका युगपत्‌ जानता है। ज्ञानमें स्वाभाविक ऐसी अपू् सासथ्य है इसका भान तो हम छद्मस्थोंको भी होता है | उदाहरणार्थ चक्षुइन्द्रियकों लीजिए । वह योग्य सन्निकपमें स्थित विविध प्रकारके पदार्थाकों उनके आकार, रूप ओर कोन किस स्थानमें स्थित है इन सब विशेषताओंके साथ देखती है तो क्या चन्नु इन्द्रिय उन पदार्थंके पास जाती है या वे पदाथ अपने अपने स्थानकों छोड़कर चक्षुइन्द्रियके पास आते हैं ? उत्तर स्वरूप यही कहोगे कि नतो चक्षुइन्द्रिय उन पदार्थोक्रे पास जाती है और न बे पदार्थ चह्ुइन्द्रियके पास ही आते हैं। फिर भी वह उन पदार्थोकों जानती है। इससे सिद्ध है कि ज्ञानमात्रका यह स्वभाव है कि वह अपने स्थानमें रहते हुए भी अपनेमें प्रतिभासित होनेवाले सब पदार्थोकों जाने । जब सामान्य ज्ञानकी यह सामथ्य है तव जो केवलज्ञान अशेष प्रतिबन्धक कांरणोंका अभाव होकर प्रगट हुआ है उसमें ऐसी सामथ्य हो इसमें ' आश्वचयकी वात ही कौन सी है । इस पर बहुतसे मनीषी यह शंका करते हैं कि आकाश अनन्त है ओर अतीत तथा अनागत काल भी अनन्त है । ऐसी अवस्थासें केवलज्ञानके छ्वारा यदि उनकी अनन्तताका ज्ञान हो जाता है तो उन सवको अनन्त सानना ठीक नहीं है ? यदि इस प्रश्को और अधिक फेलाया जाय तो यह भी कहा जा ५८ ब २९० जनतत्त्वमीमांसा सकता है कि यदि केवलज्ञान सब द्रव्यों ओर उनकी सब प्योयोंको युगपत्‌ जानता है तो न तो जीव पदार्थ अनन्तानन्त माने जा सकते हैं और न पुदूगल परमाणु ही अनन्तानन्त माने जा सकते हैं। आकाश तथा भूत ओर भविष्यत्काल अनन्त हैं. यह भी नहीं कह जा सकता हैं। इतना ही क्यों बहुतसे मनीपी ऐसा भी प्रश्न करते हुए देखे जाते हैं. कि जब छह ' माह आठ समयमें छ सो आठ जीव मोक्ष जाते हैं तव एक समय ऐसा भी आ सकता हैं जब मोक्षका सार्ग ही बन्द हो जायगा। संसारमें केवल अभव्य जीव ही रह जावेंगे ? यों तो जो अपने छद्मस्थ ज्ञानकी सामथ्यके साथ केवलज्ञानकी सामथ्यकी तुलना कर निष्कर्प निकालनेमें पु हैं ऐसे मनीषियोंके द्वारा इस ग्रकारके प्रश्न पहिले भी उठा करते थे । किन्तु जबसे सब द्वव्योंकी ऋमबद्ध ( ऋमनियमित ) पयोयें होती हैं यह तथ्य प्रमुखरूपसे सवके सामने आया है तबसे ऐसे प्रश्त एक दो बविद्वनोंकी ओरसे भी उपस्थित किए जाने लगे हैं । उनके मनमें यह शल्य है कि केवलज्ञानकों सब द्रव्यों और उनकी सब पयोयोंका ज्ञाता मान लेनेपर सब द्र॒व्योंकी पयोयें क्रमवद्ध सिद्ध - हो जायँगी। किन्तु वे ऐसा नहीं हाने देना चाहते, इसलिए वे केवलज्ञानकी सामथ्यंके ऊपर ही दक्त प्रकारकी शंकाएँ करने लगे हैं। किन्तु वे ऐसे प्रश्न करते हुए यह भूल जाते हैं. कि जैनधर्ममें तत्त्वप्ररूपणाका मुख्य आधार ही केवलज्ञान है। जिस केवलज्ञानके द्वारा जानकर भगवानने यह प्ररूपणा की कि जीव अनन्तानन्त हैं, पुद्रल उनसे भी अनन्तगुणो हैं, धर्म और अधर्म द्रव्य एक एक होकर भी प्रदेशोंकी अपेक्षा असंख्यात हैं, कालाराु भी असंख्यात हैं और आकाश द्रव्य एक होकर भी भ्रदेशोंकी अपेक्षा अनन्त है. । तथा इन सब द्रव्योंके गुण और तीनों कालोंमें केवलज्ञानस्वभावमीमांसा २९१ होनेवालीं पयोयें अनन्तानन्त हैं। आज वही केवलज्ञान शंकाका विपय वनाया जा रहा है ओर यह शंका केवलज्ञानको नहीं साननेवालोंकी ओरसे उठाई जाती हो ऐसा नहीं है । किन्तु जो केवलज्ञानके सद्भावको मानते हैं उनकी ओरसे उठाई जाने लगी है यही आश्चय्यंकी वात है। यद्यपि हस यह मानते हैं कि केचल- ज्ञानकों सब द्रत्यों ओर उनकी सब पयोयोंकों जाननेवाला मानकर भी क्रमबद्ध पयोयोंकी सिद्धि मात्र केवलज्ञाचके आलम्वनसे न करके कार्यकारण परम्पराकों ध्यानमें रखकर की जानी चाहिए । परन्तु केवल पयायोंकी क्रमवद्धता ( क्रमनियमित्तता ) न सिद्ध हो जावे, इसी डरसे केवलज्ञानकी सामथ्यपर ही शंका करना उचित नहीं है, क्योंकि जैसा कि हम पहले लिख आये हैं. कि ' * क्रेवलज्ञान एक दर्पणके समान है । जिस प्रकार द्पणके सामने जितने पदाथ स्थित होते हैं वे सब अखण्डभावसे उसमें प्रति- विम्वित होते हैं | वे वर्तमानमें जेसे हैं बेसे तो प्रतिविम्बित होते ही हैं | साथ ही वे अपनी अतीत ओर अनागत शक्तिकों अपने गर्भमें समाये रहनेके कारण उस सहित प्रतिविम्बित होते हैं । दर्पणका ऐसा स्वभाव ही है कि वह अपने सामने आये हुए पदार्थेके आकारकों ग्रहणकर' तद्रूप परिणम जाय | ठीक यही अबस्था केवलज्ञानकी है। अलोक सहित लोकमें स्थित जितने १. यहाँ 'पदार्थोके झ्राकारको अहरणकर? ऐसा शब्द प्रयोग किया है सो इसका यह भर्थ नहीं करना चाहिये कि पदार्थोका आकार उनसे विलग 'होकर दर्पशामें आआ जाता है और वे पदार्थ अपने आकारको खो बैठते हैं। चस्तुतः पदार्थोका आकार उन्‍्हींमें रहता है, उनसे अलग नहीं होता और इर्पणका आकार दर्पणमें रहता है, पदार्थोके आकारको ग्रहण नहीं करता । फिर भी दर्पणके समक्ष अच्य पदार्थोके आ्रानेपर स्वभावतः उसका भीतरी २९२ जैनतत्वमोर्मासा पदार्थ हैं वे अपनी अपनी वर्तमान पर्यायक्रे साथ उसमें प्रति- भासित तो होते ही हैं। साथ ही वे अतीत ओर अनागत शक्ति समुच्चयकों अपने गर्भसें समाये रहनेके कारण उस सा प्रतिभासित होते हैं। आचाये छुन्दकुन्दने ज्ञानकों झेबगत ओर ज्ेयकों ज्ञानगत कहकर जो उसकी व्यापकता सिद्ध की हैं. सा उसका फारण भी यही हें। इसका यह अथ नहीं कि केवलज्नान अनन्त ज्ेेयोंमें जाता है ओर अनन्त झेंय केबलप्वानमें आते है. । किन्तु इसका यही तात्पय है कि केवलज्ञानकी प्रत्येक समयकी जो पयोय होती हैं बह अखण्ड ज्ञेयरूप प्रतिभासका लिए हुए होती है. ओर ध्षानका स्वभाव जानना होनेके कारण केवलप्लान अपनी उस पर्यायकों समग्रभावसे जानता हैं, इसलिए केंबलज्ञान अपने इस ज्ञान द्वारा त्रिकालवर्ती ओर अलोकसहित त्रिलोकबर्ती समस्त पदार्थोंका ज्ञाता होनेसे सवक्ष संज्ञाका धारण करता है। ज्ञानमें ओर दर्पणमें यही अन्तर है. कि दर्पशमें अन्य पदार्थ प्रतिविम्बित तो होते हैं. परन्तु वह उनको जानता नहीं। किन्तु केबलज्ञानमें अन्य अनन्त पदार्थ अपने अपने त्रिकालबर्ती शक्तिरूप आर व्यक्तरूप आकारोंके साथ प्रतिभासित भी होते हैं ओर वह उनको जानता भी है, इसलिए केवलज्ञानने आकाश- की अनन्तताकों जान लिया या तीनों कालोंकों जान लिया, अतः उनको अनन्त मानना ठीक नहीं यह प्रश्न ही नहीं उठता, क्योंकि जो पदार्थ जिस रूपमें अवस्थित हैं. उसी रूपमें वे अपने परिणमन जैसा भ्रन्य पदार्थोका आकार होता है वैसा हो जाता है, इसलिए उसे ध्यानमें रखकर ऐसा भाषाव्यवहार किया जाता हैं। यद्यपि वह व्यवहार अयथार्थ हैं फिर भी उससे मख्यार्थका बोध हो जाता है, इसलिए ग्राह्म मान गया है । केव लज्ञानस्वभावमीमांसा - २९३ आकारको केवलैज्ञानमें समर्पित करते हैं ओर केवलज्ञान भी उन्हें उसी रूपमें जानता है | पर हसने दपेणका उदाइरण देकर केवलज्ञानके विपयकों स्पष्ट किया है। इस विपयमें आचाये समन्तभद्रके र्तकरणड- आवकाचारका यह सद्शल श्लोक हृष्ठव्य है-- नमः श्रीवर्धभानाव निधू तकलिलात्मने । सालोकानां तिलोकानां यद्दिद्या दर्पणायते ॥१॥ जिन्होंने अपनी आत्मामेंसे कलिलको पूरी तरहसे नट्ट कर दिया है ओर जिनका ज्ञान अलोक सहित तीनों लोकोंके लिए दर्पणके समान है उन्त श्री वर्धभान तीथंकरकों नमस्कार हो ॥१॥ ,.. पुरुपा्थ सिद्धय पायमें मद्ललाचरणके प्रसंगसे इसी तथ्यकों अ्रकट करते हुए अम्नतचन्द्र आचाय भी कहते हे-- जयति परमज्योतिः सम॑ समस्तेरनन्तपयाये: । दर्पणुतल इब सकला प्रतिफलति पदार्थमालिका यत्र ॥?॥ जिसमें दर्षणतलके समान समस्त अनन्त पर्यायोंके साथ पदार्थ समूह युगपत्‌ प्रतिभासित होता है वह केबलज्ञानरूपी परम ' ज्योति जयबन्त होओ ॥१॥ इन दोनों समर्थ आचार्येनि केवलज्ञानके लिए दपणुकी उपमा यों ढो है इसका विशेष व्याख्यान हस पहले कर ही आये हैं। उसका तात्पर्य इतना ही है कि जैसे प्रत्येक पदार्थका आकार पदार्थमें रहते हुए भी दर्पणकी पर्याय स्वयं ऐसे परिणमनकों प्राप्त हो जाती है जैसा कि विवज्षित पदार्थका आकार होता है । बसे ही प्रत्येक समयके उपयोगात्मक केबलज्ञानका यह स्वभाव : है कि वह प्रत्येक समयमें होनेवाली अपनी परयोयके माध्यमसे २९८ *. जैनठल्वमीमांचा सब पदार्थों और उनकी वर्तमान, अतोत और अनांयत परयोगोकों जानता रहे । सच आचार्योने “उग्योगात्मक ज्ञान छेयाकार होता चुद जो कहा है वह इसी अमिप्रायसें कहा हैं ओर वहापर पृत्राक्त दाना आचार्यातन कंत्रल्ञकज्ञानक्ना देपंगकां उपमा दा हू चह भी इसी अमिप्रायस दो दे । ६) कं. (१ केंवलज्ञान हैं ओर वह सच दृठ्यों आर उनको सब पयोयोकां घुगपन प्रतिससय जानता है इसमें सन्देंह नहीं। यदि ऐसा न साना जाय दा वह स्वयं का मी परी तरहसे नहीं जान सकता. क्योंकि एक समयमें क्वलझ्ञानकी जो पयाव होती है वह ही स्तर्य अनन्तानन्त अविमाग प्रतिच्छदोंको लिए हुए ही हाती हें । यतः वह प्रत्यक्त समय अननन्‍्तानन्त अविभाग प्रतिच्छेदरूप अपना प्रत्यक्त समचकी पयोयका पूरी तरूसे जानता है, अतः अनन्ता- तनन्‍्तका ज्ञान उसके बाहर नहीं है. यह सिद्ध हाता हैँ! आर जच अनन्वानन्वका ज्ञान उसके बाहर नहीं हे तव वह लोकमें द्रब्यक्ी अपेज्षा लो अनन्तनान्त हे उनको भी जानता हैं, प्रदेशोंकी अपेक्षा जा अनन्तानन्त हैँ उनका मी जानता है, सच द्रन्योंकी जो अनन्तानन्त पयांयें हैं उनको भी जावता है और सब द्रच्योंके ला अनन्तानन्त गुण है उनका.भी जानता हैं इसमे सन्देहक सिए स्थान नहीं जाता हँ। इसी मावको ध्यानमें रखकर आचाये झुन्दझुन्दने प्रवचन सारमे कहा हैं: को ण विजाण॒दि छुगद अत्वे तिक्कालिग तिहुदसत्ये । छाहु उत्स शु सके सउपलर्य दब्वमंगें वावीध्टा। १. यहाँ केवलतानकी जो अतीत अनागत पर्यावें हैं और वर्तमानमें ज्ञानगुखके सिवा अन्य बुस्खोक्ती जो पर्वायें हैं उबकी विदक्ला न कर बह कथन किया हु तु केवलज्ञानस्वभावमी मांसा २९५ ली हि लोकके # थोक ६, | पर] जो तीन लोकके त्रिकालवर्ता सब पदार्थोकों युगपत्‌ नहीं हर हद 5 जानता वह पयाय सहित एक द्रव्यकों भी नहीं जान सकता ॥४८॥ इस तथ्यकों दूसरे शब्दोंमें प्रकट करते हुए वे आगे दि कहते है. १-- दब्य॑ अगशुंतपजयमेगमणुंताणि दव्बजादाणि | शण्‌ विजाणुदि जदि जुगव॑ किध सो सब्वाणि जाणादि ॥४६॥ यदि चह अनन्त पयोयवाले एक द्रव्यकों तथा अनन्त द्रव्य- रक बह बिक केसे समृहकों एक साथ नहीं जानता है! तो सबको केसे जान सकेगा ॥४३॥ फेवलज्ञानके अनन्तानन्त अविभागग्रतिच्छेद हैं. ओर वे 5 /& ला 8] 3] योंसे छ हक अं उल्लिखित द्रव्यों ओर उनकी सच पय| अनन्तगुरों है. इस 4५ ७ त्रिल ०्ण द्विरखूपवर्ग ० # नह. बातका निदश त्रिल्ञोकसारके द्विरूपवर्गधारा प्रकरणमें किया हैं । वहाँ लिखा हे-- तिविह जहर्णाणुंतं वग्गललादलछिंदी सगादिपदं। जीवो पोग्गल काला सेढी आगास तप्पदरं ॥६६॥ धम्माधम्मागुसलग्ु इगजीवस्सागुरलघुस्स होंति तदो | सुहमाणि अपुएणणाणं अवरे अविभागपडिच्छेदा ॥७०॥ » अवरा खाइयलद्ी बग्गसलागा तदो सगद्धछिदी । अइसगछुपणठ॒रियं तदियं विदियादि मूल च॥७१॥ सइमादिमूलवग्गे केचलमंत॑ पमाणजेद्वमियं | वरखइयलडिणामं सगवग्गसला हवे ठाणुं ॥७२॥ भाव यह है. कि तीन प्रकारकी जधघन्य अनन्तराशि, बर्ग- शलाका आदि उत्पन्न होनेके बाद ऋ्रमसे अनन्त अनन्त स्थान जाने पर जीवराशि, पुद्लराशि, कालके समय, श्रेणिरृप आकाश, श्र्दट जेनतत्वमीमांसा प्रतराकाश, धर्म ओर अधरमद्रव्यके अगुरुलघु अविभागग्रतिच्छेद, एक जीवके अगुरुलघु अविभागग्रतिच्छेद, सूक्ष्म निगोदिया जीवके जघन्य ज्ञानके अविभागप्रतिच्छेद, जघन्य ज्ञायिकलब्बिके अविभाग पग्रतिच्छेदह ओर अन्तमें केवलज्नञानके अविभाग प्रतिच्छेद उत्पन्न होते हैं। यह अनन्तानन्तका उत्कृष्ट प्रमाण है । इससे यह वात ता स्पष्ट हो जाती है कि लोकमें ऐसा कोई पदार्थ नहीं है जो केवलज्ञानके विपयके बाहर है। उसका माहात्म्य अपरिमित है। लोक-अलोकके जितने पदार्थ और उनकी पयोयें हैं उससे भी अनन्तगुणं पदार्थ और उनकी पायें यदि हों तो उन्हें. भी उसमें जाननेकी सामथर्य है । इससे अनन्तानन्त जीव, उनसे भी अनन्तगुणे पुद्नल, कालके समय, आकाशके प्रदेश और इन सचको पर्यायें सान्‍्त हो जाते हैं ऐसा नहीं है । अनन्त शब्दका अर्थ है--जिसका गणवाकी अपेक्षा और कालकी अयेज्ञा कभी अन्त न हो । इसी अमिप्रायक्रो ध्यानमें रखकर तत्त्वार्थवार्तिक (अ० ५, सू० 6) में कहा भी है-- न हि ज्ञातं इत्यस्य अर्थः सान्तम्‌ , अनन्तस्व अनन्तेन शातत्वात्‌ | अनन्तकों जान लिया इसका अर्थ सास्त नहीं है, क्योंकि - न. . १ अलन्तका अनन्तरूपसे ज्ञान होता है। ह _अनादिकालसे संसारक्ा प्रवाह चालू है। पर अभी तक एक निगोद शरीरमें जितनी जीवराशि है उसके अनन्‍्तर्वें भागप्रमाण जीव मोज्ञको नहीं गये हैं। आगे अनन्त कालके बाद भी यदि मोक्ष जानेवाले जीवोंकी गणना की जायगी तब भी ऐसे जीबोंका यही परिमाण रहेगा। इसका उल्लंघन नहीं होंगा। यह हम अच्छी तरहसे जानते हैं कि हम लोगोंके मानसिक ज्ञानमें यह. बात आसानीसे नहीं बैठ सकती पर वस्तुस्थिति यही है इसमें केवलज्ञानस्वभावमीमांसा २९७ सन्देह नहीं। एक निगोद शरीर्मसें इतने जीव हैं. इसका निर्देश करते हुए मूलाचार पर्याप्ति अधिकारमें कहा भी है-- एयशिगोदसरीरे जीवा दबव्बप्पमाणदों दिद्वा | सिद्धेद्दि अणंतगुणा सब्बेण वित्तीदकालेण ॥१६३॥| निगोदिया जीवोंके एक शरीरमें संख्यासे देखे गये जीव सिद्धोंसे और समस्त अतीत कालसे अनन्तगुणे है ॥१६श॥ माना कि केवलज्ञान जाननेवाला है. ओर सकल पदाथ उसके ज्ञेय हैं, इसलिये केवलज्ञानसे जैसा जानते हैं, मात्र इसी कारण पदार्थोका बसा परिशणमन नहीं होता, क्योंकि उनका परिणमन अपनी कार्यकारणपरम्पराके अनुसार होता है । केवलज्ञान आकर उन्हें परिणमाता हो और तब वे परिणमन करते हों यह नहीं है | वह उनके परिणमनमें निमित्त भी नहीं है । परन्तु जो पदार्थ जिस रूपमें अवस्थित हैं और जिन कारणोंसे उनका जब जैसा परिणमन होता है यह उसी प्रकार उन्हें जानता है। इसलिए फलितार्थ रूपमें मैया भगवतीदासजी ने जो यह वचन कहा है-- जो जो देखी बीतराग ने सो सो होसी वीरा रे । अनहोनी कत्रहुं न होसी काहे होत अधीरा रे ॥| सो ठीक ही कहा है । सम्यम्दष्टकी ऐसी ही श्रद्धा होती है | तसी उसके जीवनमें वस्तुस्वभावकी प्रतीतिके साथ केवल- ज्ञानस्तरभावकी प्रतीति दृढ़मूल होकर वह उसके उत्थानमें सहायक चनती है | हमें पर्यायरूपमें ऐसे केवलक्ञानस्वभावकी शीघ्र ही आप्ति होओ यही भावना है । उपादान-लनिं/मिंतर्स॑चद्‌-- [ मैया भगवतीदास जी ] मंगलाचरण पूर्वक उपादन-निमित्तसंबाद कथनकी प्रतिज्ञा-- पाद प्रणमि जिनदेवके एक उक्ति उपजाब | उपादान अरु निमित्त को कहूँ संवाद बनाय ॥१॥॥ जिनेन्द्रदेवक चरणोंकों प्रणाम कर तथा एक अक्तिकों उपजा: कर उपादान ओर निमित्तका संवाद वनाकर कहता हैँ ॥ १॥ प्रश्न | पूछत है कोऊ तहां उपादान किह नाम । कहो निमित्त कहिये कह्य कबके है इह ठामगशा संवादके प्रारम्भसें कोई पूछता है कि उपादान किसका नाम है और बतलाओ निमित्त किसे कहते हैं। ये दोनों इस लोकमें कबके हैं ॥२॥ समाधान उपादान निज शक्ति है जिय को मूल स्वभाव । है निमित्त परवोग तें बन्यो अनादि बनाव ॥३॥ डपादान अपनी शक्तिका नाम है, वह जीवका मूल स्वभाव तथा पर संयोगका नाम निमित्त है। इस दोनोंका यह वनाव अनादिकालसे बन रहा है ॥श॥ उपादान-नि्ित्तसंवाद २९९ निमित्तकी ओरसे प्रश्न निमित्त कहे मोकों सत्रे जानत है जगलोय | तेरो नाव न जान ही उपादान को होय,॥४॥ निमित्त कहता है कि जगके सब लोग मुझे जानते हैं परन्तु उपादान कोन है इस ग्रकार तेरा नाम भी नहीं जानते ॥७॥ उपादानकी ओरसे उत्तर उपादान कहें रे निमित्त तू कहा करे शुमान । मोकों जानें जीव वे जो हैं सम्यकवान ॥५॥ उपादान कहता है हे निमित्त ! तूं क्या गुमान करता है, जो जीव सम्यग्दृष्टि हैं वे मुझे जानते हैं ॥५॥ निर्मित्तकी ओरसे मश्न कहें जीव सव जगत के जो निमित्त सोई होय | उपादानकी बात को पूछे नाहीं कोब ॥६॥ जगतके सब जीव कहते हैं कि जो ( जैसा ) निमित्त होता है वही ( बैसा ही ) कार्य होता है। डपादावकी वातको कोई नहीं पूछता ॥६॥ उपादानकी ओरसे उत्तर उपादान बिन निमित्त तू कर न सके इक काज | कहा भयो जग ना लखे जानत हैं जिनराज ॥७॥ उपादानके बिना हे निमित्त ! तूं एक भी कार्य नहीं कर सकता | इसे जगत नहीं देखता तो क्‍या हुआ, यह सब जिनराज जानते हैं ॥७॥ [ यहाँ पर निमित्तसें कठंत्वका आरोपकर कबिवरने उपादानके ३०७० * जनतखमीमांसा डवारा यह कहलाया है कि उपादानके बिना हे निमित्त ! दूँ एक भी कार्य नहीं कर सकता । ] निमित्तकी ओरसे प्रश्न देव जिनेश्वर गुरु वती अरु जिन आगम सार । इंह निर्मित्त ते जीव सत्र पावत हैं भवपार ॥८।। जिनेश्वर देव, दिगम्वर गुरु ओर उत्कृष्ट जिनागम इन निमित्तों से सब जीव इस लोकमें संसारस पार हाते हैं ॥| ८॥ डपादानकी ओरसे उत्तर यह निर्मित्त इस जीव के मिल्‍यो अ्रनन्तीबार । उपादान पलथ्या नहीं तो भटक्यों संसार ॥६॥ ये निमित्त इस जीवको अनन्तवार मिले हैं. क्रिन्तु उपादान नहों पल्नटा अतः संसारमें मटकता रहा ॥ 6 ॥ सलिमित्तदी ओरसे प्रश्न के केवलि के साथुके निकट भव्य जो होब | सा ज्ञायिक सम्यक लहे यह मिमित्त बल जोय ॥१०॥ था तो केवली भगवानके निकट या साथु ( श्रुवकेवली ) के निकट जो भव्य जीव हाता है बह ज्ञायिक सम्यक्त्वकों प्राप्त करता है, इसे निमित्तका चल जानना चाहिए ॥ १०॥ उपादानकी ओरसे उत्तर केवलि अरु मुनिराज के पास रहे बहु लोच | पै जाको सुलस्यो बनी क्ञायिक ताकों होय ॥।११॥ केवली भगवान्‌ और मुनिराजके पास वहुतसे लोग रहते हैं, उपादान-निमित्तसंवाद ३०१ परन्तु जिसका आत्मा सुलट जाता हे उसे ज्ञायिक सम्यक्त्व होता है ॥ १९॥ निमित्तकी ओरसे प्रश्न हिंसादिक पापन किये जीव नक॑में जाहिं। जो निमित्त नहिं काम को तो इम काहे कहाहिं ॥१२॥ जो निमित्त कायकारी नहीं है तो यह क्‍यों कहा जाता है कि: हिंसादिक पाप करनेसे जीव नरकमें जाते हैं | १५ डपादानकी ओरसे उत्तर हिंसामें उपयोग जहां रहे ब्रह्मके राच | तेई नकमें जात हैं मुनि नहिं जाहिं कदाच |।१३॥ जहाँ आत्माका उपयोग हिंसासें रममाण होता है वही नरकमें जाता है, मुनि ( भावमुनि ) कदापि नरकसें नहीं जाते॥ १३ ॥ निरम्मित्तकी ओरसे प्रश्न दया दान पूजा किये जीव सुखी जग होय | जो निमित्त भझूठों कहो यह क्‍यों माने लोय ॥१४)॥ दया, दान ओर पूजा करनेसे जीव जगमें सुखी होता हें। यदि निमित्तको भ्ूठा कहते हो तो लोग इसे क्यों मानते है ॥१७॥ उपादानकी ओरसे उत्तर दया दान पूजा भली जगत माहिं सुखकार । ; अनुभवकाी आचरण तहं यह बन्ध विचार ॥१५॥। दया, दान और पूजा भली है तथा जगतमें सुखकी करने वाली है । किन्तु जहाँ पर अनुमवका आचरण है वहाँ यह्‌ वन्धरूप है ऐसा जानना चाहिए ॥ १४५ ॥ ३०२ जैनतत्वमीमांसा [ दया, दान और पूजादिरूप रागांश सांसारिक सुखका कारण भले ही हो, परन्तु स्वानुभवरूप आचरणकी हृष्टिमें वह . वन्यका दी कारण है यह उक्त कथनका तात्पय है। ] | 0. निमिक्तकी ओरसे प्रश्न यह तो बात प्रसिद्ध है सोच देख उर मांहि । नरदेहीके निमित्त विन जिय गरक्ति न जांहि ॥१5॥ यह बात प्रसिद्ध है कि मनुष्य देहके सिमित्त विता जीव मुक्तिको नहीं ग्राप्त होता सो क्‍यों ? इसे तूँ ( उपादान ) अपने सनमें विचार कर देख ॥ १६ ॥ डउपादानकी ओरसे उत्तर देह पीजरा जीवको रोके शिवपुर जात। उपादानकी शक्ति सों मुक्ति होत रे श्रात ॥१७॥। 3 हे भाई ! देहरूपी पिंजय जीवको शिवपुर जानेसे रोकता है! सात्र उपादानकां शाक्तेस सांक्ष दाता हैं ॥९जा निमित्तकी ओरसे प्रश्न हि उपादान सव जीव में रोकनहारों कौन । जाते क्यों नहिं म॒क्तिमें त्रिन निमित्तके होंन ॥६८॥ डपादाल स्का ३ 3०७० झेरे ०० ध्जे> डउपादान तो सब जीवोमें है, उन्हें रोफनेचाला कोन है १ सब १. देह पिजरा जीवकी रोकता है बह व्यवहार कथन है । आशय यह हैं कि जीव शरीरकी ओर भुक्काव करके शरीरममत्व द्वारा स्वयं विकारमें इक जाता हैँ तब देहपिजरण जोवकों रोकता है ऐसा उपचारसे कहा. जाता हू । उपादान-निमित्तसंवाद ३०३ 'विना निमित्तके मुक्ति होती है तो फिर वे मोक्षमें क्‍यों नहीं जाते ॥१०॥ उपादानकी ओरसे उत्तर उपादान सु अनादिको उलट रह्ों जगमाहिं | सुलग्त ही सूधे चलें सिद्धलोकको जांहि ॥१६॥ जगतमें उपादान अनादिकालसे उल्टा हो रहा है, उसके सुलटते ही बह सीधे ( सच्चे ) मार्गपर चलने लगता है ओर सिद्धलोककों जाता है ॥१९॥ . - | निरम्मित्तकी ओरसे प्रश्न - कहुँ अनादि बिन निमित्त ही उलट रह्ों उपयोग । ऐसी बात न संभव उपादान ! तुम जोग ॥२०॥ अनादिकालसे कहीं बिना निमित्तके ही उपयोग डल्टा होर हा है? ऐसी वात हे उपादान ! तुम्हारे लिए थोग्य नहीं है ॥२०॥ डपादानकी ओरसे उत्तर उपादान कहै रे निमित्त ! हम पे कही न जाय । ऐसी ही जिन केवली देखे त्रिभुवन राय ॥२१॥ उपादान कहता है हे निमित्त ! वह वात मेरी कही हुई नहीं है । तीन लोकके स्वामी केवली जिनेन्‍्द्रने इसी प्रकार देखा है ॥२१॥ निमित्तकी ओरसे प्रश्न जो देख्यो भगवानने सो ही सांचो आहिं। हम ठुम संग अनादिके बली कहोगे कांहि ॥रशा जो भगवानने देखा है वही सच है। किन्तु हमारा और उपादान-निमित्तसंवाद ३०५ निमित्तकी ओरसे प्रश्न सूर सोम मणि अग्नि के निमित्त लखें ये नेन । अंधकार में कित गयो उपादान हृग दैन ॥२६॥ य॑ लंत्र सूय चन्द्रमा, साण आर अग्निके नामित्तस देखते । याँद बिना निमित्तके दखा जा सकता हे ता द्ॉर्ट्र ग्रदान करनंवाला उपादान अन्धकारस कहा चला जाता है ॥२६॥ > उपादानकी ओरसे उत्तर सूर सोम मणि अग्नि जो करे अनेक प्रकाश | . नैमशक्ति बिन ना लखें अंधकार सम भास ॥२७छा। हि सूर्य, चन्द्रमा, मरिि ओर अग्नि अनेकप्रकारका प्रकाश करते है तथापि देंखनेकी शक्तिके बिना दिखलाई नहीं देता, सब अन्धकारके समान भासित होता है ॥ २७॥ निमित्तकी ओरसे प्रश्न कहे निमित्त वे जीव को मो विन जयके माहिं। सबे हमारे वश परे हम विन मुक्ति न जाहिं ॥रद॥ निमित्त कहता है कि जगतसें ऐसे कोन जीव है जो मेरे विना हों ? सब जोब हसारे वश पड़े हुए हैं । मेरे बिना मोक्ष भी हीं जाते ॥ २८ ॥ उपादानकी ओरसे उत्तर उपादान कहे रे निमित्त | ऐसे बोल न बोल | तोको तज निज भजत है ते ही करें किलोल ॥२६॥ उपादान कहता है कि हे निमित्त ! ऐसी वाणी मत बोल । ज। तुमे त्यागकर अपने आत्माक्ा भजन करते हैं वे हो किलाल करते ह--अनन्‍्त सुखका साग करते ह्‌ ॥ २७॥ र० ३०६ जैनतत्त्वमीमांसा निमित्त की ओरसे प्रश्न कहे निरमिस हमको तर्ज ते केसे शिव जात । पंच मद्दाव्रत प्रगठ है ओर ह क्रिया विख्यात ॥३०॥| निमित्त कहता है कि जो हमारा त्याग कर देते ह थे मोक्ष केसे जा सकते है. ! मुक्तिके लिए तिमित्तरूपसे पाँच महातन्नत्त , तो प्रगट है ही ओर दूसरी क्रियायें भी प्रसिद्ध है ॥३०॥ उपादानको ओोरसे उत्तर पंच महात्रत जोंग चय ओर सकल व्यवह्यार | परको निमित्त खपायके तब पहुंचे भव पार ॥३ १॥| पाँच महात्रत, तीन योग ओर सकल व्यवहाररूप जो पर- निमित्त हैँ उसे खपा करके ही यह जीव संसारसे पार हाता है ॥ ११॥ [ यहां पर पाँच सहात्रत आदिरूप वाह्य व्यापारस चित्त हटाकर अन्तच््टि होना ही निमित्तोंकी खपा देना है । ] निरभित्तकी ओरसे प्रश्न कहे निमित्त जगमें बड़यों मोते बड़ो न कोय | तीन लोक के नाथ सच मो प्रसाद तें होय ॥३२॥ निमित्त कहता है कि जगतमें में बड़ा हूँ, मुझसे बड़ा कोई | >्या को, कक [कप अत हद ३ नहीं है, जो जो तीन लोकके नाथ होते हैं वे सब मेरे प्रसादसे होते हैं ॥३श॥ उपादानकी ओरसे उत्तर उपादान कहे तू कहा चह गतिमें ले जाय तोप्रसाद तें जीव सब दुःखी होहिं रे न्प्छ उपादान-निमित्तसंवाद ०७ ४७ उपादान कहता है कि लेजाता है। हे भाई | ते हैं ॥३३॥ [निमित्ताधीन दृष्टि होनेसे यह जीव चारों गतियोंमें परिभ्रमण करता हैं ओर अनन्त दुश्खोंका पात्र होता है यह दिखलानेके लिए यहां पर ये कार्य व्यवहारनयसे निमित्तके कहे गये हैं] तूँ कोन ? तूं ही तो चारों गतियोंमें रे ही प्रसादसे सब जीव दुखी होते निमित्तकी ओरसे प्रश्न कहे निमित्त जो दुख सहै सो तुम हमदि लगाय | सुखी कोन तें हात है ताको देह बताय ॥३४।| निमित्त कहता है कि जीव जों दुख सहता है उसका दोष तुम हमी पर लगाते हों | किन्तु किस कारणुसे जीव सुखी होता है उस कारणकों भी तो वतलाओ ॥३४॥ उपादानकी ओरसे उत्तर जो सुख को तू सुख कहे सो सुख तो सुख नाहिं | ये सुख दुख के मूल हैं सुख अविनाशी माहिं ॥३२४॥॥ जिस सुखको तूं सुख कहता है वह सुख सुख नहीं है। ये सांसारिक सुख ठुखके मूल ( कारण ) हैं। सच्चा सुख अविनाशी आत्माके भीतर हैं ॥३४॥ निमित्तकी ओरसे प्रश्न ८ ३४ अविनाशी घट घट बसे सुख्व॒ क्यों विलसत नाहिं। शुभ निमित्त के योग विन परे परे विललाहिं ॥३६॥ अविनाशी आत्मा घट-घटमें निवास करता है फिर सुख अकाशमें क्‍यों नहीं आता | शुभ निमित्तका योग न मिलनेसे परे परे विललाते हैं अथात्‌ दुखी होते हैं ॥३६॥ ३०८ जैनतत्त्वमीमांसा उपादानकी ओरसे उत्तर शुभ निमिच्त इस जीव को मिल्या कंइ भवसार . पे इक सम्बन्दश विन मव्कत फिज्मा न्‍्वा गंवार ॥३७॥ इस जीवको शुभ निमित्त कई भवोंमें मिले, परन्तु एक सम्यग्दर्शनके विना यह मुख हुआ भटक रहा हैं ॥३७॥ निमित्तको ओरसे प्रश्न सम्यग्दर्श भये कहा त्वरित मुक्ति में जाहिं आगे ध्यान निमित्त है ते शिव को पहुँचाहिं सम्यग्दशन हाोनेसे क्‍या जीव शाीत्र ही मोक्षमें चले जाते हैं ? आगे भी ध्यान निमित्त सांक्षम पहुचाता है ॥३८॥ डपादानकी ओरसे उत्तर छोर ध्यान की धारणा मोर योग की रीत | तोरि कम के जाल को जोर कल्द शिच प्रीत ॥६६॥। जो जीव ध्यानकी धारणाको छोड़कर ओर योंगकी परिपाटी (७ 960. ० 4 पैर: मई है. , १ 4 का को मोडकर कमके जालको तोड़ देते हैं थे मोक्षसे प्रीति जोड़ते रे के हक जा हैं अथात मोक्ष जाते है ॥३९॥ लक निमित्तकी हारमें डपादानकी जीत तब निमितत हार्या तहाँअब नर्हिं जोर बसाय | उपादान शिवलाक में पहुँच्यो कर्म खपाय [४०॥ तय चहाँ निमित्त हार जाता है। अब उसका कुछ जोर नहीं चलता । आर उपादान कसा का क्यकर शिवल्रॉकम पहच जाता हैं ॥४०॥ उपादान-निमित्तसंवाद ३०९ - उपादान जीत्यो तहां निज बल कर परकास। सुख अनन्त ध्रव भोगवे अंत न वरन्यो तास ॥४१॥ उस अथस्थाके होनेपर अपने बल (वीय ) का प्रकाश कर उपादान जीत जाता है ओर उस अनन्त शाश्वत सुखका भोग करता है जिसका अन्त नहीं कहा गया है ॥७१॥ अन्तिम निष्कर्प उपादान अरु निमित्त ये सत्र जीवन पे बीर | जो निज शक्ति संभार ही सो पहुँचे भवतीर ॥४२॥ डपादान और निमित्त ये सभी जीवोंके हैं, किन्तु जो वीर (कप शक्तिकी बे ०. रे 0 अपनी शक्तिकी सम्हाल करते हैं वे संसारसे पार होते हैं।।2२॥ डपादानकी महिमा जिया” महिमा ब्रह्म की केसे वरनी जाय । बचन अगोचर वस्तु हे कहि वो वचन बताय ॥४३॥ हे भाई ! ब्रह्म ( आत्मा ) की सहिमाका कैसे वर्णन किया ' ज्ै 54% मे जाय ९ बचन-अगोचर वस्तु है, उसको वचन वनाकर कही है ॥४१॥ संवादका फल उपादान अरू निमित्त को सरस बन्यों संवाद । समहृष्टि को सरल है मुरख को वकवाद ॥४४॥ डउपादान और निमित्तका यह सरस संवाद वना हैे। यह े ( 2: 4 सम्यग्दष्टिके लिए सरल है । परन्तु मूख ( अज्ञानी ) के लिए वकवाद प्रतीत होगा ॥४४७॥ १, "भैया यह कविवरकों स्वयंकी उपाधि है। वे इस दोहेमें अपनेको "सम्बोधित करके कह रहे हैं । ३१३ जेनतत्त्वमीमांसा संवादकी प्रामाशिकताका निर्देश जो जाने गुण ब्रद्य के सो जानें यद भेद | साख सिनागमसी मिले तो मत कीज्यो स्वद ॥४०॥ जो ब्रह्मके गुणोंका जानता हैं. वही इसके रहस्वका जानता है। इस (संवाद ) को साक्षी जिनागमससे मिलती हैं. इसलिए खेद नहीं करना ॥४४॥ ग्रन्थकर्ताका नाम ओर स्थान सगर आगरा श्रत्न है जेनी जन को वास ] तिद थानक रचना करी भेंबा? त्वमनि प्रकाश ॥४द॥ आगरा नगर मुख्य हैं। वहाँ जेंनी लोगोंका निवास है । 'उस स्थानमें भेया भगवतीदासने अपनी सतिके प्रकाशके अनुसार यह रचना की है ॥४६॥ रचनाकाल संबत्‌ विक्रम भूप को सत्तरहने पंचास | फाल्गुन पहले पक्ष में दशों दिशा परकाश ॥४७॥ विक्रम सम्बत्‌ १७४५० के फाल्गुन सासके प्रथम पत्तमें दशों दिशामें प्रकाशके अथ इस संवादकी रचना की गई हैं ॥2७॥ कविवर भेया भगवततीदासने उपादान ओर निमित्तका यह संवाद लिखा है। यह केवल संवाद ही नहीं है । किन्तु इसमें उन्होंने विवेचनका जो क्रम रखा है उससे प्रतीत होता है कि संसारी जीवके मोक्षसार्गके सन्मुख होनेपर उसके मंनसे निमित्तका विकल्प किस प्रकार हटकर उपादानका जोर बढ जाता है। उनके विवेचनकी खूबी यह है कि वाह्ममें कहाँ किस अवस्थाके उपादान-नि्ित्तसंवाद ३११ होनेमें कोन निमित्त है इसे भी थे वतलाते जाते हैं और साथ ही वे यह भी बतलाते जाते हैं. कि उपादानकी तैयारी बिना तदनुरूप अन्तरद्भः अवस्थाका प्रकाश होना त्रिकालमें भी सम्भव नहीं है, इसलिए जो उपादानकी तैयारी हे वही उस अवस्थाके प्रकाशका मुख्य हेतु है। यदि उपादानकी वैसी तैयारी न हो तो उस अवस्थाके अनुरूप निमित्त भी नहीं मिलते, इसलिए कारये सिद्धिमें मुख्य प्रयोजक उपादानकों ही समझना चाहिये। सम्यग्दष्टि जीवबको इस सत्यका दर्शन होजाता है, इसलिए वह अपने अन्तरंगकी तेयारीको ही कार्यका प्रयोजक मानकर उसीकी उपासनामें दृढ़ प्रतीक्ष होता है। वह निमित्तोंके मिलानेकी फिक्रको छोड़ देता है। निमित्त पर हैं उनसेंसे कब कोन पदार्थ किस कारयके होनेमें निमित्त होनेवाला है यह साधारणतया छद्यस्थके ज्ञानके बाहर है, क्‍योंकि जो पदार्थ लोकमें लघु माने जाते हैं थे भी कभी कभी उत्तम कार्यके होनेमें निमित्त होते हुए देखे जाते हैं। साथ ही जो पदार्थ लोकमें अमुक कायके होनेमें निमित्त रूपसे कल्पित किये गये हैं उनके सद्भावमें वह काय होता ही है निर्णय करना भी सम्भव नहीं हे । इस प्रकार जहाँ निमित्तोंके विपयमें यह स्थिति है वहाँ उपादानके विषयमें ऐसा नहीं कहा जा सकता, क्योंकि जिस उपादानसे जो कार होता है वह निश्चित है। इसलिये जो मोक्षमार्गके इच्छुक प्राणी हैं उन्हें निमित्त मिलानेकी फिक्र छोड़कर अपने उपादानकी सम्हालकी ओर ही ध्यान देना चाहिए । उसकी सम्हाल हानेपर निमित्तोकों सम्हाल अपने आप हो जाती है | उनके लिए अलगसे प्रयत्न नहीं करना पड़ता | उदाहरणाथ मान लो एक आइमीको शव देखनेसे वैराग्य धारण करनेकी इच्छा हुई, दूसरे आदमीकों अपना सफेद केश , देखनेसे: बैराग्यकों धारण करनेकी इच्छा हुई, तीसरे आदमीको ३१२ जैनतत्त्वमीमांता प्ररकी कलहसे ऊबकर बेराग्यकों धारण करनेकी 8 ओर चौथे आदमीकों दूसरेके बमव देखनेसे बेराग्यको धारण करने की इच्छा हुई | अब यहाँपर विचार कीजिये कि ये सब वराग्यको धारण करनेकी इच्छाके अलग अलग निमित्त होते हुए भी इनमेंसे किस निमित्तका बुद्धियूर्व॑क मिलाया गया है । यहाँ यही तो कहा जायगा कि उन मनुष्योंके वेराग्यके योग्य भीतरकी तैयारी थी, इसलिये वैसी इच्छा होनेमें ये निमित्त होगये ओर सढटि उस योग्य भीतरकी तेयारी न होती ता ये होते हुए भी निमित्त नहीं होते। ड्दा हरणार्थ--कोई सनुष्य वाह्मरूपस मुानालज्भका स्‍्राकार करता हे पर उसके भावलिद्ड नहीं हांता। इसके विपरीत काइ मनुष्य जिस कालम भावजिद्धका स्वीकार करता ह ड्स 6 थ्य प कालमें उसके द्रव्यलिड्रा होता ही हैँ। इससे स्पष्ट है कि उपादानके साथ कार्यकी व्याप्ति हैँ निमित्तके साथ नहीं। इसलिए इससे यही तो निष्कर्प निकला कि कार्यक्री सिद्धिमें जैसा उपादानका नियम हे वेसा निमित्तका कोई नियम नहीं है. ओर जो जिसका नियामक नहीं वह उसका साथक नहीं माना जाता | अत्तण्व कार्य अपने योग्य उपादानसे ही होता है यही निर्णय करना चाहिए। सम्यम्दष्टिका यही भाव रहता है, इसलिए वह संसारसे पार हो जाता है ओर मिथ्यादह्ृष्टि निमित्तोंकी _ डठाधरीमें लगा रहता है इसलिए बह संसारमें गोते लगाता रहता है | यही कारण है. कि सम्यग्टटि जीव निमित्तोंकी उठाघरी- की फिक्रसे मुक्त होकर एकमात्र अपने उपादानकी सस्हाल करता हैं यह उक्त कथनका तात्पय है। जिस प्रकार पश्डित प्रबर भेया भगवतीदासजी ने इस अन्तरंग रहस्यको प्रकाशमें लानेके लिए. शट उपादान-निमित्तसंवाद ३१३ सवाद लखा हू उसा प्रकार पश्डितप्रवर वनारसांदासजाने भी इस तवंपयका सांमासा करते हुए सात दोहे लिख हू जा इस प्रकार है ४ | [ परिडित प्रवर वनारसीदासजी ] निमित्तकी ओरसे अपना समथन गुरु उपदेश निर्मित्त विन उपादान वलहीन । ज्यों नर दूजे पांव बिन चलवे को आधीन ॥१॥ हो जाने था एक ही उपादान सों काज | थके सहाई पीन ब्रिन पानी मांहि जहाज ॥२॥ जैसे आदमी दूसरे पेरके विना चलनेके लिए पराधीन है उसी प्रकार गुरुके उपदेशके बिना उपादान भी वलहीन है ॥१॥ अकेले उपादानसे ही काय हां जाना चाहिए था ( परन्तु देखनेमें तो ऐसा आता है कि ) पानीमें पवरनकी सहायताके विता जहाज थक जाता है ॥२॥ डपादानकी ओरसे उत्तर ज्ञान नेन किरिया चरण दोऊ शिवमग धार । डउपादान निश्चय जहां तहां निमित्त व्यवहार ॥३।॥ सम्यरज्ञान रूपी नेत्र ओर सम्यक्चारित्र रूपी पग ये दोनों मिलकर सोक्षमागंकों धारण- करते हें। जहां डपादानस्वरूप निश्चय सोक्षमार्ग होता है वहां निमित्तस्वरूप व्यवहार मोक्षमार्गं होता ही है ॥श॥ - उक्त तथ्यका पुर: समर्थन उपादान निजगुण जहां तहं निमित्त. पर होय | भेदज्ञान परमाणविधि विरला बूके कोय ॥४॥॥ ३१४ जेनतत्त्वमीमांसा जहाँ पर उपादानस्वरूप आत्मगुण होता है वहाँ परपदाथे निमित्त तत स्वतः होता हैं। यह भेदज्ञानरूप प्रमाणकी विधि हैँ। . इसे कोई विरला ( भेदक्षानी ) जीव ही जानता है ॥8॥ &, 9] [ निश्चयनय केवल उपादानकों स्वीकार करता हैं. ओर व्यवह्रसय निमित्तकों स्वीकार करता है । किन्तु प्रमाण दोनोंकों स्वीकार करता है सो उसका तात्पर्य यह है कि जहाँ पर. उपादान कार्यरूप परिणत होता है वहाँ पर परपदार्थ, स्वयमेव निमित्त होता है। उसे ज्ुटाना नहीं पड़ता । ] काका विवेक उपादान चल जहं तह नहिं. निमित्त को दाव । एक चक्र सो रथ चले रविको यहेँ स्वमाव ॥५॥ जहाँ तहाँ उपादानका वल है । निमित्तका दाव नहीं लगता, क्योंकि सूयका यही स्वभाव है कि उसका रथ एक चक्रसे चलता है॥ ५॥ [ थहाँ उक्त कथन द्वारा यह दिखलाया गया है कि उपादान स्वयं कार्यरूप होता है। कार्यरूप होनेमें निमित्तको कोई स्थान नहीं । वह कार्यके होनेमें निमित्त है इतने मात्रसे यह नहीं कहा जा सकता कि उससे कार्य होता है, क्योंकि ऐसा मानने पर चस्तु व्यवस्थाका कोइ नियासक नहों रह जाता | ] सभ्रे वस्तु असहाय जहां तहां निमित्त है कौन । ज्यों जहाज परवाह में तिरे सहज बिन पौन ॥६॥ जिस भ्रकार पानीके प्रवाहमें जहाज बिना पवनके सहज चलता है उसी प्रकार जहाँ प्रत्येक कार्यकी दसरेकी सहायताके उपादान-निमित्तसं वाद ३१५ विना सिद्धि होती है वहाँ निमित्त कोन होता हैं ॥६॥ [ यहाँपर वस्तुका असहाय स्वभाव वतलाया गया है । उत्पाद आर व्यय यह पानीका प्रवाह है तथा वस्तु यह जहाज है | जिस प्रकार पानीके प्रवाहमें जहाज स्वभावसे गसन करता है उसी प्रकार वस्तु अपनी योग्यतासे सहशपने ध्रव रहकर उत्पाद-व्ययरूप प्रवाहमें बहती है । अन्यको सहायता मिले तो यह परिणमन हो आर अन्यकी सहायता न मिले तो परिणमन न हो ऐसा नहीं है | इसलिए वस्तुस्वभावकी इृष्टिसे प्रत्येक परिणमन स्वभावसे ही होता है। ऐसा समभझना चाहिए। ] उपादान विधि निरबचन है निमिच उपदेश । क्से जु जेंसे देश में घरे सु तेसे भेष ॥७॥ उपादान विधि निर्बेचन है और निमित्त कथन मात्र है। जो जैसे देशमें ( जिस अचस्थामें ) निवास करता है ( रहता है ) ' बह उसी भेपकों ( उसी अवस्थाकों ) स्वयं घारण करता है ॥ज। --4४888$---